भट्ट गदाधरः साधु अति, विद्या भजन प्रयोन।
सरस कथा, यानी मधुर सुनि रुचि होत नवीन ।।
रसिकमोहन नन्दनन्दन श्रीवृन्दावनचन्द्रका उज्ज्वल अनुराग जन्म-जन्मके पुण्योंके प्रभावसे किसी निर्मल चित्तमें ही आता है। वह कुल धन्य है, वह भूमि वन्दनीय है, जिसमें भगवान्के प्यारे भक्त प्रकट होते हैं। समस्त पृथ्वी ही ऐसे भगवद्भक्तोंकी जन्मभूमि है। प्राणिमात्र ही उनके स्वजन हैं। अपने परम प्रियतम प्रभुको सदा सर्वत्र देखनेवाले ऐसे लोकोत्तर पुरुषोंका अपना पराया क्या। वे सबके हैं, उनको पाकर सम्पूर्ण पृथ्वी धन्य होती है।
सज्जनता, सब प्राणियोंके साथ सहज सुहृदता, दोनोंक प्रति दया, मधुर वाणी, मद लोभ-क्रोध-मत्सर आदिका सर्वथा अभाव, निष्कामभाव, सत्य, करुणा प्रभृति समस्त सद्गुणोंके आधार एकमात्र श्रीहरि हैं। जिस हृदयमें भगवान्का प्रेम है, वहाँ यदि सद्गुण आज पूरे नहीं भी हैं तो कल निश्चय आयेंगे। भगवत्प्रेम जहाँ हो, वहाँ कोई दुर्गुण टिक नहीं सकता; परन्तु जहाँ भगवान्का प्रेम, उन सर्वेशके प्रति आस्था और विश्वास नहीं, वहाँ यदि सद्गुण हों भी तो उनकी नींव बालूपर है। वे कब स्वार्थके धक्केसे हवा हो जायेंगे, इसका कुछ। ठिकाना नहीं। सद्गुण तो भगवान्में ही हैं; फिर जिनके हृदयमें प्रेमके दृढ़ बन्धनमें बँधे वे लीलामय सदा विराजमान रहते हैं, वहाँ सब गुण एक साथ रहेंगे ही। गदाधर भट्ट समस्त सद्गुणोंकी मूर्ति थे। बचपनसे उनमें नम्रता, दया आदि गुण उज्ज्वल रूपमें प्रकट होते और बढ़ते गये। इसके साथ उन्हें प्रतिभा प्राप्त हुई। भगवान्के परम प्रियजन भगवती सरस्वतीकी कृपा पाकर अपने प्रियतम प्रभुका हो तो गुणानुवाद गायेंगे। गदाधर भट्टजीका कण्ठ बड़ा ही मधुर था। वे अपने बनाये भगवान्की लीला, रूपमाधुरी, प्रार्थना आदिके भावपूर्ण पद बड़े प्रेमसे गाया करते थे।
सखी, हाँ स्याम रंग रंगी l
देखि बिकाड़ गई वह मूरति सूरत माहि पनी ll
संग हुती अपनी सपनी-सौ सोइ रही रस खोड़ l
जागेहुँआगे दृष्टि परै सखि नेकु न न्यारी होइ l
एक जु मेरी अँखियन में निसिद्योस रह्यी करि मौन l
गाय चरावन जात सुन्यौ सखि सो धाँ कन्हैया कौन l
कास कहाँ कौन पतियायै, कौन कर बकवाद।
कैसे के कहि जात गदाधर गूंगे की गुड़ स्वाद ॥
भक्तवर गदाधरजीका यह पद वृन्दावनमें श्रीजीव गोस्वामीजीने किसीके मुखसे एक दिन सुना। गदाधरजीके भावपूर्ण पद भावुकजन प्रायः कण्ठ कर लेते और गाया करते थे। श्रीजीव गोस्वामीजी पद सुनते ही भावविल हो गये। रत्नका पारखी ही रत्नको पहचानता है। जीव गोस्वामीजीने समझ लिया कि यह पद किसी सामान्य कविका नहीं हो सकता। उन्होंने दो संतोंको एक पत्र देकर गदाधर भट्टजीके पास भेजा। पत्रमें लिखा था- 'मुझे बड़ा आश्चर्य है कि बिना रंगसाजके ही आपपर श्यामरंग चढ़ कैसे गया।'
दोनों संत गदाधरजीके ग्राम पहुँचे। प्रातःकालका
समय था। सूर्योदय हुआ नहीं था। गदाधरजी दाँतौन कर रहे थे संतोंने उनसे ही पूछा इस ग्राममें गदाधर भट्टजीका मकान कौन-सा है?"
