रामनाम जपतां कुतो भयं सर्वतापशमनैकभेषजम् ।
पश्य तात मम गात्रसन्निधौ पावकोऽपि सलिलायतेऽधुना
।।
जब भगवान् वाराहने पृथ्वीको रसातलसे लाते समय हिरण्याक्षको मार दिया, तब उसका बड़ा भाई दैत्यराज हिरण्यकशिपु बहुत ही क्रोधित हुआ। उसने निश्चय किया कि 'मैं अपने भाईका बदला लेकर रहूँगा।' अपनेको अजेय एवं अमर बनानेके लिये हिमालयपर जाकर वह तप करने लगा। उसने सहस्रों वर्षोंतक उग्र तप करके ब्रह्माजीको सन्तुष्ट किया। ब्रह्माजीने उसे वरदान दिया कि "तुम किसी अस्त्र-शस्त्रसे, ब्रह्माजीद्वारा निर्मित किसी प्राणीसे, रातमें, दिनमें, जमीनपर, आकाशमें-कहीं मारे नहीं जाओगे।'
जब हिरण्यकशिपु तपस्या करने चला गया था, तभी देवताओंने दैत्योंकी राजधानीपर आक्रमण किया। कोई नायक न होनेसे दैत्य हारकर दिशाओंमें भाग गये। देवताओंने दैत्योंकी राजधानीको लूट लिया। देवराज इन्द्रने हिरण्यकशिपुकी पत्नी कयाधुको बंदी कर लिया और स्वर्गको ले चले। रास्तेमें देवर्षि नारद मिल गये। उन्होंने इन्द्रको रोका कि 'तुम दैत्यराजकी पतिव्रता पत्नीको मत ले जाओ।' इन्द्रने बताया कि 'कसा गर्भवती है। उसके जब सन्तान हो जायगी, तब उसके | पुत्रका वध करके उसे छोड़ दिया जायगा।' देवर्षिने कहा- 'इसके गर्भमें भगवान्का परम भक्त है। उससे देवताओंको भय नहीं है। उस भागवतको मारा नहीं जा सकता।' इन्द्रने देवर्षिकी बात मान ली। वे 'कयाधुके गर्भमें भगवान्का भक्त है' यह सुनकर उसकी परिक्रमा करके अपने लोकको चले गये।
जब कयाधू देवराजके बन्धनसे छोड़ दी गयी, तब वह देवर्षिके ही आश्रममें आकर रहने लगी। उसके पति जबतक तपस्यासे न लौटें, उसके लिये दूसरा निरापद आश्रय नहीं था। देवर्षि भी उसे पुत्रीको भाँति मानते थे और बराबर गर्भस्थ बालकको लक्ष्य करके उसे भगवद्भक्तिका उपदेश किया करते थे। गर्भस्थ बालक प्रह्लादने उन उपदेशोंको ग्रहण कर लिया। भगवान्की कृपासे वह उपदेश उन्हें फिर भूला नहीं।जब वरदान पाकर हिरण्यकशिपु लौटा, तब उसने सभी देवताओंको जीत लिया। सभी लोकपालोंको जीतकर वह उनके पदका स्वयं उपभोग करने लगा। उसे भगवान् से घोर शत्रुता थी, अतः ऋषियोंको वह कष्ट देने लगा। यज्ञ उसने बंद करा दिये। धर्मका वह घोर विरोधी हो गया। उसके गुरु शुक्राचार्य उस समय तप करने चले गये थे। अपने पुत्र प्रह्लादको उसने अपने गुरुपुत्र शण्ड तथा अमर्कके पास शिक्षा पाने भेज दिया। प्रह्लाद उस समय पाँच ही वर्षके थे। एक बार प्रह्लाद घर आये। माताने उनको वस्त्राभरणोंसे सजाया। पिताके पास जाकर उन्होंने प्रणाम किया। हिरण्यकशिपुने प्रह्लादको गोदमें बैठा लिया। स्नेहपूर्वक उनसे उसने पूछा- 'बेटा! तुमने जो कुछ पढ़ा है, उसमेंसे कोई अच्छी बात मुझे भी सुनाओ तो।'
प्रह्लादजीने कहा- 'पिताजी! संसारके सभी प्राणी असत् संसारमें आसक्त होकर सदा उद्विग्न रहते हैं। मैं तो सबके लिये यही अच्छा मानता हूँ कि अपना पतन करानेवाले जलहीन अन्धकूपके समान घरोंको छोड़कर मनुष्य वनमें जाकर श्रीहरिका आश्रय ले ।'
