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भक्त रघुनाथदास की मार्मिक कथा
भक्त रघुनाथदास की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त रघुनाथदास (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त रघुनाथदास]- भक्तमाल


बंगालमें तीसबीघाके पास पहले एक सप्तग्राम नामक महासमृद्धिशाली प्रसिद्ध नगर था। इस नगरम् हिरण्यदास और गोवर्द्धनदास-ये दो प्रसिद्ध धनी महाजन रहते थे। दोनों भाई-भाई ही थे। ये लोग गौड़के तत्कालीन अधिपति सैयद हुसैनशाहका ठेकेपर लगान वसूल किया करते थे और ऐसा करनेमें बारह लाख रुपया सरकारी लगान भर देनेके बाद आठ लाख रुपय इनके पास बच जाता था। आठ लाख वार्षिक आय कम् नहीं होती और वह भी उन दिनों! खैर, कहनेका मतलब यह कि ऐसे सम्पन्न घरमें रघुनाथदासका जन्म हुआ था हिरण्यदास सन्तानहीन थे और गोवर्द्धनदासके भ रघुनाथदासको छोड़कर और कोई सन्तान न थी। इस तरह दोनों भाइयोंकी आशाके स्थल एकमात्र यही थे।

खायें तो थोड़ा, पीयें तो थोड़ा और उड़ायें त थोड़ा - इस तरह बड़े लाड़-दुलारके साथ बालक रघुनाथदासका लालन-पालन हुआ। अच्छे-से-अच्छे विद्वान् पढ़ानेको रखे गये। बालक रघुनाथने बड़े चाव संस्कृत पढ़ना आरम्भ कर दिया और थोड़े ही समय उसने संस्कृतमें पूर्ण अभिज्ञता प्राप्त कर ली। यही नहीं भाषाकी शिक्षाके साथ-साथ रघुनाथको उस सञ्जीवन बूटीका भी स्वाद मिल गया, जिसके संयोगसे विद्य वास्तविक विद्या बनती है। वह सञ्जीवनी बूटी है-भगवान्कीभक्ति। बात यह हुई कि अपने जिन कुलपुरोहित में श्रीबलराम आचार्यके यहाँ बालक रघुनाथ विद्याभ्यासके लिये जाता था, उनके यहाँ उन दिनों श्रीचैतन्य महाप्रभुके 5 परमप्रिय शिष्य श्रीहरिदासजी रहा करते थे। उनके सत्सङ्गसे हरिभक्तिकी एक पतली-सी धार उसके हृदयमें भी बह निकली।

उन्हीं दिनों खबर मिली कि श्रीचैतन्यदेव शान्तिपुर श्री अद्वैताचार्यके घर पधारे हुए हैं। ज्यों ही यह समाचार मिला त्यों ही आसपासके भक्तोंका दिल खिल उठा। रघुनाथ तो खबर पाते ही दर्शनके लिये छटपटा उठा। उसने शान्तिपुर जानेके लिये पितासे आज्ञा माँगी। पिताके लिये यह एक अनावश्यक-सा प्रस्ताव था; पर जब उन्होंने देखा कि रघुनाथके चेहरेपर बेचैनी दौड़ रही है, तब उन्होंने उसे रोकना ठीक नहीं समझा और उसे एक राजकुमारकी भाँति बढ़िया पालकीमें बैठाकर, नौकर चाकरोंके दलके साथ शान्तिपुर भेज दिया। शान्तिपुरमें रघुनाथदास सीधा श्री अद्वैताचार्यके घर पहुँचा। जाकर भेंटकी वस्तुओंके सहित गौरके चरणोंमें लोट-पोट हो गया। गौर इसे देखते ही ताड़ गये कि इसका भविष्य क्या है। फिर भी उन्होंने अनासक्तभावसे घर-गृहस्थी में रहते हुए भी भगवत्प्राप्ति की जा सकती है आदि उपदेश देकर आशीर्वादसहित घरके लिये वापस किया। रघुनाथघर वापस आ रहा था, पर उसे यह ऐसा कठिन मालूम पड़ रहा था जैसा नदीमें प्रवाहके विपरीत तैरना ।

