यह बर मागउँ कृपानिकेता बसहु हृदयं श्री अनुज समेता।
अविरल भगति बिरति सतसंगा चरन सरोरुह प्रीति अभंग ll
(अगस्त्यजी) महर्षि अगस्त्य वेदोंके एक मन्त्रद्रष्टा ऋषि हैं। इनकी उत्पत्तिके सम्बन्धमें विभिन्न प्रकारकी कथाएँ मिलती है। कहीं मित्रावरुणके द्वारा वसिष्ठके साथ पड़ेनें पैदा होनेकी बात आती है तो कहीं पुलस्त्यकी पत्नी हविर्भूके गर्भसे विश्रवाके साथ इनकी उत्पत्तिका वर्णन आता है। किसी-किसी ग्रन्थके अनुसार स्वायम्भुव मन्वन्तरमें पुलस्त्यतनय दत्तोलि ही अगस्त्यके नामसे प्रसिद्ध हुए। ये सभी बातें कल्पभेदसे ठीक उतरती हैं। इनके विशाल जीवनकी समस्त घटनाओंका वर्णन नहीं किया जा सकता। यहाँ संक्षेपतः दो-तीन घटनाओंका उल्लेख किया जाता हैं।
एक बार जब इन्द्रने वृत्रासुरको मार डाला, तब कालेय नामके दैत्योंने समुद्रका आश्रय लेकर ऋषियों मुनियोंका विनाश करना शुरू किया। ये दैत्य दिनमें ती समुद्रमें रहते और रातको निकलकर पवित्र जंगलों में रहनेवाले ऋषियोंको खा जाते। उन्होंने वसिष्ठ, च्यवन, भरद्वाज - सभीके आश्रमोंपर जा जाकर हजारोंकी संख्या मेंऋषि-मुनियोंका भोजन किया था। अब देवताओंने महर्षि अगस्त्यकी शरण ग्रहण की। उनकी प्रार्थनासे और लोगों की व्यथा तथा हानि देखकर उन्होंने अपने एक चुल्लूमें ही सारे समुद्रको पी लिया। तब देवताओंने जाकर कुछ दैत्योंका वध किया और कुछ भागकर पाताल चले गये।
एक बार ब्रह्महत्या के कारण इन्द्रके स्थानच्युत हो जानेपर राजा नहुष इन्द्र हुए थे। इन्द्र होनेपर अधिकारके मदसे मत्त होकर उन्होंने इन्द्राणीको अपनी पत्नी बनानेकी चेष्टा की। तब बृहस्पतिकी सम्मति से इन्द्राणीने उन्हें एक ऐसी सवारीसे अपने समीप आनेकी बात कही, जिसपर अबतक कोई सवार न हुआ हो। मदमत्त नहुषने सवारी दोनेके लिये ऋषियोंको ही बुलाया। ऋषियोंको तो सम्मान-अपमानका कुछ खयाल था ही नहीं, आकर सवारीमें जुत गये। जब सवारीपर चढ़कर नहुष चले, तब शीघ्रातिशीघ्र पहुँचनेके लिये हाथमें कोड़ा लेकर 'जल्दी चलो। जल्दी चलो!' ('सर्प-सर्प') कहते हुए उन ब्राह्मणोंको विताड़ित करने लगे। यह बात महर्षि अगस्त्यसे देखी नहीं गयी। वे इसके मूलमें नहुषका अधःपतन और ऋषियोंका कष्ट देख रहे थे। उन्होंनेनहुषको उसके पापोंका उचित दण्ड दिया। शाप देकर उसे एक महाकाय सर्प बना दिया और इस प्रकार समाजकी मर्यादा सुदृढ़ रखी तथा धन-मद और पद - मदके कारण अन्धे लोगोंकी आँखें खोल दीं।