हिरण्यकशिपु जोर से हँस पड़ा। उसे लगा कि किसी शत्रुने मेरे बच्चेको बहका दिया है। उसने गुरुपुत्रोंको सावधान किया कि 'वे प्रह्लादको सुधारें। उसे दैत्यकुलके उपयुक्त अर्थ, धर्म, कामका उपदेश दें।' गुरुपुत्र प्रह्लादको अपने यहाँ ले आये। उन्होंने प्रह्लादसे पूछा कि तुमको यह उलटा ज्ञान किसने दिया है?' प्रह्लादने कहा- 'गुरुदेव ! यह मैं हूँ और यह दूसरा है, यह तो अज्ञान है। भगवान्की इस मायासे ही जीव मोहित हो रहे हैं। वे दयामय जिसपर दया करते हैं, उसीका चित्त उनमें लगता है। मेरा चित्त तो उनकी अनन्त कृपासे ही उन परम पुरुषकी ओर सहज खिंच गया है।'
गुरुपुत्रोंने बहुत डाँटा-धमकाया और वे प्रह्लादको अर्थशास्त्र, दण्डनीति, राजनीति आदिकी शिक्षा देने लगे। गुरुद्वारा पढ़ायी विद्याको प्रह्लाद ध्यानपूर्वक सीखते थे। वे गुरुका कभी अपमान नहीं करते थे और न उन्होंने विद्याका ही तिरस्कार किया; पर उस विद्याके प्रति उनके मनमेंकभी आस्था नहीं हुई। गुरुपुत्रोंने जब उन्हें भलीभाँति सुशिक्षित समझ लिया, तब दैत्यराजके पास ले गये। हिरण्यकशिपुने अपने विनयी पुत्रको गोदमें बैठाकर फिर पूछा- 'बताओ, बेटा! तुम अपनी समझसे उत्तम ज्ञान क्या 'मानते हो?' प्रहादजीने कहा- 'भगवान्के गुण एवं चरित्रोंका श्रवण, उनकी लीलाओं तथा नामोंका कीर्तन, उन मङ्गलमयका स्मरण, उनके श्रीचरणोंकी सेवा, उन परम प्रभुकी पूजा, उनकी बन्दना, उनके प्रति दास्यभाव, उनसे सख्य, उन्हें आत्मनिवेदन- यह नवधा भक्ति है। इस नवधा भक्तिके आश्रयसे भगवानमें चित्त लगाना ही समस्त अध्ययनका सर्वोत्तम फल में मानता हूँ।"
हिरण्यकशिपु तो क्रोधसे लाल-पीला हो गया। उसने गोदसे प्रह्लादको धक्का देकर भूमिपर पटक दिया। गुरुपुत्रोंको उसने डाँटा कि 'तुमलोगोंने मेरे पुत्रको उलटी शिक्षा देकर शत्रुका व्यवहार किया है।' गुरुपुत्रोंने बताया कि 'इसमें हमारा कोई दोष नहीं है।' प्रह्लादजी पिताद्वारा तिरस्कृत होकर भी शान्त खड़े थे। उन्हें कोई क्षोभ नहीं था। उन्होंने कहा- 'पिताजी! आप रुष्ट न हों। गुरुपुत्रोंका कोई दोष नहीं है। जो लोग विषयासक्त हैं-घरके, परिवारके मोहमें जिनकी बुद्धि बंधी है, वे तो, उगले हुएको खानेके समान, नरकमें ले जानेवाले विषयोंके, जो बार-बार भोगे गये हैं, सेवन करनेमें लगे हैं। उनकी बुद्धि अपने-आप या दूसरेकी प्रेरणा भी भगवान नहीं लगती। जैसे एक अन्धा दूसरे अन्धेको मार्ग नहीं बता सकता, वैसे ही जो सांसारिक सुखोंको ही परम पुरुषार्थ माने हुए हैं, वे भगवान स्वरूपको नहीं जानते भला, किसीको क्या मार्ग दिखा सकते हैं। सम्पूर्ण क्लेशों, सभी अनथका नाश तो तभी होता है, जब बुद्धि भगवान श्रीचरणोंमें लगे परन्तु जबतक महापुरुषको चरण-रज मस्तकपर धारण न की जाय तबतक बुद्धि निर्मल होकर भगवान्में लगती नहीं।'
