आगराके गृहस्थ वैश्य दयालदासकी पुत्री विष्णीमें भगवान् श्रीकृष्ण और उनके वृन्दावनके लिये अपने प्राणोंसे भी अधिक प्यार भरा पड़ा है, विष्णीके बचपनके जीवनपरसे यह कोई नहीं जान सका था। इतना तो अवश्य था कि विष्णी सुशीला, सहृदया, भजन-परायणा और पिता-माताकी आज्ञाकारिणी थी।
मुगल कुराजीका समय और आगरेका निवास अतः पिता दयालदासने छोटी अवस्थामें ही विष्णीका विवाह एक सम्पन्न घरमें कर दिया था। किंतु भगवान्की इच्छा बड़ी प्रबल है, ससुराल जानेके पूर्व ही लगभग 14 वर्षकी अवस्थामें विष्णी एक भयानक रोगसे ग्रस्त हो गयी। वह चौबीसों घंटे पागलकी तरह अपने शरीरकी सुधि-बुधि भूली रहती जो मनमें आता, ऑप-बॉय बका करती। लोग इसे प्रेतबाधा बतलाते थे। विष्णीकी इस बीमारीसे विष्णीके पितृकुल एवं श्वशुरकुल दोनों दुःखी थे। उन्होंने रोगनिवारणके अनेकों उपाय भी किये, पर सब व्यर्थ हुए। सब लोग विष्णीके जीवनसे निराश थे।
किंतु विष्णी के सौभाग्यसे कहें या प्रभुकृपासे, गोस्वामी श्रीहिवरूपलालजी अपने शिष्य दयालदासके घर आ विराजे, वे पूर्व भारतकी यात्रा पूर्ण करके श्रीवन लौट रहे थे। श्रीमहाराजके आगमनसे सबको अपार हर्ष हुआ। विष्णीके पिताको तो पूर्ण आशा हो गयी कि 1 श्रीमहाराजकी कृपासे अवश्य अब मेरी पुत्रीकी बीमारी दूर हो जायगी। ईश्वरेच्छासे हुआ भी ऐसा ही। श्रीमहाराजसे मन्त्रवण करते ही विष्णीको बीमारी जाने कहाँ चली गयी और वह पूर्णरूपसे भली-चंगी हो गयी। विष्णो शरीरसे चंगी तो अवश्य हो गयी; किंतु उसके मनपर 2 एक दूसरा पवित्र प्रेत सवार हो गया, जो जीवनभर उसके प्राणोंसे चिपटा रहा और जिसने विष्णीको वास्तवमे विष्णी बना दिया जैसे राख के ढेर में छिपी आगकी चिनगारी रुई या पुराने फूसका संसर्ग पाकर एकदम भभक उठती और ज्वाला बन जाती है, उसी प्रकार श्रीगुरुदेवकी कृपा और श्रीकृष्ण-मन्त्रके श्रवणमात्रसेविष्णीका सुप्त श्रीकृष्णप्रेम जाग उठा । विष्णी इस प्रेम प्रेतसे ऐसी बावली हुई कि उसे लोक-परलोक सबकी सुधि भूल गयी।
अब विष्णी बड़े ही अनुरागसे अपने ठाकुरजीकी सेवा करती और अहर्निश अपने प्रियतम प्राणवल्लभ श्रीराधावल्लभके महामधुर नामोंका स्मरण करती। उसका सारा समय इन्हीं कामोंमें व्यतीत होने लगा-यहाँतक कि उसने अपने पिता-माता, ताऊ-चाचा और सखी सहेलियोंसे भी मिलना-बोलना बंद कर दिया। वह स्वाभाविक सब ओरसे उपराम हो गयी। विष्णीके इस व्यवहारसे सबको प्रसन्नताके साथ-साथ एक आश्चर्य भी हो रहा था।
अभीतक अपने प्रिय शिष्य दयालदासके प्रेम बन्धनमें बँधे श्रीरूपलालजी महाराज आगरेमें उन्होंके घर विराज रहे थे। कई दिनोंके पश्चात् एक दिन उन्होंने श्रीवन जानेकी इच्छा प्रकट की। महाराजके श्रीवन प्रस्थानकी बात सुनकर उनके वियोग-दुःखकी कल्पनासे विष्णी व्याकुल हो गयी। उसके हृदयमें श्रीवनका अनुराग हिलोरें लेने लगा। अब विष्णीको घर श्मशान और नगर नरककी तरह दीखने लगा। वह किसी तरह भी श्रीगुरुदेवके साथ श्रीवन जाना चाहती थी। उसे यहाँकी सारी वस्तुएँ तुच्छ दीखने लगीं। विष्णीने निश्चय किया कि इस लोक और लोकके सुखोंका पूर्णरूपेण