भगवान् श्रीराम वनगमनके समय इनके आश्रमपर पधारे थे और इन्होंने बड़ी श्रद्धा, भक्ति एवं प्रेमसे उनका सत्कार किया और उनके दर्शन, आलाप तथा संसर्गसे अपने ऋषिजीवनको सफल किया। साथ ही ऋषिने उन्हें कई प्रकारके शस्त्रास्त्र दिये और सूर्योपस्थानकी पद्धति बतायी। लङ्काके युद्धमें उनका उपयोग करके स्वयं भगवान् श्रीरामने उनके महत्त्वकी अभिवृद्धि की। इन्होंने भगवान् श्रीराधवेन्द्रका जो महत्त्वपूर्ण स्तवन किया है, उसका कुछ अंश अध्यात्मरामायणसे यहाँ उद्धृत किया जाता है'संसारमें जो लोग आपको भक्तिमें तत्पर और आपके हो मन्त्रको उपासना करनेवाले हैं, उन्होंक अन्त: करणमें विद्याका प्रादुर्भाव होता है और किसीके कभी नहीं होता। अतः जो पुरुष आपकी भक्ति सम्पन्न है, वे निस्सन्देह मुक्त हो हैं। आपकी भक्तिरूप अमृतके बिना स्वप्न में भी मोक्ष नहीं हो सकता। रामभद्र! और अधिक क्या कहूँ? इस विषयमें जो सार बात है, वह आपको बताये देता हूँ-संसारमें साधुसंग ही मोक्षका कारण है। संसारमें जो लोग संपद- विपदमें समानचित्त, स्पृहारहित, पुत्र- वित्तादिकी एषणासे रहित, इन्द्रियोंका दमन करनेवाले, शान्तचित, आपके भक्त, सम्पूर्ण कामनाओंसे शूल्य इष्ट तथा अनिष्टको प्राप्तिमें सम रहनेवाले, आसक्तिरहित, समस्त कर्मोंका मनसे त्याग करनेवाले, सर्वदा ब्रह्मपरायण रहनेवाले, यम आदि गुणोंसे सम्पन्न तथा जो कुछ मिल जाय, उसीमें संतुष्ट रहनेवाले होते हैं, वे ही साधु कहलाते हैं। जिस समय ऐसे साधु पुरुषोंका संग होता है, तब आपके कथा-श्रवणमें प्रेम हो जाता है। तदनन्तर हे राम! आप सनातन पुरुषमें भक्ति हो जाती है, तथा आपकी भक्ति हो जानेपर आपका विशद स्फुट ज्ञान प्राप्त होता है-यही जनसेवितमुक्तिका आद्यमार्ग है। अतः राघव ! आपमें मेरी सदा प्रेमलक्षणा भक्ति बनी रहे। मुझे अधिकतर आपके भक्तोंका संग प्राप्त हो। नाथ! आज आपके दर्शनसे मेरा जन्म सफल हो गया। हे प्रभो! | आज मेरे सम्पूर्ण यज्ञ सफल हो गये। हे राघव! सीताके सहित आप सर्वदा मेरे हृदयमें निवास करें; मुझे चलते फिरते तथा खड़े होते सदा आपका स्मरण
बना रहे। प्रेमभक्तिके मूर्तिमान् स्वरूप भक्त सुतीक्ष्ण इन्होंके शिष्य थे। उनकी तन्मयता और प्रेमके स्मरणसे आज भी लोग भगवान् की ओर अग्रसर होते हैं। लंकापर विजय प्राप्त करके जब भगवान् श्रीराम अयोध्याको लौट आये और उनका राज्याभिषेक हुआ, तब महर्षि अगस्त्य वहाँ आये और उन्होंने भगवान् श्रीरामको अनेकों प्रकारकी कथाएँ सुनार्थी वाल्मीकीय रामायण के उत्तरकाण्डको अधिकांश कथाएँ इन्होंके द्वारा कही हुई हैं। इन्होंने उपदेश और सत्संकल्पके द्वारा जगत्का बड़ा कल्याण | किया। इनके द्वारा रचित अगस्त्यसंहिता नामका एकउपासना सम्बन्धी बड़ा सुन्दर है। जिज्ञासुओंको उसका अवलोकन करना चाहिये।
एक बार स्वामिपुष्करिणीके तटपर राजा शङ्खके साथ इनको भगवान् विष्णुके दिव्य दर्शन हुए थे, वह इतिहास संक्षेपमें इस प्रकार है