गदाधर भट्टजीकी प्रसन्नताका क्या पूछना। आज प्रातःकाल ही संतोंके दर्शन हुए और वे आये भी उन्हींके यहाँ हैं। संतोंकी सेवाका सौभाग्य प्राप्त होगा, इनके मुखसे भगवान्का गुणानुवाद सुननेको मिलेगा। धन्य है आजका दिन।
आनन्दके भावोंमें निमग्र भट्टजीने सहज ही संतोंसे पूछा- 'आपलोग कहाँसे पधारे हैं?'
संतोंने उत्तर दिया- 'हम श्रीवृन्दावनसे आये हैं।' 'श्रीवृन्दावन' भट्टजीके श्रवणोंमें यह शब्द पड़ा और वे धड़ामसे गिर पड़े मूच्छित होकर। दाँतौन दूर गिर गया। नेत्रोंसे अश्रुप्रवाह चलने लगा। विचित्र दशा हो गयी उनकी। पहलेसे ही हृदयमें भाव उमड़ रहा था, श्रीधाम वृन्दावनका नाम सुनते ही वह उद्दीत हो उठा। शरीर संज्ञाहीन हो गया। दोनों संतोंने चकित होकरसम्हाला उन्हें लोगोंसे पता लगा कि गदाधर भट्टीत यही है; तब संतोंने उनके कानोंके पास मुख ले जाकर जोरसे कहा-'हम वृन्दावनसे आपके लिये एक पत्र से आये हैं।'
पत्रका नाम कानोंमें जाते ही भट्टजी उठ बैठे। जैसे उनके प्राण इसी पत्रकी प्रतीक्षा करते रहे हो। पत्रको लेकर उन्होंने मस्तकसे, नेत्रोंसे, हृदयसे लगाया। पत्रको बार-बार पढ़ते, अश्रु बहाते विह्वल होते रहे। संतोंका भली प्रकार सत्कार किया और फिर सर्वस्व दीन दुःखियोंको बाँटकर उन संतोंके साथ ही वृन्दावन चले आये।
श्रीगदाधर भट्टजीपर श्यामरंग तो पहले ही चढ़ चुका था, अब वृन्दावन आकर उन्हें श्रीजीव गोस्वामीजी जैसे भक्ति मार्गके उद्भट रंगसाज मिल गये। वह रंग और गाढ़ा हो गया, साथ ही भक्तिशास्त्रका अध्ययन हुआ। अब वृन्दावनमें भट्टजीकी श्रीमद्भागवतकी परम मधुर कथा होने लगी। उनकी कथामें प्रेमी भक्तों, संतोंकी भीड़ सदा बनी रहती थी। मधुर कण्ठ, भावपूर्ण हृदय प्रतिभाके साथ भक्तिशास्त्रका विपुल ज्ञान- इस प्रकार भट्टजीका भागवत व्याख्यान अद्वितीय हो गया था। वे भागवत कथामृतकी वर्षा करनेवाले मेघ ही माने जाते थे और उस अमृतके पिपासु चातक उनमें प्रगाढ़ निष्ठा रखते थे।
श्री भट्टजीकी कथाके प्रेमी श्रोताओंमें एक श्रोता थे कल्याणसिंह राजपूत कथाके निरन्तर श्रवणने उनके हृदयको शुद्ध कर दिया। हृदयमें जब भगवत्प्रेमकी अद्भुत रसधार प्रकट होती है, तब संसारके सभी विषय अपने आप सारहीन जान पड़ते हैं। जिसने उस अद्भुत प्रेमरसका स्वाद पाया, उसको विषयोंके रसकी दुर्गन्धमें रुचि कैसे रह सकती है। कल्याणसिंह मुन्दावनके समीपके धौरहरा ग्रामके रहनेवाले थे नित्य नियमपूर्वक कथा सुनने आते थे। हृदय शुद्ध था, उसमें श्रद्धा थी प्रेमका प्रादुर्भाव हो गया। विषयोंसे स्वतः विरक्ति हो गयी। 'गृहस्थके कर्तव्यका पालन करते हुए भी वे परम विरक्त संयमीका जीवन व्यतीत करने लगे।
