जानहिं संत सुजान हिये जिन के निरदूषन ।
ललित भजन रस रीति निर्वहन कुल के भूषन ॥
हित कुल उदित उदार प्रेम पद्धति चलि आई।
कृष्ण बल्लभा चरन कमल के भुंग सदाई ॥
सोइ बिदित बात संसार में मन क्रम सेवत जुगल पद ।
गुन गहर सिंधु सम देखिए श्रीरूपलाल सब कौं सुखद ॥
- चाचा श्रीवृन्दावन हितरूप रसिकाचार्य गोस्वामी श्रीहितहरिवंशचन्द्र महाप्रभुपादके पवित्र एवं भक्ति-परायण कुलमें गोस्वामी श्रीरूपलालजी महाराजका जन्म विक्रम संवत् 1738 वैशाख कृष्णा सप्तमीको हुआ था। आपके पिताका नाम गोस्वामी श्रीहरिलाल एवं माताका नाम श्रीकृष्णकुँवरि था।
इनका बचपन महापुरुषोचित अनेकों चमत्कारोंसे पूर्ण था, जिनका वर्णन यहाँ अप्रासङ्गिक होगा। ये ज्यों ज्यों बड़े होते गये, इनके शील, सौजन्य, कोमल स्वभाव, दया, प्रेम आदि गुणोंका क्रमशः स्वाभाविक प्रस्फुरण होने लगा ।
उन दिनों भारत मुगल-शासनमें था। यवनोंके अत्याचार वृद्धिकी सीमापर थे। उनसे पीड़ित वृन्दावनवासी भक्तगण अपने-अपने इष्टदेवके अर्चा-विग्रहोंको यत्र-तत्र छिपाये फिरते थे। बादशाह औरङ्गजेबसे सताये जानेपर महाप्रभु श्रीहितहरिवंशचन्द्र के इष्टदेव श्रीराधावल्लभलालजी महाराज, जो वंशपरम्परासे श्रीहरिलालजीके भी इष्टदेव थे, उन दिनों कामवनके समीप अजानगढ़में छिपे विराजते थे। एक बार श्रावणके महीनेमें यमुनामें भारी बाढ़ आयी, जिससे अजानगढ़ डूबने लगा। अजानगढ़ केडूबनेकी खबर श्रीवनमें अभीतक किसीको न थी। एक दिन बालक रूपलाल अकस्मात् विलख-विलखकर रोने लगे। उनके शरीरमें एक साथ प्रेमके अनेकों सात्त्विक भाव उदय हो आये। इनके पिताजी और अन्य भक्तोंके पूछनेपर और कुछ न कहकर इन्होंने अजानगढ़ (कामवन) चलकर श्रीराधावल्लभजीके दर्शन करनेकी इच्छा प्रकट की। पुत्रवत्सल पिता श्रीहरिलालजी इन्हें अजानगढ़ ले गये। बाढ़की कठिनाइयोंको झेलते हुए ये कामवन (अजानगढ़) पहुँचे।
श्रीराधावल्लभजीका दर्शन करके ये ऐसे प्रेम- तन्मय हुए कि शरीरकी सुधि ही जाती रही। आँखोंसे आँसुओंकी अविरल धारा बह चली। बहुत देरके पश्चात् जब इन्हें चेतना हुई, ये अपलक नेत्रोंसे अपने प्रियतमकी रूप माधुरीका पान करने लगे।
इनकी दशा देखकर ऐसा प्रतीत होता था मानो बहुत समयसे बिछुड़े दो प्रेमियोंका आज प्रथम मिलन है। प्रेमके आवेशमें ये अपने-आपको सम्हालनेमें असमर्थ हो गये और शुचि-अशुचि अवस्थाका भी ध्यान भूलकर श्रीराधावल्लभलालको अपने भुज-बन्धनमें बाँध लेनेके लिये उनकी ओर लपके। ये शीघ्रतासे निज मन्दिरकी देहलीको पार किया ही चाहते थे, तबतक इनके पिताजीने इन्हें अपनी गोदमें उठा लिया। अपने-आपको बन्धनमें देखकर ये उसी भावावेशमें जोर-जोरसे चिल्लाने लगे- 'मुझे छोड़ दो। मैं राधावल्लभसे भेंटूंगा, मैं उन्हें निरखूँगा; अरे, मैं उनके कोमल-कोमल चरणोंका स्पर्श | करूँगा; मुझे छोड़ दो मुझे छोड़ दो।'