हैहयवंशके नीतिज्ञ, प्रजावत्सल धर्मात्मा राजा श सदा अपने मनको भगवान्में लगाये रहते थे। वे राजा श्रुताभिधानके पुत्र थे। धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करनेके साथ नियमितरूपसे वे भगवान्का पूजन एवं ध्यान करते थे। बिना किसी प्रकारकी कामनाके केवल भगवान्को प्रसन्न करनेके लिये वे बराबर पुण्य, दान, व्रत तथा बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंसे युक्त यज्ञ किया करते थे। उन्होंने यश तथा स्वर्ग पानेकी इच्छाको सर्वथा त्यागकर केवल भगवान्को सन्तुष्ट करनेके लिये स्थान-स्थानपर कुएँ बावली, धर्मशाला आदि बनवायी थीं। विद्वान् ब्राह्मणोंसे वे भगवान्के मङ्गलमय चरित सुना करते थे। भगवान् के लिये पर्वोपर धूमधामसे महोत्सव करते थे। भगवन्नामका कीर्तन, भगवान्का स्मरण यही उनके परम प्रिय कार्य थे। इस प्रकार उनका चित्त सब ओरसे भगवान् में ही लगा रहता था। भगवान्में लगा चित्त अपने आप निर्मल हो जाता है और उसमें अपने-आप ही वैराग्यका उदय होता है।
राजा शङ्खके मनमें वैराग्यके साथ भगवान्को पाने की उत्कण्ठा जाग गयी। अब वे बराबर सोचते रहते- 'मुझे भगवान्के कब दर्शन होंगे? वे दयामय मुझे कब अपनायेंगे, मैं तो इतना अधम हूँ कि उनके श्रीचरणोंके सम्मुख जानेका अधिकारी कभी हो ही नहीं सकता; किंतु वे मेरे हृदयधन तो कृपाके समुद्र ही हैं। वे मुझ से क्षुद्रपर भी क्या कभी कृपा करेंगे? मैं क्या करूँ, कैसे उन सौन्दर्यसिन्धुकी एक झाँकी पाऊँ?' राजाकी व्याकुलताका कहीं पार नहीं था। उनके प्राण छटपटाने लगे।
सहसा बड़ी ही मधुर ध्वनि राजाने सुनी- 'राजन्। तुम शोक छोड़ दो। तुम तो मुझे बहुत ही प्यारे हो। तुमने मेरे लिये बहुत कष्ट सहा है, बहुत तप किया है, मैं तुमपर संतुष्ट हूँ; किंतु अभी तुम्हें मेरे दर्शन होनेमें एक सहस्र वर्षकी देर है। तुम्हारी ही भाँति महर्षि अगस्त्यभी मेरे दर्शनके लिये व्याकुल हो रहे हैं। ब्रह्माजीके आदेशसे वे वेंकटेश पर्वतपर तप कर रहे हैं। अब तुम भी वहीं जाकर मुझमें मन लगाकर मेरा भजन करो। वहीं तुम्हें मेरे दर्शन होंगे।'
राजा शङ्ख तो इस वाणीको सुनते ही मारे हर्षके नाचने लगे। उनका हृदय शीतल हो गया। 'भला, मुझ अधमको भगवान के दर्शन होंगे तो उन्हें तो एक हजार वर्ष एक क्षणसे भी छोटे लगे थोड़े समय के साधनसे उकता जानेवाले लोगोंमें भगवान्का प्रेम नहीं होता। जिसके हृदयमें प्रेम है, उसे तो यह पता लग जाना कि 'कभी उसे प्रेमास्पद प्रभु मिलेंगे- बहुत बड़ा वरदान है।' जो भगवान् कल्प-कल्पकी साधना से ऋषियोंको भी कदाचित् ही मिलते हैं, वे हजार वर्षमें मिलेंगे यह तो बहुत ही सुगम बात हो गयी ये हजार वर्षोंको कुछ गिनते ही नहीं। राजाने उसी