भक्त लाला रामनारायणजीको जन्मभूमि तो पञ्जाब थी, परंतु वे बहुत समयसे आकर बस गये थे मोक्षदायिनी भगवान् शङ्करकी काशीपुरीमें। उनके साथ पञ्जाबके कई लोग और भी आये थे। रामनारायणजी भगवान् शङ्करके अनन्य भक्त थे। प्रतिदिन बहुत तड़के ही गङ्गा-स्नान करके वे भगवान् विश्वनाथजीके दर्शन करते और फिर घर लौटकर पार्थिवपूजन, शिवसहस्रनामका पाठ, महामृत्युञ्जय मन्त्रका भक्ति - श्रद्धापूर्वक जप करते थे। मध्याहतक उनका पूजा-पाठ चलता। उनकी पत्नी शारदा और पुत्र शम्भुशरण भी भगवान् शिवजीके बड़े भक्त थे। कल्याणकारी 'नमः शिवाय' का अनवरत जप तो परिवारभरका स्वभाव ही बन गया था। आशुतोष भगवान् शङ्करको कृपासे रामनारायणजीका व्यापार चमका और वे थोड़े ही दिनोंमें सुख-समृद्धि से सम्पन्न हो गये।
धनसे अभिमान और स्वार्थ बढ़ा करता है, परंतु श्रीशङ्करजीकी कृपासे यहाँ सर्वथा विपरीत परिणाम हुआ। श्रीरामनारायणजीके ज्यों-ही-ज्यों सुख-समृद्धि और धन-ऐश्वर्य बढ़ा, त्यों-ही-त्यों उनमें नम्रता, विनय, त्यागकी भावना और अन्यान्य दैवी-सम्पत्तिके गुण बढ़ते गये। सत्पुरुषोंके पास आये हुए न्यायोपार्जित धनका सुकृत और सेवामें ही सदुपयोग हुआ करता है, इस सिद्धान्त के अनुसार रामनारायणजीका धन सत्कायमें लगने लगा। इससे उनकी कीर्ति भी बढ़ी।
पञ्जाबसे उनके साथ आये हुए लोगों में एक लाला दयालीराम थे। वे रामनारायणजीकी उन्नतिसे मन-ही मन जला करते। यद्यपि रामनारायणजी हर तरहसे स्वाभाविक ही उनके साथ बड़ी उदारता और प्रीतिका व्यवहार करते, फिर भी लाला दयालीरामकी द्वेषबुद्धि बढ़ती गयी। श्रीरामनारायणजीको इस बातका कुछ भी पता नहीं था। परंतु दबी आग कबतक रह सकती है। ईंधन और हवाका झोंका पाते ही धधक उठती है। इसी प्रकार मौका पाते ही लाला दयालीरामकी द्वेषानि भड़क उठी। अब तो वे खुल्लमखुल्ला रामनारायणजीसे वैर करने लगे और भाँति-भाँति से उन्हें सताने, परेशान करने और हानि पहुँचानेका प्रयत्न करने लगे। गालियाँ देने, गुंडोंसे पिटवाने, आग लगा देने और व्यापारमें नुकसान पहुँचानेआदिके रूपमें वैर-सम्पादनके भाँति-भाँतिके प्रयत्न दयालीरामकी ओरसे चलने लगे!
एक दिन रामनारायणजी गङ्गास्रान करके आ रहे थे। | दयालीरामने अचानक स्वयं आकर उनके दो जूते लगा दिये। रामनारायणजी हँसते हुए चले गये, परंतु उन्हें अपने साथी दयालीरामकी इस गिरी हुई हालतपर बड़ी दया आयी। वे उनकी दुःस्थितिके कारण दुःखी हो गये। अपने अपमान और जूतोंकी मारके कारण नहीं, परंतु दयालीरामकी मानसिक दुर्भावनाके कारण वे चिन्तातुर हो गये। उन्होंने सोचा, कैसे दयालीरामजीकी वृत्ति ठीक हो। उन्होंने मन-ही-मन उनसे विशेष प्रेम करनेका सङ्कल्प किया और सङ्कल्पानुसार कार्य भी आरम्भ कर दिया। यह नियम है कि जब हम किसीके सम्बन्धमें अपने मनमें द्वेष और वैरके विचार रखते हैं, तब वे हमारे विचाररूपी राक्षस उसकी ओर जाते हैं और उसके मनमें भी द्वेष और वैरके विचार उत्पन्न करके उनको फिर अपनी ओर खींचते हैं। स्वार्थ, क्रोध, हिंसा, मद और लोभ आदिके विचारोंका भी ऐसा ही असर होता है। इस प्रकार परस्परमें अशुभ विचार बढ़ते रहकर तमाम वातावरणको और तमाम जीवनको अशुभ बना देते हैं। इसके बदलेमें यदि किसीके प्रति प्रेमके विचारोंका पोषण हो तो वे भी वहाँतक पहुँचते हैं और उसके मनमें उभड़े हुए द्वेषको दबाकर प्रेमके भाव पैदा करते हैं। यों यदि बार-बार प्रेमके विचारोंको