दक्षिण में करवीर (वर्तमान कोल्हापुर) के पास ऊर्णा नदीके तटपर एक गाँवमें एक ब्राह्मण परिवार रहता था। दो स्त्री-पुरुष थे और तीसरा एक छोटा-सा शिशु था। ब्राह्मणवृत्तिसे गृहस्थका निर्वाह होता था। घरमें तुलसीजीका पेड़ था, भगवान्, शालग्रामकी पूजा होती थी, पत्नी आज्ञाकारिणी थी, पति पत्नीकी रुचिका आदर करनेवाले थे। दोनोंमें धार्मिकता थी, अपने-अपने कर्तव्यका ध्यान था और था बहुत ऊँचे हिंदू-आदर्शका अकृत्रिम प्रेम । भगवान्की दयासे बच्चा भी हो गया था। दम्पति सुखी थे! परंतु दिन बदलते रहते हैं। सुखका प्रकाशमय दिवस सहसा दुःखकी अमा-निशाके रूपमें परिणत हो जाता है। मनुष्य सोचता है 'जीवन सुखमें ही बीतेगा, ये आनन्दके दिन कभी पूरे होंगे ही नहीं, इस प्रेम मंदिराका नशा कभी उतरेगा ही नहीं। छके रहेंगे जीवनभर इसीमें।' परंतु विधाताके विधानसे बात बिगड़ जाती है। कितनी आशासे, अन्तस्तलके कितने अनुरागसे, हृदयके सुधामय स्नेह-सलिलसे जिस जीवनाधार वृक्षको सींचा जाता है, वही सहसा विच्छिन्न होकर हमारे हृदयके सारे तारोंको छिन्नभिन्न कर देता है। जन्म-मृत्युका चक्र चौबीसों घंटे चलता ही रहता है और बड़े स्पष्टभावसे वह घोषणा करता है 'जीवन क्षणभङ्गुर है, सुख अनित्य है और आशा दुःखपरिणामिनी है !' गाँवमें एक बार जोरसे हैजा फैला और देखते-ही-देखते ब्राह्मणी कालके कराल गालमें चली गयी। ब्राह्मण महान् दुःखी हो गये। मातृहीन शिशुकी भी बुरी अवस्था थी। कुछ दिनों बाद ब्राह्मण भी हैजेके पंजेमें आ गये और दुधमुँहे नन्हे से ढाई सालके बच्चेको छोड़कर बरबस चल बसे। जी बच्चेमें अटका, परंतु मृत्युकी अनिवार्य शक्तिके सामने कुछ भी बस नहीं चला। गाँवसे बाहर एक साधु रहते थे। पहुँचे हुए थे। पता नहीं, उनके मनमें कहाँसे प्रेरणा हुई । ममताके उस पार पहुँच गये थे। दया भी मायाकी ही एक त्याज्य वृत्ति थी उनके अनुभवमें। परंतु ब्राह्मण-दम्पतिके मरण और अनाथ बालक की दुर्दशाके समाचारने उनके मनमें दयाका सञ्चार कर दिया, भले ही वह बाधितानुवृत्तिसे ही हो ! साधुबाबा दौड़े गये और शिशुको अपनी कुटियापर उठा लाये। बड़ी ममतासे हजार माताओंका स्नेह उड़ेलकर वेउसे पालने लगे। उनका प्रधान काम ही हो गया बच्चेको नहलाना धुलाना, खिलाना-पिलाना और उसकी देख रेख करना। भगवान्की लीला ! महात्माकी कुटिया एकान्तमें थी कुटिया के नीचे ही नदी बहती थी। चारों ओर मनोरम वन था। बड़ा सात्त्विक वातावरण था। संसारके काम, क्रोध, लोभ, असत्य और हिंसा वहाँ फटकते भी नहीं थे, देखनेको भी नहीं मिलते थे। कुत्सित क्रिया या दूषित टा करनेवाला वहाँ कोई आता ही नहीं था। भोग-विलासकी सामग्रियोंके तो स्वप्रमें भी दर्शन नहीं होते थे, खान पानमें पवित्रता और सादगी थी। सोने, उठने और आहार-विहारके