अस्तु, किसी तरह हृदयकी उथल-पुथलके साथ वह घर आया और माता, पिता तथा ताऊके चरणों में प्रणाम किया पर उन्होंने देखा कि उसके चेहरेका रंग ही बदला हुआ है। घरवालोंको पछतावा हुआ कि इसे गौराङ्गके पास क्यों जाने दिया। खैर जो हुआ सो हुआ अब ऐसी गलती नहीं करनी चाहिये-ऐसा निश्चय करके उन्होंने अपने लड़केपर चौकी पहरा बैठा दिया। शायद विवाह हो जानेसे मेरे बेटेका चित्त स्थिर हो जाय इस खयाल से श्रीगोवर्द्धनदास मजूमदारने झटपट व्यवस्था करके एक अत्यन्त रूपवती बालिकाके साथ अपने पुत्रका विवाह कर दिया। परंतु पीछे उनका खयाल गलत साबित हुआ। वह बार-बार घरसे निकल भागने का प्रयत्न करता और पहरेदार पकड़कर लौटा लाते। धीरे-धीरे यह मामला इतना अधिक बढ़ा कि स्वजनोंकी सलाहसे माता-पिताने रघुनाथको पागलकी तरह रस्सीसे बँधवा दिया। परंतु पीछे विवेकने उन्हें समझाया कि बहुत कड़ा करके बाँधा हुआ बन्धन जब टूटता है, तब बात-की बातमें टुकड़े-टुकड़े हो जाता है। इसपर रघुनाथको पागलकी तरह बाँधनेका पागलपन उन्होंने त्याग दिया। हाँ, नजरकी चौकसी उन्होंने पूर्ववत् जारी रखी।

उन दिनों उस देशमें गौराङ्गके बाद यदि किसी महापुरुषके नामकी धूम भी तो यह थी श्रीनित्यानन्दके नामको। संन्यासी होकर अनेक देश देशान्तरोंमें परिभ्रमण करनेके बाद श्रीनित्यानन्दमहाराज श्रीगौराङ्गके शरणापत्र हुए थे और उन्होंको आज्ञासे वे गौड़ प्रदेशमें हरिनामका प्रचार कर रहे थे। उन्होंने पानीहाटी ग्रामको हरिनामप्रचारका प्रधान केन्द्र बना रखा था। रघुनाथदासकी भी इच्छा यह आनन्द लूटने की हुई। पिताने भी रोक नहीं लगायो । उन्होंने भी अब 'रस्सा डील' नीतिसे काम लेना आरम्भ कर दिया पानी जैसे बिगड़े हुए घोड़ेको रसले सिर्फ छोरको मजबूती से पकड़े रहकर 'जायगा कहाँ, रस्सीका छोर तो हाथमें है यह सोचकर रस्सीको बिलकुल ढोला करके जी भरकर उछलने-कूदने के लिये उसे स्वतन्त्र कर दिया जाता है, वैसे ही गोवर्द्धनदासने रघुनाथदासपरनिगाह रखनेवालोंको तो और अधिक सावधानी के साथ काम करनेका आदेश कर दिया था, पर ऊपरसे स्पष्ट दिखलायी देनेवाला बन्धन हटा लिया था। इसीलिये बड़ी खुशी के साथ रघुनाथदासको पानीहाटी जानेकी अनुमति मिल गयी। रघुनाथदास पानीहाटी गये, श्रीनित्यानन्दके दर्शनसे अपने नेत्रोंको सुख पहुँचाया और हरिनामसंकीर्तनकी ध्वनिसे अपने कर्णविवरोंको पावन किया। यही नहीं, श्रीनित्यानन्दकी दयासे इन्हें समवेत असंख्य वैष्णवजनको दही चिउरेका महाप्रसाद चढ़ानेका भी सुअवसर प्राप्त हो गया। दूसरे दिन बहुत-सा दान-पुण्य करके श्रीनित्यानन्दजी से आज्ञा लेकर घरको आ गये।