समय अपने बड़े पुत्र वज्रका राज्याभिषेक कराया और वे वेङ्कटेशपर्वतकी ओर चल पड़े। भगवान्का दर्शन तो हजार वर्षोंमें होगा ही, फिर अब तप तथा भजन क्यों किया जाय-यह बात भक्तके मनमें नहीं आती। उसे तो दर्शन हो जानेपर भी भजनको छोड़ देना स्वीकार नहीं होता। राजाने तो अपनेपर भगवान्की कृपाका अनुभव कर लिया था, इससे उनकी भजनमें रुचि अत्यन्त बढ़ गयी थी। शिवजीने कहा है—'उमा राम सुभाङ जेहिं जाना। ताहि भजनु तजि भाव न आना।।' पर्वतपर पहुँचकर स्वामितोर्थ में स्वामिपुष्करिणीके पास उन्होंने अपनी पर्णकुटी बना ली और चित्तको भगवान्में लगाकर कठोर तप करने लगे।
महर्षि अगस्त्य उसी पर्वतकी परिक्रमा कर रहे थे। देवताओं एवं ऋषियोंको पता लग गया कि अगस्त्यजीको दर्शन देनेके लिये भगवान् यहाँ प्रकट होनेवाले हैं। अतः वे लोग भी भगवान्के दर्शनकी इच्छासे वहाँ एकत्र हो गये। जब तप एवं पूजन करते हुए लगभग एक हजार वर्ष बीत गये और अगस्त्यजीको श्रीनारायणके दर्शन नहीं हुए, तब उन्हें बड़ी व्याकुलता हुई। वे बहुत ही दुःखी हो गये। भगवान्की अप्राप्तिका यह दुःख जब बढ़ जाता है, तब भगवान् तुरंत दर्शन देते हैं। उसी समय ब्रह्माजीके भेजे बृहस्पतिजी, शुक्राचार्य आदिमहर्षिगणाने आकर उनसे कहा-'भगवान् ने हमें कहा है कि हम आपको लेकर स्वामिपुष्करिणीके तटपर शङ्ख राजाके पास जायें। यहाँ भगवान् श्रीहरिके दर्शन होंगे।'
ये महर्षिगण तथा देववृन्द, जिनकी सब लोग आराधना करते हैं, स्वयं अगस्त्यजीको साथ लेकर राजा शङ्खकी कुटियापर पहुँचे। राजाने उन सबकी पूजा की। देवगुरु बृहस्पतिजीने ब्रह्माजीका सन्देश सुनाया। उसे सुनकर राजा भगवान्के प्रेममें मग्न होकर भगवान्के गुण एवं नामोंका कीर्तन करते हुए नृत्य करने लगे। सभी लोग श्रीगोविन्दके कीर्तनमें सम्मिलित होकर तन्मय हो गये। तीन दिन स्तुति, प्रार्थना तथा कीर्तनकी यह धारा अखण्ड चलती रही। तीसरे दिन रात्रिमें जब सब लोग विश्राम करने लगे, तब रात्रिके पिछले प्रहरमें उन्होंने स्वप्न देखा। स्वप्नमें उन्होंने शङ्ख-चक्र-गदा-पद्मधारी चतुर्भुज भगवान्के दर्शन किये प्रातःकाल सबको निश्चय हो गया कि आज भगवान्के दर्शन होंगे। पुष्करिणीमें स्नान करके सब मिलकर भगवान्की नाना प्रकारसे स्तुति करने लगे। 'ॐ नमो नारायणाय' इस अष्टाक्षर मन्त्रका जप करते हुए उनके हृदय अत्यन्त उत्कण्ठित हो गये भगवान् के दर्शन करनेके लिये। इसी समय उनके सामने एक अद्भुत तेज प्रकट हुआ। कोटि कोटि सूर्य भी उतने प्रकाशमान नहीं हो सकते। इतनेपर भी उस तेजमें न तो ताप था और न नेत्र हो उससे चौंधियाते थे। वह बड़ा ही स्निग्ध, शीतल प्रकाश था। उस तेजको देखते ही सब भगवान् नारायणका ध्यान करने