पश्चिम बंगालके हरसोला नामक ग्राममें क्षत्रियोंका एक परिवार कभी आकर बस गया था। बहुत दिनोंतक बंगालमें रहनेसे उसमें बंगालीपन आ गया था। अब उसके प्रमुख थे भानुरायजी इनकी पत्नीका नाम था कुसुमी पर्याप्त भूमि और पशु थे खूब अन्न होता था। घरमें महाजनीका काम भी होता था। उचित ब्याजपर वालोंको रुपये देते थे। सम्पत्तिके साथ जितने दुर्गुण हैं. भगवत्कृपासे उनमें एक भी इस परिवारमें नहीं था। श्रीगोपालजीको उपासना घरमें पूर्वजोंसे चली आती थी, अतः शाक्तोंके समुदायके मध्यमें रहकर भी यह कुल आचार-व्यवहार, खान-पानमें शुद्ध वैष्णव था। भानुरायजीके दो कन्याएँ थीं- लक्ष्मी और माधवी तथा एक पुत्र थे प्रतापराय। इस प्रकार सब प्रकारका लौकिक सुख भगवान्ने उन्हें दिया था।
पिता भानुराय और माता कुसुमीका अपने एकमात्र पुत्र प्रतापरायको सद्गुणी बनानेपर पूरा ध्यान था। धनी घरमें एक ही पुत्र हो कन्याओंके बीच तो माता-पिताके लाड़-प्यारसे वह प्रायः बिगड़ जाता है; किंतु यहाँ बात उलटी ही थी। माता-पिता पुत्रके विषयमें बहुत सावधान रहते थे। प्रतापराय उठते ही भगवान्का स्मरण करते, माता-पिताको प्रणाम करते, स्नान करके तुलसीका बिरवा सींचते और भगवान्का दर्शन करते; तब उन्हें जलपान मिलता। विनयपूर्वक मधुर वाणी बोलना, बहनोंको बाँटकर खाना, किसी वस्तुके लिये हठ न करना, बच्चों से लड़ना झगड़ना नहीं, इसकी माता पितासे उन्हें शिक्षा मिली धूप और वर्षा सहना जाड़ेमें बिना कपड़े रह जाना, सादे और मोटे कपड़े पहनना, गहने तथा भड़कीले कपड़े या शौकोनीकी चीजोंका लालच न करना, जीभके स्वाद और शरीरकी सजावटसे घृणा करना आदि सद्वृत्तियोंका उन्हें पिता-माताने भरपूर अभ्यास कराया।
प्रतापरायकी बड़ी बहन लक्ष्मीका विवाह पहले ही चुका था। तेरह सालकी उम्रमें उनका और ग्यारह हो सालकी उम्र में उनकी छोटी बहनका विवाह भी हो गया।प्रतापरायको पत्नी मालतीको एक पुत्र प्राप्त हुआ। पिताकी देख-रेखमें प्रतापरायने घरका सब कामकाज संभाल लिया था जब इनकी अवस्था तेईस वर्षकी हुई, तब इनके पिता भानुरायजीका परलोकवास हो गया। पिताकी मृत्युसे इनके सिरका छत्र ही टूट गया; किंतु इन्होंने अपनेको दुःखी नहीं बनाया सोचा- 'जो जन्मा है, उसकी मृत्यु तो होनी ही है मेरे पिता तो भगवान्के भक्त थे। उन्होंने तो शरीरको ऐसे छोड़ा जैसे कोई गलेसे सूखा पुष्पहार उतार दे मृत्युमें कष्ट तो उनको होता है, जिनका मन संसारके पदार्थोंमें फँसा हो। पिताजी तो भगवान्के विधानको मङ्गलमय माननेवाले थे। उन्हें भला, क्यों कष्ट होता। वे भगवान्के धाममें गये हैं। मैं स्वार्थवश उनकी इस सदतिसे क्यों द्वेष करूँ।"