कल्याणसिंहजीकी स्त्री सामान्य स्त्री ही थी। उसकी विषयासक्ति गयी नहीं थी। पतिकी उदासीनताका कारणउसे भट्टजी ही प्रतीत होने लगे। वह मन-ही-मन भट्टजीसे द्वेष करने लगी। काम ही प्रतिहत होनेपर क्रोध बन जाता है, क्रमशः बुद्धि मारी जाती है और मनुष्य न करनेयोग्य कर्म कर बैठता है। यही दशा उसकी हुई। उसने सोचा कि 'यदि मैं भट्टजीको कलङ्कित कर सकी तो मेरे पतिकी उनमें अश्रद्धा हो जायगी और तब वे घरमें अनुरक्त हो जायेंगे।' विकृतबुद्धि नारीको महापुरुषकी महिमाका क्या पता। लीलामय प्रभुको भी अपने भक्तका महत्त्व प्रकट करना था। उस स्त्रीने एक गर्भवती भिक्षा माँगनेवाली स्त्रीको बीस रुपये देकर सिखा-पढ़ाकर वृन्दावन भेज दिया। भट्टजीकी कथा हो रही थी, भक्तोंका समुदाय एकत्र था। उसी समय वह भिक्षुणी वहाँ पहुँची। उसने सीधे भट्टजीके समीप जाकर सबको सुनाते हुए कहा- 'महाराज! आपका दिया यह गर्भ अब पूरा होनेको आया। अब तो आप मेरे लिये किसी निवासकी व्यवस्था कर दीजिये। इसे लिये लिये मैं कहाँ भटकती फिरूं।'
भिक्षुणीकी बात सुनकर श्रोताओंमें बड़ी सनसनी फैल गयी। कुछ लोग जोर-जोरसे कहने लगे- 'यह झूठ बोलती है। एक संतको किसीके बहकानेसे कलङ्कित करना चाहती है। हम इसे मार डालेंगे।'
श्रीगदाधर भट्टजीके मुखपर मंद हँसी आयी। दयामय प्रभुने जगत्के मिथ्या आदर- मानसे बचानेके लिये यह व्यवस्था की है, यह सोचकर वे आनन्दसे पुलकित हो उठे। उन्होंने बिना संकोचके सबको सम्बोधित करके कहा-'भाइयो! आपलोग रुष्ट न हों। इस देवीका कोई अपराध नहीं है। यह ठीक ही कहती है।'
लोग आश्चर्यसे अवाक् रह गये। किसीको कुछ सूझ नहीं पड़ता था। भट्टजीने उस खोसे बड़े स्नेहसे कहा-'देवि मैं तो तुम्हारा नित्य ही स्मरण करता हूँ। तुम मुझे दोषी क्यों बताती हो। तुम कहाँ भटक रही थीं। आओ आज अच्छी आयी तुम बैठो, भगवान्की कथा 'सुनो।'
संतोंके अद्भुत चरित कौन समझ सकता है। जो सर्वत्र अपने ही परम प्रिय प्रभुको देखते हैं, वे किसीका स्मरण नहीं करते, यह कैसे कहा जा सकता है।