सरस्वती माता-पिताकी बड़ी ही लाड़ली लड़की थी। इसीसे उसके लालन-पालनमें माता-पिताने कुछ भी उठा नहीं रखा था। उसको कहीं जरा सी भी मनोवेदना हो, यह माता पिताको असह्य था। इकलौती सन्तान थी, सम्पन्न घर था और माता-पिताके हृदयोंमें स्नेहकी सरिता उमड़ती थी। बारह वर्षकी अवस्थामें उसका विवाह एक सम्पन्न घरके सुदर्शन नामक लड़केसे कर दिया गया। तीन साल बाद द्विरागमन हुआ। सरस्वतीके विवाह और द्विरागमनमें बहुत बड़ी धनराशि खर्च की गयी, प्रचुर दहेज दिया गया।
सरस्वती सचमुच योगभ्रष्टा थी। नहरके पंद्रह वर्षोंमें उसके शरीर और मनको चोट पहुँचानेवाली कोई भी छोटी-सी घटना भी नहीं हुई। वह सब प्रकारसेबड़े आरामसे रही, पर उसका मन कभी भी संसारके भोगोंमें फँसा नहीं। आरामकी सामग्रियाँ प्रचुर मात्रामें थीं, पर उसका मन उनसे सदा उदासीन-सा रहता था। | माता-पिताको दुःख न हो, इसलिये वह प्रकटमें सब कुछ स्वीकार कर लेती थी; परंतु उसका मन उनको स्वीकार नहीं करता था । घरमें श्रीगोपालजीका मन्दिर था । श्रुतदेव नामक बूढ़े पुजारी बड़े ही भक्तिभावसे श्रीगोपालजीकी पूजा करते थे। उनके कोई सन्तान नहीं थी। उनका गोपालजीमें वात्सल्यभाव था। वे बड़े स्नेहसे गोपालजीको भोग लगाया करते। उनके मन गोपालजी जड स्वर्णप्रतिमा नहीं थे, सच्चिदानन्दघन भगवान् थे। मनमें ही नहीं, भक्त श्रुतदेवकी शुद्ध भावनाके अनुसार भगवान् उनसे स्थूल व्यवहार भी ऐसा ही करते थे। परइस बातका रहस्य श्रुतदेवने किसीको नहीं बताया। सरस्वतीके माता-पिता श्रीकीर्ति तथा मतिमान् भी इस रहस्यसे अपरिचित थे। सरस्वती छोटी उम्र से ही मन्दिरमें जाकर बैठती खेलती, पुजारीजीको पूजा आरती तथा भोग-रागको बड़े चावसे देखा करतो पुजारीजी छोटी बच्ची समझकर उससे कोई छिपा नहीं करते। इसके अतिरिक्त उनका सरस्वतीके प्रति बड़ा स्नेह था, वे उसे अपनी सगी पुत्री से बढ़कर मानते थे। यह पुत्री और ठाकुरजी श्रीगोपालजी प्राणप्रियतम पुत्र- इस भावसे पुजारीजीका स्नेह दोनोंमें बँट गया था। उनके इस सम्बन्धसे सरस्वती और गोपालजीमें भी भाई-बहिनका सम्बन्ध हो गया था। छोटी बालिका अपने गोपाल भैयासे बड़ा प्यार करती। बाल्यभावसे उन्हें खिलाती पिलाती, उनके साथ खेलती, शुद्ध प्रेमालाप करती। श्रुतदेवजी बड़े प्रसन्न होते।
सरस्वतीको बुद्धि बहुत सी थी वह पुजारीजी से गीता-रामायण पुराण तथा अन्य शास्त्रग्रन्थ बड़ी लगनसे पढ़ती और समय-समयपर श्रीभगवान्के स्वरूप तथा लीलाके सम्बन्धमें पूछा करती। श्रुतदेवजीको वह पिता से बढ़कर मानती और उनके उपदेशों और वचनोंको कार्यरूपमें परिणत करनेकी चेष्टा करती। इससे उसका जीवन पवित्र, भक्तिमय हो गया था। नौ ही वर्षकी अवस्थामें उसे श्रीभगवान के दर्शनका सौभाग्य प्राप्त हो गया था। उसके सरल आग्रहसे प्रसन्न होकर साक्षात् प्रकट हो भगवान्ने भोग आरोग लिया तथा कुछ ही दिनों बाद श्रावणी पूर्णिमाके दिन उसके द्वारा रक्षाबन्धन करवाया। श्रुतदेवजी इससे बड़े ही प्रसन्न हुए। इसके बाद तो श्रीगोपालजी के साथ सरस्वतीका भाई-बहिनका सम्बन्ध इतना