प्राचीन कालमें नन्दी नामक वैश्य अपनी नगरीके एक धनी-मानी और प्रतिष्ठित पुरुष थे। वे बड़े सदाचारी और वर्णाश्रमोचित धर्मका दृढ़तासे पालन करते थे । प्रतिदिन श्रद्धा-भक्तिपूर्वक भगवान् शङ्करकी पूजा करनेका तो उन्होंने नियम ही ले रखा था। जिस मन्दिरमें नन्दी वैश्य पूजा करते थे, वह बस्तीसे कुछ दूर जंगलमें था । एक दिनकी बात है कि कोई किरात शिकार खेलता हुआ उधरसे निकला। वह प्राणियोंकी हिंसा करता था, उसकी बुद्धि जडप्राय थी, उसमें विवेकका लेश भी नहीं था। दोपहरका समय था, वह भूख-प्याससे व्याकुल हो रहा था। मन्दिरके पास आकर वहाँके सरोवरमें उसने स्नान किया और जलपान करके अपनी प्यास बुझायी। जब वह वहाँसे लौटने लगा, तब उसकी दृष्टि मन्दिरपर पड़ी और उसके मनमें यह इच्छा हुई कि मन्दिरमें चलकर भगवान्का दर्शन कर लूँ। उसने मन्दिरमें जाकर भगवान् शङ्करका दर्शन किया और अपनी बुद्धिके अनुसार उनकी पूजा की।
उसने कैसी पूजा की होगी, इसका अनुमान सहज ही लग सकता है। न उसके पास पूजाकी सामग्री थी और न वह उसे जानता ही था। किस सामग्रीका उपयोग किस विधिसे किया जाता है, यह जाननेकी भी उसे आवश्यकता नहीं प्रतीत हुई। उसने देखा, लोगोंने स्नान कराकर बिल्वपत्र आदि चढ़ाये हैं। उसने एक हाथसे बिल्वपत्र तोड़ा, दूसरे हाथमें मांस पहलेसे ही था । गण्डूष- जलसे स्नान कराकर उसने बिल्वपत्र और मांस चढ़ा दिया। मांसभोजी भील था। उसको इस बातका पता नहीं था कि देवताको मांस नहीं चढ़ाना चाहिये। यही काम यदि कोई जान-बूझकर करे तो वह दोषका भागी होता है। परंतु उसने तो भावसे, अपनी शक्ति और ज्ञानके अनुसार पूजा की थी। बड़ा आनन्द हुआ उसे, प्रेममुग्ध होकर वह शिवलिङ्गके सम्मुख साष्टाङ्ग दण्डवत् करने लगा। उसने दृढ़तासे यह निश्चय किया कि आजसे मैं प्रतिदिन भगवान् शङ्करकी पूजा करूँगा । उसका यह निश्चय अविचल था; क्योंकि यह उसके गम्भीर अन्तस्तलकी प्रेरणा थी ।
दूसरे दिन प्रात:काल नन्दी वैश्य पूजा करने आये। मन्दिरकी स्थिति देखकर वे अवाक् रह गये। कलकी पूजा इधर-उधर बिखरी पड़ी थी। मांसके टुकड़े भी इधर-उधर पड़े थे। उन्होंने सोचा- 'यह क्या हुआ? मेरी पूजामें ही कोई त्रुटि हुई होगी, जिसका यह फल है। इस प्रकार मन्दिरको भ्रष्ट करनेवाला विघ्न तो कभी नहीं हुआ था। अवश्य ही यह मेरा दुर्भाग्य है।' यही सब सोचते हुए उन्होंने मन्दिर साफ किया और पुनः स्नानादि करके भगवान्की पूजा की। घर लौटकर उन्होंने पुरोहितसे सारा समाचार कह सुनाया और बड़ी चिन्ता प्रकट की। पुरोहितको क्या पता था कि इस काममें भी किसीका भक्ति-भाव हो सकता है। उन्होंने कहा- 'अवश्य ही यह किसी मूर्खका काम है; नहीं तो रत्नोंको इधर-उधर बिखेरकर भला कोई मन्दिरको अपवित्र एवं भ्रष्ट क्यों करता चलो, कल हम भी तुम्हारे साथ चलेंगे और देखेंगे कि कौन दुष्ट ऐसा काम करता है।' नन्दी वैश्यने बड़े दुःखसे वह रात्रि व्यतीत की।
