मोत्तमश्लोकजनेषु सख्यं
संसारचक्रे भ्रमतः स्वकर्मभिः ।
त्वन्माययाऽऽत्मात्मजदारगेहे
ध्वासक्तचित्तस्य न नाथ भूयात् ॥
(श्रीमद्भा0 6।11।27)
'हे पुण्यकीर्ति प्रभो। अपने कर्मोंसे संसारचक्रमें घूमते हुए मेरी मित्रता आपके भक्तोंसे आपके जनोंसे ही हो। हे स्वामी! मेरा चित्त आपकी मायाके कारण स्त्री- पुत्र घर आदिमें जो आसक्त हो रहा है, ऐसा न हो ! यह अब आपको छोड़ और कहीं आसक्ति न करे।'
एक बार देवराज इन्द्रने आचार्य बृहस्पतिके देवसभाम आनेपर गर्ववश उनका सत्कार नहीं किया, इससे बृहस्पतिजी रुष्ट होकर योगबल से ऐसे स्थानपर चले गये किडनेपर भी देवताओंको मिले नहीं गुरुहीन देवताओंपर असुरोंने चढ़ाई कर दी और देवता हार गये। ब्रह्माजीकी सम्मति से देवताओंने त्वष्टाके पुत्र विश्वरूपको पुरोहित बनाया। विश्वरूपको 'नारायणकवच' का ज्ञान था। उसके प्रभावसे बलवान् होकर इन्द्रने असुरोंको पराजित किया। किंतु विश्वरूपकी माता असुर-कन्या थीं। इन्द्रको सन्देह हुआ कि विश्वरूप प्रत्यक्ष तो हमारी सहायता करते हैं, पर गुमरूपसे असुरोंको भी हविर्भाग पहुँचाते हैं। इस सन्देहसे क्रोधवश इन्द्रने विश्वरूपको मार डाला। पुत्रकी मृत्युसे दुःखी त्वष्टाने इन्द्रसे बदला लेनेके लिये उसका शत्रु उत्पन्न हो, ऐसा संकल्प करके अभिचार-यज्ञ किया। उस यज्ञसे अत्यन्त भयंकर वृत्रका जन्म हुआ। यह वृत्रासुर पूर्वजन्ममें भगवान्के 'अनन्त' स्वरूपका परम भक्त चित्रकेतु नामक राजा था। पार्वतीजीके शापसे उसे यह असुरदेह मिला था। असुर होनेपर भी पूर्वजन्मके
अभ्याससे वृत्रकी भगवद्धति उत्तरोत्तर बढ़ती हो गयी। साठ हजार वर्ष कठोर तप करके वृत्रासुरने अमित शक्ति प्राप्त की। वह तीनों लोकोंको जीतकर उनके ऐश्वर्यका उपभोग करने लगा। वृत्र असुर था, उसका शरीर असुर जैसा था; किंतु उसका हृदय निष्पाप था। उसमें वैराग्य था और भगवान्की निर्मल निष्काम प्रेमरूपाभक्ति थी। भोगोंको नश्वरता वह जानता था। एक बार संयोगवश वह देवताओंसे हार गया। तब असुरकि आचार्य शुक्र उसके पास आये। उस समय आचार्यको यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वृत्रके मुखपर राज्यच्युत होनेका तथा पराजयका कोई खेद नहीं है। उन्होंने इसका कारण पूछा। उस महान् असुरने कहा-'भगवन्। सत्य और तपके प्रभावसे मैं जीवोंकी जन्म-मृत्यु तथा सुख दुःखके रहस्यको जान गया हूँ। इससे मुझे किसी भी अवस्थामें हर्ष या शोक नहीं होता। जीव अपने कर्मोंके अनुसार पुण्यका फल भोगने स्वर्ग तथा पापका फल भोगने नरक जाता है और वहाँके फलभोगसे बचे कर्मोके परिणामस्वरूप उसे मनुष्य, पशु पक्षी आदि योनियोंमें जन्म लेना पड़ता है। मरकर फिर वह इसी प्रकार स्वर्ग-नरकादिमें जाता है। भगवान्ने कृपा करके मुझे अपने तत्त्वका ज्ञान करा दिया है, इससे जीवोंक आवागमन तथा भोगोंके मिलने-न-मिलने में मुझे विकार नहीं होता। मैंने घोर तप करके ऐश्वर्य पाया और फिर अपने कर्मोंसे ही उसका नाश कर दिया। मुझे उस ऐश्वर्यके जानेका तनिक भी शोक नहीं है। इन्द्रसे युद्ध करते समय मैंने अपने स्वामी श्रीहरिके दर्शन किये थे। भगवान् की कृपासे और पहले किये तपके अवशिष्ट पुण्यप्रभावसे मेरी बुद्धि अभी शुद्ध है। मैं आपसे और कोई इच्छा न करके यही प्रार्थना करता हूँ कि किस कर्मसे, किस प्रकार भगवान्की प्राप्ति हो, यह आप मुझे उपदेश करें।'