समय और परिमाण निश्चित थे। सबसे बड़ी बात तो यह कि वहाँ दिन-रात भगवदाराधना, भगवच्चर्चा और भगवच्चिन्तन होता था। मन इन्द्रियोंके सामने ऐसा कोई दृश्य आता ही न था, जिससे उनमें विकार पैदा होनेकी सम्भावना हो। काम, क्रोध, असत्य और हिंसादि दोष मनके धर्म नहीं हैं, इन्द्रियोंकी कुचेष्टा इनका स्वभाव नहीं है। ये तो विकार हैं-आगन्तुक दोष हैं, जो प्रधानतया सङ्गदोषसे उत्पन्न होते हैं और फिर तदनुकूल चेष्टाओंसे बढ़ते-बढ़ते चित्तमें यहाँतक अपना स्थान बना लेते हैं कि उनका चितसे अलगाव दीखता ही नहीं मालूम होता है कि ये चित्त और इन्द्रियोंके सहज स्वाभाविक धर्म हैं, उनके स्वरूप ही हैं। अस्तु! जन्मसे ही माता-पिताको सच्चेष्टा, संतकी कुटियाके शुद्ध वातावरण और सत्सङ्गके प्रभावसे बालकके जीवनमें कोई नया दोष तो आया ही नहीं। पूर्वसंस्कारजनित दोष भी दबकर क्षीण हो गये-बहुत-से मर गये! बुरे विचार, बुरी भावना और बुरी क्रियाओंसे मानो वह अपरिचित ही रह गया। महात्मा उसे पढ़ानेके साथ ही परमार्थकी साधनामें भी लगाये रखते थे। पता नहीं पूर्वजन्मका कोई सम्बन्ध था या विशुद्ध भगवत्प्रेरणा थी। महात्माजी अपनी सारी साधना-सारा ज्ञान उस बालकके निर्मल हृदयमें एक ही साथ उड़ेल देना चाहते थे। परिणाम यह हुआ कि सोलह वर्षकी उम्रमें हो बालक एक महान् साधक बन गया। अहिंसा, सत्य, प्रेम, संयम उसके स्वभाव बन गये। भगवानकी भक्तिका स्रोत उसकेअंदरसे फूट निकला और सबको पवित्र करने लगा। उसकी वाणी अमोध हो गयी सत्यके प्रतापसे और उसकी प्रत्येक इच्छा फलवती हो गयी संयम और त्यागकी महिमासे वह बाहर और भीतरसे सच्चा महात्मा हो गया। उसका चेहरा ब्रह्मतेजसे चमक उठा।
सबका समय निश्चित है। महात्माजीके जीवनकी अवधि भी पूरी हो गयी। वे इस असार संसारको छोड़कर हँसते-हँसते भगवान्के परम धाममें चले गये। बालक निराश्रय तो हो गया, परंतु महात्माजीकी कृपासे उसे कोई शोक नहीं हुआ। भगवान्का विधान उसने शिरोधार्य किया आदरपूर्वक, शान्त हृदयसे ।
महात्माजी उसे रंगनाथ कहते थे, इससे उसका यही नाम प्रसिद्ध हो गया। वह दिन-रात भजन ध्यानमें रहता। भगवान् की कृपासे जो कुछ मिल जाता, उसीपर निर्वाह करता। उसके जीवनका एक-एक क्षण भगवत्सेवामें लगता था। उसके तप तेजकी ख्याति दूर-दूरतक फैल गयी। लोग दर्शनको आने लगे। उसने दिनभर में एक पहरका समय ऐसा रख लिया, जिसमें लोगोंके साथ भगवच्चर्चा होती। शेष सारा समय एकान्तमें बीतता ।
