दक्षिण देशमें पाण्ड्य और चोलवंशियोंके राज्य चिरकालसे प्रसिद्ध हैं। दोनों ही वंशोंमें बड़े-बड़े धर्मात्मा, न्यायशील, भगवद्भक्त राजा हो गये हैं। जिन दिनोंकी बात कही जा रही है, उन दिनों पाण्ड्यवंशकी राजधानी मधुरा थी जिसे आजकल मदुरा कहते हैं। उसके एकच्छत्र अधिपति थे राजा पुण्यनिधि पुण्यनिधिका नाम सार्थक था, वास्तवमें वे पुण्योंके खजाने ही थे। उनका सादा जीवन इतना उच्च और आदर्श था कि जो भी उन्हें देखता, प्रभावित हुए बिना नहीं रहता। उनके जीवनमें शान्ति थी, उनके परिवारमें शान्ति थी और उनके राज्यमें शान्ति थी। उनके पुण्य-प्रतापसे, उनके शुद्ध व्यवहारसे सम्पूर्ण प्रजा पुण्यात्मा हो रही थी। शासनकी तो आवश्यकता ही नहीं पड़ती थी, सब लोग बड़े प्रेमसे अपने-अपने कर्तव्यका पालन करते थे। उनके पास सेना प्रथाकी रक्षाके लिये ही थी। उनका सारा व्यवहार प्रेम और आत्मबलसे ही चलता था। वे समय-समयपर तीर्थयात्रा करते, यज्ञ करते, दान करते और दिल खोलकर दीन-दुःखियोंकी सहायता करते। सबसे बड़ा गुण उनमें यह था कि वे जो कुछ भी करते थे, सब भगवान्के लिये, भगवान्की प्रसन्नताके लिये और भगवान्के प्रेमके लिये। उनके चित्तमें लोक परलोककी कोई भी कामना नहीं थी।
एक बार अपने परिवार और सेनाके साथ राजा पुण्यनिधिने सेतुबन्ध रामेश्वरकी यात्रा की। इस बार इनकी यह इच्छा थी कि समुद्रके पवित्र तटपर, गन्धमादन पर्वतकी उत्तम भूमिमें अधिक दिनोंतक निवास किया जाय, इसलिये उन्होंने राज्यका सारा भार पुत्रको सौंप दिया था और वे आवश्यक सामग्री एवं सेवकोंको लेकर वहीं जाकर निवास करने लगे। राजा पुण्यनिधिका मन वहीं रम गया। वे बहुत दिनोंतक वहीं रह गये। उनके हृदयमें भगवान्को भक्ति थी। ये जहाँ जाते, जहाँ रहते, वहीं भगवान्का स्मरण-चिन्तन किया करते। मनमें कोई कामना तो थी नहीं, इसलिये उनका अन्तःकरण शुद्ध था। शुद्ध अन्तःकरणमें जो भी सङ्कल्प उठता है, वह भगवान्की प्रसन्नताके लिये होता है औरउस सङ्कल्पके अनुसार जो क्रिया होती है, यह भी भगवान्के लिये ही होती है। राजाके चित्तमें विष्णु और शिवके प्रति कोई भेद-भाव नहीं था। वे कभी भगवान् शङ्करकी पूजा करते-करते मस्त हो जाते तो कभी जंगलोंमें घूम-घूमकर भगवान् श्रीरामको लीलाओंका अनुसन्धान करते। एक बार राजा धनुष्कोटि तीर्थमें गये। उस तीर्थमें स्नान करके राजाको बड़ा आनन्द हुआ। भगवान्की स्मृतिके साथ जो भी काम किया जाता है, वह आनन्ददायक होता ही है।