इनकी छटपटाहट और प्रेमकी उतावलीको देखकर पिताजीने प्यारसे पुचकारते हुए समझाया-'बेटा! श्रीजीसे ऐसी अपावन दशामें थोड़े मिला जाता है। अभी तुमने स्नान नहीं किया है और फिर तुम्हारा संस्कार भी तो नहीं हुआ है। हमारे कुलकी परम्पराके अनुसार कोई भी गोस्वामीबालक बिना द्विजाति-संस्कार और वैष्णवी दीक्षाके न तो श्रीजीके मन्दिरमें प्रवेश कर सकता है और न उनका स्पर्श ही। और फिर तुम तो अभी केवल नौ वर्षके छोटे-से बालक हो, फिर यह सब कैसे हो सकता है।'
पिताजीकी बात सुनकर आप शीघ्रतासे उनकी गोदसे कूद पड़े और उसी आवेशमें बोले-'अच्छा! लो, स्नान तो मैं अभी किये आता हूँ। रही संस्कारोंकी बात, उन्हें आप चाहे जब करिये मैं तो प्रभुका दर्शन- स्पर्श करूँगा ही।'
यों कहकर आप बड़ी तीव्र गतिसे यमुनाजीकी ओर दौड़े और भीषण बाढ़में कूद गये। नौ वर्षके बालककी ऐसी प्रेमासक्ति देखकर पिताजीका हृदय आनन्दसे बाँसों उछलने लगा। उन्होंने पुत्रकी प्रेम-पिपासाको शान्त करनेके लिये उन्हें स्नान कराया और स्वयं भी किया और शीघ्र ही संक्षिप्त रीतिसे निज-मन्त्रका दान कर दिया। ये मन्त्र- श्रवण करते हो पुनः उसी प्रेमावेशमें आ गये तथा उसी प्रेमोन्मादमयी दशामें उन्हें मन्दिरमें प्रवेश कराया। गया। अपने अनन्तप्राणाधिक प्रियतम श्रीराधावल्लभलालजीके कोमल चरणोंका स्पर्श करते ही इनके शरीर का सा संचार हुआ तथा इनका शरीर दिव्य द्युतिसे चमक उठा। ये प्रेम-मुग्ध होकर अपने प्रियतमके चरणोंसे लिपट गये और लंबी-लंबी सुबकियाँ भरते हुए पावन प्रेमाश्रुओंसे उनके चरणोंका प्रक्षालन करने लगे। इनकी प्रेम-मुग्ध दशा देखकर पिताजीने इनसे प्रभुके चरणोंको छोड़ने की बात कही, पर ये छोड़ते ही न थे तब स्वयमेव श्रीहरिलालजीने इन्हें पकड़कर दूर किया। चरणोंसे दूर कर दिये जानेपर ये दोनों हाथों को अंजुली बाँधकर विरहिणीकी भाँति फूट-फूटकर रोने लगे। बालक रूपलालका रोदन सुनकर वहाँ उपस्थित सहस्रों नर नारियोंका हृदय भी भर आया। अन्तमें इनके बाबा श्रीकमलनयनाचार्यजीने इन्हें समझाया और आशिष दिया कि 'बेटा! तुम हमारे कुलके भूषण होओगे।' बाबाके वाक्य सुनकर ये लजा गये और शान्त होकर एककिनारेपर जा खड़े हुए पश्चात् प्रसादी चन्दन, फूलमाला बीड़ी आदि देकर इन्हें डेरेपर भेज दिया गया।।
इस प्रकार कितने ही दिनोंतक आप पिताजीके साथ कामवनमें रहकर श्रीजीका दर्शन-सुख लेते रहे। पश्चात् कामवनसे बरसाना होते हुए श्रीवन आये मार्गमें बरसानेकी सौकरी खोरसे होकर जब ये आ रहे थे, एक मतवाला हाथी इनकी पालकीकी ओर आता दीखा, जिससे सारे अङ्गरक्षक और कहार पालकी छोड़कर भाग गये। इससे इनके पिताजी घबरा उठे, पर परिणाम हुआ कुछ और ही मतवाले गजराजने पालकीके पास आकर बालक रूपलालके चरणोंका अपनी इसे स्पर्श किया और वह चुपचाप एक ओर चला गया।
