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भक्त ग्वारिया बाबा की मार्मिक कथा
भक्त ग्वारिया बाबा की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त ग्वारिया बाबा (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त ग्वारिया बाबा]- भक्तमाल


अभी पंद्रह-सोलह वर्ष पूर्वकी ही बात है। वृन्दावनमें एक संत रहते थे। गौर वर्ण, लंबा शरीर, पैरतक लटकता ढीला-ढाला कुर्ता; शरीरका एक-एक रोमतक सफेद हो गया था। उनके शरीरकी थोड़ी झुर्रियाँ, रोम एवं केशोंकी श्वेतता ही कहती थी कि उनकी अवस्था पर्याप्त अधिक है। परंतु उनके कुर्ते या चोगेका वजन सात-आठ सेरसे अधिक ही रहता होगा। उसे पहने वे बच्चोंकी भाँति दौड़ते थे। उनका स्वास्थ्य एवं शारीरिक बल अच्छे स्वस्थ सबल युवकके लिये भी स्पृहणीय ही था । श्रीव्रजराजकुमारमें उनकी सख्य-निष्ठा थी, अतः वे अपनेको ग्वारिया (चरवाहा) कहते थे। संसारको भी उनके परिचयके रूपमें उनका यह 'ग्वारिया बाबा' नाम ही प्राप्त हैं।

शास्त्रकी आज्ञा है कि गृहत्यागी साधु अपने पूर्वाश्रमका स्मरण न करे, पूछनेपर भी घर तथा घरका नाम न बताये। श्रीग्वारिया बाबाने इस आज्ञाका इतनी दृढ़तासे पालन किया कि उनके घनिष्ठ परिचयमें रहनेवाले भी नहीं जानते कि बाबाकी जन्मभूमि कहाँ थी, उनका घरका नाम क्या था या उनका पूर्वपरिचय क्या है। किसीने पूछा—' बाबा! आपने किस सम्प्रदायमें दीक्षा ली है?' तो उत्तर मिला-'सभी सम्प्रदाय मेरे ही हैं।'

वृन्दावन आनेसे पूर्व श्रीग्वारिया बाबाका महाराज जयपुर (श्रीमाधवसिंहजी), महाराज ग्वालियर (श्रीमाधवरावजी) तथा दतिया एवं चरखारीके राजकुलसे घनिष्ठ सम्पर्क रहा। ये नरेश बाबाको अत्यन्त सम्मानकी दृष्टिसे देखते थे और प्रयत्न करते थे कि वे उनके यहाँ अधिक-से-अधिक रहें। ग्वारिया बाबा संगीतके कुशल मर्मज्ञ थे। राजमहलोंमें उनके भीतर जानेपर कभी प्रतिबन्ध नहीं रहा। उनसे राजकुलकी महिलाएँ अनेक बार सङ्गीत एवं वाद्यकी शिक्षा प्राप्त करती थीं।

महापुरुषोंकी प्रवृत्तिको समझना सांसारिक लोगोंके लिये कभी सरल नहीं रहा। उसमें भी चपलचूड़ामणि श्रीश्यामसुन्दरके सखाओंकी वृत्तिका तो पूछना ही क्या। ग्वारिया बाबाकी प्रकृतिमें यह अद्भुत भाव बहुत पर्याप्त था। जब वे किसी राजमहलमें रहते, तब स्वयं महलमें झाड़ू लगाया करते। उनके कार्यमें वाधा देनेका तो कभी कोई साहस करता ही न था। एक बार आपने जयपुर महाराजसे आग्रह किया-'मैं जेलमें रहूँगा तू मुझे जेलमें रख।' महाराजने एक लोहेके सीखचोंका पिंजड़े जैसा कमरा बनवाया। वह कमरा महलमें रहे और उसमें ग्वारिया बाबा रहकर सन्तुष्ट हो जायँ, ऐसा महाराज चाहते थे; किंतु ग्वारिया बाबाको तो जेल में रहना था। अन्तमें महाराजको संतका हठ स्वीकार करना पड़ा। वह पिंजड़ा जेलमें रखा गया। बंदियोंके वस्त्र पहनकर ग्वारिया बाबा जेलमें उस पिंजड़े में रहे। उन दिनों से जेलका सामान्य भोजन हो करते थे और सामान्य बंदियोंके समान ही व्यवहार करते थे। वृन्दावन आनेपर न वह पिंजड़ा भी बाबा अपने साथ लिवा लाये थे।