पर आ गये पर शरीरसे, मनसे नहीं इस कीर्तन समारोह में सम्मिलित होकर तो अब वे बिलकुल ही बेकाबू हो गये। इधर इन्होंने यह भी सुन रखा था कि गौड़ देशके सैकड़ों भक्त चातुर्मास्यभर श्रीचैतन्यचरणोंमें निवास करनेको नीलाचल जा रहे हैं इस स्वर्णसंयोगको वे किसी तरह हाथसे जाने देना नहीं चाहते थे। एक दिन भगवत्प्रेरित महामायाने एक साथ सारे के सारे ड्योड़ीदारोंको निद्रामें डाल दिया और सवेरा होते न होते रघुनाथ महलकी चहारदीवारीसे निकलकर नौ-दो ग्यारह हो गये। इधर ज्यों ही मालूम हुआ कि रघुनाथ नहीं हैं तो सारे महलमें सनसनी फैल गयी। पूर्व पश्चिम, उत्तर, | दक्षिण- सभी दिशाओंको आदमी दौड़ पड़े पर वहाँ मिलनेको अब रघुनाथकी छाँह भी नहीं थी। अनुमान किया गया कि कहीं पुरी ने गया हो। उन्होंने पाँच घुड़सवारोंको पुरीके रास्तेपर दौड़ा दिया पर वहाँ रघुनाथदास कहाँ थे? भगवान्‌ने उन्हें यह बुद्धि दी कि आम सड़क होकर जाना ठीक नहीं अनेक यात्रियोंसे भेंट होगी। पूछेंगे-कौन हो, कहाँसे आये? उन्हें क्या उत्तर दूंगा। बतलानेसे भेद खुलता है और उन यात्रियोंमें क्या मालूम कोई जान-पहचानका ही निकल आये और मेरे लिये खुफिया पुलिसका कर्मचारी बन बैठे सीधे ऊटपटांग जंगलके रास्तेसे जाना अच्छा है। इसलिये वे पगडंडीके रास्तेसे गये और रात होते-होते प्राय: तीस मीलपर जा पहुँचे। इधर यात्रियोंका सङ्ग लेनेके बाद गोवर्द्धनदासके आदमियोंको जब शिवानन्दसे मालूम हुआ कि रघुनाथउनके साथ नहीं आये, तब हताश होकर वे लौट आये। सारे महलमें कुहराम मच गया। हितू मित्र-सभी आँसू बहाकर समवेदना प्रकट करते और समझाते कि सबका रक्षक एकमात्र ईश्वर है, इसलिये चिन्ता नहीं करनी चाहिये; पर उन्हें ढांढ़स न होता।

एक राजकुमार, जो कभी एक पग भी बिना सवारीके न चलता था, वह आज बड़े-बड़े विकट बटोहियोंके भी कान काट गया। उत्कट वैरागी रघुनाथको प्रथम दिनकी यात्रा समाप्त करनेके बाद एक ग्वालेके घरमें बसेरा मिला और उसके दिये हुए थोड़े-से दूधपर बसर करके दूसरे दिन बिलकुल तड़के फिर कूच कर दिया और इस तरह लंबी चलाई करके करीब एक महोनेका रास्ता रघुनाथने कुल बारह दिनोंमें तै कर डाला और इन बारह दिनोंमें उन्होंने कुल तीन बार रसोई बनाकर अपने उदरकुण्डमें आहुति दी।