नन्हा सा बालक त्रिभुवनविजयी दैत्यराजके सामने निर्भय होकर इस प्रकार उनके शत्रुका पक्ष ले, यह अस हो गया दैत्यराजको चिल्लाकर हिरण्यकशिपुने अपने क्रूर सभासद् दैत्योंको आज्ञा दी जाओ तुरंत इस दुष्टको मार डालो।' असुर भाले, त्रिशूल, तलवार आदि लेकर एक साथ 'मारो। काट डालो।' चिल्लातेहुए पाँच वर्षके बालकपर टूट पड़े। पर प्रह्लाद निर्भय खड़े रहे। उन्हें तो सर्वत्र अपने दयामय प्रभु ही दिखायी पड़ते थे। डरनेका कोई कारण ही नहीं जान पड़ा उन्हें । असुरोंने पूरे बलसे अपने अस्त्र-शस्त्र बार-बार चलाये किंतु प्रह्लादको कोई क्लेश नहीं हुआ। उनको तनिक भी चोट नहीं लगी। उनके शरीरसे छूते ही वे हथियार | टुकड़े-टुकड़े हो जाते थे।
अब हिरण्यकशिपुको आशर्य हुआ। उसने प्रह्लादको मारनेका निश्चय कर लिया। अनेक उपाय करने लगा यह मतवाले हाथी के सामने हाथ-पैर बांधकर प्रहाद डाल दिये गये, पर हाथीने उन्हें सूँड़से उठाकर मस्तकपर बैठा लिया। कोठरीमें उन्हें बंद किया गया और यहाँ भयंकर सर्प छोड़े गये, पर वे सर्प प्रह्लादके पास पहुँचकर केंचुओंके समान सीधे हो गये। जंगली सिंह जब वहाँ छोड़ा गया, तब वह पालतू कुत्तेके समान पूँछ हिलाकर प्रह्लादके पास जा बैठा। प्रह्लादको भोजनमें उग्र विष दिया गया; किंतु उससे उनके ऊपर कोई प्रभाव न हुआ, विष जैसे उनके उदरमें जाकर अमृत हो गया हो। अनेक दिनोंतक भोजन तो क्या, जलकी एक बूँदतक प्रह्लादको नहीं दी गयी; पर वे शिथिल होनेके बदले ज्यों-के-त्यों बने रहे। उनका तेज बढ़ता ही जाता था। उन्हें ऊँचे पर्वतपरसे गिराया गया और पत्थर बांधकर समुद्रमें फेंका गया। दोनों बार वे सकुशल भगवन्नामका कीर्तन करते नगरमें लौट आये। बड़ा भारी लकड़ियोंका पर्वत एकत्र किया गया। हिरण्यकशिपुकी बहिन होलिकाने तप करके एक वस्त्र पाया था। वह वस्त्र अग्निमें जलता नहीं था। होलिका वह वस्त्र ओढ़कर प्रह्लादको गोदमें लेकर उस लकड़ियोंके ढेरपर बैठ गयी। उस ढेरमें अग्नि लगा दी। गयी। होलिका तो भस्म हो गयी। पता नहीं, कैसे उसका वस्त्र उड़ गया उसके देहसे; किंतु प्रह्लाद तो अग्निमें बैठे हुए पिताको समझा रहे थे- 'पिताजी आप भगवान्से द्वेष करना छोड़ दें। राम नामका यह प्रभाव तो देखें कि यह अग्नि मुझे अत्यन्त शीतल लग रही हैं। आप भी राम नाम लें और संसारके समस्त तापोंसे इसी प्रकार निर्भय हो जायें।'
दैत्यराज हिरण्यकशिपुके अनेक दैत्योंने मायाके प्रयोग किये किंतु माया तो प्रह्लादके सम्मुख टिकती होनहीं। उनके नेत्र उठाते हो मायाके दृश्य अपने आप नष्ट हो जाते हैं। गुरुपुत्र शण्ड तथा अमर्कने अभिचारके द्वारा प्रह्लादको मारनेके लिये कृत्या उत्पन्न की; परंतु उस कृत्याने गुरुपुत्रोंको ही उलटे मार दिया। प्रह्लादने भगवान्की प्रार्थना करके गुरुपुत्रोंको फिरसे जीवित किया। यों मारनेकी चेष्टा करनेवालोंको उनके मरनेपर जिला दिया। धन्य है। इस प्रकार दैत्यराजने अनेकों उपाय कर लिये प्रह्लादको मारनेके, पर कोई सफल न हुआ। जिसका चित्त भगवान्में लगा है, जो सर्वत्र अपने दयामय प्रभुको प्रत्यक्ष देखता है, भला, उसकी तनिक सी भी हानि वे सर्वसमर्थ प्रभु कैसे होने दे सकते हैं।