जयपुर रहते हुए ग्वारिया बाबा एक बार कई दिनोंतक पूरे दिनभर राजमहलसे बाहर रहते थे। किसीको कुछ विशेष पता नहीं था। उन दिनों जयपुरमें कोई मकान बन रहा था। प्रात:काल मजदूरके वेशमें ढाठा बाँधकर आप वहाँ मजदूरी करने पहुँच जाते थे। दिनभर परिश्रम करते थे। सायंकाल ठेकेदारसे कहते-'मालिक! कलसे मैं नहीं आऊँगा। मुझे छुट्टी दे दी जाय। मेरे पैसे दे दीजिये।' ठेकेदार इतने परिश्रमी मजदूरको छोड़ना नहीं चाहता था। उसने कहा- 'तुझे छुट्टी नहीं मिलेगी। पैसे तो सबको साथ ही बॅटेंगे।' सप्ताह के अन्तमें मजदूरी बाँटनेका दिन आया। उस दिन ग्वारिया बाबा मजदूरके बेशमें न जाकर अपना लंबा लबादा पहनकर गये। ठेकेदार और मजदूर चकित रह गये। जो संत महाराज जयपुरके साथ बग्गीपर घूमने निकलते हैं, वे सात दिन उनके यहाँ सबसे कठोर श्रम करते रहे यह समझना ही उनके लिये अद्भुत था। बाबाने अपनी मजदूरीके पैसे ठेकेदारसे लिये और उनके चने खरीदे छोटे बालकोंको, मयूरोंको और बंदरोंको वे चने बड़ी उमंगसे उन्होंने खिलाये। एक बार पतंग उड़ाते समय एक लड़का मकानकी छतसे गिर पड़ा। पतंगके पीछे देशमें ऐसी दुर्घटनाएँ प्रायः होती हैं; किंतु सत्पुरुष तो घटनाओंको यो घटना ही नहीं रहने देते थे तो उनसे गम्भीर शिक्षा जगत्को देते हैं। ग्वारिया बाबाने लड़केके छतसे गिरनेकी बात सुनी तो अपने पूरे मुखमें कालिख पोत ली और एक पतंग छोटे धागे में बाँधे कई दिन वे नगरमें घूमते रहे। किसीने ऐसा करनेका कारण पूछा तो बोले-'देखो, पतंग उड़ाते हुए वह लड़का मर गया और मेरा मुख काला हुआ। ऊपरकी ओर देखना और नोचेका ध्यान न रखना ऐसा ही सर्वनाश कराता है।'

ग्वारिया बाबा सदा व्रजभाषा ही बोलते और लिखते थे। वृन्दावन आनेपर अन्तिम कई वर्षोंतक वे मौन रहे। उस समय भी व्रजभाषामें ही लिखकर बात करते थे। दिनमें वे कहीं भी रहें, रात्रिमें वृन्दावनके समीपके जंगलों में घूमा करते थे। एक बार घूमते समय चोरोंके एक दलने उन्हें देखा बाबाको तो वे पहचानते ही थे, सबने कहा- 'ग्वारिया! चोरी करिबे चलैगो?' बाबाको लगा कि श्यामसुन्दरके सखा कहीं दही चोरी करने जा रहे हैं, सो प्रसन्नतासे साथ हो गये। एक घरमें चोर घुसे। चोर तो अपने काममें लग गये और ग्वारिया बाबा कोई खाने-पीनेकी सामग्री ढूँढ़ने लगे। उन्हें केवल गुड़ मिला और कहीं एक ढोलक लटकता मिल गया। आप ढोलक बजाने लगे। चोरोंने भागते-भागते भी इन्हें पीटा और घरके लोगोंने भी जगकर अन्धकारमें पीटा। जब प्रकाशमें पहचाने गये, तब सबको बड़ा दुःख हुआ। घरके लोगोंने देखा कि बाबा हाथमें जरा-सा गुड़ लिये हैं और कह रहे हैं—'यारोंके साथ चोरी करने आया था, सो मार तो खूब पड़ी।'

