अवन्तिकापुरी (उज्जैन) में दीनबन्धुदास नामके एक उत्तम कुलके ब्राह्मण रहते थे। घरमें उनकी स्त्री, दो पुत्र तथा बड़े पुत्रकी स्त्री- इस प्रकार पाँच व्यक्ति थे। पाँचों ही धर्मपरायण, भगवान्के भक्त, विचारशील और तपस्वी थे। दूसरोंको सुख पहुँचानेके लिये उनमेंसे प्रत्येक सदा तत्पर रहता था। भगवान्की कथा, हरिकीर्तन, संत-सेवा और अतिथि सत्कारपर इनका बड़ा प्रेम था 'गृहस्थका प्रधान धर्म है अतिथि सेवा यदि गृहस्थके घरसे अतिथि निराश लौट जाता है तो वह अपने सब पाप वहीं छोड़ जाता है।' इन शास्त्र - वाक्योंपर इनकीदृढ़ निष्ठा थी। अतिथिको मधुर वचन, जल तथा उपलब्ध सामग्रीसे सन्तुष्ट करनेमें ये सदा तत्पर रहते थे। जब कोई भक्त भगवान्को पानेके लिये व्याकुल होता है, तब भगवान् भी उसे दर्शन देनेको व्याकुल हो उठते हैं। दीनबन्धुदास अपनी धर्मपरायणा अतिथि- सेवा तथा भक्तिसे अब अधिकारी हो गये थे दीनबन्धुका दर्शन पानेके। भगवान् उनको कृतार्थ करने एक संन्यासीके वेषमें अवन्ती पधारे।
दीनबन्धुदासके बड़े पुत्रको एक विषधर सर्पने काट लिया । सर्पके काटते ही वह गिरा और उसके प्राणपरधाम चले गये। पिता-माताके दुःखका पार नहीं। छोटा भाई अलग नेत्रोंसे आँसू बहा रहा है। पत्नी बेचारीका तो सर्वस्व ही लुट गया। दुःखी परिवारको रोनेका भी अवकाश नहीं मिला। इसी समय द्वारपर पहुँचकर उन संन्यासी महाराजने पुकार लगायी 'नारायण हरि
दीनबन्धुदासने शीघ्रतासे नेत्र पौधे द्वारपर आकर देखा कि एक अद्भुत तेजस्वी वृद्ध संन्यासी खड़े हैं। उनके चरणोंमें प्रणाम किया। उन संतने कहा कि मैं बहुत भूखा हूँ।' उन्हें आसनपर बैठाकर दीनबन्धुदास घरमें आकर बोले-'देखो बाहर एक भूखे संन्यासी भिक्षाके लिये बैठे हैं और यहाँ यह पुत्रका मृतदेह पड़ा है। अब हमलोग क्या करें?'
पत्नी, छोटे पुत्र और विधवा पुत्रवधूने कहा-'मरा प्राणी तो अब लौट नहीं सकता। अतिथि भूखे लौट जायें, यह तो बड़ा अपराध होगा। पहले अतिथि सत्कार होना चाहिये। मृत देहका दाह संस्कार पीछे होगा।"
मृत देहको कपड़े में लपेटकर एक कमरे में बंद कर दिया गया। सास-बहूने मिलकर भोजन बनाया। अतिथि भोजन करनेको बुलाये गये संन्यासी महाराजने आते ही कहा- 'मेरा नियम है कि जिस घरमें मैं भोजन करता हूँ, उस घरके सब लोग मेरे साथ ही बैठकर भोजन करें; तभी मैं भोजन करूँगा। तुमलोग भी मेरे साथ बैठकर भोजन करो, नहीं तो मैं भोजन नहीं करूँगा।'
यह बात सुनकर सब विचारमें पड़ गये, एक दूसरेकी ओर देखने लगे। फिर सबने सोचा- 'भोजन आज न सही, कल तो करना ही है। बिना भोजनके तो रहा नहीं जा सकता। आज अतिथिको लौटाना उचित नहीं होगा।' चार थालियाँ और लग गयीं। चारों भोजन करने बैठ गये। संन्यासीजीने कहा- 'मैंने तो सुना था कि तुम्हारे दो पुत्र हैं, तुम्हारे परिवारमें पाँच व्यक्ति हैं। तुम्हारा एक लड़का कहाँ है? उसे बुलाओ उसके आनेपर हो मैं भोजन करूँगा।'
दीनबन्धुदासके नेत्रोंमें आँसू भर आये। संन्यासीके बार-बार पूछने पर उन्होंने सब बातें बता दीं। संन्यासी बाबाने स्वयं वह लाश बाहर मँगाकर देखी और तब कृत्रिम रोपसे बोले - 'दीनबन्धु ! तू तो बड़ा निर्दय है।तुझे ज्ञानी कौन कहता है। पुत्रकी लाश घरमें पड़ी रहे और पिता भोजन करने आनन्दपूर्वक बैठ जाय। ऐसे पापी निठुर पिताको क्या कहा जाय?"