राजा पुण्यनिधि जब स्नान, दान, नित्यकर्म और भगवान्की पूजा करके वहाँसे लौटने लगे, तब उन्हें रास्तेमें एक बड़ी सुन्दर कन्या मिली। वह कन्या क्या थी, सौन्दर्यकी प्रत्यक्ष प्रतिमा थी। वास्तवमें वह भगवान्को प्रसन्नता ही थी। न जाननेपर भी राजाका चित्त उसकी ओर खिंच गया, मानो वह उनकी अपनी ही लड़की हो। उन्होंने वात्सल्य-स्नेहसे भरकर पूछा- 'बेटी! तुम कौन हो, किसकी कन्या हो, यहाँ किसलिये आयी हो?" कन्याने कहा- 'मेरे मा-बाप नहीं हैं, भाई-बन्धु भी नहीं हैं, मैं अनाथा हूँ। मैं आपकी पुत्री बननेके लिये आयी हूँ। मैं आपके महलमें रहेंगी, आपको देखा करूँगी लेकिन एक शर्त है, यदि कोई मुझे बलपूर्वक स्पर्श करेगा अथवा मेरा हाथ पकड़ लेगा तो आपको उसे दण्ड देना पड़ेगा। यदि आप ऐसा करेंगे तो बहुत दिनोंतक मैं आपके पास रहूँगी।' राजाने कहा-'बेटी! तुम जो कह रही हो, वह सब मैं करूंगा। मेरे घर कोई लड़की नहीं है, एक लड़का है; तुम अन्तःपुरमें मेरी धर्मपत्नीके साथ पुत्रीके रूपमें निवास करो। जब तुम्हारी अवस्था विवाहके योग्य होगी, तब तुम जैसा चाहोगी, वैसा कर दूँगा।' कन्याने राजाकी बात स्वीकार की और उनके साथ समयपर राजधानीमें चली गयी। राजा पुण्यनिधिकी धर्मपत्नी विन्ध्यावली अपने पतिके समान ही शुद्ध हृदयकी थीं। अपने पतिको ही भगवान्की मूर्ति समझकर उनकी पूजा करती थीं। उनकी प्रसन्नता के लिये ही प्रत्येक चेष्टा करती थीं। उनका मन राजाका मन था,उनका जीवन राजाका जीवन था यह कन्या पाकर उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। राजाने कहा- यह हमलोगों की लड़की है, इसके साथ परायेका सा व्यवहार कभी नहीं होना चाहिये।' विन्ध्यावलीने प्रेमसे उस कन्याका हाथ पकड़ लिया और अपनी गर्भजात पुत्रीके समान ही उसका पालन-पोषण करने लगीं। इस प्रकार कुछ दिन बीते।
भगवान्की लीला बड़ी विचित्र है। वे कब किस बहाने किसपर कृपा करते हैं, यह उनके सिवा और कोई नहीं जानता। राजा पुण्यनिधिपर कृपा करनेके लिये ही तो यह लीला रची गयी थी। अब वह अवसर आ पहुँचा। एक दिन वह कन्या सखियोंके साथ महलके पुष्पोद्यानमें फूल चुन रही थी। एक ही उम्रकी सब लड़कियाँ थीं। हँस खेलकर आपसमें मनोरञ्जन कर रही थीं। उसी समय वहाँ एक ब्राह्मण आया। उसके कंधेपर एक घड़ा था, जिसमें जल भरा हुआ था। एक हाथसे वह उस घड़ेको पकड़े हुए था और दूसरे हाथमें छाता लिये हुए था, मानो अभी गङ्गा-स्नान करके लौट रहा हो। उसके शरीरमें भस्म लगा हुआ था और मस्तकपर त्रिपुण्ड्र था। हाथमें रुद्राक्षकी माला और मुखमें भगवान् शङ्करका नाम। इस ब्राह्मणको देखकर वह कन्या स्तब्ध सी हो गयी; वह मन ही मन जान गयी कि ब्राह्मणके वेशमें यह कौन है? यह छद्मवेशी ब्राह्मण इसी कन्याको तो ढूँढ़ रहा था। कन्याकी ओर दृष्टि जाते ही ब्राह्मणने पहचान लिया और जाकर उस कन्याका हाथ पकड़ लिया। कन्या चिल्ला उठी। उसकी सखियोंने भी साथ दिया। उनकी आवाज सुनते ही कई सैनिकोंके साथ राजा पुण्यनिधि वहाँ पहुँच गये और उन्होंने पूछा- 'बेटी! तुम्हारे चिल्लाने का क्या कारण है, किसने