क्यों न हो। जिन संतोंके पुनीत हृदयमें राग-रोष. रहित समता और स्नेह है, वहाँ ऐसे तमोगुणी स्वभाववाले जीवोंका झुक जाना, अपना स्वभाव छोड़ देना क्या आश्चर्य है। श्रीरसिकमुरारिजीने तो मतवाले हाथीको शिष्यतक बना डाला था, जो पीछे महंत गोपालदासजीके नामसे प्रख्यात हुआ।
इस घटनासे इनके पिताजी खूब प्रभावित हुए और वे भलीभाँति समझने लगे कि यह बालक साधारण बालक नहीं अवश्य कोई दिव्य महापुरुष है।
बालक रूपलालके हृदयमें श्रीठाकुरजीकी सेवाका बड़ा चाव था। उत्तम आचार्य ब्राह्मणकुल तथा धन धान्यसम्पन्न प्रतिष्ठित घरमें उत्पन्न होकर भी आप स्वयं अपने हाथों श्रीप्रियाजीके रास-मण्डलकी सोहनी (बुहारी) लगाया करते थे। यदि कोई इनके इस कार्यको छोटा बताकर इससे निवारण करनेकी बात कहता तो आप झट कह देते तो क्या गोस्वामी श्रीहितहरिवंशचन्द्र 'भवनाङ्गणमार्जनी स्याम्' अर्थात् 'हे राधे मैं आपके भवनके आँगनकी मार्जनी हो सकूँ ?' यह असत्य ही कह दिया है? और स्वामी श्रीहरिदासजीने भी तो कहा है— 'कुंजनि दीजै सोहनी' क्या यह भी व्यर्थ है?
इनके इन शब्दोंसे प्रस्फुटित होनेवाली श्रद्धा, भक्ति और सेवा निष्ठा लोगोंको निरुत्तर ही नहीं करती करं सेवा परायण बना देती थी। सेवाकी इस लगनने इनमें केवल ग्यारह वर्षकी ही अवस्थामें एक विलक्षणता उत्पन्न कर दी। ये सेवा करते, चलते-फिरते - हर समय अपने सामने युगलसरकारका दर्शन किया करते।विद्याध्ययन और विवाह संस्कारके पश्चात् लगभग बीस-इक्कीस वर्षकी अवस्थाके उपरान्त आपने अपना सम्पूर्ण जीवन भक्ति-प्रचार और भ्रमणमें व्यतीत किया। । प्रथम बार गुजरात प्रान्तकी यात्रामें आपने श्रीरामकृष्ण मेहताके घर, जो परम वैष्णव थे, प्रीतिवश लगातार आठ मासतक विश्राम किया। इनके सत्सङ्गसे मेहताजी कृतकृत्य उन्हें की कृपासे युगलकिशोर श्र श्यामसुन्दर दर्शन भी हुए।
आपने व्रज-मण्डलकी भी अनेकों यात्राएँ कीं, जिनमेंसे एक बार गोविन्द-कुण्ड (गोवर्द्धन गिरिराज) में निवास करते हुए आपने एक गिरिराज-शिलाका लगातार छः मासतक आराधन किया, जिससे उस शिलासे युगल किशोरका प्राकट्य हुआ, जो अभी भी राधा-कुण्डमें विराजमान है। वहाँ श्रीरूपलालजीको बैठक भी है।
आपकी दूसरी यात्रा पूर्वीय भारतकी हुई। इस समयजब आप जीवोंको भगवन्मार्गमें लगाते हुए श्रीप्रयागराज
पहुँचे, तब वहाँ एक महात्माने इन्हें सिद्धिप्रद नारिकेल
फल देते हुए कहा कि इसे खा लो, इससे आपमें अनेकों
सिद्धियोंका प्रकाश हो जायगा।
गोस्वामीजीने उस नारियलको लेकर गङ्गा-सङ्गममें फेंक दिया और कहा -'महाराज ! जिसे भगवान् श्रीकृष्णकी चरण-कृपा और प्रीतिकी वाञ्छा है, उसके लिये इन सिद्धियोंका प्रलोभन व्यर्थ ही नहीं, बल्कि अहितकर भी है। मुझे कहीं नाटक चेटक थोड़े ही दिखाना है, जो मैं आपका नारियल रखूं।' इनके इस उत्तरसे वे सिद्ध महात्मा लज्जित से हो गये। इस बहाने मानो आपने अपने भक्तोंको सिद्धियोंमें न फँसकर अनन्य रूपसे श्रीकृष्ण-भक्ति ही करनेका उपदेश दिया।