दीनबन्धुदासने नम्रतासे कहा- ' महाराज! आप तो ज्ञानी हैं। आप ही बताइये कि इस संसारमें कौन किसका पिता है और कौन किसका पुत्र। यह तो एक धर्मशाला है। जगह-जगहके यात्री आकर ठहरते हैं। कोई कुछ आगे जाता है, कोई कुछ पीछे। सभीको एक दिन मरना हैं। मेरे पुत्रके जीवनके दिन पूरे हो गये, अतः वह चला गया। हमलोगों के दिन पूरे होंगे, तब हम भी चले जायेंगे। शोक करना तो व्यर्थ ही है। इतनेपर भी, व्यवहारको दृष्टिसे हमारा भोजन करने बैठना अनुचित था; किंतु आप हमारे अतिथि हैं, हमारे लिये साक्षात् नारायण हैं। आपको भूखे लौटा देना हमने अधर्म समझकर ही ऐसा किया। आप हमें क्षमा करें।'
संन्यासीकी मनमें तो संतुष्ट हुए, पर ऊपरसे बोले कुछ नहीं। वे दीनबन्धुदासकी स्त्री मालतीसे कहने लगे- 'तू कैसी माता है! पुत्रके मरणका तुझे शोक नहीं हुआ? तेरा हृदय कितना कठोर है।'
मालतीने नम्रतापूर्वक कहा प्रभो! आपसे भला मैं क्या कह सकती हूँ। जबतक पुत्र जीवित था, तबतक मैं उसे हृदयके टुकड़ेके समान प्यार करती थी; किंतु अब तो यह मेरा कोई नहीं है। जीवसे तो किसीका कोई सम्बन्ध होता नहीं, सम्बन्ध होता है शरीरके कारण। शरीर नाशवान् है। जो जनमेगा, वह अवश्य मरेगा। फिर उसके लिये शोक क्यों किया जाय। रातको एक वृक्षपर बहुत-से पक्षी एकत्र होते हैं और सबेरा होते ही जहाँ वहाँ उड़ जाते हैं। ऐसे ही प्राणी भी संसारमें प्रारब्धवरा | कुछ कालके लिये एकत्र होते हैं। यहाँका सम्बन्ध तो मायाका खेल है।'
अब संन्यासीजीने दीनबन्धुके छोटे पुत्रसे कहा-'तुम्हारे मनमें तो बड़ी कुभावना जान पड़ती है। बड़े भाईके मरनेपर भी तुम्हें शोक नहीं हुआ! संसारमें सभी स्वार्थके सगे हैं तू तो निर्दय, मूर्ख और पापी जान पड़ता है।'
बालकने हाथ जोड़कर कहा - 'स्वामिन्! मैं छोटा बच्चा भला, आपको क्या उत्तर दे सकता हूँ। आप चाहेजो दोष मुझपर लगायें; पर क्या आप बता सकते हैं कि संसारका सम्बन्ध सच्चा है। पता नहीं कितनी बार कितने जन्मोंमें कौन किसका भाई, पुत्र, पिता, मित्र या शत्रु बना होगा। जन्मसे पहले किसीका किसीसे कोई नाता नहीं था। मरनेपर भी कोई नाता नहीं रहता। बीचमें थोड़ा सा सम्बन्ध रहता है, पर मृत्यु होनेपर वह भी समाप्त हो जाता है। यह तो एक बाजार है। सब व्यापारी इस हाटमें अपना-अपना माल बेचने आये हैं। जिसका माल जब बिक जाता है, वह तभी चला जाता है। इसमें शोक करनेकी क्या बात है।'
संन्यासीने अब मृत पुरुषकी विधवा स्त्रीको पास बुलाकर कहा- 'बेटी! तेरा बर्ताव तो बहुत दुःखदायक है। संसार में स्त्रीके लिये एकमात्र पति ही सर्वस्व है। पतिहीना नारीके समान दुःखी कोई प्राणी नहीं। पतिके बिना स्त्रीका जीवन निरर्थक है। तू अच्छे वंशकी लड़की है, फिर भी तेरा ऐसा आचरण क्यों है? पतिकी मृत्युका तुझे तनिक भी शोक नहीं हुआ? छि !'