तुम्हारा अपमान किया है?' कन्याकी आँखोंमें आँसू थे। वह खेद और रोषसे कातर हो रही थी। उसने कहा-'पाण्ड्यनाथ ! इस ब्राह्मणने बलात् मेरा हाथ पकड़ लिया, अब भी यह निडर होकर पेड़के नीचे खड़ा है।' राजा पुण्यनिधिको अपनी प्रतिज्ञा याद हो आयी। वे सोचने लगे कि 'मैंने इस कन्याको वचन दिया है कि यदि कोई तुम्हारी इच्छाके विपरीत तुम्हारा हाथ पकड़ लेगा तो में उसे दण्ड दूंगा। इस कन्याको मैंने अपनी पुत्री माना है, मुझेअवश्य ही इस ब्राह्मणको दण्ड देना चाहिये।' उनके चित्तमें इस बातकी कल्पना भी नहीं हो सकती थी कि मेरे भगवान् इस रूप मुझपर कृपा करने आये होंगे। उन्होंने सैनिकोंको आज्ञा दी और ब्राह्मणदेवता पकड़ लिये गये। हाथोंमें हथकड़ी और पैरोंमें बेड़ी डालकर उन्हें रामनाथके मन्दिरमें डाल दिया गया। कन्या प्र होकर अन्तःपुरमें गयी और राजा अपनी बैठकमें गये।
रात हुई। राजाने स्वप्नमें देखा कि जिस ब्राह्मणको | कैद किया गया है, वह तो ब्राह्मण नहीं है, साक्षात् भगवान् हैं। वर्षाकालीन मेघके समान श्यामल छवि, चारों करकमलोंमें शङ्ख-चक्र-गदा-पद्म, शरीरपर पीताम्बर एवं वक्षःस्थलपर कौस्तुभमणि और वनमाला धारण किये हुए हैं। मन्द मन्द मुसकराते हुए मुखमेंसे दाँतोंकी किरणें निकलकर दिशाओंको उज्ज्वल कर रही हैं। मकराकृति कुण्डलोंकी छटा निराली ही है। गरुड़के ऊपर शेषशय्यापर विराजमान हैं। साथ ही राजाकी वह कन्या लक्ष्मीके रूपमें खिले हुए कमलपर बैठी है। काले-काले घुँघराले बाल हैं, हाथमें कमल है, बड़े-बड़े दिग्गज स्वर्ण कलशोंमें अमृत भरकर अभिषेक कर रहे हैं। अमूल्य रत्न और मणियोंकी माला पहने हुए हैं। विष्वक्सेन आदि पार्षद, नारदादि मुनिगण उनकी सेवा कर रहे हैं। महाविष्णुके रूपमें उस ब्राह्मणको और महालक्ष्मीके रूपमें अपनी पुत्रीको देखकर राजा पुण्यनिधि चकितस्तम्भित हो गये। स्वन टूटते ही बे अपनी कन्याके पास गये। परंतु यह क्या? कन्या कन्याके रूपमें नहीं है; स्वप्रमें जो रूप देखा था वही रूप सामने है महालक्ष्मीको साष्टाङ्ग प्रणाम करके थे उनके साथ हो रामनाथ मन्दिरमें गये। वहाँ ब्राह्मणको भी उसी रूपमें देखा, जिस रूपमें स्वप्रके समय देखा था। अपने अपराधका स्मरण करके राजा मूच्छित से हो गये। 'हाय! त्रिलोकी नाथको मैंने कैदमें डाल दिया। जिसकी पूजा करनी चाहिये उसको बेड़ीसे जकड़ दिया। धिकार है, मुझे सौ-सौ बार धिकार है। भगवान्के हाथोंमें मैंने हथकड़ी डाल दी। मुझसे बड़ा अपराधी भला, और कौन हो सकता है।' राजा पुण्यनिधिका हृदय फटने लगा, शरीर शिथिल हो गया, उनकी मृत्युमें अब आधे क्षणका भी विलम्ब नहीं था। इतने में हो उन्हें भगवान्की कृपाकास्मरण हो आया। ऐसी अद्भुत लीला! भला, उन्हें कौन बाँध सकता है। यशोदाने बाँधा था प्रेमसे और मैंने बाँधा अपनी शक्तिके घमंडसे, रोषसे। पर मुझसे भी बँध गये। प्रभो! यह तुम्हारी कृपापरवशता नहीं तो और क्या है।'