अव दैत्यराजको भय लगा। वे सोचने लगे कि 'कहीं यह नन्हा सा बालक मेरी मृत्युका कारण न हो जाय।' गुरुके कहने से वरुणके पाशमें बाँधकर प्रह्लादको उन्होंने फिर गुरुगृह भेज दिया। शिक्षा तथा सङ्गके प्रभावसे बालक सुधर जाय, यह उनकी इच्छा थी। गुरुगृहमें प्रह्लादजी अपने गुरुओंकी पढ़ायी विद्या पढ़ते तो थे, पर उनका चित्त उसमें लगता नहीं था। जब दोनों गुरु आश्रमके काममें लग जाते, तब प्रह्लाद अपने सहपाठी बालकोंको बुला लेते। एक तो ये राजकुमार थे, दूसरे अत्यन्त नम्र तथा सबसे स्नेह करनेवाले थे; अतएव सब बालक खेलना छोड़कर इनके बुलानेपर इनके समीप ही एकत्र हो जाते थे। प्रह्लादजी बड़े प्रेमसे उन बालकोंको समझाते थे– 'भाइयो! यह जन्म व्यर्थ नष्ट करने योग्य नहीं है। यदि इस जीवनमें भगवान्को न पाया गया तो बहुत बड़ी हानि हुई। घर-द्वार, स्त्री-पुत्र, राज्य-धन आदि तो दुःख ही देनेवाले हैं। इनमें मोह करके तो नरक जाना पड़ता है। इन्द्रियोंके विषयोंसे हटा लेने में ही सुख और शान्ति है। भगवान्को पानेका साधन सबसे अच्छे रूपमें इस कुमारावस्थामें ही हो सकता है। बड़े होनेपर तो स्त्री, पुत्र, धन आदिका मोह मनको बाँध लेता है और भला, वृद्धावस्थामें कोई कर ही क्या सकता है। भगवान्को पानेमें कोई बड़ा परिश्रम भी नहीं। वे तो हम सबके हृदयमें ही रहते हैं। सब प्राणियोंमें वे ही भगवान् हैं, अतः किसी प्राणीको कष्ट नहीं देना चाहिये। मनको सदा भगवानमें ही लगाये रहना चाहिये।'
सीधे-सादे सरल वित्त दैत्यबालकोंपर प्रह्लादजीके उपदेशका प्रभाव पड़ता था। बार-बार सुनते-सुनते वेउस उपदेशपर चलनेका प्रयत्न करने लगे। शुक्राचार्यके पुत्रोंने यह सब देखा तो उन्हें बहुत भय हुआ। उन्होंने प्रह्लादको दैत्यराजके पास ले जाकर सब बातें बतायीं। अब हिरण्यकशिपुने अपने हाथसे प्रह्लादको मारनेका निश्चय किया। उसने गरजकर पूछा-'अरे मूर्ख! तू किसके बलपर मेरा बराबर तिरस्कार करता है? मैं तेरा वध करूँगा। कहाँ है तेरा वह सहायक ? वह अब तुझे आकर बचाये तो देखूं।'
प्रह्लादजीने नम्रतासे उत्तर दिया- 'पिताजी! आप क्रोध न करें। सबका बल उस एक निखिल शक्तिसिन्धुके सहारे ही है! मैं आपका तिरस्कार नहीं करता। संसार में जीवका कोई शत्रु है तो उसका अनियन्त्रित मन ही है। उत्पथगामी मनको छोड़कर दूसरा कोई किसीका शत्रु नहीं। भगवान् तो सब कहाँ हैं। वे मुझमें हैं, आपमें हैं, आपके हाथके इस खड्गमें हैं, इस खम्भे में हैं, सर्वत्र हैं। 