इस प्रकार प्रभुसेवित नीलायलपुरीके दर्शन होते ही इन्होंने उसे नमस्कार किया और श्रीचरणोंकी ओर अग्रसर हुए। इनके हृदयमें न जाने क्या-क्या तरङ्गे उठ रही थीं। इसी प्रकार भावुकताके प्रवाहमें अलौकिक आनन्द लाभ करते हुए ये निश्चित स्थानके निकट जा पहुँचे। दूरसे ही इन्होंने देखा कि भक्तजनों से घिरे हुए श्रीचैतन्यदेव प्रमुख आसनपर विराजमान हैं। उस अलौकिक शोभासे युक्त मूर्तिका दर्शन करते ही रघुनाथका रोम-रोम खिल उठा। हर्षातिरेकसे उन्हें तन-वदनकी भी सुधि न रही। रघुनाथदास श्रीचरणोंके निकट पहुँच गये। सबसे पहले मुकुन्ददत्तकी निगाह उनपर पड़ी। देखते ही उन्होंने कहा- 'अच्छा, रघुनाथदास, आ गये?' तुरंत ही गौरका भी ध्यान गया। वे प्रसन्नतासे खिल उठे। 'अच्छा, वत्स रघुनाथ! आ गये?" कहकर उनका स्वागत किया और उनके प्रणाम करनेके बाद झटसे अत्यन्त प्रेमपूर्वक उन्हें उठाकर गले लगाया। पास बैठाकर उनके सिरपर हाथ फेरना शुरू किया। रघुनाथको ऐसा मालूम पड़ा मानो उनकी रास्तेको सारी थकावट हवा हो गयी। महाप्रभुकी करुणाशीलता देखकर उनकी आँखोंसे श्रद्धा और प्रेमके आँसू बरस पड़े। उन्हें भी गौरने निज करकमलोंसे ही पछा इसके अनन्तर चैतन्यदेवने स्वरूपदामोदरको अपनेपास बुलाकर कहा कि 'देखो, मैं इस रघुनाथको तुम्हें सौंपता हूँ। खान-पानसे लेकर साधन-भजनतक सारी व्यवस्थाका भार तुम्हारे ऊपर है, भला !' बहुत अच्छा ! कहकर स्वरूपने प्रभुकी आज्ञा शिरोधार्य की और रघुनाथको अपनी कुटीमें ले गये उनके समुद्र- खान करके वापस आनेपर उन्हें जगन्नाथजीका कई प्रकार प्रसाद और महाप्रसाद लाकर दिया। रघुनाथने उसे बड़े प्रेमसे पाया। परंतु जब उन्होंने देखा कि यह तो रोजका सिलसिला है, तब उनके मनमें यह विचार उत्पन्न हुआ। कि रोज-रोज यह बढ़िया-बढ़िया माल खानेसे वैराग्य कैसे सधेगा। आखिर चार-पाँच दिनके बाद ही उन्होंने यह व्यवस्था बदल दी। 'मैं एक राजकुमारकी हैसियतका आदमी हूँ' इस प्रकारका रहा-सहा भाव भी भुलाकर वह साधारण भिक्षुककी भाँति जगन्नाथजीके सिंहद्वारपर खड़े होकर भिक्षावृत्ति करने लगे और बड़े आनन्दके साथ दिन व्यतीत करने लगे। जब लोगोंको मालूम हुआ कि ये बहुत बड़े घरके लड़के होकर भी इस अवस्थामें आ गये हैं, तब उन्हें अधिकाधिक परिमाणमें विविध प्रकारके पदार्थ देना आरम्भ कर दिया। आखिर घबराकर रघुनाथदासको यह क्रम भी त्याग देना पड़ा। अब वह चुपचाप एक अत्रक्षेत्रमें जाते और वहाँसे रूखी-सूखी भीख ले आते रघुनाथकी गतिविधि क्या से क्या हो रही है, श्रीगीरादेवको पूरा पता लगता रहता। उनके दिन-दिन बढ़ते हुए वैराग्यको देखकर उन्हें बड़ा सुख मिलता। रघुनाथकी उत्कट जिज्ञासा देखकर श्रीमहाप्रभुने एक दिन उन्हें साधनसम्बन्धी कुछ उपदेश दिया। कहा कि मैं तुम्हें सब शास्त्रोंका सार यह बतलाता हूँ कि 'श्रीकृष्णके नामका स्मरण और कीर्तन ही संसारमें कल्याण प्राप्तिके सर्वश्रेष्ठ साधन हैं। पर इस साधनकी भी पात्रता प्राप्त करनेके साधन ये हैं कि निरन्तर साधुसङ्ग करे, सांसारिक चर्चासे बचे, परनिन्दासे कोसों दूर रहे, स्वयं अमानी होकर दूसरोंका मान करे, किसीका दिल न दुखाये और दूसरेके दुखानेपर दुःखी न हो, आत्मप्रतिष्ठाको विष्ठावत् समझे, सरल और सच्चरित्र होकर जीवन व्यतीत करे, आदि।' रघुनाथदास इच्छा और अनिच्छासे जबतक राजकुमारथे, तबतक थे अब वह वैरागी बन गये हैं, इसलिये उनका वैराग्य भी दिन-दिन बड़े वेगसे बढ़ता जाता है। पहले वे अन्नक्षेत्रमें जाकर भिक्षा ले आते थे; पर अब उन्होंने यह भी बंद कर दिया। कारण, भण्डारीको जैसे ही इनके वंश आदिका परिचय मिला, उसने भिक्षामें विशेषता कर दो। इसलिये इन्हें इस व्यवस्थाको भी त्यागकर नयी व्यवस्था करनी पड़ी। इसमें पूर्ण स्वाधीनता थी। जगन्नाथजीमें दूकानोंपर भगवान्‌का प्रसाद भात-दाल आदि बिकता है। यह प्रसाद बिकनेसे बचते-बचते कई-कई दिनका हो जानेसे सड़ भी जाता है। सड़ जानेसे जब यह बिक्रीके कामका भी नहीं रहता, तब सड़क पर फेंक दिया जाता है, जिसे गौएँ आकर खा जाती हैं। रघुनाथदासको इस जीविकामें निर्द्वन्द्वता मालूम हुई। वे उसी फेंके हुए प्रसादमेंसे थोड़ा-सा बटोरकर ले आते और उसमें बहुत-सा जल डालकर उसे धोते और उसमें से कुछ साफ-से खाने लायक चावल निकाल लेते और नमक मिलाकर उसीसे अपने पेटकी ज्वाला शान्त करते। गौराङ्गदेवको इनकी इस प्रसादीका पता लगा तो वे एक दिन सायंकालको दबे पाँव रघुनाथके पास पहुँचे। ज्यों ही उन्होंने देखा कि रघुनाथ प्रसाद पा रहे हैं तो जरा और भी दुबक गये और इसी तरह खड़े रहे; एकाएक बंदरकी तरह झपटकर छापा मारा। झटसे एक मुट्ठी भरके 'वाह बच्चू! मेरा निमन्त्रण बंद करके अब अकेले-ही-अकेले यह सब माल उड़ाया करते हो?' कहते हुए मुखमें पहुँचाया। ध्यान जाते ही 'वाह प्रभो ! यह क्या? इस पापसे मेरा निस्तार कैसे होगा।' कहकर झटसे रघुनाथने दोनों हाथोंसे पतली उठा ली, जिससे महाप्रभु पुनः ऐसा न कर सकें। लज्जा और सङ्कोचसे उनका चेहरा मुर्झा गया और नेत्रोंमें जल-बिन्दु छलक आये। महाप्रभु मुँहमें दिये हुए कौरको मुराते मुराते रघुनाथकी ओर करुणाभरी दृष्टिसे निहारते पुनः हाथ मारनेको लपके और रघुनाथ 'हे प्रभो! अब तो क्षमा कीजिये' कहते हुए पतली लेकर भागे। तबतक यह सब हल्ला-गुल्ला सुनकर स्वरूप गोस्वामी भी आ पहुंचे और यह देखकर कि श्रीगौर जबरदस्ती रघुनाथका उच्छिष्टखानेका प्रयत्न कर रहे हैं, उनसे हाथ जोड़कर प्रार्थना की 'प्रभो! दया करके यह सब मत कीजिये, इसमें दूसरेका जन्म कर्म बिगड़ता है।'

