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श्रीकुन्तीदेवी की मार्मिक कथा
श्रीकुन्तीदेवी की अधबुत कहानी - Full Story of श्रीकुन्तीदेवी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [श्रीकुन्तीदेवी]- भक्तमाल


विपदः सन्तु नः शश्वत् तत्र तत्र जगद्गुरो ।

भवतो दर्शनं यत्स्यादपुनर्भवदर्शनम् ।।

(श्रीमद्भा0 1।8।25)

कुन्तीजी भगवान्से प्रार्थना करती हैं- जगद्गुरो ! हमपर जहाँ-तहाँ सदा विपत्तियाँ ही आती रहें, क्योंकि विपत्तियोंमें ही आपके दर्शन होते हैं और आपके दर्शन होनेपर फिर इस संसारके दर्शन नहीं होते, अर्थात् जन्म मृत्युसे छुटकारा मिल जाता है।'

कुन्तीदेवी एक परम आदर्श आर्य-नारी थीं। ये महात्मा पाण्डवोंकी माता एवं भगवान् श्रीकृष्णकी बूआ थीं। ये वसुदेवजीकी सगी बहन थीं तथा राजा कुन्तिभोजको गोद दी गयी थीं। जन्मसे इन्हें लोग पृथाके नामसे पुकारते थे, परंतु राजा कुन्तिभोजके यहाँ इनकालालन-पालन होनेसे ये कुन्तीके नामसे विख्यात हुईं। ये बालकपनसे ही बड़ी सुशीला, सदाचारिणी, संयमशीला एवं भक्तिमती थीं। राजा कुन्तिभोजके यहाँ एक बार एक बड़े तेजस्वी ब्राह्मण अतिथिरूपमें आये। इनकी सेवाका कार्य बालिका कुन्तीको सौंपा गया। इसकी ब्राह्मणोंमें बड़ी भक्ति थी और अतिथि सेवामें बड़ी रुचि थी। राजपुत्री पृथा आलस्य और अभिमानको त्यागकर ब्राह्मणदेवताकी सेवामें तन-मनसे संलग्न हो गयी। उसने शुद्ध मनसे सेवा करके ब्राह्मणदेवताको पूर्णतया प्रसन्न कर लिया। ब्राह्मणदेवताका व्यवहार बड़ा अटपटा था। कभी वे अनियमित समयपर आते, कभी आते ही नहीं और कभी ऐसी चीज खानेको माँग बैठते, जिसका मिलना अत्यन्त कठिन होता। किंतु पृथा उनके सारे कामइस प्रकार कर देती मानो उसने उनके लिये पहलेसे ही तैयारी कर रखी हो। उसके शील स्वभाव एवं संयमसे ब्राह्मणको बड़ा सन्तोष हुआ। कुन्तीकी यह बचपनकी ब्राह्मण सेवा उनके लिये बड़ी कल्याणप्रद सिद्ध हुई। और इसीसे उनके जीवनमें संयम, सदाचार, त्याग एवं सेवाभावकी नींव पड़ी। आगे चलकर इन गुणोंका उनके अंदर अद्भुत विकास हुआ।