'वे इस खम्भे में भी हैं?' हिरण्यकशिपुने प्रह्लादकी बात पूरी होने नहीं दी। उसने सिंहासनसे उठकर पूरे जोरसे एक घूँसा खम्भेपर मारा। घूंसेके शब्दके साथ ही एक महाभयङ्कर दूसरा शब्द हुआ, जैसे सारा ब्रह्माण्ड फट गया हो सब लोग भयभीत हो गये। हिरण्यकशिपु भी इधर उधर देखने लगा। उसने देखा कि वह खम्भा बीचसे फट गया है और उससे मनुष्यके शरीर एवं सिंहके मुखकी एक अद्भुत भयङ्कर आकृति प्रकट हो रही है। भगवान् नृसिंहके प्रचण्ड तेजसे दिशाएँ जल-सी रही थीं। वे बार-बार गर्जन कर रहे थे। दैत्यने बहुत उछल-कूद की, बहुत पैंतरे बदले उसने किंतु अन्तमें नृसिंहाने उसे पकड़ लिया और राजसभाके द्वारपर ले जाकर अपने जानुपर रखकर नखोंसे उसका हृदय फाड़ डाला।
दैत्यराज हिरण्यकशिपु मारा गया, किंतु भगवान् नृसिंहका क्रोध शान्त नहीं हुआ। वे बार-बार गर्जना कर रहे थे। ब्रह्माजी, शंकरजी तथा दूसरे सभी देवताओंने दूरसे ही उनकी स्तुति की। पास आनेका साहस तो भगवती लक्ष्मीजी भी न कर सकीं। वे भी भगवान्का वह विकराल क्रुद्ध रूप देखकर डर गयीं। अन्तमें ब्रह्माजीने प्रह्लादको नृसिंहभगवान्को शान्त करनेके लिये उनके पास भेजा। प्रह्लाद निर्भव भगवान् के पास जाकर | उनके चरणोंपर गिर गये भगवान्ने स्नेहसे उन्हें उठाकरअपनी गोदमें बैठा लिया। वे बार-बार अपनी जीभसे प्रह्लादको चाटते हुए कहने लगे 'बेटा प्रह्लाद! मुझे आने में बहुत देर हो गयी। तुझे बहुत कष्ट सहने पड़े। तू मुझे क्षमा कर दे।'
प्रह्लादजीका कण्ठ भर आया। आज त्रिभुवनके स्वामी उनके मस्तकपर अपना अभय कर रखकर उन्हें स्नेहसे चाट रहे थे। प्रह्लादजी धीरेसे उठे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़कर भगवान्की स्तुति की। बड़े ही भक्तिभावसे उन्होंने भगवान्का गुणगान किया। अन्तमें भगवान्ने उनसे वरदान माँगनेको कहा। प्रह्लादजीने कहा- 'प्रभो! आप वरदान देनेकी बात करके मेरी परीक्षा क्यों लेते हैं? जो सेवक स्वामीसे अपनी सेवाका पुरस्कार चाहता है, वह तो सेवक नहीं, व्यापारी है। आप तो मेरे उदार स्वामी हैं। आपको सेवाकी अपेक्षा नहीं है और मुझे भी सेवाका कोई पुरस्कार नहीं चाहिये। मेरे नाथ! यदि आप मुझे शुद्धवरदान ही देना चाहते हैं तो मैं आपसे यही माँगता हूँ कि मेरे हृदयमें कभी कोई कामना ही न उठे।'
फिर प्रह्लादजीने भगवान्से प्रार्थना की- 'मेरे पिता आपकी और आपके भक्त मेरी निन्दा करते थे, वे इस पापसे छूट जायँ ।'
भगवान् ने कहा- 'प्रह्लाद! जिस कुलमें मेरा भक्त होता है, वह पूरा कुल पवित्र हो जाता है। तुम जिसके पुत्र हो, वह तो परम पवित्र हो चुका। तुम्हारे पिता तो इक्कीस पीढ़ियोंके साथ पवित्र हो चुके मेरा भक्त जिस स्थानपर उत्पन्न होता है, वह स्थान धन्य है। वह पृथ्वी तीर्थ हो जाती है, जहाँ मेरा भक्त अपने चरण रखता है।' भगवान्ने वचन दिया कि 'अब मैं प्रह्लादकी सन्तानोंका वध नहीं करूँगा।' कल्पपर्यन्तके लिये प्रह्लादजी अमर हुए। वे भक्तराज अपने महाभागवत पौत्र बलिके साथ अब भी सुतलमें भगवान्की आराधनामें नित्य तन्मय रहते हैं!