एक बार एक दुःखी मनुष्य रंगनाथजीके पास आया उसने उन्हें एकान्तमें अपना दुःख सुनाया। दुःख था-धनकी कामनाका रंगनाथजीको उसके दुःखसे दुःख अवश्य हुआ। परंतु उन्होंने अपने मनमें कहा कि यह भूलसे ही इतना दुःखी हो रहा है। धनमें सुख होता तो जिन लोगोंके पास प्रचुर धन है, उनका जीवन तो सुखमय होना चाहिये था। परंतु वे भी तो दुःखी ही देखे जाते हैं। दुःखका कारण तो है--अज्ञानजनित असन्तोष। वह मिट जाय तो मनुष्य प्रारब्धानुसार किसी भी हालत में रहे, वह सर्वदा सुखी रह सकता है। रंगनाथजीने उसको समझाने की चेष्टा को बड़े प्रेमसे उसको सब बातें बतलायीं। परंतु उसे सन्तोष नहीं हुआ। उसने कहा-'एक बार आप अपने मुखसे कह दें कि मेरे खूब धन हो जायगा तो बस में कृतार्थ हो जाऊँगा।' रंगनाथजीने कहा- भाई प्रथम तो यह बात है कि मेरे कहनेसे होता हो क्या है दूसरे जब मैं प्रत्यक्ष देखता हूँ और अनुभव करता हूँ कि अधिक धनसे तुम्हारा दुःख बढ़ेगा, घटेगानहीं, तब में यदि सचमुच तुम्हारा हित चाहता हूँ तो तुम्हें वह मिले, ऐसी इच्छा क्योंकर कर सकता हूँ। साथ ही एक बात और है, धन मिलना वस्तुतः तुम्हारे प्रारब्धके अधीन है। न मालूम धनके मिलनेमें तुम्हारा कौन-सा प्रबल कर्म बाधक है। मैं तुम्हें कह दूँ और धन न मिले तो तुम्हारा भगवानृतकपर अविश्वास हो सकता है। इसलिये भैया तुम एक काम करो- सर्वात्मभावसे श्रीभगवान के शरण होकर उनके सामने अपनी सारी परिस्थिति रख दो और उनसे विनय करो कि वे तुम्हारे लिये जो कुछ मङ्गलजनक समझते हों, वही करें। सचमुच अभी भी वे तुम्हारा मेरा सबका कल्याण हो कर रहे हैं। परंतु विश्वास नहीं होता, इससे दुःख होता है भैया! भगवान्के विधानमें प्रसन्न रहो। वे मङ्गलमय हैं।' इस प्रकार बहुत समझानेपर जब उसको सन्तोष नहीं हुआ तब परम तपस्वी रंगनाथजीने उसको एक बार आँख मूंदनेको कहा। उसने आँखें मूंदी तो क्या देखता है कि उसके जाने-पहचाने हुए बड़े-बड़े धनीलोग-जिनको वह बहुत सुखी समझता था भीषण नरकाग्रिमें जल रहे हैं। उनमेंसे एक कह रहा है-
"सत्य है, धनका हो यह भीषण परिणाम है। मैंने धनके मदमें पागल होकर बड़ा अहङ्कार किया था। मैंने किसोको कुछ नहीं समझा। ज्यों-ज्यों धन बढ़ा, त्यों नाही-त्यों मेरा लोभ बढ़ता गया। मैंने छल-बल-कौशल से दूसरोंका धन हरण किया। लोगोंमें बड़ा धर्मात्मा और सुखी माना जाता था मैं। परंतु उस समय भी मैं जलता हो था और आज तो इस नरकाग्निमें कैसी भीषण यातना भोग रहा हूँ — इसे में ही जानता हूँ। दुःखसे छुटकारा चाहनेवाला कोई भी इस भयङ्कर परिणामपर पहुँचानेवाले धनका लोभ न करे। यदि न्याय और सत्यके द्वारा धन प्राप्त हो तो उसपर अपना अधिकार न मानकर उसे श्रीभगवान्को सम्पत्ति समझे और दीन-दुःखी जीवोंको सेवाके रूपमें प्रसन्नचित्तसे उसका सदुपयोग करता रहे। धनसे पन्द्रह दोष मुझमें उत्पन्न हो गये थे-दम्भ, दर्प, अभिमान, क्रोध, हिंसा, ममता, मोह, लोभ, काम,असत्य प्रमाद दुःसङ्गत विलासिता और इन्द्रियासति । मैंने धनमदान्ध होकर न जाने क्या-क्या किया था। उस समय उसका यह भीषण परिणाम नहीं सूझता था