कुन्तीके अंदर निष्कामभावका विकास भी बचपनसे ही हो गया था। इन्हें बड़ी तत्परता एवं लगनके साथ महात्मा ब्राह्मणकी सेवा करते पूरा एक वर्ष हो गया। इनके सेवामन्त्रका अनुष्ठान पूरा हुआ। इनकी सेवामें ढूँडनेपर भी ब्राह्मणको कोई त्रुटि नहीं दिखायी दी। तब तो वे इनपर बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने कहा-'बेटी! मैं तेरी सेवासे बहुत प्रसन्न हूँ। मुझसे कोई वर माँग ले।' कुन्तीने ब्राह्मणदेवताको बड़ा ही सुन्दर उत्तर दिया। श्रीकृष्णकी बूआ और पाण्डवोंकी भावी माताका वह उत्तर उनके सर्वथा अनुरूप था। कुन्तीने कहा- 'भगवन् ! आप और पिताजी मुझपर प्रसन्न हैं, मेरे सब कार्य तो इसीसे सफल हो गये। अब मुझे वरोंकी कोई आवश्यकता नहीं है।' एक अल्पवयस्का बालिकाके अंदर विलक्षण सेवाभावके साथ-साथ ऐसी निष्कामताका संयोग मणि काञ्चन- संयोगके समान था। हमारे देशकी बालिकाओंको कुन्तीके इस आदर्श निष्काम सेवाभावसे शिक्षा ग्रहण करनी चाहिये। अतिथि सेवा हमारे सामाजिक जीवनका प्राण रही है और उसकी शिक्षा भारतवासियोंको बचपनसे ही मिल जाया करती थी। सच्ची एवं सात्त्विक सेवा वही है, जो प्रसन्नतापूर्वक की जाय जिसमें भार अथवा उकताहट न प्रतीत हो और जिसके बदलेमें कुछ न चाहा जाय। आजकलकी सेवामें प्रायः इन दोनों बातोंका अभाव देखा जाता है। प्रसन्नतापूर्वक निष्कामभावसे कीहुई सेवा कल्याणका परम साधन बन जाती है। जब कुन्तीने ब्राह्मणसे कोई वर नहीं माँगा, तब उन्होंने उससे देवताओंके आवाहनका मन्त्र ग्रहण करनेके लिये कहा। वे कुछ-न-कुछ कुन्तीको देकर जाना चाहते थे। अबकी बार ब्राह्मणके अपमानके भयसे वह अस्वीकार न कर सकी। तब उन्होंने उसे अथर्ववेदके शिरोभाग मेंआये हुए मन्त्रोंका उपदेश दिया और कहा कि 'इन मन्त्रोंके बलसे तू जिस-जिस देवताका आवाहन करेगी. वही तेरे अधीन हो जायगा।' यों कहकर वे ब्राह्मण वहीं अन्तर्धान हो गये। ये ब्राह्मण और कोई नहीं, उग्रतपा महर्षि दुर्वासा थे। इनके दिये हुए मन्त्रोंके प्रभावसे वह | आगे चलकर धर्म आदि देवताओंसे युधिष्ठिर आदिको पुत्ररूपमें प्राप्त कर सकी।