प्रातःकाल होते न होते नन्दी वैश्य अपने पुरोहितको लेकर शिव मन्दिर पहुँच गये देखा वही हालत आज T भी थी, जो कल थी। वहाँ मार्जन आदि करके नन्दीने शिवजीकी पशोपचार पूजा की और रुद्राभिषेक किया। ब्राह्मण स्तुतिपाठ करने लगे। वेदमन्त्रोंकी ध्वनिसे वह जंगल गूंज उठा। सबकी आँख लगी हुई थी कि देखें मन्दिरको भ्रष्ट करनेवाला कब किधरसे आता है।
दोपहरके समय किरात आया। उसकी आकृति बड़ी भयङ्कर थी। हाथोंमें धनुष-बाण लिये हुए था। शङ्करभगवान्की कुछ ऐसी लीला हो थी कि किरातको देखकर सब-के सब डर गये और एक कोनेमें जा छिपे। उनके देखते देखते किरातने उनकी की हुई पूजा नष्ट-भ्रष्ट कर दी एवं गण्डूष- जलसे स्नान कराकर बिल्वपत्र और मांस चढ़ाया। जब वह साष्टाङ्ग प्रणाम करके चला गया, तब नन्दी वैश्य और ब्राह्मणोंके जी-में-जी आया और सब बस्ती में लौट आये। नन्दीको व्यवस्था मिली कि उस लिङ्गमूर्तिको ही अपने घर ले आना चाहिये। व्यवस्थाके अनुसार शिवलिङ्ग कहाँसे उखाड़ लाया गया और नन्दी वैश्यके घरपर विधिपूर्वक उसकी प्रतिष्ठा की गयी। उनके घर सोने और मणि रत्नोंकी कमी तो थी ही नहीं, संकोच छोड़कर उनका उपयोग किया गया; परन्तु भगवान्को धन-सम्पत्तिके अतिरिक्त कुछ और भी चाहिये।
प्रतिदिनके नियमानुसार किरात अपने समयपर भगवान् शङ्करको पूजा करने आया; परंतु मूर्तिको न पाकर सोचने लगा- 'यह क्या भगवान् तो आज हैं ही नहीं।' मन्दिरका एक-एक कोना छान डाला, एक-एक छिद्रको उसने ध्यानपूर्वक देखा; परंतु सब व्यर्थ! उसके भगवान् उसे नहीं मिले। किरातको दृष्टिमें वह मूर्ति नहीं थी, स्वयं भगवान् थे। अपने प्राणोंके लिये वह भगवान्की पूजा नहीं करता था, किन्तु उसने अपने प्राणोंको उनपर निछावर कर रखा था। अपने जीवन सर्वस्व प्रभुको न पाकर वह विह्वल हो गया और बड़े आर्तस्वरसे पुकारने लगा-'महादेव! शम्भो ! मुझे छोड़कर तुम कहाँ चले गये? प्रभो! अब एक क्षणका भी विलम्ब सहन नहीं होता। मेरे प्राण तड़फड़ा रहे हैं, छाती फटी जा रही है आँखोंसे कुछ सूझता नहीं। मेरी करुण पुकार सुनो, मुझे जीवनदान दो अपने दर्शनसे मेरी आँखें इस करो। जगन्नाथ त्रिपुरान्तक!! यदि तुम्हारे दर्शन नहीं होंगे में जोकर क्या करूँगा? मैं प्रतिज्ञापूर्वक कहता हूँ और सच कहता हूँ, तुम्हारे बिना मैं जी नहीं सकता।' इस प्रकार प्रार्थना करते-करते किरातकी आँखोंसे आँसुओंकी धारा अविरलरूपसे बहने लगी। वह विकल हो गया, अपने हाथोंको पटकने तथा शरीरको पीटने लगा। उसने कहा- अपनी जानमें मैंने कोई अपराध नहीं किया है; फिर क्या कारण है कि तुम चले गये? अच्छा, यही सही; मैं तो तुम्हारी पूजा करूँगा ही।' किरातने अपने हाथसे शरीरका बहुत-सा मांस काटकर उस स्थानपर रखा जहाँ पहले शिवलिङ्गथा स्वस्थ हृदयसे क्योंकि अब उसने प्राणत्यागका निश्चय कर लिया था, फिर सरोवरमें स्नान करके सदाकी भाँति पूजा की और साष्टाङ्ग प्रणाम करके ध्यान करने बैठ गया।