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jab bhagavaan vaaraahane prithveeko rasaatalase laate samay hiranyaakshako maar diya, tab usaka bada़a bhaaee daityaraaj hiranyakashipu bahut hee krodhit huaa. usane nishchay kiya ki 'main apane bhaaeeka badala lekar rahoongaa.' apaneko ajey evan amar banaaneke liye himaalayapar jaakar vah tap karane lagaa. usane sahasron varshontak ugr tap karake brahmaajeeko santusht kiyaa. brahmaajeene use varadaan diya ki "tum kisee astra-shastrase, brahmaajeedvaara nirmit kisee praaneese, raatamen, dinamen, jameenapar, aakaashamen-kaheen maare naheen jaaoge.'
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ab hiranyakashipuko aashary huaa. usane prahlaadako maaraneka nishchay kar liyaa. anek upaay karane laga yah matavaale haathee ke saamane haatha-pair baandhakar prahaad daal diye gaye, par haatheene unhen soonda़se uthaakar mastakapar baitha liyaa. kothareemen unhen band kiya gaya aur yahaan bhayankar sarp chhoda़e gaye, par ve sarp prahlaadake paas pahunchakar kenchuonke samaan seedhe ho gaye. jangalee sinh jab vahaan chhoda़a gaya, tab vah paalatoo kutteke samaan poonchh hilaakar prahlaadake paas ja baithaa. prahlaadako bhojanamen ugr vish diya gayaa; kintu usase unake oopar koee prabhaav n hua, vish jaise unake udaramen jaakar amrit ho gaya ho. anek dinontak bhojan to kya, jalakee ek boondatak prahlaadako naheen dee gayee; par ve shithil honeke badale jyon-ke-tyon bane rahe. unaka tej badha़ta hee jaata thaa. unhen oonche parvataparase giraaya gaya aur patthar baandhakar samudramen phenka gayaa. donon baar ve sakushal bhagavannaamaka keertan karate nagaramen laut aaye. bada़a bhaaree lakada़iyonka parvat ekatr kiya gayaa. hiranyakashipukee bahin holikaane tap karake ek vastr paaya thaa. vah vastr agnimen jalata naheen thaa. holika vah vastr odha़kar prahlaadako godamen lekar us lakada़iyonke dherapar baith gayee. us dheramen agni laga dee. gayee. holika to bhasm ho gayee. pata naheen, kaise usaka vastr uda़ gaya usake dehase; kintu prahlaad to agnimen baithe hue pitaako samajha rahe the- 'pitaajee aap bhagavaanse dvesh karana chhoda़ den. raam naamaka yah prabhaav to dekhen ki yah agni mujhe atyant sheetal lag rahee hain. aap bhee raam naam len aur sansaarake samast taaponse isee prakaar nirbhay ho jaayen.'