स्पष्ट और सुदृढ़ हो गया था कि दोनों जाने कितनी बार मिले और कितनी बार परस्पर सुख दुःखको चर्चा हुई। फिर गोपाल भैयाकी सम्मति हो सरस्वतीने विवाह करना स्वीकार किया- इस शर्तपर कि गोपाल भैयाको सरस्वती बहिन जब याद करेगी, तभी वे उसके पास पहुँच जायेंगे। सरस्वतीको अपने बाल्यजीवनमेंपिता-माताके द्वारा जो सब प्रकार सुख-सुविधा प्राप्त हुई, इसमें गोपाल भैयाकी ही करामात थी और सरस्वतीके विवाह तथा द्विरागमनमें भी गोपाल भैयाका बड़ा हाथ था। दहेजकी सामग्री, अतिथियोंका स्वागत-सत्कार, सबकी सात्त्विक प्रसन्नता आदिकी व्यवस्था सरस्वतीके पिता मतिमान्को आश्चर्यमें डालनेवाली थी। कहाँसे कैसे कब क्या होता था, इसका उन्हें पता ही नहीं लग पाता था। न मालूम कहाँसे उनके इतने कार्य कुशल मित्र आ गये. थे और इतनी सुमुखी-सवानी देवियाँ घरमें आ गयी थीं श्रीकीर्तिके काममें सहयोग देने। उन्हें पता नहीं था कि यह सब सरस्वतीके भैया गोपालकी कृपाशतिके खेल हैं। द्विरागमन हो गया। सरस्वती ससुराल चली गयी। गोपाल भैया गुप्तरूपसे बहिनको पहुंचाने साथ गये और दो-तीन दिन वहाँ रहकर उसे सान्त्वना देकर लौटे। सरस्वतीके पति सुदर्शन बड़े ही सात्त्विक प्रकृतिके साधु पुरुष थे। उनमें जगत्के छलछन्दका कहीं गन्ध-लेश भी नहीं था। पिताका घर सम्पन्न था। माता-पिता निष्ठावान् धार्मिक थे। घरमें सब प्रकारसे सुख था। सरस्वतीका
जीवन बहुत आनन्दसे बीत रहा था। गोपाल भैया बीच
बीचमें आकर बहिनसे मिल जाया करते और बातों-ही
बातोंमें उसे उपदेश दिया करते तथा अपने स्वरूपका
तत्त्व समझाया करते थे।
एक दिन सरस्वतीने श्रीगोपालजीसे कहा-"भैया! मैं छोटी थी, तब तो कुछ समझती नहीं थी। तुम्हारी छोटी-सी मूर्ति मुझे बड़ी प्यारी लगती। पुजारीजी पूजा करते, तब मुझे ऐसा लगता, तुम मानो हँस रहे हो; वे भोग लगाते, तब मुझे लगता तुम खा रहे हो। मेरी बालसुलभ श्रद्धा थी। फिर एक दिन जब मैं पुजारीजीसे अड़ गयी कि आज तो मैं हो भोग लगाऊँगी, तब उन्होंने बहुत समझाया, पर मैंने अपना हठ नहीं छोड़ा; उस समय मुझको लगा तुम मानो पुजारीजीसे कह रहे हो कि 'सरस्वती भोग लगाना चाहती है तो तुम क्यों रोकते हो। मुझे इसके हाथका भोग ग्रहण करनेमें बड़ी प्रसन्नता है। पता नहीं, उन्होंने तुम्हारी बात सुनो या नहीं, परंतुतुरंत ही मुझसे कह दिया कि 'तुम भोग लगाओ' और पता नहीं इतना कहकर वे क्यों बाहर चले गये। मैंने भोग रखा। पर्दा लगाया। पर तुमने खाया नहीं। भैया! मुझे उस दिनको बात अच्छी तरह याद है जब मैं रोने लगी, तब तुम उसी मूर्ति प्रकट हो गये और मेरा रखा हुआ प्रसाद प्रसन्नतासे पाने लगे। मुझे उस दिन बड़ी ही प्रसन्नता हुई। इसके छः ही महीने बाद मेरे आग्रह करनेपर तुमने राखी बंधवायी मुझसे। इसके बाद तो तुम मुझसे बातचीत करने लगे। मैं जानती नहीं भी कि तुम कौन हो। इतना ही जानती थी कि मेरे भैया लगते हो। यही पुजारीजीने मुझको बताया था। माने कई बार मुझसे पूछा, पिताजीने भी कभी-कभी बात चलायी; पर तुमने मने कर दिया था, इससे मैंने किसीसे कुछ भी