राजा पुण्यनिधिने प्रेममुग्ध हृदयसे गद्गद कण्टसे, आँसूभरी आँखोंसे, सिर झुकाकर, रोमाञ्चित शरीरसे हाथ जोड़कर स्तुति की प्रभो। मैं आपके चरणोंमें कोटि-कोटि प्रणाम करता हूँ। आप मुझपर कृपा करें, प्रसन्न हों; मैंने अनजानमें यह अपराध किया है। परंतु अपराध चाहे जैसे किया गया हो, है अपराध ही। आपकी मूर्ति कृपामयी है। आप यदि अपनेको प्रकट न करें तो संसारी लोग भला, आपको कैसे पहचान सकते हैं दयामूर्ते मैंने आपको हथकड़ी हीसे जकड़कर महान् अन्याय और अपराध किया है। यदि आप मुझपर कृपा नहीं करेंगे तो मेरे निस्तारका कोई साधन नहीं है। मैं आपके चरणोंमें बार-बार नमस्कार करता हूँ।'
राजा पुण्यनिधिने महालक्ष्मीकी ओर दृष्टि करके कहा-'हे देवि! हे जगद्धात्री! मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ। आपका निवास भगवान्का वक्षःस्थल है। मैंने साधारण कन्या समझकर आपको कष्ट दिया है। आपकी महिमाका भला, कौन वर्णन कर सकता है। सिद्धि, सन्ध्या, प्रभा, श्रद्धा, मेधा, आत्मविद्या आदिके रूपमें आप ही प्रकट हो रही हैं। हे मा! संसारकी रक्षाके लिये आप ही वेदोंके रूपमें प्रकट हुई हैं। हे ब्रह्मस्वरूपिणी! अपनी कृपादृष्टिसे मुझे जीवनदान दो।' इस प्रकार स्तुति करके राजाने भगवान् से प्रार्थना की- 'प्रभो! मैंने अनजान में जो अपराध किया है, उसे आप क्षमा कर दीजिये। मधुसूदन! शिशुओंका अपराध गुरुजन क्षमा करते ही आये हैं। प्रभो! जिन दैत्योंने अपराध किया था, उनको तो आपने अपने स्वरूपका दान किया। भगवन्! आप मेरे इस अपराधको भी क्षमा करें। हे कृपानिधे हे लक्ष्मीकान्त । आप अपनी कृपा-कोमल दृष्टि मेरे ऊपर भी डालें।'
पुण्यनिधिकी प्रार्थना सुनकर भगवान्ने कहा- 'राजन्। मुझे कैद करनेके कारण भयभीत होना उचित नहीं है। मैं तो स्वभावसे ही प्रेमियोंका बंदी है, भक्तोंके वशमें हूँ। जो मेरी प्रसन्नताके लिये कर्म करते हैं, वे मेरे भक्त हैं।तुम्हारी सेवासे में तुम्हारे अधीन हो गया हूँ। इसीसे चाहे तुम हथकड़ी बेड़ी पहनाओ या मत पहनाओ, मैं तुम्हारे प्रेमको बेड़ीमें सदा बँधा हूँ। मैं अपने भक्तोंके अपराधको अपराध ही नहीं गिनता। इसलिये डरने की कोई बात नहीं है ये महालक्ष्मी मेरो अर्द्धाङ्गिनी शक्ति है। तुम्हारी भक्तिको परीक्षाके लिये ही मेरी सम्मति से ये तुम्हारे पास आयी थीं। तुमने इनकी रक्षा करके, अनाथ बालिकाके रूपमें होनेपर भी इन्हें अपने घरमें रखकर और सेवा करके मुझे सन्तुष्ट किया है। इनके साथ तुमने जो प्रतिज्ञा की थी, उसकी रक्षाके लिये मुझे कदमें डालता किसी प्रकार अनुचित नहीं है। तुमने इनकी रक्षा की है। अनाथकी रक्षा किस प्रकार करनी चाहिये, यह तुमने दिखा दिया। इसलिये मैं तुमपर प्रसन्न हूँ। ये लक्ष्मी तुम्हारी पुत्री हैं, ऐसा ही समझो। यह सत्य है, इसमें सन्देह नहीं।"