चैतन्यदेवने मुखमें दिये हुए ग्रासको वातेपाते ही कहा-'स्वरूप ! तुमसे सच कहता हूँ, ऐसा सुस्वादु
अन मैंने आजतक नहीं पाया।' इसी प्रकार श्रीगौराङ्गदेवकी कृपादृष्टिसे प्रोत्साहित होते रहकर रघुनाथने वहीं पुरीमें रहकर सोलह वर्ष व्यतीत कर दिये। श्रीचैतन्य जब अहर्निश प्रेमोन्मादमें रहने लगे, तब उनकी देहरक्षाके लिये वे सदा उनके साथ हो रहने लगे। वे उनकी बड़ी श्रद्धाके साथ सेवा करते और उनके मुखसे निकले हुए वचनामृतका पान करते। आगे चलकर श्रीगौरका तिरोभाव हो गया, जिससे रघुनाथके शोकका पार न रहा; और प्रभुके बाद जब श्रीस्वरूप भी विदा हो गये, तब तो उनका पुरीवास ही छूट गया। वे वृन्दावन चले गये इसके बाद वे वृन्दावनमें श्रीराधाकुण्डके किनारे डेरा डालकर कठोर साधनमें लग गये। वे केवल छाछ पीकर जीवन-यापन करते। रातको सिर्फ घंटे-डेढ़ घंटे सोते शेष सारा समय भजनमें व्यतीत करते। प्रतिदिन एक लाख नाम-जपका उनका नियम था। श्रीचैतन्यचरितामृत कारका कहना है कि रघुनाथदासके गुण अनन्त थे, जिनका हिसाब कोई नहीं लगा सकता। उनके नियम क्या थे, पत्थरकी लीक थे। चार ही घड़ीमें उनका खाना, पीना, सोना आदि सब कुछ हो जाता था शेष सारा समय साधनामें व्यतीत होता था। वैराग्यकी तो वे मूर्ति ही थे। जीभसे स्वाद लेना तो वे जानते ही नहीं थे। वस्त्र भी फटे-पुराने केवल लज्जा और शीतसे रक्षा करनेके लिये रखते थे। प्रभुकी आज्ञाको ही भगवदाज्ञा समझकर चलते थे।

इन्हें संस्कृत भाषाका ज्ञान भी बहुत अच्छा था। वृन्दावनमें रहते समय इन्होंने संस्कृतमें कई ग्रन्थ भी बनाये थे। श्रीचैतन्यचरितामृतके लेखक श्रीकृष्णदास कविराजके ये दीक्षागुरु थे। अपने ग्रन्थके लिये बहुत कुछ मसाला उन्हें इन्हीं महापुरुषसे प्राप्त हुआ था। पचासी वर्षतक पूर्ण वैराग्यमय जीवन बिताकर भगवद्धजन करते हुए अन्तमें आप भगवच्चरणोंमें जा विराजे।