नहीं कहा। तुम्हारे कहनेसे में यहाँ चली आयी। पर अब मेरे मनमें यह जानने की आ रही है कि वास्तवमें तुम कौन हो। माताजी, पिताजी तुम्हें भगवान् कहते हैं। पुजारीजी भी भगवान् ही मानते हैं। पर तुम मेरे माता पिताके सामने मूर्ति ही बने रहते हो। भैया! बताओ, क्या सचमुच तुम भगवान् ही हो? भगवान् ही हो तो फिर मेरे भाई कैसे? क्या मैं तुमको भाई न मानूँ? ऐसा तो सोचते हो मेरा मन जाने कैसा घबरा जाता है। भैया! अपना रहस्य मुझे बताओ। आज में बिना जाने नहीं रहूँगी।"
सरस्वती बहिनकी बात सुनकर गोपाल भैया हँसे । बोले- 'सरस्वती बहिन सचमुच में तुम्हारा भैया हूँ। यो तो मैं सारे ही संसारका बन्धु हूँ, पर तुम्हारा तो भाई ही हूँ तुम्हारा मेरे प्रति जो निश्छल प्रेम है, उससे तुमने मुझको सदाके लिये अपना भैया बना लिया है। बहिन! प्रेम आत्माका स्वरूपभूत गुण है-धर्म है जैसे दूधको सफेदी और अग्निकी दाहिका शक्तिका उनसे अभिन सम्बन्ध है, वैसा ही आत्माका अभिन्न सम्बन्ध प्रेमसे है। परंतु बद्ध जीवका चित्त अशुद्ध होनेसे उसके प्रेमका विषय दूसरा होता है। यह अपने स्वरूप आत्मामें प्रेम न करके तुच्छ और अनित्य भोग पदार्थोंमें स्त्री पति, पदार्थोंमें-स्त्री, पुत्र, धन, मान, प्रतिष्ठा आदिमें प्रेम करता है और इन नश्वर पदार्थोंसे प्रेम करनेके कारण ही बार-बार प्रवञ्चितहोता है। उसे इस प्रेमके परिणाममें निराशा, असफलता, वियोग, मृत्यु, नाश और रोना-कराहना ही मिलता है। पर जब मेरी कृपासे जीवका चित्त शुद्ध होनेपर अपने स्वरूपकी और दृष्टि जाती है, तब उसमें विशुद्ध प्रेमकी स्फूर्ति होती है तब यह आत्माकी ओर मुड़ता है, आत्मामें प्रेम स्थापन करता है, आत्माराम हो जाता है। तदनन्तर ही प्रेम-साधनाके बलसे वह जान पाता है कि मैं (भगवान्) ही समस्त आत्माओंका आत्मा हूँ, मैं ही सबका एकमात्र स्वरूपाश्रय हूँ। तब वह समझता है कि बस, एकमात्र भगवान् ही मेरे प्रेमास्पद हैं। ऐसी अवस्थामें उसका चित्त मेरे ही दिव्य गुणोंकी और आकर्षित हो जाता है, मेरे ही दिव्य सौन्दर्य- माधुर्यपर मुग्ध होता है और फिर वह समस्त जगत्में और जगत्से बाहर केवल मुझको ही देखता हुआ मुझमें ही अपने प्रेमको मिला देता है। तब, मैं क्या हूँ, कैसा हूँ-इस तत्त्वका उसे मेरी कृपासे यथार्थ पता लग जाता है।
'सरस्वती बहिन। तुम मुझे ठीक जानती नहीं कि मैं कौन हूँ, परंतु मुझसे प्रेम करती हो मेरी तुलना तुम्हारे मनमें न घर-द्वार हैं, न माता-पिता हैं, न धन-ऐश्वर्य है, न मान-सम्मान हैं और न स्वर्ग-मोक्ष ही हैं। तुम्हारा मुझमें इतना अपार अनुराग है। सो यह उचित ही है। इस बातको चाहे कोई जाने या न जाने, सबका प्रेम आत्मामें होता है और मैं तो आत्माका भी आत्मा हूँ। इसके सिवा जो मुझे एक बार देख लेता है, वह अनन्य प्रेम किये बिना रह ही नहीं सकता। मैं हूँ ही ऐसी वस्तु ! आत्माराम मुनि भी मेरे गुणोंपर मुग्ध होकर मेरे प्रति अहैतुकी भक्ति करते हैं। यह प्रेम कोई वृत्ति नहीं है, यह मेरी स्वरूप शक्ति है। प्रेमवृत्ति तो इसीका एक साधारण क्षुद्र प्रकाशमात्र है। भाईके पवित्र भावसे तुममें मेरे प्रति यह जो अप्रतिम प्रेम है, यह मेरे यथार्थ स्वरूपका ज्ञान तुमको अपने आप ही करा देगा।