लगे। उन्होंने तत्काल उन श्रीहरिके दर्शन किये। भगवान्का वह स्वरूप मन तथा वाणीसे परे है। उनके सहलों मस्तक, सहस्रों नेत्र, सहस्रों नासिका, कर्ण तथा मुख हैं। उनके बाहु एवं चरणोंकी भी कोई गणना नहीं। भगवान्का दिव्य शरीर तपाये हुए सोनेके समान है। उनकी आकृति मनोहर होनेपर भी अत्यन्त भयंकर है। उनकी दाढ़े कराल हैं, उनके मुखसे अग्निकी लपटें निकल रही हैं। उन अनादि, अनन्त, अचिन्त्य, सर्वेश्वर, सर्वशक्तिमान्के इस स्वरूपको देखकर डरते हुए भी सब हर्षके साथजय-जयकार करते हुए उनकी स्तुति करने लगे।
वहाँ भगवान् के सभी शङ्ख, चक्र आदि आयुध मूर्तिमान् हो गये। सबने भगवान्की पूजा की। भगवान् ब्रह्मा, शङ्करजी, सनकादि ऋषि, सभी सिद्ध योगी, भगवत्पाद यहाँ भगवान्के दर्शन करनेके लिये एकत्र हो गये। सब भगवानके इस भयंकर रूपसे डर रहे थे। सब सौन्दर्यधन श्रीहरिको परम सुन्दर चतुर्भुजरूपमें हो देखना चाहते थे। भक्तवाञ्छाकल्पतरु प्रभुने सबको इच्छा पूर्ण करनेके लिये अपने उस विराट्रूपको अन्तर्हित कर लिया और दूसरे हो क्षण वे एक सुन्दर रत्नखचित विमानपर चतुर्भुज पीताम्बरधारी, परम सुन्दर स्वरूपमें प्रकट हो गये। सबने भगवान्को फिर बड़ी भक्तिसे स्तुति की, उनका पूजन किया। भगवान् के इस मधुरिमामय स्वरूपका दर्शन करके सबके हृदय आनन्दमग्न हो रहे थे। भगवान्ने अगस्त्यजोसे कहा- 'तुमने मेरे लिये बड़ा तप किया है। मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे वरदान माँग लो।'
महर्षि अगस्त्यने भगवान्से उनके चरणोंमें भक्तिका वरदान माँगा और देवताओंकी प्रेरणासे यह प्रार्थना की कि भगवान् वेंकटेशपर्वतपर निवास करें और वहाँ जो दर्शन करने आयें, उनकी कामना पूर्ण हो। महर्षिपर कृपा करके उस पर्वतपर भगवान् श्रीविग्रहरूपमें अब भी विद्यमान हैं। वेंकटेशपर्वत उसी समयसे तीर्थ हो गया। भगवान्ने राजा शङ्खसे भी वरदान माँगने को कहा। किसी भी सच्चे भक्तको भगवान्की भक्तिको छोड़कर और कुछ कभी अभीष्ट नहीं होता। राजाने भी वरदानमें भक्ति ही मांगी।
महर्षि अगस्त्य भगवान्को भक्तिके प्रतापसे सप्तर्षियोंमें स्थान पाकर कल्पान्ततक अमर हो गये। उनके तेजसे रावण जैसे त्रिभुवनविजयी भी डरते थे। महर्षिने अपना आश्रम विन्ध्याचल से दक्षिण बनाया था। वहाँ दण्डकारण्यमें राक्षसोंका उत्पात होनेपर महर्षिके आश्रम में वे उपद्रव करनेका साहस नहीं करते थे। जब विन्ध्याचलने बढ़कर सूर्यका मार्ग रोकना चाहा, तब महर्षिने हो उसे भूमिमें प्रणत पड़े रहनेका आदेश दिया और तबसे वह वैसे ही पड़ा है।
भगवान्के परम भक्त श्रीअगस्त्यजीको बार-बार नमस्कार ।
yah bar maagaun kripaaniketa basahu hridayan shree anuj sametaa.