कुन्तीका विवाह महाराज पाण्डुसे हुआ था। महाराज पाण्डु बड़े ही धर्मात्मा थे। इनके द्वारा एक बार भूलसे मृगरूपधारी किन्दम मुनिकी हिंसा हो गयी। इस घटनाये इनके मनमें बड़ी ग्लानि और निर्वेद हुआ और इन्होंने सब कुछ त्यागकर वनमें रहनेका निश्चय कर लिया। देवी कुन्ती बड़ी पतिभक्ता थीं। ये भी अपने पतिके साथ इन्द्रियोंको वशमें करके तथा कामजन्य सुखको तिलाञ्जलि देकर वनमें रहनेके लिये तैयार हो गयीं। तबसे इन्होंने जीवनपर्यन्त नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य व्रतका पालन किया और संयमपूर्वक रहीं। पतिका स्वर्गवास होनेपर इन्होंने अपने बच्चोंकी रक्षाका भार अपनी छोटी सौत माद्रीको सौंपकर अपने पतिका अनुगमन करनेका विचार किया। परंतु माद्रीने इसका विरोध किया। उसने कहा- 'बहिन ! मैं अभी युवती हूँ, अतः मैं ही पतिदेवका अनुगमन करूँगी। तुम मेरे बच्चोंकी सँभाल रखना।' कुन्तीने माद्रीकी बात मान ली और अन्ततक उसके पुत्रोंको अपने पुत्रोंसे बढ़कर समझा । सपत्नी एवं उसके पुत्रोंके साथ कैसा बर्ताव करना चाहिये, इसकी शिक्षा भी हमारी माता-बहिनोंको कुन्तीके जीवनसे लेनी चाहिये। पतिके जीवनकालमें इन्होंने माद्रीके साथ छोटी बहिनका सा बर्ताव किया और उसके सती होनेके बाद उसके पुत्रोंके प्रति वही भाव रखा, जो एक आदर्श विमाताको रखना चाहिये। सहदेवके प्रति तो इनकी विशेष ममता थी और वे भी इन्हें बहुत अधिक प्यार करते थे। पतिकी मृत्युके बादसे कुन्तीदेवीका जीवन बराबर कष्टमें बीता। परंतु ये बड़ी ही विचारशीला एवं धैर्यवती थीं। अतः इन्होंने कष्टोंकी कुछ भी परवा नहीं की और अन्ततक धर्मपर आरूढ़ रहीं। दुर्योधनके अत्याचारोंको भी ये चुपचाप सहती रहीं। इनका स्वभाव बड़ा हीकोमल और दयालु था। इन्हें अपने कष्टोंकी कोई परवा नहीं थी, परंतु ये दूसरोंका कष्ट नहीं देख सकती थीं। लाक्षाभवन से निकलकर जब ये अपने पुत्रोंके साथ एकचक्रा नगरीमें रहने लगी थीं, उन दिनों वहाँकी प्रजापर एक बड़ा भारी संकट छाया था। उस नगरीके पास ही एक वकासुर नामका राक्षस रहता था। उस राक्षसके लिये नगरवासियोंको प्रतिदिन एक गाड़ी अन्न तथा दो भैंसे पहुँचाने पड़ते थे। जो मनुष्य इन्हें लेकर जाता, उसे भी वह राक्षस खा जाता। वहाँके निवासियोंको बारी-बारीसे यह काम करना पड़ता था । पाण्डवगण जिस ब्राह्मणके परमें भिक्षुकोंके रूपमें रहते थे, एक दिन उसके घरके राक्षसके लिये आदमी भेजनेकी बारी आयी। ब्राह्मणपरिवारमें कुहराम मच गया। कुन्तीको जब इस बातका पता लगा, तब उनका हृदय दयासे भर आया। उन्होंने सोचा- 'हमलोगोंके रहते ब्राह्मण परिवारको कष्ट भोगना पड़े, यह हमारे लिये बड़ी लज्जाकी बात है होगी। फिर हमारे तो ये आश्रयदाता हैं, इनका प्रत्युपकार हमें किसी-न-किसी रूपमें करना ही चाहिये अवसर आनेपर उपकारीका प्रत्युपकार न करना धर्मसे च्युत होना हैं। जब इनके घरमें हमलोग रह रहे हैं, तब इनका दुःख बँटाना हमारा कर्तव्य हो जाता है।' यो विचारकर कुन्ती ब्राह्मणके घर गयीं। उन्होंने देखा कि ब्राह्मण अपनी पत्नी और पुत्रके साथ बैठे हैं। वे अपनी स्त्रीसे कह रहे हैं- 'तुम कुलीन, शीलवती और बच्चोंकी माँ हो। मैं राक्षससे अपने जीवनकी रक्षाके लिये तुम्हें उसके पास नहीं भेज सकता।' पतिकी बात सुनकर ब्राह्मणीने कहा- 'नहीं, मैं स्वयं उसके पास जाऊँगी। पत्नीके लिये सबसे बढ़कर सनातन कर्तव्य यही है कि वह अपने प्राणोंकी बलि देकर पतिकी भलाई करे। स्त्रियोंके लिये यह बड़े सौभाग्यकी बात है कि वे अपने पतिसे पहले ही परलोकवासिनी हो जायें। यह भी सम्भव है। कि स्त्रीको अवध्य समझकर वह राक्षस मुझे न मारे। पुरुषका वध निर्विवाद है और स्त्रीका सन्देहग्रस्तः इसलिये भी मुझे ही उसके पास भेजिये।' माँ-बापकी दुःखभरी बात सुनकर कन्या बोली-'आप क्यों रो रहेहैं? देखिये, धर्मके अनुसार आप दोनों मुझे एक न एक दिन छोड़ देंगे। इसलिये आज ही मुझे छोड़कर अपनी रक्षा क्यों नहीं कर लेते? लोग सन्तान इसीलिये चाहते हैं कि वह हमें दुःखसे बचाये।' कन्याकी बात सुनकर माँ-बाप दोनों रोने लगे, कन्या भी रोये बिना न रह सकी। सबको रोते देखकर नन्हा सा ब्राह्मण-बालक कहने लगा- 'पिताजी! माताजी! बहिन मत रोओ।' फिर उसने एक तिनका उठाकर हँसते हुए कहा- 'मैं इसीसे राक्षसको मार डालूंगा।' तब सब लोग हँस पड़े। कुन्ती यह सब देख सुन रही थीं। वे आगे बढ़कर उनसे बोलीं- 'महाराज ! आपके तो एक पुत्र और एक ही कन्या है। मेरे आपकी दयासे पाँच पुत्र हैं। राक्षसको भोजन पहुँचानेके लिये मैं उनसे किसीको भेज दूंगी, आप घबरायें नहीं' ब्राह्मणदेवताने कुन्तीदेवीके इस प्रस्तावको अस्वीकार कर दिया। उन्होंने कहा- 'देवि! आपका इस प्रकार कहना आपके अनुरूप ही है; परंतु मैं तो अपने लिये अपने अतिथिकी हत्या नहीं करा सकता।' कुन्तीने उन्हें बतलाया कि 'मैं अपने जिस पुत्रको राक्षसके पास भेजूंगी, वह बड़ा बलवान् मन्त्रसिद्ध और तेजस्वी है; उसका कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।' इसपर ब्राह्मण राजी हो गये। तब कुन्तीने भीमसेनको उस कामके लिये राक्षसके पास भेज दिया। भला, दूसरोंकी प्राण-रक्षाके लिये इस प्रकार अपने हृदयके टुकड़ेका जान-बूझकर कोई माता बलिदान कर सकती हैं? कहना न होगा कि कुन्तीके इस आदर्श त्यागका संसारपर बहुत ही अच्छा प्रभाव पड़ा। अतएव सभीको इससे शिक्षा लेनी चाहिये।