श्रीगदाधर भट्टजी तो सब कहीं अपने उस हृदयहारी, वृन्दावनविहारीको ही देखते थे। उस स्त्रीके रूपमें भी अपने वही प्रियतम प्रभु उन्हें दीख रहे थे। परन्तु श्रोताओंकी विचित्र दशा थी भट्टजीमें उनकी अगाध श्रद्धा थी। इस दरिद्रा स्त्रीके वचनोंको वे कभी सत्य नहीं मान सकते थे। उनमें से अनेकोंके नेत्रोंसे इस दुःखसे अनु चलने लगे कि हमें आज एक महापुरुषकी निन्दा अश्रु सुननी पड़ी। अन्तमें एक संत उस स्त्रीके पास गये। उसे एक ओर ले जाकर उन्होंने सत्य कहनेके लिये समझाया। वह भिक्षुकी, वह भी मनुष्य ही थी ऐसा महान् पुरुष उसने देखा ही नहीं था। ऐसे कलङ्ककी मिथ्या बात कहनेपर भी जो न रुष्ट हुआ, न कड़ी बात कही-उस संतको झूठा कलङ्क देने आयी वह लज्जासे, ग्लानिसे उसका मस्तक झुक गया था। वह रो रही थी। उसने संतसे सच्ची बात कह दी और भट्टजीके चरणोंपर गिरकर फूट-फूटकर रोने लगी। भट्टजीने उसे आश्वासन दिया। श्रोताओंको बड़ा आनन्द हुआ सच्ची बातके प्रकट हो जानेसे; किंतु कल्याणसिंहने अपनी तलवार खींच ली। वे क्रोधसे काँपने लगे। उनकी जिस दुष्टा स्त्रीने महापुरुषको कलङ्कित करने का यह असत् प्रयत्न किया था, उसे वे तत्काल मार देना चाहते थे। भट्टजीने प्रेमसे कल्याणसिंहको रोका। उनको समझाया कि 'उस देवीने तो मुझे एक नवीन ढंगसे शिक्षा दी है कि संसारका तनिक भी संसर्ग कैंसा भयानक है।'
भट्टजोकी भागवत कथाकी ख्याति दूर-दूरतक पहुँच गयी। श्रीवृन्दावनधाम सदासे भगवत्प्रेमके प्रेमी भक्तवृन्दोंका प्रिय केन्द्र रहा है। अब जो भी यात्री वृन्दावन आता, वह श्रीगदाधर भट्टजीकी कथा सुनने अवश्य ही पहुँचता । कहाँसे एक वैष्णव महन्त कथामें एक दिन आये। भट्टजीने बड़े आदरसे उन्हें आगे आसन दिया। महन्तजीने देखा कि कथा होते समय सभीके नेत्रोंसे अश्रुधारा चलने लगी है। केवल उन्हींके नेत्रोंमें अश्रु नहीं आये। इससे उन्हें बड़ी लज्जा प्रतीत हुई। दूसरे दिन महन्तजी जब कथामें आये, तब गुप्तरूपसे वस्त्रोंमें महीन पिसी हुई लाल मिर्चको एक छोटी पोटली भी ले आये। कथाकेसमय नेत्र और मुख पोंछनेके बहाने उस पोटलीको वे बार-बार नेत्रोंपर फेर लेते थे। लाल मिर्च नेत्रोंमें लगनेसे नेत्रोंसे अनुप्रवाह चलने लगता था। समीप बैठे एक व्यक्तिने इसे ताड़ लिया। जब कथा समाप्त हो गयी और दूसरे सब श्रोता उठकर चले गये, तब उसने भट्टजीसे कहा- 'महाराज! यह जो महन्त आगे बैठा था, वह बड़ा दम्भी है। वत्रोंमें मिर्चको पोटली वह लाया था और उसीको नेत्रोंपर रगड़-रगड़कर लोगोंको दिखाने के लिये अश्रु बहा रहा था।'