उस धर्मपरायणा विधवाने भूमिमें सिर रखकर संन्यासीको प्रणाम किया और कहा-'पिताजी! आप ठीक कहते हैं। संसारमें पति ही स्त्रीका सर्वस्व है; किंतु आप बताइये तो कि मायामें पड़े जीवका सच्चा पति कौन है। उस परमपति परमात्माको पानेके लिये ही तो स्त्री लौकिक पतिको उस जगदीश्वरकी मूर्ति मानकर उसकी सेवा, पूजा, भक्ति करती है। जबतक भगवान् ने अपने प्रतिनिधिरूप पतिको मुझे सौंपा था, तबतक उन पतिदेवकी तन- मनसे सेवा करना मेरा धर्म था। यथासाध्य मैं अबतक वही करती थी। अब परमात्माने अपना प्रतिनिधि अपने पास बुला लिया तो मैं उस सर्वेश्वरकी साक्षात् सेवा करूँगी। प्रतिनिधिके चले जानेपर मुझे शोक क्यों होना चाहिये। मुझे तो किसी प्रकार उन प्रभुकी सेवा करनी है। यह संसार तो भगवान्की नाटक-शाला है। जिसे जो स्वाँग देकर ये भेजते हैं, उसे वही स्वाँग करना पड़ता है। अपना स्वाँग पूरा करके पात्र चले जाते हैं। मेरे पतिदेवका स्वाँग पूरा हो गया, वे चले गये। मुझे अबतक सधवापनका स्वाँग मिला था, अब विधवाका स्वाँग मिला है। वैधव्य तो संन्यास के समान पवित्र है।विषयभोगोंसे विरक्त होकर पुरुष संन्यास लेते हैं। विधवाको वह स्थिति सहज प्राप्त हो जाती है। भगवान्ने मुझे भजन करनेका यह अवसर दिया है, मैं शोक क्यों करूँ। लौकिक दृष्टिसे मुझे शोक करना चाहिये था पर जो स्त्रियाँ मोहवश अधिक रोती-पीटती हैं, शास्त्र कहते हैं कि उनके पतियोंको परलोकमें कष्ट होता है। फिर, मैं रोने बैठ जाती तो मेरे पतिके पूज्य पिताका अतिथि सेवा-धर्म नष्ट होता। इसलिये मुझे शोक करना उचित नहीं जान पड़ा।'
संन्यासीने मृत पुरुषके ऊपर लिपटा कपड़ा हटा दिया। अपने कमण्डलुसे उसपर जल छिड़का और बोले-'बेटा! उठो तो।' देखते-देखते मृत देहमें जीवन लौट आया। वह नींदसे जगेकी भाँति उठ बैठा। अपने सामने संन्यासीको देख वह उनके चरणोंमें लोट गया। संन्यासीका ऐसा प्रभाव देखकर सब चकित हो गये। सब उनके चरणोंमें गिर पड़े।
संन्यासीने उस ब्राह्मणकुमारसे कहा-'आज मैंने स्वार्थपरताका नंगा नाच देखा। तू जिन्हें अपना मानता है, जिनके लिये रात-दिन एक करके श्रम करता है, जो तेरी कमाईपर मौज करते हैं, वे तेरे माता-पिता भाई और तेरी विवाहिता पत्नीतकको तुझसे तनिक भी प्रेम नहीं तुझे मरा जानकर, तेरा मृत देह उठाकर एक ओर रखकर सब के सब आनन्दसे भोजन करने बैठ गये थे। ऐसे - निर्दयी घरमें तेरा जन्म होना बड़े दुःखकी बात है।'