शुक्राचार्यने सूत्रको भगवद्धतिको प्रशंसा की और भगवान्के प्रति नमस्कार किया। उसी समय सनकादि कुमार वहाँ घूमते हुए आ पहुँचे शुक्राचार्य तथा वृत्रने उनका आदरपूर्वक पूजन किया। शुक्राचार्थके पूछनेपर | सनत्कुमारजीने कहा- 'जो भगवान् सम्पूर्ण विश्वमें स्थित हैं, जो सृष्टि, पालन तथा संहारके परम कारण हैं, वे श्रीनारायण शास्त्रज्ञान, उग्र तप और यज्ञके द्वारा नहीं मिलते। मनसहित सब इन्द्रियाँको सांसारिक विषयोंसे हटाकर उनमें लगानेसे ही वे प्राप्त होते हैं। जो दृढ़तरअध्यवसायसे निष्काम भावपूर्वक भगवान्को प्रसन्न करनेके लिये कर्तव्यकर्म करते हैं और शम-दम आदि साधनोंको करके चित्तशुद्धि प्राप्त कर लेते हैं, वे ही इस आवागमन चक्रसे छूटते हैं। जैसे बार-बार तपानेपर सोना शुद्ध होता है, वैसे ही अनेक जन्मोंतक प्रयत्न करते रहने से जीव भी शुद्ध हो जाता है। जैसे थोड़ी सुगन्धिसे सरसोंका तेल अपनी गन्ध नहीं छोड़ता, वैसे ही थोड़े यत्नसे चित्तका मल नहीं मिटता । शरीरके मैलके समान हृदयका मैल भी साधनोंसे दूर होता है। प्रबल प्रयत्न करनेवाला पुरुष एक जन्ममें भी हृदयको शुद्ध कर लेता है। बुद्धिके विषयासक्ति आदि दोष बार- बारके महान् प्रयत्नसे नष्ट हो जाते हैं। सचराचरमें एकमात्र भगवान् ही व्याप्त हैं। सभी रूपोंमें वे नारायण ही दिखलायी पड़ रहे हैं। निर्मलहृदय पुरुष ज्ञान दृष्टिसे सबको नारायणस्वरूप देखते हैं। इस समदृष्टिसे वे ब्रह्मभावको प्राप्त हो जाते हैं। सभी जीव मरकर अपने प्रारब्धानुसार नाना योनियोंमें जन्म लेते हैं और फिर मृत्युको प्राप्त होते हैं। इसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड भी सृष्टि-प्रलयके चक्रमें है; किन्तु जो इन्द्रियोंको संयत करके सुख-दुःखमें सम रहते हैं, जो निर्मल मनसे परम पवित्र भगवद्गतिको जानना चाहते हैं, वे ब्रह्म-साक्षात्कार करके दुर्लभ मोक्षस्वरूप अविनाशी परब्रह्मको प्राप्त कर लेते हैं।'
वृत्रासुर अब दृढ़ निश्चयसे सर्वत्र सबमें भगवान्का अनुभव करने लगा। वह ऐसा भगवद्भावयुक्त हो गया कि उसकी तुलना कहीं सम्भव ही नहीं। राज्यहीन होनेपर भी निर्भय होकर वह अपने शत्रु देवताओंके बीचमें रहने लगा। इन्द्रादि देवताओंने उसे मारनेका बहुत प्रयत्न किया; पर वे सफल न हुए। मारनेवालोंके तेजको वह हरण कर लेता था और उनके अस्त्र-शस्त्र निगल जाता था। तब देवताओंने भगवान्की शरण ली। उन्होंने भगवान्की बहुत ही ज्ञानमयी स्तुति की। भगवान्ने प्रकट होकर कहा-'देवताओ! मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। मेरे प्रसन्न होनेपर फिर जीवको कुछ भी दुर्लभ नहीं रहता; किन्तु जिनकी बुद्धि अनन्यभावसे मुझमें लगी है, जो मेरे तत्वको जानते हैं, वे मुझे छोड़कर और कुछ नहीं चाहते। विषयोंको ही यथार्थ माननेवाला पुरुष विषयोंकी ही इच्छा करता