aviral bhagati birati satasanga charan saroruh preeti abhang ll
(agastyajee) maharshi agasty vedonke ek mantradrashta rishi hain. inakee utpattike sambandhamen vibhinn prakaarakee kathaaen milatee hai. kaheen mitraavarunake dvaara vasishthake saath pada़enen paida honekee baat aatee hai to kaheen pulastyakee patnee havirbhooke garbhase vishravaake saath inakee utpattika varnan aata hai. kisee-kisee granthake anusaar svaayambhuv manvantaramen pulastyatanay dattoli hee agastyake naamase prasiddh hue. ye sabhee baaten kalpabhedase theek utaratee hain. inake vishaal jeevanakee samast ghatanaaonka varnan naheen kiya ja sakataa. yahaan sankshepatah do-teen ghatanaaonka ullekh kiya jaata hain.
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raaja shankh to is vaaneeko sunate hee maare harshake naachane lage. unaka hriday sheetal ho gayaa. 'bhala, mujh adhamako bhagavaan ke darshan honge to unhen to ek hajaar varsh ek kshanase bhee chhote lage thoda़e samay ke saadhanase ukata jaanevaale logonmen bhagavaanka prem naheen hotaa. jisake hridayamen prem hai, use to yah pata lag jaana ki 'kabhee use premaaspad prabhu milenge- bahut bada़a varadaan hai.' jo bhagavaan kalpa-kalpakee saadhana se rishiyonko bhee kadaachit hee milate hain, ve hajaar varshamen milenge yah to bahut hee sugam baat ho gayee ye hajaar varshonko kuchh ginate hee naheen. raajaane usee samay apane bada़e putr vajraka raajyaabhishek karaaya aur ve venkateshaparvatakee or chal pada़e. bhagavaanka darshan to hajaar varshonmen hoga hee, phir ab tap tatha bhajan kyon kiya jaaya-yah baat bhaktake manamen naheen aatee. use to darshan ho jaanepar bhee bhajanako chhoda़ dena sveekaar naheen hotaa. raajaane to apanepar bhagavaankee kripaaka anubhav kar liya tha, isase unakee bhajanamen ruchi atyant badha़ gayee thee. shivajeene kaha hai—'uma raam subhaan jehin jaanaa. taahi bhajanu taji bhaav n aanaa..' parvatapar pahunchakar svaamitorth men svaamipushkarineeke paas unhonne apanee parnakutee bana lee aur chittako bhagavaanmen lagaakar kathor tap karane lage.
maharshi agasty usee parvatakee parikrama kar rahe the. devataaon evan rishiyonko pata lag gaya ki agastyajeeko darshan deneke liye bhagavaan yahaan prakat honevaale hain. atah ve log bhee bhagavaanke darshanakee ichchhaase vahaan ekatr ho gaye. jab tap evan poojan karate hue lagabhag ek hajaar varsh beet gaye aur agastyajeeko shreenaaraayanake darshan naheen hue, tab unhen bada़ee vyaakulata huee. ve bahut hee duhkhee ho gaye. bhagavaankee apraaptika yah duhkh jab badha़ jaata hai, tab bhagavaan turant darshan dete hain. usee samay brahmaajeeke bheje brihaspatijee, shukraachaary aadimaharshiganaane aakar unase kahaa-'bhagavaan ne hamen kaha hai ki ham aapako lekar svaamipushkarineeke tatapar shankh raajaake paas jaayen. yahaan bhagavaan shreeharike darshan honge.'