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ek raajakumaar, jo kabhee ek pag bhee bina savaareeke n chalata tha, vah aaj bada़e-bada़e vikat batohiyonke bhee kaan kaat gayaa. utkat vairaagee raghunaathako pratham dinakee yaatra samaapt karaneke baad ek gvaaleke gharamen basera mila aur usake diye hue thoda़e-se doodhapar basar karake doosare din bilakul tada़ke phir kooch kar diya aur is tarah lanbee chalaaee karake kareeb ek mahoneka raasta raghunaathane kul baarah dinonmen tai kar daala aur in baarah dinonmen unhonne kul teen baar rasoee banaakar apane udarakundamen aahuti dee.

is prakaar prabhusevit neelaayalapureeke darshan hote hee inhonne use namaskaar kiya aur shreecharanonkee or agrasar hue. inake hridayamen n jaane kyaa-kya tarange uth rahee theen. isee prakaar bhaavukataake pravaahamen alaukik aanand laabh karate hue ye nishchit sthaanake nikat ja pahunche. doorase hee inhonne dekha ki bhaktajanon se ghire hue shreechaitanyadev pramukh aasanapar viraajamaan hain. us alaukik shobhaase yukt moortika darshan karate hee raghunaathaka roma-rom khil uthaa. harshaatirekase unhen tana-vadanakee bhee sudhi n rahee. raghunaathadaas shreecharanonke nikat pahunch gaye. sabase pahale mukundadattakee nigaah unapar pada़ee. dekhate hee unhonne kahaa- 'achchha, raghunaathadaas, a gaye?' turant hee gauraka bhee dhyaan gayaa. ve prasannataase khil uthe. 'achchha, vats raghunaatha! a gaye?" kahakar unaka svaagat kiya aur unake pranaam karaneke baad jhatase atyant premapoorvak unhen uthaakar gale lagaayaa. paas baithaakar unake sirapar haath pherana shuroo kiyaa. raghunaathako aisa maaloom pada़a maano unakee raasteko saaree thakaavat hava ho gayee. mahaaprabhukee karunaasheelata dekhakar unakee aankhonse shraddha aur premake aansoo baras pada़e. unhen bhee gaurane nij karakamalonse hee pachha isake anantar chaitanyadevane svaroopadaamodarako apanepaas bulaakar kaha ki 'dekho, main is raghunaathako tumhen saunpata hoon. khaana-paanase lekar saadhana-bhajanatak saaree vyavasthaaka bhaar tumhaare oopar hai, bhala !' bahut achchha ! kahakar svaroopane prabhukee aajna shirodhaary kee aur raghunaathako apanee kuteemen le gaye unake samudra- khaan karake vaapas aanepar unhen jagannaathajeeka kaee prakaar prasaad aur mahaaprasaad laakar diyaa. raghunaathane use bada़e premase paayaa. parantu jab unhonne dekha ki yah to rojaka silasila hai, tab unake manamen yah vichaar utpann huaa. ki roja-roj yah badha़iyaa-badha़iya maal khaanese vairaagy kaise sadhegaa. aakhir chaara-paanch dinake baad hee unhonne yah vyavastha badal dee. 'main ek raajakumaarakee haisiyataka aadamee hoon' is prakaaraka rahaa-saha bhaav bhee bhulaakar vah saadhaaran bhikshukakee bhaanti jagannaathajeeke sinhadvaarapar khada़e hokar bhikshaavritti karane lage aur bada़e aanandake saath din vyateet karane lage. jab logonko maaloom hua ki ye bahut bada़e gharake lada़ke hokar bhee is avasthaamen a gaye hain, tab unhen adhikaadhik parimaanamen vividh prakaarake padaarth dena aarambh kar diyaa. aakhir ghabaraakar raghunaathadaasako yah kram bhee tyaag dena pada़aa. ab vah chupachaap ek atrakshetramen jaate aur vahaanse rookhee-sookhee bheekh le aate raghunaathakee gatividhi kya se kya ho rahee hai, shreegeeraadevako poora pata lagata rahataa. unake dina-din badha़te hue vairaagyako dekhakar unhen baड़a sukh milataa. raghunaathakee utkat jijnaasa dekhakar shreemahaaprabhune ek din unhen saadhanasambandhee kuchh upadesh diyaa. kaha ki main tumhen sab shaastronka saar yah batalaata hoon ki 'shreekrishnake naamaka smaran aur keertan hee sansaaramen kalyaan praaptike sarvashreshth saadhan hain. par is saadhanakee bhee paatrata praapt karaneke saadhan ye hain ki nirantar saadhusang kare, saansaarik charchaase bache, paranindaase koson door rahe, svayan amaanee hokar doosaronka maan kare, kiseeka dil n dukhaaye aur doosareke dukhaanepar duhkhee n ho, aatmapratishthaako vishthaavat samajhe, saral aur sachcharitr hokar jeevan vyateet kare, aadi.' raghunaathadaas ichchha aur anichchhaase jabatak raajakumaarathe, tabatak the ab vah vairaagee ban gaye hain, isaliye unaka vairaagy bhee dina-din bada़e vegase badha़ta jaata hai. pahale ve annakshetramen jaakar bhiksha le aate the; par ab unhonne yah bhee band kar diyaa. kaaran, bhandaareeko jaise hee inake vansh aadika parichay mila, usane bhikshaamen visheshata kar do. isaliye inhen is vyavasthaako bhee tyaagakar nayee vyavastha karanee pada़ee. isamen poorn svaadheenata thee. jagannaathajeemen dookaanonpar bhagavaan‌ka prasaad bhaata-daal aadi bikata hai. yah prasaad bikanese bachate-bachate kaee-kaee dinaka ho jaanese sada़ bhee jaata hai. sada़ jaanese jab yah bikreeke kaamaka bhee naheen rahata, tab sada़k par phenk diya jaata hai, jise gauen aakar kha jaatee hain. raghunaathadaasako is jeevikaamen nirdvandvata maaloom huee. ve usee phenke hue prasaadamense thoda़aa-sa batorakar le aate aur usamen bahuta-sa jal daalakar use dhote aur usamen se kuchh saapha-se khaane laayak chaaval nikaal lete aur namak milaakar useese apane petakee jvaala shaant karate. gauraangadevako inakee is prasaadeeka pata laga to ve ek din saayankaalako dabe paanv raghunaathake paas pahunche. jyon hee unhonne dekha ki raghunaath prasaad pa rahe hain to jara aur bhee dubak gaye aur isee tarah khada़e rahe; ekaaek bandarakee tarah jhapatakar chhaapa maaraa. jhatase ek mutthee bharake 'vaah bachchoo! mera nimantran band karake ab akele-hee-akele yah sab maal uda़aaya karate ho?' kahate hue mukhamen pahunchaayaa. dhyaan jaate hee 'vaah prabho ! yah kyaa? is paapase mera nistaar kaise hogaa.' kahakar jhatase raghunaathane donon haathonse patalee utha lee, jisase mahaaprabhu punah aisa n kar saken. lajja aur sankochase unaka chehara murjha gaya aur netronmen jala-bindu chhalak aaye. mahaaprabhu munhamen diye hue kaurako muraate muraate raghunaathakee or karunaabharee drishtise nihaarate punah haath maaraneko lapake aur raghunaath 'he prabho! ab to kshama keejiye' kahate hue patalee lekar bhaage. tabatak yah sab hallaa-gulla sunakar svaroop gosvaamee bhee a pahunche aur yah dekhakar ki shreegaur jabaradastee raghunaathaka uchchhishtakhaaneka prayatn kar rahe hain, unase haath joda़kar praarthana kee 'prabho! daya karake yah sab mat keejiye, isamen doosareka janm karm bigada़ta hai.'