है; क्योंकि वह अपने वास्तविककल्याणको जानता नहीं। ऐसे विषयकी इच्छा करनेवालेवा कोई विषय ही दे तो वह भी अज्ञानी ही कहा जैसे अच्छा वैद्य रोगीके चाहनेपर भी उसे कुपथ्य नहीं। | देता वैसे ही सत्पुरुष अज्ञानी विषयेच्छुको बन्धनकारी भोग देनेवाले कमका उपदेश नहीं करते।' भगवान् के इस उपदेशका तात्पर्य स्पष्ट है। बहुत ज्ञानमयी स्तुति करके भी देवता वृत्रका वध चाहते थे। उन्हें स्वर्गके भोगोंको निर्विघ्न भोगनेकी तुच्छ कामना थी। दयामय भगवान् उनपर प्रसन्न थे, फिर भी वे भगवान्को सर्वदाके लिये पानेकी प्रार्थना नहीं कर रहे थे। किन्तु देवताओंको बोलते न देख अपार कृपासिन्धु प्रभुने देख लिया कि ये विषयाभिलाषी ही हैं। प्रभुको अपने परम भक्त वृत्रको असुर-शरीरसे मुक्त करके अपने पास बुलाना था, अत: उन्होंने इन्द्रसे कहा- 'अच्छा, तुम महर्षि दधीचिके पास जाकर उनसे उनका शरीर माँग लो। वे महात्मा तुम्हें अपनी देह दे देंगे। उनकी हड्डियाँस बने वज्रके द्वारा तुम असुरराज वृत्रको मार सकोगे।' इन्द्रके माँगनेपर महर्षि दधीचिने योगद्वारा शरीर छोड़ दिया। विश्वकर्माने इनकी हड्डियोंसे वज्र बनाया। वज्र लेकर ऐरावतपर सवार हो बड़ी भारी सेनाके साथ इन्द्रने वृत्रपर आक्रमण किया। इस प्रकार इन्द्रको अपने सामने देखकर वह महामना असुर तनिक भी घबराया या डरा नहीं। वह निर्भय, निश्चल हँसता हुआ युद्ध करने लगा। इसी समय भगवान् विष्णुने इन्द्रके शरीरमें प्रवेश किया। भगवान् शङ्करके ने वृत्रके शरीरमें प्रवेश करके उसे शिथिल कर दिया। इतनेपर भी ज्वरग्रस्त वृत्र इन्द्रसे पराक्रममें प्रबल पड़ रहा था। उसने ऐरावतपर एक गदा मारी तो ऐरावत रक्त वमन करता अट्ठाईस हाथ पीछे हट गया। अपने शत्रुको ऐसे संकटमें पड़े देख वृत्र उलटे आश्वासन और प्रोत्साहन देता हुआ बोला- 'इन्द्र! घबराओ मत ! अपने इस अमोघ वज्रसे मुझे मारो। शङ्का मत करो, वज्र खाली नहीं जायगा। तुम्हारा वज्र तो महर्षि दधीचि और भगवान् के तेजसे सम्पन्न है। जहाँ भगवान् है, वहीं विजय है, यहाँ लक्ष्मी है और सारे गुण भी वहाँ है भगवानको सच्ची कृपा मुझपर है। मैं अपने मनको भगवान्के चरणकमलोंमें लगाकर तुम्हारे वज्रद्वाराइस शरीर के बन्धन से छूटकर योगियोंके लिये भी दुष्प्राप्य परम धामको प्राप्त कर लूंगा। इन्द्र। जिनकी बुद्धि भगवान्में लगी है, उन श्रीहरिके भक्तोंको स्वर्ग, पृथ्वी या पातालकी सम्पत्ति भगवान् कभी नहीं देते; क्योंकि ये सम्पत्तियाँ राग-द्वेष, उद्वेग-आवेग, आधि-व्याधि, मद-मोह, अभिमान क्षोभ, व्यसन-विवाद, परिश्रम-क्लेश आदिको ही देती हैं। अपनेपर निर्भर अबोध शिशुको माता-पिता कभी अपने हाथों क्या विष दे सकते हैं? मेरे स्वामी दयामय हैं, वे अपने प्रिय जनको विषय-रूप विष न देकर उसके अर्थ धर्म-कामसम्बन्धी प्रयत्नका ही नाश कर देते हैं। मुझपर भगवान् की कृपा है, इसीसे तो मेरे ऐश्वर्यको उन्होंने छीन लिया और तुम्हें वज्र देकर भेजा कि तुम इस शरीर से मुझे चुदाकर उनके चरणोंमें पहुँचा दो परंतु इन्द्र तुम्हारा अभाग्य है। तुमपर प्रभुकी कृपा नहीं है; इससे अर्थ, धर्म, कामके प्रयत्नमें तुम लगे हो । भगवान्की कृपाका रहस्य तो उनके निष्किञ्चन भक्त ही जानते हैं।'