पश्चात् आप काशी होते हुए पटना आये। पटनामें रामदास वैष्णवका प्रेममय आग्रह और अपने प्रभुकी आज्ञा मानकर आपने उनके घरमें विराजमान युगलकिशोर के श्रीविग्रहको लेना स्वीकार किया।
जगनाथपुरी जाकर नीलाचलनाथके दर्शन करके आप अत्यन्त आनन्दित हुए और प्रभुके महाप्रसादको प्रत्यक्ष महिमा देखकर आपका हृदय प्रसन्नतासेफूल उठा।
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पूर्वीय प्रान्तोंकी यात्रा चार वर्षोंमें पूर्ण करके जब आप श्रीवृन्दावन आ रहे थे, मार्गमें कुछ दिनोंके लिये आगरा ठहरे। वहाँ आपने अपने शिष्य वैष्णव दयालदासकी पुत्री विष्णीबाईकी बीमारी दूर की। यही विष्णी गुरु कृपासे आगे चलकर परम भक्ता हुई।
अस्तु, श्रीहितरूपलालजी गोस्वामीकी इष्ट-निष्ठा वृन्दावनेश्वरी श्रीराधाके चरणोंमें थी अतः वे एक बार उनका दर्शन करने बरसाने गये। वहाँ गोस्वामीजीके अनुराग और भावसे प्रसन्न होकर स्वामिनी वृषभानु दुलारी श्रीराधाने आपको प्रत्यक्ष दर्शन दिये। श्रीस्वामिनीजीका दर्शन करके आप मुदित मनसे गा उठे
बरसानी र सिंधु भाव बहु लहरिनु सरसें ।
लीला चरित सुबारि भी भावुक दूग दरसे
ललित रतन जा मध्य बास परिकर जु भानु की।
रसिक जौहरी लखत, तहाँ गम नहीं आन की।
सति तें प्रकास कोटिक जु सब राधा ससि जहँ उदित है।
मंडल अखंड चित एकरस मोहन चकोर लखि मुदित है।
गोस्वामी श्रीहितरूपलालजी महाराज श्रीराधावल्लभीय सम्प्रदायके केवल आचार्य ही नहीं वरं एक सच्चे रसिक संत थे। इनका चरित्र ही इनकी इष्ट-निष्ठा, प्रीति, भक्ति, सेवा, लगन, निःस्पृह भाव, दयालुता, लोकसेवा, निर्वैरता आदिका साक्षी है। इन्होंने अपने धर्म पालनके लिये श्रीवृन्दावन और अपने इशराध्य श्रीविग्रह श्रीराधावल्लभ लालजीका परित्याग करनेमें भी कोई हिचक नहीं की।
गोस्वामीजी भक्त तो पूरे थे ही; साथ-साथ विद्वान् भी अच्छे थे। आपने अपने जीवन कालमें अनेकों भक्ति-ग्रन्थोंकी रचना की है, जिनमेंसे अबतक कोई बीस ग्रन्थ उपलब्ध हुए हैं। उनमेंसे कुछके नाम दिये जाते हैं-
(1) अष्टयाम सेवाप्रबन्ध, (2) मानसी सेवाप्रबन्ध, (3) आचार्य गुरु-सिद्धान्त, (4) नित्य-विहार, (5) गूढ़-ध्यान (गोप्य केलि), (6) पद-सिद्धान्त, (7) राधास्तोत्र (गौतमी-तन्त्रके आधारपर), (8) व्रज-भक्ति और (9) वाणी- विलास इत्यादि।
jaanahin sant sujaan hiye jin ke niradooshan .
lalit bhajan ras reeti nirvahan kul ke bhooshan ..
hit kul udit udaar prem paddhati chali aaee.
krishn ballabha charan kamal ke bhung sadaaee ..
soi bidit baat sansaar men man kram sevat jugal pad .
gun gahar sindhu sam dekhie shreeroopalaal sab kaun sukhad ..