कुछ दिनों बाद माता कुसुमीका भी देहान्त हो गया। प्रतापरायने इसे भी भगवान्का मङ्गल-विधान माना। वे अब घरका सब काम करते हुए भी मनको भगवान्में लगाये रहते थे। भगवान्के नामका जप उनसे कभी छूटता नहीं था उनके पुत्र दीनबन्धुरायको अवस्था जब 1 बारह वर्षकी हुई, तब वह बीमार हो गया। उसे सान्निपातिक ज्वर हो गया। प्रतापराय तथा उनकी पत्नी मालतीने एकमात्र पुत्रकी इस अवस्थामें भी अपूर्व धैर्य, कर्तव्यनिष्ठा और भगवद्विश्वासका परिचय दिया। वे पुत्रकी रोग-शय्याके पास बैठकर उसे बराबर भगवान्की कथा और उनका मङ्गलमय नाम सुनाते रहे। रात दिनकी भगवच्चर्चासे रोगी बालकका मन संसारसे हटकर
भगवान्में लग गया। इसी अवस्थामें उसकी मृत्यु हुई। प्रतापराय और मालतीने सोचा- 'भगवान्ने ही यह सूत्र दिया था। उनको इससे अब कोई और सेवा लेनी होगी, इसलिये बुला लिया। अब हमें पुत्र -मोहसे पृथक् करके वे दयामय अपनी सेवामें लगाना चाहते हैं। मृत्यु तो आत्माकी होती नहीं और शरीर नश्वर है ही। संसारका यह संयोग वियोग तो एक खेल है। इसके लिये दुःखी होना व्यर्थ है।'
कुछ समय बाद छोटी बहन माधवीके पति भरावरोगशय्यापर पड़े। बड़ी बहन लक्ष्मीने हठ प्रारम्भ किया—
'भैया! तुम भगवान्से प्रार्थना करो तो अवश्य वल्लभराय
स्वस्थ हो जायेंगे।'
प्रतापराय निष्काम भक्त थे। भगवान्को भक्ति करके प्रभुसे बदले में धन, पुत्र, प्रतिष्ठा, जीवन आदि जो लोग चाहते हैं, वे भक्तिके महत्त्वको नहीं जानते। वे तो नश्वर पदार्थको ही साध्य माननेवाले विषयी लोग हैं। भगवान्को वे इन पदार्थोंकी प्राप्तिका साधन बनाते हैं। वे विषयोंको भगवान्से भी ऊँचा माने बैठे हैं। प्रतापराय विषयोंसे विरक्त थे। अपना हो या आत्मीयका हो, जीवन तो नश्वर ही है। ऐसे नश्वर जीवनके लिये प्रभुसे प्रार्थना करना मूर्खता है। यह बात जानते हुए भी बहनके अनुरोधको वे टाल न सके दूसरे दिन भगवान् से प्रार्थना करनेपर वे राजी हो गये।
रातको रोगी बहनोईकी शय्याके पास प्रतापराय बैठे थे। यहाँ रोगीकी स्त्री माधवी भी बैठी थी। रातके तीसरे पहरमें दोनोंको तन्द्रा आ गयी प्रतापरायने देखा कमरा ज्योतिसे जगमग कर रहा है। भगवान्के चार पार्षद विमान लेकर आये हैं। वे रोगीसे कह रहे हैं-'वल्लभ! तुम बड़े पुण्यात्मा और भगवद्भक्त हो। पिछले जन्म में हो तुम भगवान्के दिव्य धाममें पहुँच गये होते, किंतु माधवीके साथ वचनबद्ध होनेसे तुमको एक जन्म और लेना पड़ा। माधवी पतिव्रता है तुम्हारे शरीर छोड़नेपर 1 संती होकर तुम्हारे साथ ही वह भी भगवान के धामको चलेगी। हमलोग तुम्हें लेने आये हैं। लेकिन प्रतापराय तुम्हारे स्वास्थ्य के लिये भगवान्से प्रार्थना करनेवाले हैं। वे भक्त हैं। तुम जानते ही हो कि भक्त प्रार्थना करे तो भगवान् अपना विधान सहज ही पलट देते हैं। यदि प्रतापरायने प्रार्थना की तो तुमको कुछ दिन और संसार में रहना होगा। तुम्हारी क्या राय है?"