असुरराज वृत्र भगवान्की कृपाका अनुभव करके भावमग्न हो गया। वह भगवान्को प्रत्यक्ष देखता हुआ सा उनसे प्रार्थना करने लगा' हरे! मैं मरकर भी तुम्हारे ही चरणोंके आश्रय में रहूँ, तुम्हारा ही दास बनूँ मेरा मन तुम्हारे गुणोंका सदा स्मरण करता रहे, मेरी वाणी तुम्हारे ही गुण-कीर्तनमें लगी रहे, मेरा शरीर तुम्हारी सेवा करता रहे। मेरे समर्थ स्वामी! मुझे स्वर्ग, ब्रह्माका पद, सार्वभौम राज्य पातालका स्वामित्व, योगसिद्धि और मोक्ष भी नहीं चाहिये में तो चाहता हूँ कि पक्षियोंके जिन बच्चोंके अभी पंख न निकले हों, वे जैसे चुगा लाने गयी हुई अपनी माताके आनेकी उत्सुक प्रतीक्षा करते हैं, जैसे रस्सीसे बँधे भूखसे व्याकुल छोटे बछड़े अपनीमाता गौका स्तन पीनेके लिये उतावले रहते हैं, जैसे पतिव्रता स्त्री अपने दूरदेश गये पतिका दर्शन पानेको उत्कण्ठित रहती है, वैसे ही आपके दर्शनके लिये मेरे प्राण व्याकुल रहें। इस संसारचक्रमें मैं अपने कर्मोंसे जहाँ भी जाऊँ, वहीं आपके भक्तोंसे मेरी मित्रता हो और आपकी मायासे जो यह देह-गेह, स्त्री-पुत्रादिमें आसक्ति है, वह मेरे चित्तका स्पर्श न करें।"
प्रार्थना करते-करते वृत्र ध्यानमग्न हो गया। कुछ देर में सावधान होनेपर वह इन्द्रकी ओर त्रिशूल उठाकर दौड़ा। इन्द्रने वज्रसे वृत्रकी वह दाहिनी भुजा काट दी। वृत्रने फिर परिघ उठाकर बायें हाथसे इन्द्रको ठोढ़ीपर मारा। इस आघात से इन्द्रके हाथसे वज्र गिर पड़ा और वे लज्जित हो गये। इन्द्रको लज्जित देख असुर वृत्रने हँसकर कहा-'शक्र। यह खेद करनेका समय नहीं है। वज्र हाथसे गिर गया तो हुआ क्या। उसे उठा लो और सावधानी से मुझपर चलाओ। सभी जीव सर्वसमर्थ भगवान् वशमें हैं। सबको सर्वत्र विजय नहीं मिलती। जैसे जालमें बँधे पक्षी हों, इसी प्रकार सब जीव परमात्माकी इच्छाके वशमें हैं। सबके संचालक भगवान् काल हैं, वे ही जय-पराजयके हेतु हैं। ओज, साहस, शक्ति, प्राण, अमृत और मृत्युरूपसे सबमें वे काल भगवान् ही स्थित हैं। मोहवश ही लोग जड शरीरको कारण मानते हैं। कठपुतलीके समान सभी जीव भगवान् के हान्त्र हैं जो लोग नहीं जानते कि ईश्वरके अनुग्रहके बिना प्रकृति, महत्तत्त्व, अहङ्कार, पद्मभूत इन्द्रियाँ, मन आदि कुछ नहीं कर सकते, वे लोग ही अज्ञानवश पराधीन देहको स्वाधीन मानते हैं। प्राणियोंका उत्पत्ति विनाश कालकी प्रेरणा ही होता है। जैसे बिना चाहे प्रारब्ध एवं कालकी प्रेरणासे दुःख, अयश, दरिद्रतामिलती है, उसी प्रकार भाग्यसे ही लक्ष्मी, आयु, यश और ऐश्वर्य प्राप्त होते हैं। जब ऐसी बात है, तब यश अपयश, जय-पराजय, सुख-दुःख, जीवन-मरणके लिये कोई क्यों हर्ष-विषाद करे। सुख-दुःख तो गुणोंके कार्य हैं और सत्त्व, रज, तम ये तीनों गुण प्रकृतिके हैं, आत्माके नहीं। जो अपनेको तीनों गुणोंका साक्षी आत्मा जानता है, वह सुख-दुःखसे लिप्त नहीं होता।'