साधारण व्यक्ति दूसरोंके गुणोंमें भी दोष ढूँढना चाहते हैं; किंतु महापुरुषोंके चित्तमें ही जब दोष नहीं, दम्भ नहीं, तब उन्हें दम्भ और दोष दीखें कहाँसे। उन्हें तो सर्वत्र गुण-ही-गुण दिखायी पड़ते हैं। प्रियश्रवा भगवान् के परम प्रियजन सदा सबमें गुण ही देखते हैं। श्रीगदाधर भट्टजीने जैसे ही उस व्यक्तिको बात सुनो, वहाँसे तुरंत उठकर आतुरतापूर्वक उन महन्तजीके समीप पहुँचे और उनको प्रणिपात करके कहने लगे- 'आप धन्य हैं। आपका भगवत्प्रेम धन्य है। मैंने सुना है कि आप नेत्रोंमें लाल मिर्च लगाकर इसलिये नेत्रोंको दण्ड देते हैं कि उनमें भगवत्प्रेमके अश्रु नहीं आये। अबतक मैंने सुना हो था कि जो अंग भगवान्को सेवामें न लगे, उनके दिव्य अनुरागसे द्रवित या पुलकित न हो, वह दण्डनीय है; पर आज मैंने आपको प्रत्यक्ष इस आदर्शपर चलते देखा। आप जैसे महापुरुषका दर्शन करके मैं कृतार्थ हो गया। भट्टजीने महन्तजीको दोनों भुजाओंमें भरकर हृदयसे लगा लिया और अब तो दोनोंके नेत्र झर रहे थे। दोनोंके शरीर पुलकित थे। ऐसे परम भागवतके अंगस्पर्शसे महन्तजीमें भगवत्प्रेमका स्रोत उमड़ उठा था !
एक रात्रिमें बोगदाधर भट्टजीकी कुटिया एक चोर चोरी करने घुस आया। भट्टजीने जो चोरको देखा तो चुपचाप पड़े रह गये। चौरको जो कुछ भी मिला, उसने बाँध लिया। जब वह गठरी उठाने लगा, तब उस भारी गटरीको उठा न सका। गदाधर भट्टजी तो पड़े-पड़े सब देख ही रहे थे। उन्हें तो लग रहा था कि उनके लोलामय प्रभु जैसे गोपियोंकि घरमें छिपकर माखन खाने जाते थे,वैसे ही आज इस वेषमें उनके यहाँ आये हैं। जब उन्होंने देखा कि भारी गठरी चोरसे सिरपर उठती नहीं, तब आसनसे उठे और गठरी उसके मस्तकपर उठवा दी चोरको बड़ा आश्चर्य हुआ। उसने पूछा कि 'अपना माल इस प्रकार उठानेवाले आप हैं कौन?' जब भट्टजीने अपना नाम बताया, तब तो चोर गठरी फेंककर उनके चरणोंपर गिरकर रोने लगा। उसने उनका नाम सुन रखा था। ऐसे महापुरुषके यहाँ चोरी करने आनेके लिये बड़ा दुःख हुआ उसे श्रीगदाधर भट्टजीने उसे प्रेमसे समझाया- 'भाई! तुम इतने दुःखी क्यों होते हो। तुमने प्राणोंका भय छोड़कर इस अँधेरी रात्रिमें यहाँ आनेका कष्ट किया है, इतना श्रम किया है और यही तुम्हारी आजीविका है अत: तुम इसे प्रसन्नतासे ले जाओ! मेरी चिन्ता मत करो! जिसने तुमको यहाँ भेजा है, जो इस सारे जगत्का पालन करता है, उसने मेरे लिये पहलेसे व्यवस्था कर रखी होगी। तुम इधर यह सब ले जाओगे और सवेरा होते ही इससे दसगुना यह मेरे पास भेज देगा।'