कुन्तीदेवीका जीवन आरम्भसे अन्ततक बड़ा ही त्यागपूर्ण, तपस्यामय और अनासक्त था । पाण्डवोंके वनवास एवं अज्ञातवासके समय ये उनसे अलग हस्तिनापुर में ही रहीं और वहींसे इन्होंने अपने पुत्रोंके लिये अपने भतीजे भगवान् श्रीकृष्णके द्वारा क्षत्रियधर्मपर डटे रहनेका सन्देश भेजा। इन्होंने विदुला और सञ्जयका दृष्टान्त देकर बड़े ही मार्मिक शब्दोंमें उन्हें कहला भेजा कि- 'पुत्रो ! जिस कार्यके लिये क्षत्राणी पुत्र उत्पन्न करती है, उस कार्यके करनेका समय आ गया है।" इस समय तुमलोगमेरे दूधको न लजाना।' महाभारतयुद्धके समय भी ये वहीं रहीं और युद्ध समाप्तिके बाद जब धर्मराज युधिष्ठिर सम्राट्के पदपर अभिषिक्त हुए और इन्हें राजमाता बननेका सौभाग्य प्राप्त हुआ, उस समय इन्होंने पुत्रवियोग से दुःखी अपने जेठ-जेठानीकी सेवाका भार अपने ऊपर ले लिया और द्वेष एवं अभिमानसे रहित होकर उनकी सेवामें अपना समय बिताने लगीं। यहाँतक कि जब वे दोनों युधिष्ठिरसे अनुमति लेकर वन जाने लगे, तब ये भी चुपचाप उनके सङ्ग हो लीं और युधिष्ठिर आदिके समझानेपर भी अपने दृढ़ निश्चयसे विचलित नहीं हुई। जीवनभर दुःख और क्लेश भोगनेके बाद जब सुखके दिन आये, उस समय भी सांसारिक सुख भोगको ठुकराकर स्वेच्छासे त्याग, तपस्या एवं सेवामय जीवन स्वीकार करना कुन्तीदेवी जैसी पवित्र आत्माका ही काम था। जिन जेठ-जेठानी से उन्हें तथा उनके पुत्रों एवं पुत्रवधुओंको कष्ट, अपमान एवं अत्याचारके अतिरिक्त कुछ नहीं मिला, उन जेठ-जेठानीके लिये इतना त्याग संसारमें कहाँ देखनेको मिलता है हमारी माताओं एवं बहिनोंको कुन्तीदेवीके इस अनुपम त्यागसे शिक्षा लेनी चाहिये।

कुन्तीदेवीको वन जाते समय भीमसेनने समझाया कि 'माता! यदि तुम्हें अन्तमें यही करना था तो फिर व्यर्थ हमलोगोंके द्वारा इतना नर संहार क्यों करवाया? हमारे बनवासी पिताको मृत्युके बाद हमें वनसे नगर में क्यों लाय?' उस समय कुन्तीदेवीने उन्हें जो उत्तर दिया, वह हृदयमें अङ्कित करनेयोग्य है। वे बोलीं- 'बेटा! तुमलोग कायर बनकर हाथ पर हाथ धरकर न बैठे रहो, क्षत्रियोचित पुरुषार्थको त्यागकर अपमानपूर्ण जीवन न व्यतीत करो, शक्ति रहते अपने न्यायोचित अधिकारसे सदाके लिये हाथ न धो बैठो-इसीलिये मैंने तुमलोगोंको युद्धके लिये उकसाया था, अपने सुखकी इच्छासे ऐसा नहीं किया था मुझे राज्य-सुख भोगनेकी इच्छा नहीं है। मैं तो अब तपके द्वारा पतिलोकमें जाना चाहती हूँ।इसलिये अपने वनवासी जेठ-जेठानीकी सेवामें रहकर मैं अपना शेष जीवन तपमें ही बिताऊँगी। तुमलोग सुखपूर्वक घर लौट जाओ और धर्मपूर्वक प्रजाका पालन करते हुए अपने परिजनोंको सुख दो।' इस प्रकार अपने पुत्रोंको समझा-बुझाकर कुन्तीदेवी अपने जेठ-जेठानीके साथ वनमें चली गयीं और अन्त समयतक उनकी सेवामें रहकर उन्होंने उन्हींके साथ दावाग्निमें जलकर योगियोंकी भाँति शरीर छोड़ दिया। कुन्तीदेवी-जैसी आदर्श महिलाएँ संसारके इतिहासमें बहुत कम मिलेंगी।