परंतु आज मैं उसीका फल- यह नरकानल भोग रहा हूँ। | असल में अपने लिये तो मनुष्यको उतने हो धनसे प्रयोजन है, जितनेसे अत्र वस्त्रका काम चल जाय। अधिक धनका लालच तो भोगवासनाके कारण होता है। मैं उस समय इस बातको भूल रहा था। अब तो हे भगवन्। किसी प्रकार पहाँसे छुटकारा मिले तो पीड़ा दूर हो दूसरेने कहा- मैं बहुत धनी था, किसी भी प्रकारसे धन बटोरना ही मेरे जीवनका उद्देश्य बन गया था। मैंने धनको कभी गरीबोंको सेवामें नहीं लगाया। इससे पहले तो साँप बना और अब इस दुर्गतिको भोग रहा हूँ। कुछ नारकी जोवाने और भी कई बातें सुनायीं। फिर तरकयन्त्रणाके मारे सभी फुफकार फुफकारकर रोने लगे। उनका आर्तनाद सुना नहीं जाता था बड़ा ही करुण दृश्य था। इसके बाद यकायक वह दृश्य हट गया और उसको आँखें खुल गयीं। उसने देखा-महात्मा रंगनाथजी बढ़ी करुण दृष्टिसे उसकी और देख रहे हैं और मुसकरा रहे हैं। देखे हुए दृश्यका और भक्त रंगनाथजीको दबादृष्टिका उसपर बढ़ा ही सुन्दर प्रभाव पड़ा। आश्रमके सात्विक वातावरण और सत्सङ्गका स्वाभाविक असर तो था ही भगवत्कृपासे उसकी धन-कामना नष्ट हो गयी। उसने कहा-'गुरुदेव मुझे ऐसा उपाय बतलाइये जिससे मेरा मानव जन्म सहज ही सफल हो जाय। मुझे धन-मान नहीं चाहिये। मैं चाहता हूँ-भगवत्प्रेम, भगवान्को अव्यभिचारिणौ भक्ति। आप दया कीजिये।'
उसका नाम था रामचन्द्र रामचन्द्र के हृदयका सुन्दर परिवर्तन देखकर रंगनाथजोको बड़ी प्रसन्नता हुई। वे भगवान्की कृपाका प्रत्यक्ष प्रभाव देखकर गद्द हो गये। उन्होंने कहा- भाई रामचन्द्र जबतक चितमें भोगोंकी कामना भरी है, तबतक उसका अन्धकार नहीं मिटता और इस अन्धकारके रहते शोक सन्तापसे कभी छुटकारा नहीं मिल सकता। भोग-वासनाका नाश सच्चे वैराग्यवानप्रभुप्रेमी संतोंके सङ्गसे ही हो सकता है। असल में भगवान्के प्रति भक्ति होनी चाहिये। भक्ति विषय-वैराग्य बिना हो नहीं सकती। विषयोंमें प्रीति रहते भगवान प्रीति कैसे हो और जिसमें प्रीति ही नहीं, उसे पानेकी चेष्टा भी क्यों होने लगी। सच्ची बात तो यह है कि भगवान् ही हमारे प्राणाधार हैं, हमारे परम आत्मीय हैं, सुख-दुःखके नित्य साथी हैं, निज जन हैं। वे ही परम प्रियतम हैं। एक बार उन्हें किसी तरह पहचान लिया जाय, जान लिया जाय तो फिर उनकी और हृदयका आकर्षण हुए बिना रह नहीं सकता। ऐसे ही हैं वे प्राणप्रियतम- सौन्दर्य, माधुर्य, वात्सल्य और औदार्यके समुद्र ! उनकी एक बार पहचान हो जानी चाहिये, फिर तो प्राण अपने आप ही उनके लिये रो उठेंगे। उनको प्राप्त किये बिना एक क्षण भी चैन नहीं पड़ेगा। कुछ भी अच्छा नहीं लगेगा। सब कुछ छोड़कर-सारे बन्धनोंको तोड़कर चितकी सारी वृत्तियाँ एकमुखी होकर उन्होंकी ओर बहने लगेंगी प्रचण्ड वेगसे, अत्यन्त द्रुतगामिनी होकर। असह्य हो