महालक्ष्मीने कहा- 'राजन्! तुमने बहुत दिनोंतक मेरी रक्षा की है, इसलिये में तुमपर बहुत ही प्रसन्न हूँ। भगवानूने और मैंने तुम्हारी भक्तिको शुद्ध करनेके लिये हो प्रेमकलहका बहाना बनाया और इस प्रकार हम दोनों ही तुम्हारे सामने प्रकट हुए। तुमने कोई अपराध नहीं किया। हम तुमपर प्रसन्न हैं। हमारी कृपासे तुम सर्वदा सुखी रहोगे सारे भूमण्डलका ऐश्वर्य तुम्हें प्राप्त होगा। जबतक जीवित रहोगे, हमारे चरणोंमें तुम्हारी अविचल भक्ति बनो रहेगी। तुम्हारी बुद्धि कभी पापमें न जायगी, सदा धर्ममें ही लगी रहेगी। तुम्हारा हृदय निरन्तर भक्ति रसमें डूबा रहेगा। इस जीवनके अन्तमें तुम हमारा सायुज्य प्राप्त करोगे।' इतना कहकर महालक्ष्मी भगवान् के वक्षःस्थलमें समा गयीं। भगवान्ने कहा- 'राजन्! यह जो तुमने मुझे बाँधा है, यह बड़ा मधुर बन्धन है। मैं नहीं चाहता कि इससे छूट जाऊँ और इसकी स्मृति यहाँ लुप्त हो जाय। इसलिये अब मैं यहाँ इसी रूपमें निवास करूँगा और मेरा नाम 'सेतुमाधव' होगा। इतना कहकर भगवान् चुप हो गये।
राजा पुण्यनिधिने भगवान्को इस अर्धा मूर्तिको पूजा की और रामनाथ-लिङ्गकी सेवा करके अपने घर गये। जीवनपर्यन्त वे अपनी पत्नीके साथ भगवान्का स्मरण- चिन्तन करते रहे। अन्तमें दोनों भगवान्की सायुज्य मुक्ति प्राप्त करके भगवान्से एक हो गये।
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raaja punyanidhine mahaalakshmeekee or drishti karake kahaa-'he devi! he jagaddhaatree! main aapako baara-baar namaskaar karata hoon. aapaka nivaas bhagavaanka vakshahsthal hai. mainne saadhaaran kanya samajhakar aapako kasht diya hai. aapakee mahimaaka bhala, kaun varnan kar sakata hai. siddhi, sandhya, prabha, shraddha, medha, aatmavidya aadike roopamen aap hee prakat ho rahee hain. he maa! sansaarakee rakshaake liye aap hee vedonke roopamen prakat huee hain. he brahmasvaroopinee! apanee kripaadrishtise mujhe jeevanadaan do.' is prakaar stuti karake raajaane bhagavaan se praarthana kee- 'prabho! mainne anajaan men jo aparaadh kiya hai, use aap kshama kar deejiye. madhusoodana! shishuonka aparaadh gurujan kshama karate hee aaye hain. prabho! jin daityonne aparaadh kiya tha, unako to aapane apane svaroopaka daan kiyaa. bhagavan! aap mere is aparaadhako bhee kshama karen. he kripaanidhe he lakshmeekaant . aap apanee kripaa-komal drishti mere oopar bhee daalen.'