chaitanyadevane mukhamen diye hue graasako vaatepaate hee kahaa-'svaroop ! tumase sach kahata hoon, aisa susvaadu
an mainne aajatak naheen paayaa.' isee prakaar shreegauraangadevakee kripaadrishtise protsaahit hote rahakar raghunaathane vaheen pureemen rahakar solah varsh vyateet kar diye. shreechaitany jab aharnish premonmaadamen rahane lage, tab unakee deharakshaake liye ve sada unake saath ho rahane lage. ve unakee bada़ee shraddhaake saath seva karate aur unake mukhase nikale hue vachanaamritaka paan karate. aage chalakar shreegauraka tirobhaav ho gaya, jisase raghunaathake shokaka paar n rahaa; aur prabhuke baad jab shreesvaroop bhee vida ho gaye, tab to unaka pureevaas hee chhoot gayaa. ve vrindaavan chale gaye isake baad ve vrindaavanamen shreeraadhaakundake kinaare dera daalakar kathor saadhanamen lag gaye. ve keval chhaachh peekar jeevana-yaapan karate. raatako sirph ghante-dedha़ ghante sote shesh saara samay bhajanamen vyateet karate. pratidin ek laakh naama-japaka unaka niyam thaa. shreechaitanyacharitaamrit kaaraka kahana hai ki raghunaathadaasake gun anant the, jinaka hisaab koee naheen laga sakataa. unake niyam kya the, pattharakee leek the. chaar hee ghada़eemen unaka khaana, peena, sona aadi sab kuchh ho jaata tha shesh saara samay saadhanaamen vyateet hota thaa. vairaagyakee to ve moorti hee the. jeebhase svaad lena to ve jaanate hee naheen the. vastr bhee phate-puraane keval lajja aur sheetase raksha karaneke liye rakhate the. prabhukee aajnaako hee bhagavadaajna samajhakar chalate the.