परित्याग किये बिना श्रीवनका निवास नहीं मिल सकता, अतः मैं इन सबका परित्याग करके अवश्य श्रीवन जाऊँगी। उसने अपना निश्चय सुनाते हुए पिताजी से श्रीवृन्दावन जानेकी आज्ञा माँगी। किंतु जिस पुत्रीको उन्होंने किसीके लिये दान कर दिया है, उसके जाने-न जानेके सम्बन्धमें बेचारे दयालदास कहते भी क्या । उन्होंने टाला टूली-सा उत्तर दे दिया- 'बेटी! तुम जानती हो, तुम्हारा विवाह हो चुका है; तुमपर अब दूसरेका अधिकार है-अनुशासन है; मुझसे श्रीवन जानेके विषयमें क्या पूछती हो। मैं भला, इसका क्या उत्तर दे सकूँगा; तुम्हीं बताओ।'पिताजीकी बातसे विष्णी समझ गयी कि इनकी इच्छा मुझे श्रीवन जाने देनेकी नहीं है। अब विष्णीको ये सारे सम्बन्ध-क्या माता, क्या पिता, क्या भाई, क्या बन्धु- सब प्रत्यक्ष बन्धन दीखने लगे। उसने इनके त्यागका फिर एक बार निश्चय किया।
अब विष्णी चुपके-चुपके अपने श्रीवन जानेकी तैयारियाँ करने लगी। श्रीवृन्दावनकी मधुर स्मृतिने उसे । विरहिणी बना दिया। वह 'हा वृन्दावन! हा वृन्दावन!!' कहती हुई फूट-फूटकर रोने लगी। उसका रोना सुनकर 1-से लोग एकत्र हो गये। विष्णीके वृन्दावन-प्रेम बहुत-स और कातर रोदनसे माता-पिता ही क्या, पुरा-पड़ोसियोंका हृदय भी पिघल गया; अब किसीके चित्तमें यह बात न रह गयी कि विष्णी श्रीवन न जाय ।
विष्णी श्रीवन जाय या न जाय, इस गम्भीर समस्याका कोई सुनिश्चित हल नहीं रहा था। प्रातः काल श्रीमहाराज श्रीवन प्रस्थान करनेको तत्पर हैं; किंतु किसीको क्या मालूम कि विष्णी उनसे पहले तैयार बैठी है, भले ही कोई आज्ञा न दे।
जब सब लोग विष्णीको समझा-बुझाकर श्रीमहाराजके निकट आये, तब उन्होंने कोई प्रसङ्ग निकालकर विष्णीके लिये उचित कर्तव्यकी आज्ञा माँगी। इसपर श्रीमहाराजने केवल इतना ही कह दिया कि 'मैं इसका क्या निर्णय दूँ। विष्णीके लिये उचित आज्ञा तो श्रीठाकुरजी ही देंगे।' महाराजके इस आश्वासनसे सबको एक प्रकारकी शान्तिका अनुभव हुआ। प्रेमकी लीला बड़ी विचित्र है। प्रात:काल होनेवाले प्रस्थानने सायङ्काल दिनका तीसरा प्रहर प्राप्त कर लिया; क्योंकि उसमें विष्णीके पागलपनने विशेष साथ दिया। फलतः श्रीमहाराजसे प्रार्थना की गयी और वे कृपा-परवश फिर रुक गये।
इधर जब विष्णीके श्वशुरने सुना कि हमारी पुत्रवधू पूर्ण स्वस्थ हो गयी है, तब वे भी उसी प्रस्थानके दिन अकस्मात् विष्णीको लिवा ले जानेके लिये आये; किंतु यहाँ विष्णी तो अपनी दूसरी ही ससुराल-प्रियतमके देशमें जानेको तैयार बैठी थी। घर-पुरा-पड़ोसके सब लोग उसे समझा रहे हैं, पर वह किसीकी एक नहीं सुनती; उसके मुखपर एक ही बात है—'मैं श्रीवन जाऊँगी।'विष्णोके श्वशुरने चाहा कि श्रीमहाराज विष्णीको अपनी आज्ञासे रोक दें, उन्होंने महाराजसे प्रार्थना भी की; किंतु श्रीमहाराज अच्छी तरह जानते थे कि विष्णी मेरी आज्ञासे अपने शरीरको तो अवश्य यहाँ रोक रखेगी, पर | उससे उसके प्राण न रोके जा सकेंगे और वे अवश्य श्रीवन चले जायेंगे। यह सोचकर आपने अपनी ओरसे कोई आज्ञा नहीं दी और उसी पूर्वकथित वाक्यको दुहरा दिया 'भाई! मैं क्या आज्ञा दूँ। विष्णीके लिये उचित आज्ञा तो श्रीठाकुरजी ही देंगे।'