रोगीको आत्माने कहा- आपलोग यह क्या कहते हैं? प्रतापराय भगवान्के भक्त हैं। वे भगवान्के मङ्गल विधानको भला क्यों रोकेंगे? वे एक जीवको प्रभुसे मिलनेमें कैसे बाधा देना चाहेंगे? आपलोग मुझे अभी ले चलिये। मुझे तो एक क्षणका विलम्ब भी असह्य हो रहा है।'प्रतापरायके नेत्र खुले। उन्होंने देखा कि उनके रोगी बहनोई अचेत हैं, किंतु उनके मुखपर आनन्दकी आभा है। इसी समय पास बैठी छोटी बहन माधवी भी चौंककर जग पड़ी। उसने भी वही दृश्य देखा था, जो प्रतापरायने देखा था। साथ ही वह भगवान्के दिव्य लोककी सुषमा भी देख आयी थी। अपने स्वप्रका हाल कहकर हाथ जोड़कर वह प्रतापरायसे बोली- भैया मेरे स्वामी और मैं-हमलोग मरते कहाँ हैं? हम तो | भगवानके दिव्य लोकमें जा रहे हैं। तुम इसमें बाधा देने लगे? तुम्हें तो प्रसन्न होना चाहिये न।'
प्रतापरायके नेत्र भर आये। वे मन-ही-मन सोचने लगे में कितनी मूर्खता करने जा रहा था। अदूरदर्शी प्राणी अपना कल्याण स्वयं तो देख नहीं पाते। वे तो नरकके कौडेको भाँति नरकमें ही पड़े रहना चाहते हैं। | रोगीके कुपथ्य चाहनेकी भाँति ही हमारी प्रार्थना है। दयामय भगवान् जीवका सदा ही मङ्गल करते हैं। अपनी ओरसे प्रभुसे कुछ प्रार्थना करना तो उलटे ठगाना है। हम प्रार्थना करके कभी-कभी सर्वथा अपने कल्याणके विपरीत वस्तु माँग लेते हैं उससे कुछ हित तो होता नहीं, उलटे हमारा वास्तविक हित रुक जाता है। भगवान्मे कुछ भी प्रार्थना करके मांगना केवल है। वे दयामय प्रभु मुझे क्षमा करें।'
इसी समय भने आँखें खोलीं। उनके मुख प्रणव (ॐ) की ध्वनि निकली और मस्तक फट गया। प्रातः काल माधवी अपने पतिके देहको लेकर चिंताएँ बैठ गयी। वह सती हो गयी। बहिन-बहनोईकी ऐसे मृत्युसे प्रतापरायको प्रसन्नता हुई।
प्रतापराय महाजनीका काम करते थे। एक बड़ा-सा लोहेका संदूक था उनको बैठकमें लोग आकर अपने गहने आदि थैली, पोटली, पेटी आदिमें अपने हाथसे हो संदूक में रख जाते और रुपये ले जाते थे। सुविधा होनेपर ब्याजसमेत रुपये दे जाते और संदूकों से अपना सामान स्वयं ले जाते। प्रतापराय केवल बहीमें रुपयोंका लेन देनभर लिखते थे। संदूकमें क्या रखा गया, वे यह कभी देखते नहीं थे। उनके इस व्यवहारको देखकर कुछ लोगोंके मनमें लोभ आया चार दुष्ट पुरुषोंने मिलकाषड्यन्त्र किया। एकने एक डिब्बेमें कंकड़-पत्थर भरे और तीनने थैलियोंमें बारी-बारीसे चारों डिब्बा तथा थैलियाँ लेकर आये। उन्हें संदूक में रखकर रुपये ले गये
कुछ समय बाद एक आया और उसने ब्याजसमेत रुपये देकर अपना डिब्बा निकाला। उसने वहीं डिब्बेको खोला और कंकड़-पत्थर भूमिपर डालकर चिल्लाने लगा- 'मेरे गहने कहाँ गये? मैंने तो तुम्हें ईमानदार समझा था पर तुम्हारी यह बेईमानी ? लाओ, मेरे गहने सीधे दे दो।""