"वस्तुतः मेरे स्वरूपका पता कोई भी पुरुषार्थके द्वारा नहीं प्राप्त कर सकता। मेरा स्वरूप मन-बुद्धि-वाणीके अगोचर है। मैं ही नित्य सत्य है. सनातन हूँ, पूर्ण हूँ और | परात्पर हूँ। जो कुछ भी दृश्यवर्ग है, सब न तो मुझसेभिन्नरूपसे सत् है और न वह शशभृङ्ग या इन्द्रजालकी भाँति सर्वथा असत् ही है। यह जो कुछ है, सब मैं ही हूँ। पर जिस रूपमें यह दीखता है, उस रूपमें नहीं। इस दृश्यमें होता है परंतु प्रत्येक दृश्यको आदमें में ि सत्यरूपसे विराजित हूँ। यह परिवर्तन तो मेरा लीला विलास है। प्रलयमें जगत् मुझमें हो लीन होता है और सृष्टिके आरम्भमें फिर मुझसे ही उद्भूत हो जाता है। अनन्त विश्व-ब्रह्माण्ड सब मुझमें है, मैं अनन्त विश्व-ब्रह्माण्डों में हूँ और मैं हो उनसे अतीत अचिन्त्यरूप हूँ। जो कुछ भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष है, जो कुछ जगत् या जगदतीत है, जो कुछ भी 'है' या 'नहीं' है, सब मैं ही हूँ। मैं सदा अप्रकट हूँ और नित्य प्रकट हूँ। परमाणु-परमाणुमें मेरा ही नित्य आनन्दनृत्य चल रहा है। सुन्दर सृजन और भयानक संहार- सब मेरे हो लीलास्वरूप हैं। इतना सब होते हुए भी मैं तुम्हारा अपना और परम प्यारा गोपाल भैया हूँ। तुम मुझे नित्य भैया मानी और मैं तुम्हें नित्य बहिन मानूँगा।
'देखो, तुम्हारा यह पति मेरा पुराना भक्त है। यह पहले अवन्तिकापुरीमें ब्राह्मण था वहाँ भी तुम इसकी धर्मपत्नी थी और मेरी परम भक्ता थी। मेरे किसी -लोला- सङ्केतसे तुम दोनोंको फिर यहाँ जन्म लेना पड़ा। अब तुम दोनों मेरी भक्ति करते हुए सफलजीवन होओगे और मेरे दुर्लभ परम धामको प्राप्त करोगे।'
'तुम निश्चय समझो कि एक बार जो मेरा हो जाता है, वह सदा मेरा ही रहता है। तुम्हारे सदृश महान् भाग्यशाली भक्तोंको, जो मेरे लिये सारे भोगोंकी आसक्ति भूलकर, सब कुछ त्यागकर मेरे ही हो गये हैं, मैं कभी नहीं छोड़ता-
विस्मृत्य सकलान् भोगान्दर्थे त्यक्तजीवितान्।
मदात्मकान् महाभागान् कथं तांस्त्यक्तुमुत्सहे ।
इतना कहकर गोपाल भैयाने सरस्वतीके सिरपरहाथ रखा। हाथ रखते ही उसकी बुद्धिमें भगवान्का तत्त्वस्वरूप प्रकट हो गया। कुछ ही क्षणोंमें बुद्धि भी असमर्थ हो चली। अब आगेकी बात कौन बताये। भगवान् के साथ सरस्वतीकी किस प्रकार कैसी एकात्मता हुई, इसका किसीको पता नहीं है; परंतु वह समाधिस्थ
सी हो गयी। श्रीभगवान्का वरद हस्त उसके मस्तकपर है और वह जड़ पुत्तलिकाकी भाँति निस्तब्ध-स्थिर है। वह इस समय कहाँ थी, क्या अनुभव करती थी, अनुभव करनेवाली कोई सत्ता भी थी या नहीं, कुछ पता नहीं। पर जब कुछ देरके बाद वह जगी, तब देखा गया, उसमें अपूर्व विलक्षणता थी उसको मुखाकृति ही बदल गयी थी। उससे मानो स्निग्ध शीतल तेजोराशि तथा निर्मल शान्तिकी धारा प्रवाहित हो रही थी। भगवान उसकी ओर देखकर मुसकरा दिये और वह भी हँसने लगी। तदनन्तर भगवान् अन्तर्धान हो गये। सरस्वती भगवान्का प्रत्यक्ष दर्शन और उपदेश प्राप्त करके कृतार्थ हुई।