चोर फूट-फूटकर रोने लगा। करुणामय संतोंका हृदय तो नवनीतसे भी कोमल होता है। भट्टजीने उसपर कृपा की चोरी तो छूट ही गयी, भगवान्का अनुराग भी 1 प्राप्त हुआ। वह परम भागवत हो गया।गदाधरजीका भगवद्विग्रहकी सेवा-पूजामें अत्यधिक अनुराग था । पूजाकी समस्त सामग्री वे स्वयं प्रस्तुत करते थे। भगवत्कैङ्कका कोई भी काम वे दूसरोंसे लेना नहीं चाहते थे। एक बार भगवत्प्रसाद प्रस्तुत करनेके लिये आप अपने हाथसे चौका लगा रहे थे। | इतनेमें सेवकने आकर एक धनी श्रद्धालुका नाम बताते हुए कहा- 'वे बहुत-सी भेंट लेकर आपके पास आ रहे हैं। आप हाथ धोकर उनसे बात करें। चौका लगा देता हूँ।' तबतक
भट्टजीको सेवककी बुद्धिपर दया आयी। उन्होंने | उसे शिक्षा देते हुए कहा- 'मैं अपने त्रिभुवनके स्वामी प्रभुकी सेवामें लगा हूँ। इससे बड़ा कार्य अब कौन-सा हो सकता है कि भगवत्कैङ्कर्य छोड़कर उसके लिये मैं इससे हाथ धो लूँ। कोई श्रद्धालु आता है, तो उसे आने दो। मुझे प्रभुकी सेवाके कार्यमें लगा देखकर वह भी भगवत्सेवाके लिये प्रेरित होगा।'
इस प्रकार जीवनभर भगवत्सेवा, श्रीमद्भागवतप्रवचन एवं संतोंका सत्कार करते हुए श्रीगदाधर भट्टजी वृन्दावन धाममें ही रहे। अन्तमें उनका पार्थिव शरीर उसी नित्य धामकी पावन रजमें एक हो गया और उन्होंने अपने श्यामसुन्दरका शाश्वत सान्निध्य प्राप्त किया।
bhatt gadaadharah saadhu ati, vidya bhajan prayona.
saras katha, yaanee madhur suni ruchi hot naveen ..
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sakhee, haan syaam rang rangee l
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jaagehunaage drishti parai sakhi neku n nyaaree hoi l
ek ju meree ankhiyan men nisidyos rahyee kari maun l
gaay charaavan jaat sunyau sakhi so dhaan kanhaiya kaun l
kaas kahaan kaun patiyaayai, kaun kar bakavaada.
kaise ke kahi jaat gadaadhar goonge kee guda़ svaad ..
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bhikshuneekee baat sunakar shrotaaonmen bada़ee sanasanee phail gayee. kuchh log jora-jorase kahane lage- 'yah jhooth bolatee hai. ek santako kiseeke bahakaanese kalankit karana chaahatee hai. ham ise maar daalenge.'
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log aashcharyase avaak rah gaye. kiseeko kuchh soojh naheen pada़ta thaa. bhattajeene us khose bada़e snehase kahaa-'devi main to tumhaara nity hee smaran karata hoon. tum mujhe doshee kyon bataatee ho. tum kahaan bhatak rahee theen. aao aaj achchhee aayee tum baitho, bhagavaankee katha 'suno.'