- chaacha shreevrindaavan hitaroop rasikaachaary gosvaamee shreehitaharivanshachandr mahaaprabhupaadake pavitr evan bhakti-paraayan kulamen gosvaamee shreeroopalaalajee mahaaraajaka janm vikram sanvat 1738 vaishaakh krishna saptameeko hua thaa. aapake pitaaka naam gosvaamee shreeharilaal evan maataaka naam shreekrishnakunvari thaa.
inaka bachapan mahaapurushochit anekon chamatkaaronse poorn tha, jinaka varnan yahaan apraasangik hogaa. ye jyon jyon bada़e hote gaye, inake sheel, saujany, komal svabhaav, daya, prem aadi gunonka kramashah svaabhaavik prasphuran hone laga .
un dinon bhaarat mugala-shaasanamen thaa. yavanonke atyaachaar vriddhikee seemaapar the. unase peeda़it vrindaavanavaasee bhaktagan apane-apane ishtadevake archaa-vigrahonko yatra-tatr chhipaaye phirate the. baadashaah aurangajebase sataaye jaanepar mahaaprabhu shreehitaharivanshachandr ke ishtadev shreeraadhaavallabhalaalajee mahaaraaj, jo vanshaparamparaase shreeharilaalajeeke bhee ishtadev the, un dinon kaamavanake sameep ajaanagadha़men chhipe viraajate the. ek baar shraavanake maheenemen yamunaamen bhaaree baadha़ aayee, jisase ajaanagadha़ doobane lagaa. ajaanagadha़ kedoobanekee khabar shreevanamen abheetak kiseeko n thee. ek din baalak roopalaal akasmaat vilakha-vilakhakar rone lage. unake shareeramen ek saath premake anekon saattvik bhaav uday ho aaye. inake pitaajee aur any bhaktonke poochhanepar aur kuchh n kahakar inhonne ajaanagadha़ (kaamavana) chalakar shreeraadhaavallabhajeeke darshan karanekee ichchha prakat kee. putravatsal pita shreeharilaalajee inhen ajaanagadha़ le gaye. baadha़kee kathinaaiyonko jhelate hue ye kaamavan (ajaanagadha़) pahunche.
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inake in shabdonse prasphutit honevaalee shraddha, bhakti aur seva nishtha logonko niruttar hee naheen karatee karan seva paraayan bana detee thee. sevaakee is laganane inamen keval gyaarah varshakee hee avasthaamen ek vilakshanata utpann kar dee. ye seva karate, chalate-phirate - har samay apane saamane yugalasarakaaraka darshan kiya karate.vidyaadhyayan aur vivaah sanskaarake pashchaat lagabhag beesa-ikkees varshakee avasthaake uparaant aapane apana sampoorn jeevan bhakti-prachaar aur bhramanamen vyateet kiyaa. . pratham baar gujaraat praantakee yaatraamen aapane shreeraamakrishn mehataake ghar, jo param vaishnav the, preetivash lagaataar aath maasatak vishraam kiyaa. inake satsangase mehataajee kritakrity unhen kee kripaase yugalakishor shr shyaamasundar darshan bhee hue.
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barasaanee r sindhu bhaav bahu laharinu sarasen .
leela charit subaari bhee bhaavuk doog darase
lalit ratan ja madhy baas parikar ju bhaanu kee.
rasik jauharee lakhat, tahaan gam naheen aan kee.
sati ten prakaas kotik ju sab raadha sasi jahan udit hai.
mandal akhand chit ekaras mohan chakor lakhi mudit hai.
gosvaamee shreehitaroopalaalajee mahaaraaj shreeraadhaavallabheey sampradaayake keval aachaary hee naheen varan ek sachche rasik sant the. inaka charitr hee inakee ishta-nishtha, preeti, bhakti, seva, lagan, nihsprih bhaav, dayaaluta, lokaseva, nirvairata aadika saakshee hai. inhonne apane dharm paalanake liye shreevrindaavan aur apane isharaadhy shreevigrah shreeraadhaavallabh laalajeeka parityaag karanemen bhee koee hichak naheen kee.
gosvaameejee bhakt to poore the hee; saatha-saath vidvaan bhee achchhe the. aapane apane jeevan kaalamen anekon bhakti-granthonkee rachana kee hai, jinamense abatak koee bees granth upalabdh hue hain. unamense kuchhake naam diye jaate hain-
(1) ashtayaam sevaaprabandh, (2) maanasee sevaaprabandh, (3) aachaary guru-siddhaant, (4) nitya-vihaar, (5) goodha़-dhyaan (gopy keli), (6) pada-siddhaant, (7) raadhaastotr (gautamee-tantrake aadhaarapara), (8) vraja-bhakti aur (9) vaanee- vilaas ityaadi.