inhen sanskrit bhaashaaka jnaan bhee bahut achchha thaa. vrindaavanamen rahate samay inhonne sanskritamen kaee granth bhee banaaye the. shreechaitanyacharitaamritake lekhak shreekrishnadaas kaviraajake ye deekshaaguru the. apane granthake liye bahut kuchh masaala unhen inheen mahaapurushase praapt hua thaa. pachaasee varshatak poorn vairaagyamay jeevan bitaakar bhagavaddhajan karate hue antamen aap bhagavachcharanonmen ja viraaje.

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मुझे रास आ गया है,
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आज बृज में होली रे रसिया।
होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसिया॥
वृदावन जाने को जी चाहता है,
राधे राधे गाने को जी चाहता है,
मेरा अवगुण भरा रे शरीर,
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जुबा पे राधा राधा राधा नाम हो जाए॥
यशोमती मैया से बोले नंदलाला,
राधा क्यूँ गोरी, मैं क्यूँ काला
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दूध छटी को याद दिलाऊँ
राधा ढूंढ रही किसी ने मेरा श्याम देखा
श्याम देखा घनश्याम देखा
सांवरे से मिलने का, सत्संग ही बहाना है,
चलो सत्संग में चलें, हमें हरी गुण गाना
हम राम जी के, राम जी हमारे हैं
वो तो दशरथ राज दुलारे हैं
जय शिव ओंकारा, ॐ जय शिव ओंकारा ।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव, अर्द्धांगी
हो मेरी लाडो का नाम श्री राधा
श्री राधा श्री राधा, श्री राधा श्री
तू कितनी अच्ची है, तू कितनी भोली है,
ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ, ओ माँ ।
रंग डालो ना बीच बाजार
श्याम मैं तो मर जाऊंगी
अरे बदलो ले लूँगी दारी के,
होरी का तोहे बड़ा चाव...
दुनिया से मैं हारा तो आया तेरे द्वार,
यहाँ से गर जो हरा कहाँ जाऊँगा सरकार
बहुत बड़ा दरबार तेरो बहुत बड़ा दरबार,
चाकर रखलो राधा रानी तेरा बहुत बड़ा
ਮੇਰੇ ਕਰਮਾਂ ਵੱਲ ਨਾ ਵੇਖਿਓ ਜੀ,
ਕਰਮਾਂ ਤੋਂ ਸ਼ਾਰਮਾਈ ਹੋਈ ਆਂ
कहना कहना आन पड़ी मैं तेरे द्वार ।
मुझे चाकर समझ निहार ॥
ना मैं मीरा ना मैं राधा,
फिर भी श्याम को पाना है ।
जग में सुन्दर है दो नाम, चाहे कृष्ण कहो
बोलो राम राम राम, बोलो श्याम श्याम
बांके बिहारी की देख छटा,
मेरो मन है गयो लटा पटा।
राधे राधे बोल, श्याम भागे चले आयंगे।
एक बार आ गए तो कबू नहीं जायेंगे ॥
मैं मिलन की प्यासी धारा
तुम रस के सागर रसिया हो
बृज के नंदलाला राधा के सांवरिया,
सभी दुःख दूर हुए, जब तेरा नाम लिया।
ज़िंदगी मे हज़ारो का मेला जुड़ा
हंस जब जब उड़ा तब अकेला उड़ा
मेरी रसना से राधा राधा नाम निकले,
हर घडी हर पल, हर घडी हर पल।

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मैं तो तेरी हो गई मात दुनिया क्या जाने,
क्या जाने कोई क्या जाने,
श्याम देने वाले हैं, हम लेने वाले हैं
आज ख़ाली, हाथ नहीं जाना ,
पाके गोरेया हथा दे विच छल्ले नी गौरा