शरीर छोड़नेसे पंद्रह-बीस दिन पहले ही उन्होंने अपने इस धामको छोड़ने की बात लोगोंसे कह दो और आग्रह किया-'मेरी शोक सभा मेरे सामने ही मना लो।' बड़ी कठिनाईसे बाबाको लोग समझा पाये कि उनके रहते ऐसी अमङ्गलपूर्ण योजना करनेका साहस कोई कर नहीं पाता। 'मेरा कोई स्मारक न रखा जाय, कोई चरित न लिखा जाय।' यह बाबाका आदेश नश्वर शरीरकी स्मृति रखी जाय, यह उन्हें बिलकुल स्वीकार नहीं था। उन्होंने शरीर छोड़ते समय भगवान्के मन्दिरसे आया हुआ भगवान्‌का चरणामृत तथा संतोंका चरणामृत लेनेके लिये ही मुख खोला। उस समय उनके शरीरको शिथिल देखकर कुछ लोगोंने औषध देना चाहा, पर औषधके लिये बाबाने मुख खोला ही नहीं। था।

जैसी ग्वारिया बाबाकी इच्छा थी, उनका शरीर वृन्दावनके प्रमुख मन्दिरोंके सामनेसे होकर निकाला गया। मन्दिरोंसे उस नित्य-सखाकी देहके सत्कारके लिये माला, चन्दन आदि प्रसाद आया। इस प्रकार सभी प्रमुख मन्दिरोंका प्रसाद लेकर वह देह वंशीवटके समीप श्रीयमुनाजीकी गोदमें विसर्जित कर दिया गया।

सबसे आर्यको बात यह रही कि वृन्दावनके एक बंगाली डाक्टर कहीं बाहर गये थे। वे बाबाके शरीर छोड़नेके दो-तीन दिन बाद आये और एक संतसे कहने लगे-'मैंने सुना था कि ग्वारिया बाबा केवल व्रजवासियोंके घर ही प्रसाद लेते हैं; पर आज प्रातः वे मेरे यहाँ आये और माँगकर दूध पी गये हैं।' जब डाक्टरको बताया गया। कि बाबाका शरीर तीन दिन पूर्व ही छूट चुका है, तब वे इसपर बड़ी कठिनाईसे विश्वास कर सके। इसी प्रकार अपने एक श्रद्धालुको बाबाने स्वप्रमें दर्शन दिया और बताया मैं तुम्हें भगवान् के पास ले आने आऊंगा।' वह व्यक्ति बीमार था, पर स्वप्र देखकर स्वस्थ हो गया। निश्चित तिथिको उसका शरीर सहसा ही छूट गया।

श्रीग्वारिया बाबा वृन्दावनके इस पिछले समयके सबसे प्रसिद्ध संतोंमें हुए हैं। उन्होंने अपनी मस्तीसे केवल एक शिक्षा दी है कि 'श्रीव्रजराजकुमार भावके वश हैं। जो जिस भावसे उन्हें अपना मान से, केवल भाव दृढ़ हो तो वे उसके उसी सम्बन्धको सर्वथा सत्य स्वीकार कर लेते हैं।'



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जय राधे राधे, राधे राधे
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