किरातके चित्तमें अब एक भी वासना अवशेष न थी, वह केवल भगवान्का दर्शन चाहता था। ध्यान अथवा मृत्यु, यही उसकी साधना थी। यही कारण हैं। कि बिना किसी विक्षेपके उसने लक्ष्यवेध कर लिया और उसका चिन भगवान्के लीलालोकमें विचरण करने लगा। उसकी अन्तर्दृष्टि भगवान्के कर्पूरोज्ज्वल, भस्मभूषित गङ्गा-तरङ्ग रमणीय जटाकलापसे शोभित एवं सर्प परिवेष्टित अङ्गको सौन्दर्यसुधाका पान करने लगी और वह उनकी लीलामें सम्मिलित होकर विविध प्रकार उनकी सेवा करने लगा। उसे बाह्य जगत्, शरीर अथवा अपने आपकी सुधि नहीं थी वह केवल अन्तर्जगत्की अमृतमयी सुरभिसे छक रहा था। बाहरसे देखनेपर उसका शरीर रोमाञ्चित था, आँखों आँसूकी बूँदेंदुलक रही थीं, रोम-रोमसे आनन्दकी धारा फूट पड़ती थी। उस क्रूरकर्मा किरातके अन्तरालमें इतना माधुर्य कहाँ सो रहा था, इसे कौन जान सकता है।
किरातकी तन्मयता देखकर शिवजीने अपनी समाधि की। वे उसके चर्मचक्षुओंके सामने प्रकट हो गये।
भङ्ग उनके ललाटदेशस्थित चन्द्रने अपनी सुधामयी रश्मियोंसे | किरातको काया उज्ज्वल कर दी। उसके शरीरका अणु अणु बदलकर अमृतमय हो गया। परन्तु उसकी समाधि | ज्यों-की-त्यों थी। भगवान्ने मानो अपनी अनुपस्थितिके दोषका परिमार्जन करते हुए किरातसे कहा—'महाप्राज्ञ ! वीर !! मैं तुम्हारे भक्तिभाव और प्रेमका ऋणी हूँ, तुम्हारी जो बड़ी से बड़ी अभिलाषा हो, वह मुझसे कहो; मैं तुम्हारे लिये सब कुछ कर सकता हूँ।' भगवान्की वाणी और सङ्कल्पने किरातको बाहर देखनेके लिये विवश किया। परंतु जब उसने जाना कि मैं जो भीतर देख रहा था, वही बाहर भी है, तब तो उसकी प्रेमभक्ति पराकाष्ठाको पहुँच गयी और वह सर्वाङ्गसे नमस्कार करता हुआ श्रीभगवान्के चरणोंमें लोट गया। भगवान्के प्रेमपूर्वक उठानेपर और प्रेरणा करनेपर उसने प्रार्थना की— 'भगवन्! मैं तुम्हारा दास हूँ, तुम मेरे स्वामी हो मेरा यह भाव सर्वदा बना रहे और मुझे चाहे जितनी बार जन्म लेना पड़े, मैं तुम्हारी सेवामें संलग्न रहूँ। प्रतिक्षण मेरे हृदयमें तुम्हारा प्रेम बढ़ता ही रहे। प्रभो ! तुम्हीं मेरी दयामयी माँ हो और तुम्हीं मेरे न्यायशील पिता हो। मेरे सहायक बन्धु और प्राणप्रिय सखा भी तुम्हीं हो। मेरे गुरुदेव, मेरे इष्टदेव और मेरे मन्त्र भी तुम्हीं हो। तुम्हारे अतिरिक्त तीनों लोकोंमें और कुछ नहीं है, और तीनों लोक भी कुछ नहीं हैं, केवल तुम्हीं हो।' किरातकी निष्काम प्रेमपूर्ण प्रार्थना सुनकर भगवान् बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने सदाके लिये उसे अपना पार्षद बना लिया। उसे पार्षदरूपमें प्राप्त करके भगवान् शङ्करको बड़ा आनन्द हुआ और वे अपने उल्लासको प्रकट करनेके लिये डमरू बजाने लगे।