जायगा उनका निमेषमात्रका वियोग । ऐसा होना ही मनुष्य जीवनकी पूर्ण सफलताका पूर्वरूप है। मनुष्यको अपने जीवनमें इसी के लिये पूर्ण प्रयत्न करना चाहिये। इसका उपाय है भगवान्का भजन। मैं तुम्हें द्वादशाक्षर मन्त्र बतलाता हूँ-तुम कामिनी, काञ्चन और मान-प्रतिष्ठाका मोह छोड़कर नित्यप्रति इस मन्त्रका पवित्र श्रद्धापूर्ण चित्तसे अधिक-से-अधिक जप किया करना। मन्त्र है - ॐ नमो भगवते वासुदेवाय'। खबरदार! बड़े-बड़े प्रलोभन आयेंगे तुम्हें डिंगानेके लिये, परंतु किसी प्रकार भी लालचमें फँस न जाना। भगवान् कल्याणमय हैं: तुम्हारी निष्ठा सच्ची होगी तो वे अपने दर्शनसे तुम्हें कृतार्थ करेंगे।'
रामचन्द्र भी अभी अविवाहित थे। उनके पास पिताका छोड़ा हुआ कुछ धन तो था परंतु उनकी इच्छा थी कि पहले किसी भी साधनसे खूब धनी बनना, तदनन्तर विवाह करके मौज उड़ाना। गृहस्थ-धर्मपालनको अपेक्षा इन्द्रिय-भोग और मौज-शौकपर उनकीदृष्टि कहीं अधिक थी। बल्कि यही कहना चाहिये कि वे विलासमय जीवन बितानेके लिये ही धन संग्रह करना चाहते थे। उन्होंने बहुत से उपाय किये। कोई कुछ भी बतलाता, वही करने लगते। अन्तमें भक्त रंगनाथजीको वाक् सिद्धिकी बात सुनकर किसी पूर्वपुण्यके प्रभावसे वे इनके पास आये थे और इनके अमोध सङ्गसे उनको मोहनिद्रा : टूट गयी। वे जग गये और घर लौटकर संतके आज्ञानुसार लग गये भगवत्कृपा प्राप्त करनेके लिये द्वादशाक्षर मन्त्र जपमें। जितना जितना आप बढ़ने लगा, उतना उतना ही उनका आनन्द बढ़ने लगा। अब तो जो लक्ष्मी उनसे दूर-दूर रहती थी, वही बिना बुलाये हो उनके पास आने लगी- परंतु वे बड़े दृढ़ रहे अपने व्रतपर वे जितना ही हटते, उतनी ही भोग-सामग्रियाँ आ-आकर उनके सामने लोट पड़तों, उनके चरणोंपर न्योछावर होतीं । परंतु उन्होंने किसीकी और कभी नजर ही नहीं डाली। मनुष्योंने, देवताओंने उन्हें जमीन मकानके, महल- सहनके, स्त्री-पुत्रके, धन-दौलतके, मान प्रतिष्ठा के बड़े-बड़े प्रलोभन दिये। सब चीजें मानो प्रत्यक्ष होकर उनकी सेवा करने को तैयार हो गयीं। परंतु उन्होंने उनको वैसे ही त्याग दिया, जैसे मनुष्य अपने वमनको त्याग देता है।
उनकी साधना सफल हुई। वे एक दिन पवित्र एकान्त देशमें सन्ध्या-वन्दनादि करनेके पश्चात् ध्यानस्थ होकर भगवान् के परम मन्त्रका जप कर रहे थे कि साक्षात् भगवान् नारायण वहाँ प्रकट हो गये। रामचन्द्रजी ध्यानसुख थे। आखिर भगवान्को प्रेरणासे उनके नेत्र खुले और वे साधुरक्षक भगवान्के दिव्य स्वरूपके दर्शन करके निहाल हो गये। निर्निमेष नेत्रोंसे रूप सुधाका पान करने लगे। किसी तरह भी तृप्ति नहीं होती थी। बहुत देरके बाद उनकी वाणी खुली और वे भगवान्को स्तुति करने लगे। भगवान्ने प्रसन्न होकर उन्हें अपनी प्रेमभक्ति दान की। जीवन सफल हो गया!