daityaraaj hiranyakashipuke anek daityonne maayaake prayog kiye kintu maaya to prahlaadake sammukh tikatee honaheen. unake netr uthaate ho maayaake drishy apane aap nasht ho jaate hain. guruputr shand tatha amarkane abhichaarake dvaara prahlaadako maaraneke liye kritya utpann kee; parantu us krityaane guruputronko hee ulate maar diyaa. prahlaadane bhagavaankee praarthana karake guruputronko phirase jeevit kiyaa. yon maaranekee cheshta karanevaalonko unake maranepar jila diyaa. dhany hai. is prakaar daityaraajane anekon upaay kar liye prahlaadako maaraneke, par koee saphal n huaa. jisaka chitt bhagavaanmen laga hai, jo sarvatr apane dayaamay prabhuko pratyaksh dekhata hai, bhala, usakee tanik see bhee haani ve sarvasamarth prabhu kaise hone de sakate hain.
av daityaraajako bhay lagaa. ve sochane lage ki 'kaheen yah nanha sa baalak meree mrityuka kaaran n ho jaaya.' guruke kahane se varunake paashamen baandhakar prahlaadako unhonne phir gurugrih bhej diyaa. shiksha tatha sangake prabhaavase baalak sudhar jaay, yah unakee ichchha thee. gurugrihamen prahlaadajee apane guruonkee padha़aayee vidya padha़te to the, par unaka chitt usamen lagata naheen thaa. jab donon guru aashramake kaamamen lag jaate, tab prahlaad apane sahapaathee baalakonko bula lete. ek to ye raajakumaar the, doosare atyant namr tatha sabase sneh karanevaale the; ataev sab baalak khelana chhoda़kar inake bulaanepar inake sameep hee ekatr ho jaate the. prahlaadajee bada़e premase un baalakonko samajhaate the– 'bhaaiyo! yah janm vyarth nasht karane yogy naheen hai. yadi is jeevanamen bhagavaanko n paaya gaya to bahut bada़ee haani huee. ghara-dvaar, stree-putr, raajya-dhan aadi to duhkh hee denevaale hain. inamen moh karake to narak jaana pada़ta hai. indriyonke vishayonse hata lene men hee sukh aur shaanti hai. bhagavaanko paaneka saadhan sabase achchhe roopamen is kumaaraavasthaamen hee ho sakata hai. bada़e honepar to stree, putr, dhan aadika moh manako baandh leta hai aur bhala, vriddhaavasthaamen koee kar hee kya sakata hai. bhagavaanko paanemen koee bada़a parishram bhee naheen. ve to ham sabake hridayamen hee rahate hain. sab praaniyonmen ve hee bhagavaan hain, atah kisee praaneeko kasht naheen dena chaahiye. manako sada bhagavaanamen hee lagaaye rahana chaahiye.'
seedhe-saade saral vitt daityabaalakonpar prahlaadajeeke upadeshaka prabhaav pada़ta thaa. baara-baar sunate-sunate veus upadeshapar chalaneka prayatn karane lage. shukraachaaryake putronne yah sab dekha to unhen bahut bhay huaa. unhonne prahlaadako daityaraajake paas le jaakar sab baaten bataayeen. ab hiranyakashipune apane haathase prahlaadako maaraneka nishchay kiyaa. usane garajakar poochhaa-'are moorkha! too kisake balapar mera baraabar tiraskaar karata hai? main tera vadh karoongaa. kahaan hai tera vah sahaayak ? vah ab tujhe aakar bachaaye to dekhoon.'