बढ़ा-बढ़ाकर भेजा जाय तो अन्तमें उसका द्वेष मिट जाता है और वह भी प्रेम करने लगता है। प्रेम प्रेमका और द्वेष द्वेषका जनक है। लाला दयालीरामके मनमें वैर था, परंतु रामनारायणजीके मनमें अत्यन्त सुदृढ़ और महान् प्रेम भरा था। अतएव दयालीरामके द्वेषके विचारोंका रामनारायणजीके प्रेमके बढ़े हुए विचारोंपर कोई असर नहीं हुआ; बल्कि वे विचार प्रेमके प्रबल विचारोंसे दबने लगे और उत्तरोत्तर क्षीणशक्ति होकर लौटने लगे। साथ ही रामनारायणजीके बढ़े हुए निर्मल और प्रबल प्रेमके विचार लगातार वहाँ पहुँचने लगे और उनके हृदयके अशुभ भावोंको क्रमशः मिटाने लगे। अब लाला दयालीरामको अपने कियेपर बीच-बीचमें पश्चात्ताप भी होने लगा।इधर लाला रामनारायणजीको धैर्य नहीं हुआ, वे शीघ्र से शीघ्र दयालीरामको शुभ स्वरूपमें देखनेके लिये आतुर हो गये। अतएव उन्होंने एक दिन रातको एकान्तमें आर्त होकर भगवान् आशुतोषसे करुण प्रार्थना की -'मेरे स्वामिन्! मुझे अपने साथी लाला दयालीरामजीके इस पतनका बड़ा ही दुःख है। आप अन्तर्यामी हैं: यदि मेरे मनमें उनके प्रति जरा भी द्वेष रहा हो या अब भी कहाँ हो तो मुझे उसका कड़ा दण्ड दीजिये; परंतु उनके मनमें शान्ति, सौहार्द और प्रेम पैदा कर दीजिये मेरे नरकाग्रिकी पीड़ा भोगनेसे भी यदि उनका चित्त शुद्ध होता हो तो मेरे भगवन्! शीघ्र से शीघ्र इसकी व्यवस्था कीजिये आपके दिये हुए धन ऐश्वर्य और मान-कीर्तिसे यदि उनके मनमें दुःख होता हो तो प्रभु आपकी इन चीजोंको आप तुरंत वापस ले लीजिये। मुझे तुरंत राहका भिखारी और सर्वथा दीन-हीन, अपमानित बना दीजिये। ऐसा धन-वैभव और यश-सम्मान किस कामका, जो किसी भी प्राणीके दुःखका कारण हो। फिर भगवन् ! जहाँतक, मेरे मनका मुझे पता है, मैंने तो कभी स्वामीसे धन-सम्मान के लिये प्रार्थना भी नहीं की थी। मैं तो स्वामीकी दी हुई वस्तुओंको नित्य स्वामीकी ही सम्पत्ति मानकर स्वामीके आज्ञानुसार स्वामीकी सेवामें ही लगानेका प्रयत्न करता रहा हूँ। परंतु ऐसा कहना भी मेरा अभिमान ही है। मैं क्या प्रयत्न करता हूँ। स्वामी ही तो सब कुछ करा रहे हैं। इस समय भी मैं जो कुछ कह रहा हूँ, इसमें भी तो दयामय स्वामीको ही प्रेरणा है। प्रभो! प्रभो! मैं दम्भ करता हूँ, मेरे मनमें अवश्य ही कोई दोषबुद्धि, कोई पापभावना रही होगी। मेरा मन सचमुच ही किसी छिपे अपराधसे भरा होगा, तभी तो मेरे कारण मेरे साथीको इतना उद्वेग हो रहा है। मैं ही तो उनके जीवनकी अशान्ति और व्यथाका कारण हूँ। मैं यह भी कैसे कह सकता हूँ कि मेरे मनमें धन-सम्मानकी कामना नहीं थी और मैं इसका केवल स्वामीकी सेवामें ही सदुपयोग कर रहा हूँ। प्रभो! अपना पाप मुझे दीख नहीं रहा है। यह मेरा और भी अपराध है। मेरे औढरदानी महादेव! मुझपर आपकी कितनी कृपा है। मैं क्या कहूँ? स्वामीकी कृपा और मेरी नालायकीमें मानोहोड़ लग गयी है। अब जैसा स्वामी उचित समझें, वैसाही हो। परंतु मेरा मन बार-बार इस दुःखसे रो रहा है।