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ek baar ek duhkhee manushy ranganaathajeeke paas aaya usane unhen ekaantamen apana duhkh sunaayaa. duhkh thaa-dhanakee kaamanaaka ranganaathajeeko usake duhkhase duhkh avashy huaa. parantu unhonne apane manamen kaha ki yah bhoolase hee itana duhkhee ho raha hai. dhanamen sukh hota to jin logonke paas prachur dhan hai, unaka jeevan to sukhamay hona chaahiye thaa. parantu ve bhee to duhkhee hee dekhe jaate hain. duhkhaka kaaran to hai--ajnaanajanit asantosha. vah mit jaay to manushy praarabdhaanusaar kisee bhee haalat men rahe, vah sarvada sukhee rah sakata hai. ranganaathajeene usako samajhaane kee cheshta ko bada़e premase usako sab baaten batalaayeen. parantu use santosh naheen huaa. usane kahaa-'ek baar aap apane mukhase kah den ki mere khoob dhan ho jaayaga to bas men kritaarth ho jaaoongaa.' ranganaathajeene kahaa- bhaaee pratham to yah baat hai ki mere kahanese hota ho kya hai doosare jab main pratyaksh dekhata hoon aur anubhav karata hoon ki adhik dhanase tumhaara duhkh badha़ega, ghategaanaheen, tab men yadi sachamuch tumhaara hit chaahata hoon to tumhen vah mile, aisee ichchha kyonkar kar sakata hoon. saath hee ek baat aur hai, dhan milana vastutah tumhaare praarabdhake adheen hai. n maaloom dhanake milanemen tumhaara kauna-sa prabal karm baadhak hai. main tumhen kah doon aur dhan n mile to tumhaara bhagavaanritakapar avishvaas ho sakata hai. isaliye bhaiya tum ek kaam karo- sarvaatmabhaavase shreebhagavaan ke sharan hokar unake saamane apanee saaree paristhiti rakh do aur unase vinay karo ki ve tumhaare liye jo kuchh mangalajanak samajhate hon, vahee karen. sachamuch abhee bhee ve tumhaara mera sabaka kalyaan ho kar rahe hain. parantu vishvaas naheen hota, isase duhkh hota hai bhaiyaa! bhagavaanke vidhaanamen prasann raho. ve mangalamay hain.' is prakaar bahut samajhaanepar jab usako santosh naheen hua tab param tapasvee ranganaathajeene usako ek baar aankh moondaneko kahaa. usane aankhen moondee to kya dekhata hai ki usake jaane-pahachaane hue bada़e-bada़e dhaneeloga-jinako vah bahut sukhee samajhata tha bheeshan narakaagrimen jal rahe hain. unamense ek kah raha hai-
"saty hai, dhanaka ho yah bheeshan parinaam hai. mainne dhanake madamen paagal hokar bada़a ahankaar kiya thaa. mainne kisoko kuchh naheen samajhaa. jyon-jyon dhan badha़a, tyon naahee-tyon mera lobh badha़ta gayaa. mainne chhala-bala-kaushal se doosaronka dhan haran kiyaa. logonmen bada़a dharmaatma aur sukhee maana jaata tha main. parantu us samay bhee main jalata ho tha aur aaj to is narakaagnimen kaisee bheeshan yaatana bhog raha hoon — ise men hee jaanata hoon. duhkhase chhutakaara chaahanevaala koee bhee is bhayankar parinaamapar pahunchaanevaale dhanaka lobh n kare. yadi nyaay aur satyake dvaara dhan praapt ho to usapar apana adhikaar n maanakar use shreebhagavaanko sampatti samajhe aur deena-duhkhee jeevonko sevaake roopamen prasannachittase usaka sadupayog karata rahe. dhanase pandrah dosh mujhamen