भगवान्के डमरूके साथ ही तीनों लोकोंमें भेरी, शङ्ख, मृदङ्ग और नगारे बजने लगे। सर्वत्र 'जय जय' की ध्वनि होने लगी। शिवभक्तोंके चित्तमें आनन्दकी बाढ़ आ गयी। यह आनन्द-कोलाहल तत्क्षण नन्दी वैश्यके घर पहुँच गया। उन्हें बड़ा आश्चर्य हुआ और वे अविलम्ब वहाँ पहुँचे। किरातके भक्तिभाव और भगवत्-प्रसादको देखकर उनका हृदय गद्गद हो गया और जो कुछ अज्ञानरूप मल था उनके चित्तमें कि 'भगवान् धन आदिसे प्राप्त हो सकते हैं' वह सब धुल गया। वे मुग्ध होकर किरातकी स्तुति करने लगे—' हे तपस्वी! तुम भगवान्के परम भक्त हो; तुम्हारी भक्तिसे ही प्रसन्न होकर भगवान् यहाँ प्रकट हुए हैं। मैं तुम्हारी शरणमें हूँ। अब तुम्हीं मुझे भगवान्के चरणोंमें अर्पित करो।' नन्दीकी बातसे किरातको बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने तत्क्षण नन्दीका हाथ पकड़कर भगवान्के चरणोंमें उपस्थित किया। उस समय भोलेबाबा सचमुच भोले बन गये। उन्होंने किरातसे पूछा-'ये कौन सज्जन हैं? मेरे गणोंमें इन्हें लानेकी क्या आवश्यकता थी?' किरातने कहा- 'प्रभो! ये आपके सेवक हैं, प्रतिदिन रत्नमाणिक्यसे आपकी पूजा करते थे। आप इनको पहचानिये और स्वीकार कीजिये।' शङ्करने हँसते हुए कहा- 'मुझे तो इनकी बहुत कम याद पड़ती है। तुम तो मेरे प्रेमी हो, सखा हो; परन्तु ये कौन हैं? देखो भाई! जो निष्काम हैं, निष्कपट हैं और हृदयसे मेरा स्मरण करते हैं, वे ही मुझे प्यारे हैं; मैं उन्हींको पहचानता हूँ।' किरातने प्रार्थना की- 'भगवन्! मैं आपका भक्त हूँ और यह मेरा प्रेमी है। आपने मुझे स्वीकार किया और मैंने इसे, हम दोनों ही आपके पार्षद हैं।' अब तो भगवान् शङ्करको बोलनेके लिये कोई स्थान ही नहीं था। भक्तकी स्वीकृति भगवान्की स्वीकृतिसे बढ़कर होती है। किरातके मुँह से यह बात निकलते ही सारे संसारमें फैल गयी। लोग शत शत मुखसे प्रशंसा करने लगे कि किरातने नन्दी वैश्यका उद्धार कर दिया।
उसी समय बहुत से ज्योतिर्मय विमान वहाँ आ गये। भगवान् शङ्करका सारूप्य प्राप्त करके दोनों भक्त उनके साथ कैलाश गये और माँ पार्वतीके द्वारा सत्कृत होकर वहीं निवास करने लगे। यही दोनों भक्त भगवान् शङ्करके गणोंमें 'नन्दी' और 'महाकालके' नामसे प्रसिद्ध हुए। इस प्रकार नन्दीकी भक्तिके द्वारा किरातकी भक्तिको उत्तेजित करके और किरातकी भक्तिके द्वारा नन्दोकी भक्तिको पूर्ण करके आशुतोष भगवान् शङ्करने दोनोंको स्वरूप दान किया और कृतकृत्य बनाया।
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