punyanidhikee praarthana sunakar bhagavaanne kahaa- 'raajan. mujhe kaid karaneke kaaran bhayabheet hona uchit naheen hai. main to svabhaavase hee premiyonka bandee hai, bhaktonke vashamen hoon. jo meree prasannataake liye karm karate hain, ve mere bhakt hain.tumhaaree sevaase men tumhaare adheen ho gaya hoon. iseese chaahe tum hathakada़ee beda़ee pahanaao ya mat pahanaao, main tumhaare premako beda़eemen sada bandha hoon. main apane bhaktonke aparaadhako aparaadh hee naheen ginataa. isaliye darane kee koee baat naheen hai ye mahaalakshmee mero arddhaanginee shakti hai. tumhaaree bhaktiko pareekshaake liye hee meree sammati se ye tumhaare paas aayee theen. tumane inakee raksha karake, anaath baalikaake roopamen honepar bhee inhen apane gharamen rakhakar aur seva karake mujhe santusht kiya hai. inake saath tumane jo pratijna kee thee, usakee rakshaake liye mujhe kadamen daalata kisee prakaar anuchit naheen hai. tumane inakee raksha kee hai. anaathakee raksha kis prakaar karanee chaahiye, yah tumane dikha diyaa. isaliye main tumapar prasann hoon. ye lakshmee tumhaaree putree hain, aisa hee samajho. yah saty hai, isamen sandeh naheen."
mahaalakshmeene kahaa- 'raajan! tumane bahut dinontak meree raksha kee hai, isaliye men tumapar bahut hee prasann hoon. bhagavaanoone aur mainne tumhaaree bhaktiko shuddh karaneke liye ho premakalahaka bahaana banaaya aur is prakaar ham donon hee tumhaare saamane prakat hue. tumane koee aparaadh naheen kiyaa. ham tumapar prasann hain. hamaaree kripaase tum sarvada sukhee rahoge saare bhoomandalaka aishvary tumhen praapt hogaa. jabatak jeevit rahoge, hamaare charanonmen tumhaaree avichal bhakti bano rahegee. tumhaaree buddhi kabhee paapamen n jaayagee, sada dharmamen hee lagee rahegee. tumhaara hriday nirantar bhakti rasamen dooba rahegaa. is jeevanake antamen tum hamaara saayujy praapt karoge.' itana kahakar mahaalakshmee bhagavaan ke vakshahsthalamen sama gayeen. bhagavaanne kahaa- 'raajan! yah jo tumane mujhe baandha hai, yah bada़a madhur bandhan hai. main naheen chaahata ki isase chhoot jaaoon aur isakee smriti yahaan lupt ho jaaya. isaliye ab main yahaan isee roopamen nivaas karoonga aur mera naam 'setumaadhava' hogaa. itana kahakar bhagavaan chup ho gaye.
raaja punyanidhine bhagavaanko is ardha moortiko pooja kee aur raamanaatha-lingakee seva karake apane ghar gaye. jeevanaparyant ve apanee patneeke saath bhagavaanka smarana- chintan karate rahe. antamen donon bhagavaankee saayujy mukti praapt karake bhagavaanse ek ho gaye.