utpann ho gaye the-dambh, darp, abhimaan, krodh, hinsa, mamata, moh, lobh, kaam,asaty pramaad duhsangat vilaasita aur indriyaasati . mainne dhanamadaandh hokar n jaane kyaa-kya kiya thaa. us samay usaka yah bheeshan parinaam naheen soojhata tha parantu aaj main useeka phala- yah narakaanal bhog raha hoon. | asal men apane liye to manushyako utane ho dhanase prayojan hai, jitanese atr vastraka kaam chal jaaya. adhik dhanaka laalach to bhogavaasanaake kaaran hota hai. main us samay is baatako bhool raha thaa. ab to he bhagavan. kisee prakaar pahaanse chhutakaara mile to peeda़a door ho doosarene kahaa- main bahut dhanee tha, kisee bhee prakaarase dhan batorana hee mere jeevanaka uddeshy ban gaya thaa. mainne dhanako kabhee gareebonko sevaamen naheen lagaayaa. isase pahale to saanp bana aur ab is durgatiko bhog raha hoon. kuchh naarakee jovaane aur bhee kaee baaten sunaayeen. phir tarakayantranaake maare sabhee phuphakaar phuphakaarakar rone lage. unaka aartanaad suna naheen jaata tha bada़a hee karun drishy thaa. isake baad yakaayak vah drishy hat gaya aur usako aankhen khul gayeen. usane dekhaa-mahaatma ranganaathajee badha़ee karun drishtise usakee aur dekh rahe hain aur musakara rahe hain. dekhe hue drishyaka aur bhakt ranganaathajeeko dabaadrishtika usapar badha़a hee sundar prabhaav paड़aa. aashramake saatvik vaataavaran aur satsangaka svaabhaavik asar to tha hee bhagavatkripaase usakee dhana-kaamana nasht ho gayee. usane kahaa-'gurudev mujhe aisa upaay batalaaiye jisase mera maanav janm sahaj hee saphal ho jaaya. mujhe dhana-maan naheen chaahiye. main chaahata hoon-bhagavatprem, bhagavaanko avyabhichaarinau bhakti. aap daya keejiye.'
usaka naam tha raamachandr raamachandr ke hridayaka sundar parivartan dekhakar ranganaathajoko bada़ee prasannata huee. ve bhagavaankee kripaaka pratyaksh prabhaav dekhakar gadd ho gaye. unhonne kahaa- bhaaee raamachandr jabatak chitamen bhogonkee kaamana bharee hai, tabatak usaka andhakaar naheen mitata aur is andhakaarake rahate shok santaapase kabhee chhutakaara naheen mil sakataa. bhoga-vaasanaaka naash sachche vairaagyavaanaprabhupremee santonke sangase hee ho sakata hai. asal men bhagavaanke prati bhakti honee chaahiye. bhakti vishaya-vairaagy bina ho naheen sakatee. vishayonmen preeti rahate bhagavaan preeti kaise ho aur jisamen preeti hee naheen, use paanekee cheshta bhee kyon hone lagee. sachchee baat to yah hai ki bhagavaan hee hamaare praanaadhaar hain, hamaare param aatmeey hain, sukha-duhkhake nity saathee hain, nij jan hain. ve hee param priyatam hain. ek baar unhen kisee tarah pahachaan liya jaay, jaan liya jaay to phir unakee aur hridayaka aakarshan hue bina rah naheen sakataa. aise hee hain ve praanapriyatama- saundary, maadhury, vaatsaly aur audaaryake samudr ! unakee ek baar pahachaan ho jaanee chaahiye, phir to praan apane aap hee unake liye ro uthenge. unako praapt kiye bina ek kshan bhee chain naheen pada़egaa. kuchh bhee achchha naheen lagegaa. sab kuchh chhoda़kara-saare