भगवान्की इच्छा ही इच्छा है क्योंकि केवल वही एक पूरी होती है, शेष सबकी इच्छाएँ ज्यों-की-त्यों रखी रह जाती हैं। तब क्या महत्त्व है हमारी इच्छाओंका ! किंतु खेद तो इस बातका है कि हम तब भी उन इच्छाओंका त्याग नहीं कर सकते, चाहे जीवनधर वे पूरी न हों।
सब लोगोंको इच्छा थी- 'विष्णी श्रीवन न जाय'; किंतु भगवान् चाहते थे इसके विरुद्ध । इसलिये उन्होंने मनुष्योंकी इच्छाओंको सहलाते हुए अपनी इच्छा पूर्ण करनेकी चाल खेली। दूसरे दिन विष्णी रजस्वला हो गयी।
विष्णी रजस्वला क्या हो गयी, मानो उसपर वज्र गिर पड़ा। उसे मरणान्त कष्ट हुआ इस बाधासे वह रो रोकर अपने प्रभुसे प्रार्थना करने लगी- 'मेरे प्यारे श्रीकृष्ण ! क्यों इतना तरसा रहे हो मुझे। क्या मैं तुम्हारे वृन्दावन न आ सकूँगी ? अब कैसे आ सकूँगी, जब तुम्हाँ रूठ गये हो। सबेरा होगा और श्रीमहाराज श्रीवन' सब लोग बैठे विष्णीकी श्रीवन जाने और न जानेकी समस्यापर विचार कर ही रहे थे कि अचानक उन सबके मध्यसे होती हुई एक ज्योति विष्णीके कमरेमें प्रवेश कर गयी। तबतक विष्णीके पिताने पूजागृहसे आकर आश्चर्यसे भरे हुए शब्दोंमें कहा- 'श्रीठाकुरजी अपनी शय्यासे उड़कर जाने कहाँ चले गये?'
दयालदासकी बात सुनकर सब लोग अकचके-से इधर-उधर देखने लगे। कुछ तो ठाकुरजीको खोजने भी लगे। किंतु ठाकुरजी कहीं भाग थोड़े गये थे, वे तो अपनी भक्ता विष्णीके विरहसे व्याकुल होकर उसकी गोदमें आ विराजे थे। अपने प्रभुको इस अपावन दशामेंभी अपनी गोदमें आया देख विष्णी उनकी पतित पावनता और भक्त-वत्सलतापर मुग्ध थी।
विष्णीकी गोदमें श्रीठाकुरजीको आया देख सबने अपने-आप निर्णय दे दिया कि विष्णी अवश्य श्रीवन जाय, यही श्रीठाकुरजीकी इच्छा है। फिर तो सबने बड़े प्रेमसे विष्णीके श्रीवन जानेकी तैयारियाँ कर दीं और रजोधर्मके चार दिन पूर्ण होनेपर पाँचवें दिन विष्णी सानन्द अपने श्रीवन चली गयी। श्रीवनका दर्शन करके उसका हृदय आनन्द और प्रेमसे थिरक उठा।
श्रीवनमें वास करके विष्णी निरन्तर भजन और श्रीगुरुचरणोंकी सेवामें लगी रहती। वह अपने ठाकुरजीकी सेवा-पूजा तो करती ही, साथ ही मानसिक सेवा-भावना भी किया करती।
एक बार विष्णीने मानसिक सेवामें अपने ठाकुरजीकोमिश्रीका भोग रखा और मानसिक प्रसाद भी लिया, जो उसके मुखमें प्रत्यक्ष प्रकट हो गया। भावनाके समय चर्वण करते देख इसकी सहेली लीलाबाईने जबरन् उसके मुखसे मिश्री छीनकर सबको दिखायी, इस भक्त अपराधसे वह पागल हो गयी। पीछे श्रीरूपलालजी महाराजकी कृपा और विष्णीके अपराध क्षमा कर देनेसे वह स्वस्थ हुई।
एक बार विष्णीबाई भावनामें तल्लीन होकर, शरीरकी भी सुधि-बुधि भूल बहुत ऊँचेपरसे गिर पड़ी और तीन पहरतक उसी आनन्दमयी भावनामें तल्लीन बेहोश पड़ी रही, पश्चात् प्रकृतिस्थ हुई। इस प्रकार प्रभु-प्रेममें विमुग्ध रहते हुए श्रीविष्णीबाईने श्रीवृन्दावनमें सत्रह वर्ष निवास किया, पश्चात् संवत् 1785 विक्रममें वह नित्य-निकुञ्जमें प्रवेश कर गयी।
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