प्रतापराय तो हक्के-बक्के हो गये। उन्होंने बहुत समझाया पर उस धूर्तको समझना तो था ही नहीं। उसी समय सधे बधे शेष तीनों भी आ गये। उन्होंने भी अपनी थैलियाँ संदूकसे वहाँ एकत्र लोगोंके सामने निकालीं। चारोंने ऐसा ढंग बनाया, जैसे उनका परस्पर कोई परिचय ही न हो। चारों थैलियोंसे कंकड़-पत्थर निकले। अब तो दर्शकोंको भी विश्वास हो गया कि अवश्य प्रतापरायने बेईमानी की है। सब लोगोंने उन्हें बेईमान, धूर्त, पाखण्डी आदि कहना प्रारम्भ किया।
बंगालमें उस समय मुसलमानोंका राज्य था। धूर्तोंने काजीको लोभ देकर पहले ही मिला लिया था। न्यायका नाटक रचा गया। प्रतापरायको जेलकी सजा हो गयी। उनका घर-द्वार, खेत, पशु आदि सम्पत्ति सब जप्त हो गयी। काजीने तथा यन्त्रकारियोंने उसे बाँट लिया आपसमें। बेचारी मालती घरसे निकाले जानेपर ठाकुरजी तथा अपने शृङ्गारकी पिटारी लेकर अपने भाईके घर चली गयी थी। गाँवके लोगोंने काजीसे शिकायत कर दी। मालती पकड़ मँगायी गयी। ठाकुरजीके गहने छीन लिये गये। जन जायदादको चुरानेके जुर्म में मालतीको भी सजा हो गयी। जेलका दारोगा भला आदमी था। उसने मालतीको प्रतापरायके साथ ही रख दिया।
धन-सम्पत्ति गयी, अपने-पराये सभीने अपमानित किया, कारागार मिला। यह सब किसी अपराधसे नहीं हुआ यह हुआ धर्म करते, लोगोंपर विश्वास करते। दूसरा होता तो कहता-'धर्मकी बात व्यर्थ है। भगवान कहीं होते तो क्या मुझ निरपराधकी रक्षा न करते ? द्रौपद आदिको बातें पोथियोंमें कल्पनासे लिखी गयी है। सरबहम है।' लेकिन प्रतापराय ऐसे 'ढुलमुल भगत' नहीं थे। उन्होंने सोचा- ' अवश्य मेरे पूर्वजन्मके ही किसी पापका यह सब फल है। भगवान् तो दयासागर हैं। उनके प्रत्येक विधानमें जीवका मङ्गल ही होता है। मैं व्यर्थ ही लेन-देन तथा संसारके व्यवहारमें उलझा था। प्रभुने मुझे यहाँ एकान्तमें भजन करनेका अवसर दिया है। प्रभो। हमपर दया करो हमको ऐसा वरदान दो कि तुम्हारा भजन हमसे कभी न छूटे। हम तो तुम्हारा दर्शन भी नहीं चाहते। तुम दर्शन दो और कहीं भजन छीन लो तो हमें तुम्हारे ऐसे दर्शनकी इच्छा नहीं है। हम तो तुम्हारा भजन चाहते हैं। हमपर दया करो।'
निष्काम भक्तकी प्रार्थना और उसके हृदयका भाव समझकर भगवान् प्रसन्न हो गये। जेलखानेकी वह कोठरी भगवान्के प्रकट होनेसे धन्य हो गयी। प्रतापराय और मालती उस रूपराशिको देखकर सुधि-बुध खो बैठे। वे भगवान्के चरणोंपर लोट गये। अपने आँसुओंसे उन सुरमुनिपूजित चरणकमलोंको उन्होंने भी दिया। प्रभुने कहा- 'मैं तुमलोगोंपर बहुत प्रसन्न हूँ। मैं तुम्हें विशेषरूपसे अपनाना चाहता था, इसीसे इन कष्टांके बहाने तुम्हारे पूर्वकृत कर्मोको मैंने भुगताकर समाप्त कर दिया है। तुम्हारी बहुत कठिन परीक्षा हो चुकी अब तुम्हें जो माँगना हो, माँग लो।' प्रतापरायको तो भजनमें अधिकाधिक प्रीतिको छोड़कर कुछ माँगना था नहीं। प्रभुने अभीष्ट कर दिया उन्हें और अन्तर्धान हो गये।