bandhanonko toड़kar chitakee saaree vrittiyaan ekamukhee hokar unhonkee or bahane lagengee prachand vegase, atyant drutagaaminee hokara. asahy ho jaayaga unaka nimeshamaatraka viyog . aisa hona hee manushy jeevanakee poorn saphalataaka poorvaroop hai. manushyako apane jeevanamen isee ke liye poorn prayatn karana chaahiye. isaka upaay hai bhagavaanka bhajana. main tumhen dvaadashaakshar mantr batalaata hoon-tum kaaminee, kaanchan aur maana-pratishthaaka moh chhoda़kar nityaprati is mantraka pavitr shraddhaapoorn chittase adhika-se-adhik jap kiya karanaa. mantr hai - oM namo bhagavate vaasudevaaya'. khabaradaara! bada़e-bada़e pralobhan aayenge tumhen dingaaneke liye, parantu kisee prakaar bhee laalachamen phans n jaanaa. bhagavaan kalyaanamay hain: tumhaaree nishtha sachchee hogee to ve apane darshanase tumhen kritaarth karenge.'
raamachandr bhee abhee avivaahit the. unake paas pitaaka chhoda़a hua kuchh dhan to tha parantu unakee ichchha thee ki pahale kisee bhee saadhanase khoob dhanee banana, tadanantar vivaah karake mauj uda़aanaa. grihastha-dharmapaalanako apeksha indriya-bhog aur mauja-shaukapar unakeedrishti kaheen adhik thee. balki yahee kahana chaahiye ki ve vilaasamay jeevan bitaaneke liye hee dhan sangrah karana chaahate the. unhonne bahut se upaay kiye. koee kuchh bhee batalaata, vahee karane lagate. antamen bhakt ranganaathajeeko vaak siddhikee baat sunakar kisee poorvapunyake prabhaavase ve inake paas aaye the aur inake amodh sangase unako mohanidra : toot gayee. ve jag gaye aur ghar lautakar santake aajnaanusaar lag gaye bhagavatkripa praapt karaneke liye dvaadashaakshar mantr japamen. jitana jitana aap badha़ne laga, utana utana hee unaka aanand badha़ne lagaa. ab to jo lakshmee unase doora-door rahatee thee, vahee bina bulaaye ho unake paas aane lagee- parantu ve bada़e dridha़ rahe apane vratapar ve jitana hee hatate, utanee hee bhoga-saamagriyaan aa-aakar unake saamane lot pada़ton, unake charanonpar nyochhaavar hoteen . parantu unhonne kiseekee aur kabhee najar hee naheen daalee. manushyonne, devataaonne unhen jameen makaanake, mahala- sahanake, stree-putrake, dhana-daulatake, maan pratishtha ke bada़e-bada़e pralobhan diye. sab cheejen maano pratyaksh hokar unakee seva karane ko taiyaar ho gayeen. parantu unhonne unako vaise hee tyaag diya, jaise manushy apane vamanako tyaag deta hai.
unakee saadhana saphal huee. ve ek din pavitr ekaant deshamen sandhyaa-vandanaadi karaneke pashchaat dhyaanasth hokar bhagavaan ke param mantraka jap kar rahe the ki saakshaat bhagavaan naaraayan vahaan prakat ho gaye. raamachandrajee dhyaanasukh the. aakhir bhagavaanko preranaase unake netr khule aur ve saadhurakshak bhagavaanke divy svaroopake darshan karake nihaal ho gaye. nirnimesh netronse roop sudhaaka paan karane lage. kisee tarah bhee tripti naheen hotee thee. bahut derake baad unakee vaanee khulee aur ve bhagavaanko stuti karane lage. bhagavaanne prasann hokar unhen apanee premabhakti daan kee. jeevan saphal ho gayaa!