इन्द्रने वृत्रासुरके निष्कपट दिव्य भावकी प्रशंसा की- 'दानवेन्द्र! तुम तो सिद्धावस्थाको प्राप्त हो गये हो। तुम सबमें एक 'ही आत्माको देखनेवाले भगवान् के परम भक्त हो। तुम आसुरीभावको छोड़कर महापुरुष हो गये हो। तुम सबको मोहित करनेवाली भगवान्की मायासे पार हो चुके हो। आश्चर्यकी बात है कि रजोगुणी स्वभावहोनेपर भी तुमने अपने चित्तको दृढ़तासे सत्त्वमूर्ति भगवान् वासुदेवमें लगा रखा है। तुम्हारा स्वर्गादिके भोगोंमें अनासक्त होना ठीक ही है। आनन्दसिन्धु भगवान्की भक्तिके अमृतसागरमें जो विहार कर रहा है, उसे स्वर्गादि सुख-जैसे नन्हे गढ़ोंमें भरे खारे गंदे जलसे प्रयोजन भी क्या ।'
इसके बाद वृत्रने मुख फैलाकर ऐरावतसहित इन्द्रको ऐसे निगल लिया, जैसे कोई बड़ा अजगर हाथीको निगल ले। निगले जानेपर भी इन्द्र नारायणकवचके प्रभावसे मरे नहीं। वज्रसे असुरका पेट फाड़कर वे निकल आये और फिर उसी वज्रसे उन्होंने उस दानवका सिर काट डाला। वृत्रके शरीरसे एक दिव्य ज्योति निकली, जो भगवान्के स्वरूपमें लीन हो गयी।
mottamashlokajaneshu sakhyan
sansaarachakre bhramatah svakarmabhih .
tvanmaayayaa''tmaatmajadaaragehe
dhvaasaktachittasy n naath bhooyaat ..
(shreemadbhaa0 6.11.27)
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vritraasur ab dridha़ nishchayase sarvatr sabamen bhagavaanka anubhav karane lagaa. vah aisa bhagavadbhaavayukt ho gaya ki usakee tulana kaheen sambhav hee naheen. raajyaheen honepar bhee nirbhay hokar vah apane shatru devataaonke beechamen rahane lagaa. indraadi devataaonne use maaraneka bahut prayatn kiyaa; par ve saphal n hue. maaranevaalonke tejako vah haran kar leta tha aur unake astra-shastr nigal jaata thaa. tab devataaonne bhagavaankee sharan lee. unhonne bhagavaankee bahut hee jnaanamayee stuti kee. bhagavaanne prakat hokar kahaa-'devataao! main tumapar prasann hoon. mere prasann honepar phir jeevako kuchh bhee durlabh naheen rahataa; kintu jinakee buddhi ananyabhaavase mujhamen lagee hai, jo mere tatvako jaanate hain, ve mujhe chhoda़kar aur kuchh naheen chaahate. vishayonko hee yathaarth maananevaala purush vishayonkee hee ichchha karata hai; kyonki vah apane vaastavikakalyaanako jaanata naheen. aise vishayakee ichchha karanevaaleva koee vishay hee de to vah bhee ajnaanee hee kaha jaise achchha vaidy rogeeke chaahanepar bhee use kupathy naheen. | deta vaise hee satpurush ajnaanee vishayechchhuko bandhanakaaree bhog denevaale kamaka upadesh naheen karate.' bhagavaan ke is upadeshaka taatpary spasht hai. bahut jnaanamayee stuti karake bhee devata vritraka vadh chaahate the. unhen svargake bhogonko nirvighn bhoganekee tuchchh kaamana thee. dayaamay bhagavaan unapar prasann the, phir bhee ve bhagavaanko sarvadaake liye paanekee praarthana naheen kar rahe the. kintu devataaonko bolate n dekh apaar kripaasindhu