इधर भगवान् कृपापूर्वक सरस्वती के पति सुदर्शनको भी कुछ ऐसी विचित्र प्रेरणा की कि उसे अपने पूर्व जन्मकी बात याद आ गयी और वह सबका मोह छोड़कर केवल भगवदाराधनमें लग गया। अब तो श्रीगोपालजी उसके सामने भी प्रकट हो गये। दोनों पति पत्नी एक ही साध्य, एक ही साधन और एक ही मार्गका अवलम्बन करके भगवान्के परम प्रेमी बन गये। अब उनके पास जो कुछ भी था, सब भगवान्की पूजाका उपकरण बन गया और वे जो कुछ भी करते, सब भगवत्परायण होकर भगवान्को पूजाके लिये ही करते। उनका अलग कोई काम रह ही नहीं गया। इस प्रकार भगवद्भक्ति से ओत-प्रोत भगवन्मय जीवन बिताकर वे भगवान के परम धामको प्राप्त हुए।
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vismrity sakalaan bhogaandarthe tyaktajeevitaan.
madaatmakaan mahaabhaagaan kathan taanstyaktumutsahe .
itana kahakar gopaal bhaiyaane sarasvateeke siraparahaath rakhaa. haath rakhate hee usakee buddhimen bhagavaanka tattvasvaroop prakat ho gayaa. kuchh hee kshanonmen buddhi bhee asamarth ho chalee. ab aagekee baat kaun bataaye. bhagavaan ke saath sarasvateekee kis prakaar kaisee ekaatmata huee, isaka kiseeko pata naheen hai; parantu vah samaadhistha
see ho gayee. shreebhagavaanka varad hast usake mastakapar hai aur vah jada़ puttalikaakee bhaanti nistabdha-sthir hai. vah is samay kahaan thee, kya anubhav karatee thee, anubhav karanevaalee koee satta bhee thee ya naheen, kuchh pata naheen. par jab kuchh derake baad vah jagee, tab dekha gaya, usamen apoorv vilakshanata thee usako mukhaakriti hee badal gayee thee. usase maano snigdh sheetal tejoraashi tatha nirmal shaantikee dhaara pravaahit ho rahee thee. bhagavaan usakee or dekhakar musakara diye aur vah bhee hansane lagee. tadanantar bhagavaan antardhaan ho gaye. sarasvatee bhagavaanka pratyaksh darshan aur upadesh praapt karake kritaarth huee.
idhar bhagavaan kripaapoorvak sarasvatee ke pati sudarshanako bhee kuchh aisee vichitr prerana kee ki use apane poorv janmakee baat yaad a gayee aur vah sabaka moh chhoda़kar keval bhagavadaaraadhanamen lag gayaa. ab to shreegopaalajee usake saamane bhee prakat ho gaye. donon pati patnee ek hee saadhy, ek hee saadhan aur ek hee maargaka avalamban karake bhagavaanke param premee ban gaye. ab unake paas jo kuchh bhee tha, sab bhagavaankee poojaaka upakaran ban gaya aur ve jo kuchh bhee karate, sab bhagavatparaayan hokar bhagavaanko poojaake liye hee karate. unaka alag koee kaam rah hee naheen gayaa. is prakaar bhagavadbhakti se ota-prot bhagavanmay jeevan bitaakar ve bhagavaan ke param dhaamako praapt hue.