संन्यासीकी बात सुनकर ब्राह्मणकुमार हँसते हुए बोला-'देव! मैं बड़ा भाग्यवान् हूँ जो ऐसे अनासक्त नर-नारी मेरे आत्मीय बने और उनकी सेवाका मुझे अवसर मिला। यह मेरा सौभाग्य है। भगवान्ने दया करके ही मुझे ऐसे कुलमें जन्म दिया है। साधारण लोग तो अपने स्वजनोंसे मोह करते हैं, अपने मोहके फंदे में उन्हें फँसाये रखते हैं ऐसे माता-पिता भाई कहाँ मिलते हैं, ऐसी पत्नी ही कहाँ मिलती है जो पुरुषको मोहमें न डाले । आपकी बात सुनकर मेरी तो इन लोगोंमें श्रद्धा बढ़ गयी है जैसे गरमीके दिनोंमें धूपसे व्याकुल बहुत-से पथिक किसी वृक्षको छायामें थोड़ी देरको आ बैठें, ऐसा ही यह संसारका परस्पर सम्बन्ध है। यात्री जैसे घंटे दो घंटेबाद अपने-अपने रास्ते लगते हैं, वैसे ही जीवको भी अपने कर्मके अनुसार प्रारब्ध भोगकर अलग हो जाना है। यही संसारका सम्बन्ध है। यहाँ कोई किसीके लिये शोक करे, यह तो अज्ञान ही है।'
अब संन्यासी महाराज आनन्दपुलकित होकर बोले- 'बेटा दीनबन्धुदास ! तुमलोगोंके निष्कपट व्यवहार, ज्ञान, वैराग्य और अतिथि सेवा-प्रेमको धन्य है । तुम सभी परम सुखसे जीवन बिताकर मोक्षपद प्राप्त करोगे तुम सदा भगवान्का भजन करते रहना। तुमलोगोंको कोई दुःख कभी स्पर्श भी नहीं करेगा।'
सपरिवार दीनबन्धुदास संन्यासीजीके चरणोंमें गिर पड़े। उन संन्यासीजीने फिर कहा-'मैं कभी तुमलोगोंकोनहीं भूलूँगा। अपने प्रेमियोंके हाथ मैं अपनेको बेच देता हूँ। तुम सरीखे भक्त मेरे हृदय हैं। मैं तुम्हें अपना परिचय देता हूँ। तुम अतिथिको नारायण मानकर सदा उसकी सेवा करते थे, अतः स्वयं मैं नारायण तुम्हारे यहाँ आया।'
पाँचों व्यक्ति अन्तिम वाक्य सुनते ही चौंक पड़े। उन्होंने देखा कि संन्यासीकी दिव्य मूर्ति अदृश्य हो गयी है। वे सब-के-सब व्याकुल होकर पुनः दिव्य दर्शनके लिये प्रार्थना करने लगे। भक्तोंकी प्रार्थना सार्थक हुई। सार्थक हुए उनके नेत्र त्रिभुवनमोहन श्रीहरिके दिव्य रूपके दर्शन करके । पाँचों प्राणियोंका जीवन कृतकृत्य हो गया।
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ab sannyaasee mahaaraaj aanandapulakit hokar bole- 'beta deenabandhudaas ! tumalogonke nishkapat vyavahaar, jnaan, vairaagy aur atithi sevaa-premako dhany hai . tum sabhee param sukhase jeevan bitaakar mokshapad praapt karoge tum sada bhagavaanka bhajan karate rahanaa. tumalogonko koee duhkh kabhee sparsh bhee naheen karegaa.'
saparivaar deenabandhudaas sannyaaseejeeke charanonmen gir pada़e. un sannyaaseejeene phir kahaa-'main kabhee tumalogonkonaheen bhooloongaa. apane premiyonke haath main apaneko bech deta hoon. tum sareekhe bhakt mere hriday hain. main tumhen apana parichay deta hoon. tum atithiko naaraayan maanakar sada usakee seva karate the, atah svayan main naaraayan tumhaare yahaan aayaa.'
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