कि कैसे दयालीरामजीकी अशान्ति मिटेहृदयकी सच्ची प्रार्थना निश्चय ही सफल होती है। फिर भगवान् शङ्कर तो आशुतोष ठहरे। प्रार्थना करते करते ही रामनारायणजी समाधिस्थ हो गये। उन्होंने | देखा - भगवान् वृषभवाहन सामने उपस्थित हैं। बड़ी ही उज्ज्वल कर्पूरधवल कान्ति है, सिरपर पिङ्गल जटाजूट है गलेमें वासुकि शोभा पा रहे हैं। एक हाथमें त्रिशूल, दूसरेमें डमरू, तीसरेमें रुद्राक्षकी माला है और चौथे हाथसे अभयदान दे रहे हैं। कटिमें रीछकी छाल पहने हैं। विशाल नेत्रोंसे मानो कृपासुधाकी वर्षा हो रही है। होठोंपर मुसकान है। देवदेव श्रीशङ्करजीके दर्शन पाकर लाला श्रीरामनारायणजी कृतार्थ हो गये। उनके नेत्रोंसे प्रेमा बहने लगे, शरीर रोमाञ्चित हो गया, आनन्दातिरेकसे प्रेमाश्रु वाणी बंद हो गयी। भगवान्ने उनके मस्तकपर | अभयहस्तारविन्द रखा और कहा- 'रामनारायण! तेरी श्रद्धा, भक्ति और निष्काम सेवाने मुझको अपने वशमें कर लिया है। यह दयालीराम पूर्वजन्ममें पिशाच था, इसके पहले जन्ममें वह दक्षिणापथमें ब्राह्मण था और तू वहीं पर एक व्यापारी था। तेरी बुद्धि उस समय भी श्रेष्ठ थी। वह ब्राह्मण होनेपर भी कुसङ्गमें पड़कर मद्य मांसका सेवन करता था और डाके डालकर धन कमाया करता था। उसमें बड़ी क्रूरता आ गयी थी। एक दिन उसने तेरे घरमें डाका डाला। तैंने उसके साथ उस समय भी बड़ा सद्व्यवहार किया और मनमाँगा धन देनेके बाद उसे मेरी भक्ति और 'नमः शिवाय' मन्त्र जाप करनेका उपदेश दिया। तेरे सद्व्यवहारका उसपर बड़ा प्रभाव पड़ा और वह मेरी पूजा करने लगा। एक बार रामेश्वरमें जाकर उसने मुझपर जल और बिल्वपत्र चढ़ाये थे। अपने पापोंके कारण वह दूसरी योनिमें पिशाच हुआ, परंतु तेरे संग तथा मेरी पूजाके फलस्वरूप वह योनि दस ही वर्षोंमें छूट गयी और उसने पुनः क्षत्रिय कुलमें जन्म धारण किया। पिछले मानवशरीरमें उसका जीवन द्वेष, हिंसा, क्रोध और वैरकी भावनाओंका घर बना हुआ था। निरीहाँको सताना और भला करनेवालोंका भी बुरा करना उसका स्वभाव बन गया था। उन्हीं संस्कारोंके कारण उसने इस जन्ममें भी तुझसे वैर-विरोध किया। परंतु तेरा हृदय सर्वथा निर्वैर तथा पवित्र प्रेमसे परिपूर्ण होनेके कारण | उसके वैरने तुझपर तो कोई असर किया ही नहीं, प्रत्युततेरे प्रेमसे उसका हृदय क्रमशः पवित्र होता गया है। आज तो तेरी प्रार्थनासे वह सर्वथा पवित्र हो गया है। तुझे धन्य है, जो अपनी सद्भावनासे तू असतोंको सत् बना रहा है। मैं तुझपर बहुत ही प्रसन्न हूँ! मैं जानता हूँ तेरी धन-सम्मानमें जरा भी आसक्ति नहीं है। इसीसे तो उनके द्वारा मेरी आदर्श सेवा हो रही है। आसक्तिमान् पुरुषके धनसे मेरी (भगवान्की) सेवा नहीं बन सकती। तू सुख-शान्तिपूर्वक यहाँका कर्तव्य पूरा करके मेरे दिव्यलोकमें जायगा । निश्चिन्त रहकर मेरा भजन करता रह ।'
भगवान् श्रीशङ्करजी इतना कहकर ज्यों ही अन्तर्धान हुए, त्यों ही लाला रामनारायणजीकी समाधि टूटी । उन्होंने देखा—दयालीराम चरणोंमें पड़े रो रहे हैं। रामनारायणजीने उनको भगवान् शङ्करका कृपापात्र समझकरउठा लिया। दयालीराम चरण छोड़ना नहीं चाहते थे। बार-बार अपनी करतूतोंका वर्णन करते हुए कातर कण्ठसे रो-रोकर क्षमा माँग रहे थे उनको सच्चा पश्चात्ताप था। भगवान् शङ्करजीकी कृपा, रामनारायणजीके सद्भाव और सच्चे पश्चात्तापकी आगने उनके समस्त पाप और पापबीजोंको जला दिया। श्रीरामनारायणजीने उठाकर उन्हें हृदयसे लगा लिया और बहुत तरहसे सान्त्वना देकर तथा श्रीशङ्करजीकी भक्तिका उपदेश देकर विदा किया।
श्रीदयालीरामके मनमें पूर्वजन्मकी स्मृति आ गयी। वे 'नमः शिवाय' मन्त्रका जाप तथा भक्तिपूर्वक श्रीशङ्करजी की उपासनामें लग गये। रामनारायणजीके साथ उनका प्रेम अटूट हो गया। दोनों साथी भगवान् श्रीविश्वनाथजीकी से वामें जीवन समर्पण करके कृतकृत्य हो गये l
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