santonke adbhut charit kaun samajh sakata hai. jo sarvatr apane hee param priy prabhuko dekhate hain, ve kiseeka smaran naheen karate, yah kaise kaha ja sakata hai.shreegadaadhar bhattajee to sab kaheen apane us hridayahaaree, vrindaavanavihaareeko hee dekhate the. us streeke roopamen bhee apane vahee priyatam prabhu unhen deekh rahe the. parantu shrotaaonkee vichitr dasha thee bhattajeemen unakee agaadh shraddha thee. is daridra streeke vachanonko ve kabhee saty naheen maan sakate the. unamen se anekonke netronse is duhkhase anu chalane lage ki hamen aaj ek mahaapurushakee ninda ashru sunanee pada़ee. antamen ek sant us streeke paas gaye. use ek or le jaakar unhonne saty kahaneke liye samajhaayaa. vah bhikshukee, vah bhee manushy hee thee aisa mahaan purush usane dekha hee naheen thaa. aise kalankakee mithya baat kahanepar bhee jo n rusht hua, n kada़ee baat kahee-us santako jhootha kalank dene aayee vah lajjaase, glaanise usaka mastak jhuk gaya thaa. vah ro rahee thee. usane santase sachchee baat kah dee aur bhattajeeke charanonpar girakar phoota-phootakar rone lagee. bhattajeene use aashvaasan diyaa. shrotaaonko bada़a aanand hua sachchee baatake prakat ho jaanese; kintu kalyaanasinhane apanee talavaar kheench lee. ve krodhase kaanpane lage. unakee jis dushta streene mahaapurushako kalankit karane ka yah asat prayatn kiya tha, use ve tatkaal maar dena chaahate the. bhattajeene premase kalyaanasinhako rokaa. unako samajhaaya ki 'us deveene to mujhe ek naveen dhangase shiksha dee hai ki sansaaraka tanik bhee sansarg kainsa bhayaanak hai.'
bhattajokee bhaagavat kathaakee khyaati doora-dooratak pahunch gayee. shreevrindaavanadhaam sadaase bhagavatpremake premee bhaktavrindonka priy kendr raha hai. ab jo bhee yaatree vrindaavan aata, vah shreegadaadhar bhattajeekee katha sunane avashy hee pahunchata . kahaanse ek vaishnav mahant kathaamen ek din aaye. bhattajeene bada़e aadarase unhen aage aasan diyaa. mahantajeene dekha ki katha hote samay sabheeke netronse ashrudhaara chalane lagee hai. keval unheenke netronmen ashru naheen aaye. isase unhen bada़ee lajja prateet huee. doosare din mahantajee jab kathaamen aaye, tab guptaroopase vastronmen maheen pisee huee laal mirchako ek chhotee potalee bhee le aaye. kathaakesamay netr aur mukh ponchhaneke bahaane us potaleeko ve baara-baar netronpar pher lete the. laal mirch netronmen laganese netronse anupravaah chalane lagata thaa. sameep baithe ek vyaktine ise taada़ liyaa. jab katha samaapt ho gayee aur doosare sab shrota uthakar chale gaye, tab usane bhattajeese kahaa- 'mahaaraaja! yah jo mahant aage baitha tha, vah bada़a dambhee hai. vatronmen mirchako potalee vah laaya tha aur useeko netronpar ragada़-ragada़kar logonko dikhaane ke liye ashru baha raha thaa.'
saadhaaran vyakti doosaronke gunonmen bhee dosh dhoondhana chaahate hain; kintu mahaapurushonke chittamen hee jab dosh naheen, dambh naheen, tab unhen dambh aur dosh deekhen kahaanse. unhen to sarvatr guna-hee-gun dikhaayee pada़te hain. priyashrava bhagavaan ke param priyajan sada sabamen gun hee dekhate hain. shreegadaadhar bhattajeene jaise hee us vyaktiko baat suno, vahaanse turant uthakar aaturataapoorvak un mahantajeeke sameep pahunche aur unako pranipaat karake kahane lage- 'aap dhany hain. aapaka bhagavatprem dhany hai. mainne suna hai ki aap netronmen laal mirch lagaakar isaliye netronko dand dete hain ki unamen bhagavatpremake ashru naheen aaye. abatak mainne suna ho tha ki jo ang bhagavaanko sevaamen n lage, unake divy anuraagase dravit ya pulakit n ho, vah dandaneey hai; par aaj mainne aapako pratyaksh is aadarshapar chalate dekhaa. aap jaise mahaapurushaka darshan karake main kritaarth ho gayaa. bhattajeene mahantajeeko donon bhujaaonmen bharakar hridayase laga liya aur ab to dononke netr jhar rahe the. dononke shareer pulakit the. aise param bhaagavatake angasparshase mahantajeemen bhagavatpremaka srot umada़ utha tha !