prahlaadajeene namrataase uttar diyaa- 'pitaajee! aap krodh n karen. sabaka bal us ek nikhil shaktisindhuke sahaare hee hai! main aapaka tiraskaar naheen karataa. sansaar men jeevaka koee shatru hai to usaka aniyantrit man hee hai. utpathagaamee manako chhoda़kar doosara koee kiseeka shatru naheen. bhagavaan to sab kahaan hain. ve mujhamen hain, aapamen hain, aapake haathake is khadgamen hain, is khambhe men hain, sarvatr hain. 've is khambhe men bhee hain?' hiranyakashipune prahlaadakee baat pooree hone naheen dee. usane sinhaasanase uthakar poore jorase ek ghoonsa khambhepar maaraa. ghoonseke shabdake saath hee ek mahaabhayankar doosara shabd hua, jaise saara brahmaand phat gaya ho sab log bhayabheet ho gaye. hiranyakashipu bhee idhar udhar dekhane lagaa. usane dekha ki vah khambha beechase phat gaya hai aur usase manushyake shareer evan sinhake mukhakee ek adbhut bhayankar aakriti prakat ho rahee hai. bhagavaan nrisinhake prachand tejase dishaaen jala-see rahee theen. ve baara-baar garjan kar rahe the. daityane bahut uchhala-kood kee, bahut paintare badale usane kintu antamen nrisinhaane use pakada़ liya aur raajasabhaake dvaarapar le jaakar apane jaanupar rakhakar nakhonse usaka hriday phaada़ daalaa.
daityaraaj hiranyakashipu maara gaya, kintu bhagavaan nrisinhaka krodh shaant naheen huaa. ve baara-baar garjana kar rahe the. brahmaajee, shankarajee tatha doosare sabhee devataaonne doorase hee unakee stuti kee. paas aaneka saahas to bhagavatee lakshmeejee bhee n kar sakeen. ve bhee bhagavaanka vah vikaraal kruddh roop dekhakar dar gayeen. antamen brahmaajeene prahlaadako nrisinhabhagavaanko shaant karaneke liye unake paas bhejaa. prahlaad nirbhav bhagavaan ke paas jaakar | unake charanonpar gir gaye bhagavaanne snehase unhen uthaakaraapanee godamen baitha liyaa. ve baara-baar apanee jeebhase prahlaadako chaatate hue kahane lage 'beta prahlaada! mujhe aane men bahut der ho gayee. tujhe bahut kasht sahane pada़e. too mujhe kshama kar de.'
prahlaadajeeka kanth bhar aayaa. aaj tribhuvanake svaamee unake mastakapar apana abhay kar rakhakar unhen snehase chaat rahe the. prahlaadajee dheerese uthe. unhonne donon haath joda़kar bhagavaankee stuti kee. bada़e hee bhaktibhaavase unhonne bhagavaanka gunagaan kiyaa. antamen bhagavaanne unase varadaan maanganeko kahaa. prahlaadajeene kahaa- 'prabho! aap varadaan denekee baat karake meree pareeksha kyon lete hain? jo sevak svaameese apanee sevaaka puraskaar chaahata hai, vah to sevak naheen, vyaapaaree hai. aap to mere udaar svaamee hain. aapako sevaakee apeksha naheen hai aur mujhe bhee sevaaka koee puraskaar naheen chaahiye. mere naatha! yadi aap mujhe shuddhavaradaan hee dena chaahate hain to main aapase yahee maangata hoon ki mere hridayamen kabhee koee kaamana hee n uthe.'
phir prahlaadajeene bhagavaanse praarthana kee- 'mere pita aapakee aur aapake bhakt meree ninda karate the, ve is paapase chhoot jaayan .'
bhagavaan ne kahaa- 'prahlaada! jis kulamen mera bhakt hota hai, vah poora kul pavitr ho jaata hai. tum jisake putr ho, vah to param pavitr ho chukaa. tumhaare pita to ikkees peedha़iyonke saath pavitr ho chuke mera bhakt jis sthaanapar utpann hota hai, vah sthaan dhany hai. vah prithvee teerth ho jaatee hai, jahaan mera bhakt apane charan rakhata hai.' bhagavaanne vachan diya ki 'ab main prahlaadakee santaanonka vadh naheen karoongaa.' kalpaparyantake liye prahlaadajee amar hue. ve bhaktaraaj apane mahaabhaagavat pautr balike saath ab bhee sutalamen bhagavaankee aaraadhanaamen nity tanmay rahate hain!