इधर काजी और चारों षड्यन्त्रकारियोंके शरीर में गलित कुष्ट हो गया। उनकी बुरी दशा हो गयी कुछ ही दिनोंमें काजीकी बुद्धिमान् स्त्रीने समझाया यह भक्त प्रतापरायको निरपराध सतानेका फल है। उससे माफी माँगनेसे यह रोग दूर हो सकता है।' काजीको स्त्रीको बात जैच गयी। वह तथा चारों पद्मन्त्रकारी प्रतापरायके पास आये। प्रतापराय और मालती जेलसे छोड़ दिये गये। ये लोग पैरोंपर गिरकर कहने लगे आप सर्वधा निर्दोष है। हमलोगोंने आपपर झूठा कलङ्क लगाया था। आप हमें क्षमा कर दें। हमारे इस रोगको आप ही दूर कर सकते हैं।'प्रतापरायने उन्हें उठाया। उनके शरीरपर हाथ फेरते हुए भगवान्से प्रार्थना करने लगे-'प्रभो! ये बिचारे. बहुत दण्ड पा चुके। अब आप इन्हें क्षमा कर दें। इनकी कृपा न होती तो मुझे जेलमें आपके दर्शन कैसे होते। मुझपर तो इन्होंने उपकार ही किया है। आप इनकी रक्षा करें। रक्षा करें!' इतना कहते ही उन पाँचोंके शरीर स्वस्थ हो गये। कुष्ठके चिह्नतक नहीं रहे। अब तो गाँवके लोग भी आ आकर प्रतापराय और मालतीके चरणछूकर अपने कहे हुए कटु शब्दोंके लिये बार-बार क्षमा माँगने लगे।
काजीने प्रतापरायकी सारी सम्पत्ति लौटा दी। प्रतापरायकी अब सम्पत्तिका क्या काम? उन्होंने वह सब गरीबाँकी बाँट दी। स्त्रीको साथ लेकर वे वृन्दावन चले आये। तीस वर्षतक निरन्तर भगवान्का भजन करते हुए श्रीधाम वृन्दावनमें वे रहे और फिर भगवन्नाम लेते हुए नश्वर देह त्यागकर गोलोक पधारे।
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svasth ho jaayenge.'
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bangaalamen us samay musalamaanonka raajy thaa. dhoortonne kaajeeko lobh dekar pahale hee mila liya thaa. nyaayaka naatak racha gayaa. prataaparaayako jelakee saja ho gayee. unaka ghara-dvaar, khet, pashu aadi sampatti sab japt ho gayee. kaajeene tatha yantrakaariyonne use baant liya aapasamen. bechaaree maalatee gharase nikaale jaanepar thaakurajee tatha apane shringaarakee pitaaree lekar apane bhaaeeke ghar chalee gayee thee. gaanvake logonne kaajeese shikaayat kar dee. maalatee pakada़ mangaayee gayee. thaakurajeeke gahane chheen liye gaye. jan jaayadaadako churaaneke jurm men maalateeko bhee saja ho gayee. jelaka daaroga bhala aadamee thaa. usane maalateeko prataaparaayake saath hee rakh diyaa.