ek raatrimen bogadaadhar bhattajeekee kutiya ek chor choree karane ghus aayaa. bhattajeene jo chorako dekha to chupachaap pada़e rah gaye. chaurako jo kuchh bhee mila, usane baandh liyaa. jab vah gatharee uthaane laga, tab us bhaaree gatareeko utha n sakaa. gadaadhar bhattajee to pada़e-pada़e sab dekh hee rahe the. unhen to lag raha tha ki unake lolaamay prabhu jaise gopiyonki gharamen chhipakar maakhan khaane jaate the,vaise hee aaj is veshamen unake yahaan aaye hain. jab unhonne dekha ki bhaaree gatharee chorase sirapar uthatee naheen, tab aasanase uthe aur gatharee usake mastakapar uthava dee chorako bada़a aashchary huaa. usane poochha ki 'apana maal is prakaar uthaanevaale aap hain kauna?' jab bhattajeene apana naam bataaya, tab to chor gatharee phenkakar unake charanonpar girakar rone lagaa. usane unaka naam sun rakha thaa. aise mahaapurushake yahaan choree karane aaneke liye bada़a duhkh hua use shreegadaadhar bhattajeene use premase samajhaayaa- 'bhaaee! tum itane duhkhee kyon hote ho. tumane praanonka bhay chhoda़kar is andheree raatrimen yahaan aaneka kasht kiya hai, itana shram kiya hai aur yahee tumhaaree aajeevika hai ata: tum ise prasannataase le jaao! meree chinta mat karo! jisane tumako yahaan bheja hai, jo is saare jagatka paalan karata hai, usane mere liye pahalese vyavastha kar rakhee hogee. tum idhar yah sab le jaaoge aur savera hote hee isase dasaguna yah mere paas bhej degaa.'
chor phoota-phootakar rone lagaa. karunaamay santonka hriday to navaneetase bhee komal hota hai. bhattajeene usapar kripa kee choree to chhoot hee gayee, bhagavaanka anuraag bhee 1 praapt huaa. vah param bhaagavat ho gayaa.gadaadharajeeka bhagavadvigrahakee sevaa-poojaamen atyadhik anuraag tha . poojaakee samast saamagree ve svayan prastut karate the. bhagavatkainkaka koee bhee kaam ve doosaronse lena naheen chaahate the. ek baar bhagavatprasaad prastut karaneke liye aap apane haathase chauka laga rahe the. | itanemen sevakane aakar ek dhanee shraddhaaluka naam bataate hue kahaa- 've bahuta-see bhent lekar aapake paas a rahe hain. aap haath dhokar unase baat karen. chauka laga deta hoon.' tabataka
bhattajeeko sevakakee buddhipar daya aayee. unhonne | use shiksha dete hue kahaa- 'main apane tribhuvanake svaamee prabhukee sevaamen laga hoon. isase bada़a kaary ab kauna-sa ho sakata hai ki bhagavatkainkary chhoda़kar usake liye main isase haath dho loon. koee shraddhaalu aata hai, to use aane do. mujhe prabhukee sevaake kaaryamen laga dekhakar vah bhee bhagavatsevaake liye prerit hogaa.'
is prakaar jeevanabhar bhagavatseva, shreemadbhaagavatapravachan evan santonka satkaar karate hue shreegadaadhar bhattajee vrindaavan dhaamamen hee rahe. antamen unaka paarthiv shareer usee nity dhaamakee paavan rajamen ek ho gaya aur unhonne apane shyaamasundaraka shaashvat saannidhy praapt kiyaa.