prabhune dekh liya ki ye vishayaabhilaashee hee hain. prabhuko apane param bhakt vritrako asura-shareerase mukt karake apane paas bulaana tha, ata: unhonne indrase kahaa- 'achchha, tum maharshi dadheechike paas jaakar unase unaka shareer maang lo. ve mahaatma tumhen apanee deh de denge. unakee haddiyaans bane vajrake dvaara tum asuraraaj vritrako maar sakoge.' indrake maanganepar maharshi dadheechine yogadvaara shareer chhoda़ diyaa. vishvakarmaane inakee haddiyonse vajr banaayaa. vajr lekar airaavatapar savaar ho bada़ee bhaaree senaake saath indrane vritrapar aakraman kiyaa. is prakaar indrako apane saamane dekhakar vah mahaamana asur tanik bhee ghabaraaya ya dara naheen. vah nirbhay, nishchal hansata hua yuddh karane lagaa. isee samay bhagavaan vishnune indrake shareeramen pravesh kiyaa. bhagavaan shankarake ne vritrake shareeramen pravesh karake use shithil kar diyaa. itanepar bhee jvaragrast vritr indrase paraakramamen prabal pada़ raha thaa. usane airaavatapar ek gada maaree to airaavat rakt vaman karata atthaaees haath peechhe hat gayaa. apane shatruko aise sankatamen pada़e dekh vritr ulate aashvaasan aur protsaahan deta hua bolaa- 'indra! ghabaraao mat ! apane is amogh vajrase mujhe maaro. shanka mat karo, vajr khaalee naheen jaayagaa. tumhaara vajr to maharshi dadheechi aur bhagavaan ke tejase sampann hai. jahaan bhagavaan hai, vaheen vijay hai, yahaan lakshmee hai aur saare gun bhee vahaan hai bhagavaanako sachchee kripa mujhapar hai. main apane manako bhagavaanke charanakamalonmen lagaakar tumhaare vajradvaaraais shareer ke bandhan se chhootakar yogiyonke liye bhee dushpraapy param dhaamako praapt kar loongaa. indra. jinakee buddhi bhagavaanmen lagee hai, un shreeharike bhaktonko svarg, prithvee ya paataalakee sampatti bhagavaan kabhee naheen dete; kyonki ye sampattiyaan raaga-dvesh, udvega-aaveg, aadhi-vyaadhi, mada-moh, abhimaan kshobh, vyasana-vivaad, parishrama-klesh aadiko hee detee hain. apanepar nirbhar abodh shishuko maataa-pita kabhee apane haathon kya vish de sakate hain? mere svaamee dayaamay hain, ve apane priy janako vishaya-roop vish n dekar usake arth dharma-kaamasambandhee prayatnaka hee naash kar dete hain. mujhapar bhagavaan kee kripa hai, iseese to mere aishvaryako unhonne chheen liya aur tumhen vajr dekar bheja ki tum is shareer se mujhe chudaakar unake charanonmen pahuncha do parantu indr tumhaara abhaagy hai. tumapar prabhukee kripa naheen hai; isase arth, dharm, kaamake prayatnamen tum lage ho . bhagavaankee kripaaka rahasy to unake nishkinchan bhakt hee jaanate hain.'