ye maharshigan tatha devavrind, jinakee sab log aaraadhana karate hain, svayan agastyajeeko saath lekar raaja shankhakee kutiyaapar pahunche. raajaane un sabakee pooja kee. devaguru brihaspatijeene brahmaajeeka sandesh sunaayaa. use sunakar raaja bhagavaanke premamen magn hokar bhagavaanke gun evan naamonka keertan karate hue nrity karane lage. sabhee log shreegovindake keertanamen sammilit hokar tanmay ho gaye. teen din stuti, praarthana tatha keertanakee yah dhaara akhand chalatee rahee. teesare din raatrimen jab sab log vishraam karane lage, tab raatrike pichhale praharamen unhonne svapn dekhaa. svapnamen unhonne shankha-chakra-gadaa-padmadhaaree chaturbhuj bhagavaanke darshan kiye praatahkaal sabako nishchay ho gaya ki aaj bhagavaanke darshan honge. pushkarineemen snaan karake sab milakar bhagavaankee naana prakaarase stuti karane lage. 'oM namo naaraayanaaya' is ashtaakshar mantraka jap karate hue unake hriday atyant utkanthit ho gaye bhagavaan ke darshan karaneke liye. isee samay unake saamane ek adbhut tej prakat huaa. koti koti soory bhee utane prakaashamaan naheen ho sakate. itanepar bhee us tejamen n to taap tha aur n netr ho usase chaundhiyaate the. vah bada़a hee snigdh, sheetal prakaash thaa. us tejako dekhate hee sab bhagavaan naaraayanaka dhyaan karane lage. unhonne tatkaal un shreeharike darshan kiye. bhagavaanka vah svaroop man tatha vaaneese pare hai. unake sahalon mastak, sahasron netr, sahasron naasika, karn tatha mukh hain. unake baahu evan charanonkee bhee koee ganana naheen. bhagavaanka divy shareer tapaaye hue soneke samaan hai. unakee aakriti manohar honepar bhee atyant bhayankar hai. unakee daadha़e karaal hain, unake mukhase agnikee lapaten nikal rahee hain. un anaadi, anant, achinty, sarveshvar, sarvashaktimaanke is svaroopako dekhakar darate hue bhee sab harshake saathajaya-jayakaar karate hue unakee stuti karane lage.
vahaan bhagavaan ke sabhee shankh, chakr aadi aayudh moortimaan ho gaye. sabane bhagavaankee pooja kee. bhagavaan brahma, shankarajee, sanakaadi rishi, sabhee siddh yogee, bhagavatpaad yahaan bhagavaanke darshan karaneke liye ekatr ho gaye. sab bhagavaanake is bhayankar roopase dar rahe the. sab saundaryadhan shreehariko param sundar chaturbhujaroopamen ho dekhana chaahate the. bhaktavaanchhaakalpataru prabhune sabako ichchha poorn karaneke liye apane us viraatroopako antarhit kar liya aur doosare ho kshan ve ek sundar ratnakhachit vimaanapar chaturbhuj peetaambaradhaaree, param sundar svaroopamen prakat ho gaye. sabane bhagavaanko phir bada़ee bhaktise stuti kee, unaka poojan kiyaa. bhagavaan ke is madhurimaamay svaroopaka darshan karake sabake hriday aanandamagn ho rahe the. bhagavaanne agastyajose kahaa- 'tumane mere liye bada़a tap kiya hai. main tumapar prasann hoon. tum mujhase varadaan maang lo.'
maharshi agastyane bhagavaanse unake charanonmen bhaktika varadaan maanga aur devataaonkee preranaase yah praarthana kee ki bhagavaan venkateshaparvatapar nivaas karen aur vahaan jo darshan karane aayen, unakee kaamana poorn ho. maharshipar kripa karake us parvatapar bhagavaan shreevigraharoopamen ab bhee vidyamaan hain. venkateshaparvat usee samayase teerth ho gayaa. bhagavaanne raaja shankhase bhee varadaan maangane ko kahaa. kisee bhee sachche bhaktako bhagavaankee bhaktiko chhoda़kar aur kuchh kabhee abheesht naheen hotaa. raajaane bhee varadaanamen bhakti hee maangee.
maharshi agasty bhagavaanko bhaktike prataapase saptarshiyonmen sthaan paakar kalpaantatak amar ho gaye. unake tejase raavan jaise tribhuvanavijayee bhee darate the. maharshine apana aashram vindhyaachal se dakshin banaaya thaa. vahaan dandakaaranyamen raakshasonka utpaat honepar maharshike aashram men ve upadrav karaneka saahas naheen karate the. jab vindhyaachalane badha़kar sooryaka maarg rokana chaaha, tab maharshine ho use bhoomimen pranat pada़e rahaneka aadesh diya aur tabase vah vaise hee pada़a hai.
bhagavaanke param bhakt shreeagastyajeeko baara-baar namaskaar .