dhana-sampatti gayee, apane-paraaye sabheene apamaanit kiya, kaaraagaar milaa. yah sab kisee aparaadhase naheen hua yah hua dharm karate, logonpar vishvaas karate. doosara hota to kahataa-'dharmakee baat vyarth hai. bhagavaan kaheen hote to kya mujh niraparaadhakee raksha n karate ? draupad aadiko baaten pothiyonmen kalpanaase likhee gayee hai. sarabaham hai.' lekin prataaparaay aise 'dhulamul bhagata' naheen the. unhonne sochaa- ' avashy mere poorvajanmake hee kisee paapaka yah sab phal hai. bhagavaan to dayaasaagar hain. unake pratyek vidhaanamen jeevaka mangal hee hota hai. main vyarth hee lena-den tatha sansaarake vyavahaaramen ulajha thaa. prabhune mujhe yahaan ekaantamen bhajan karaneka avasar diya hai. prabho. hamapar daya karo hamako aisa varadaan do ki tumhaara bhajan hamase kabhee n chhoote. ham to tumhaara darshan bhee naheen chaahate. tum darshan do aur kaheen bhajan chheen lo to hamen tumhaare aise darshanakee ichchha naheen hai. ham to tumhaara bhajan chaahate hain. hamapar daya karo.'
nishkaam bhaktakee praarthana aur usake hridayaka bhaav samajhakar bhagavaan prasann ho gaye. jelakhaanekee vah kotharee bhagavaanke prakat honese dhany ho gayee. prataaparaay aur maalatee us rooparaashiko dekhakar sudhi-budh kho baithe. ve bhagavaanke charanonpar lot gaye. apane aansuonse un suramunipoojit charanakamalonko unhonne bhee diyaa. prabhune kahaa- 'main tumalogonpar bahut prasann hoon. main tumhen vishesharoopase apanaana chaahata tha, iseese in kashtaanke bahaane tumhaare poorvakrit karmoko mainne bhugataakar samaapt kar diya hai. tumhaaree bahut kathin pareeksha ho chukee ab tumhen jo maangana ho, maang lo.' prataaparaayako to bhajanamen adhikaadhik preetiko chhoda़kar kuchh maangana tha naheen. prabhune abheesht kar diya unhen aur antardhaan ho gaye.
idhar kaajee aur chaaron shadyantrakaariyonke shareer men galit kusht ho gayaa. unakee buree dasha ho gayee kuchh hee dinonmen kaajeekee buddhimaan streene samajhaaya yah bhakt prataaparaayako niraparaadh sataaneka phal hai. usase maaphee maanganese yah rog door ho sakata hai.' kaajeeko streeko baat jaich gayee. vah tatha chaaron padmantrakaaree prataaparaayake paas aaye. prataaparaay aur maalatee jelase chhoda़ diye gaye. ye log paironpar girakar kahane lage aap sarvadha nirdosh hai. hamalogonne aapapar jhootha kalank lagaaya thaa. aap hamen kshama kar den. hamaare is rogako aap hee door kar sakate hain.'prataaparaayane unhen uthaayaa. unake shareerapar haath pherate hue bhagavaanse praarthana karane lage-'prabho! ye bichaare. bahut dand pa chuke. ab aap inhen kshama kar den. inakee kripa n hotee to mujhe jelamen aapake darshan kaise hote. mujhapar to inhonne upakaar hee kiya hai. aap inakee raksha karen. raksha karen!' itana kahate hee un paanchonke shareer svasth ho gaye. kushthake chihnatak naheen rahe. ab to gaanvake log bhee a aakar prataaparaay aur maalateeke charanachhookar apane kahe hue katu shabdonke liye baara-baar kshama maangane lage.
kaajeene prataaparaayakee saaree sampatti lauta dee. prataaparaayakee ab sampattika kya kaama? unhonne vah sab gareebaankee baant dee. streeko saath lekar ve vrindaavan chale aaye. tees varshatak nirantar bhagavaanka bhajan karate hue shreedhaam vrindaavanamen ve rahe aur phir bhagavannaam lete hue nashvar deh tyaagakar golok padhaare.