asuraraaj vritr bhagavaankee kripaaka anubhav karake bhaavamagn ho gayaa. vah bhagavaanko pratyaksh dekhata hua sa unase praarthana karane lagaa' hare! main marakar bhee tumhaare hee charanonke aashray men rahoon, tumhaara hee daas banoon mera man tumhaare gunonka sada smaran karata rahe, meree vaanee tumhaare hee guna-keertanamen lagee rahe, mera shareer tumhaaree seva karata rahe. mere samarth svaamee! mujhe svarg, brahmaaka pad, saarvabhaum raajy paataalaka svaamitv, yogasiddhi aur moksh bhee naheen chaahiye men to chaahata hoon ki pakshiyonke jin bachchonke abhee pankh n nikale hon, ve jaise chuga laane gayee huee apanee maataake aanekee utsuk prateeksha karate hain, jaise rasseese bandhe bhookhase vyaakul chhote bachhada़e apaneemaata gauka stan peeneke liye utaavale rahate hain, jaise pativrata stree apane dooradesh gaye patika darshan paaneko utkanthit rahatee hai, vaise hee aapake darshanake liye mere praan vyaakul rahen. is sansaarachakramen main apane karmonse jahaan bhee jaaoon, vaheen aapake bhaktonse meree mitrata ho aur aapakee maayaase jo yah deha-geh, stree-putraadimen aasakti hai, vah mere chittaka sparsh n karen."
praarthana karate-karate vritr dhyaanamagn ho gayaa. kuchh der men saavadhaan honepar vah indrakee or trishool uthaakar dauda़aa. indrane vajrase vritrakee vah daahinee bhuja kaat dee. vritrane phir parigh uthaakar baayen haathase indrako thodha़eepar maaraa. is aaghaat se indrake haathase vajr gir pada़a aur ve lajjit ho gaye. indrako lajjit dekh asur vritrane hansakar kahaa-'shakra. yah khed karaneka samay naheen hai. vajr haathase gir gaya to hua kyaa. use utha lo aur saavadhaanee se mujhapar chalaao. sabhee jeev sarvasamarth bhagavaan vashamen hain. sabako sarvatr vijay naheen milatee. jaise jaalamen bandhe pakshee hon, isee prakaar sab jeev paramaatmaakee ichchhaake vashamen hain. sabake sanchaalak bhagavaan kaal hain, ve hee jaya-paraajayake hetu hain. oj, saahas, shakti, praan, amrit aur mrityuroopase sabamen ve kaal bhagavaan hee sthit hain. mohavash hee log jad shareerako kaaran maanate hain. kathaputaleeke samaan sabhee jeev bhagavaan ke haantr hain jo log naheen jaanate ki eeshvarake anugrahake bina prakriti, mahattattv, ahankaar, padmabhoot indriyaan, man aadi kuchh naheen kar sakate, ve log hee ajnaanavash paraadheen dehako svaadheen maanate hain. praaniyonka utpatti vinaash kaalakee prerana hee hota hai. jaise bina chaahe praarabdh evan kaalakee preranaase duhkh, ayash, daridrataamilatee hai, usee prakaar bhaagyase hee lakshmee, aayu, yash aur aishvary praapt hote hain. jab aisee baat hai, tab yash apayash, jaya-paraajay, sukha-duhkh, jeevana-maranake liye koee kyon harsha-vishaad kare. sukha-duhkh to gunonke kaary hain aur sattv, raj, tam ye teenon gun prakritike hain, aatmaake naheen. jo apaneko teenon gunonka saakshee aatma jaanata hai, vah sukha-duhkhase lipt naheen hotaa.'
indrane vritraasurake nishkapat divy bhaavakee prashansa kee- 'daanavendra! tum to siddhaavasthaako praapt ho gaye ho. tum sabamen ek 'hee aatmaako dekhanevaale bhagavaan ke param bhakt ho. tum aasureebhaavako chhoda़kar mahaapurush ho gaye ho. tum sabako mohit karanevaalee bhagavaankee maayaase paar ho chuke ho. aashcharyakee baat hai ki rajogunee svabhaavahonepar bhee tumane apane chittako dridha़taase sattvamoorti bhagavaan vaasudevamen laga rakha hai. tumhaara svargaadike bhogonmen anaasakt hona theek hee hai. aanandasindhu bhagavaankee bhaktike amritasaagaramen jo vihaar kar raha hai, use svargaadi sukha-jaise nanhe gadha़onmen bhare khaare gande jalase prayojan bhee kya .'
isake baad vritrane mukh phailaakar airaavatasahit indrako aise nigal liya, jaise koee bada़a ajagar haatheeko nigal le. nigale jaanepar bhee indr naaraayanakavachake prabhaavase mare naheen. vajrase asuraka pet phaada़kar ve nikal aaye aur phir usee vajrase unhonne us daanavaka sir kaat daalaa. vritrake shareerase ek divy jyoti nikalee, jo bhagavaanke svaroopamen leen ho gayee.