माता कुन्तीने कभी सांसारिक सुख नहीं भोगा; जबसे वे विवाहित होकर आयीं, उन्हें विपत्तियोंका ही सामना करना पड़ा। पति रोगी थे, उनके साथ जंगलोंमें भटकती रहीं। वहीं पुत्र पैदा हुए, उनकी देख-रेख की, थोड़े दिन हस्तिनापुरमें पुत्रोंके साथ रहीं, वह भी दूसरेकी आश्रिता बनकर। फिर लाक्षागृहसे किसी प्रकार अपने पुत्रोंको लेकर भागीं और भिक्षाके अन्नपर जीवन बिताती रहीं। थोड़े दिन राज्यसुख भोगनेका समय आया कि धर्मराज युधिष्ठिर कपटके जुए में सर्वस्व हारकर वनवासी बने। विदुरके घरमें रहकर कुन्तीजी जैसे-तैसे जीवन बिताती रहीं । युद्ध हुआ। परिवारवालोंका संहार हुआ। पाण्डवोंकी विजय हुई। पर वे पाण्डवोंके साथ राज्य-भोगमें सम्मिलित नहीं हुईं। इस प्रकार उनका जीवन सदा विपत्तिमें ही कटा । इस विपत्तिमें भी उन्हें सुख था। वे इस विपत्तिको भगवान् से चाहती थीं और हृदयसे इसे विपत्ति मानती भी नहीं थी-

विपदो नैव विपदः सम्पदो नैव सम्पदः ।
विपद् विस्मरणं विष्णोः सम्पन्नारायणस्मृतिः ॥

'विपत्ति यथार्थमें विपत्ति नहीं है, सम्पत्ति भी सम्पत्ति नहीं। भगवान्का विस्मरण होना ही विपत्ति है। और उनका स्मरण बना रहे, यही सबसे बड़ी सम्पत्ति है।' सो उन्हें भगवानका विस्मरण कभी हुआ नहीं, अतः वे वस्तुतः सदा सुखमें ही रहीं।



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vipadah santu nah shashvat tatr tatr jagadguro .

bhavato darshanan yatsyaadapunarbhavadarshanam ..

(shreemadbhaa0 1.8.25)

kunteejee bhagavaanse praarthana karatee hain- jagadguro ! hamapar jahaan-tahaan sada vipattiyaan hee aatee rahen, kyonki vipattiyonmen hee aapake darshan hote hain aur aapake darshan honepar phir is sansaarake darshan naheen hote, arthaat janm mrityuse chhutakaara mil jaata hai.'

kunteedevee ek param aadarsh aarya-naaree theen. ye mahaatma paandavonkee maata evan bhagavaan shreekrishnakee booa theen. ye vasudevajeekee sagee bahan theen tatha raaja kuntibhojako god dee gayee theen. janmase inhen log prithaake naamase pukaarate the, parantu raaja kuntibhojake yahaan inakaalaalana-paalan honese ye kunteeke naamase vikhyaat hueen. ye baalakapanase hee bada़ee susheela, sadaachaarinee, sanyamasheela evan bhaktimatee theen. raaja kuntibhojake yahaan ek baar ek bada़e tejasvee braahman atithiroopamen aaye. inakee sevaaka kaary baalika kunteeko saunpa gayaa. isakee braahmanonmen bada़ee bhakti thee aur atithi sevaamen bada़ee ruchi thee. raajaputree pritha aalasy aur abhimaanako tyaagakar braahmanadevataakee sevaamen tana-manase sanlagn ho gayee. usane shuddh manase seva karake braahmanadevataako poornataya prasann kar liyaa. braahmanadevataaka vyavahaar bada़a atapata thaa. kabhee ve aniyamit samayapar aate, kabhee aate hee naheen aur kabhee aisee cheej khaaneko maang baithate, jisaka milana atyant kathin hotaa. kintu pritha unake saare kaamais prakaar kar detee maano usane unake liye pahalese hee taiyaaree kar rakhee ho. usake sheel svabhaav evan sanyamase braahmanako bada़a santosh huaa. kunteekee yah bachapanakee braahman seva unake liye bada़ee kalyaanaprad siddh huee. aur iseese unake jeevanamen sanyam, sadaachaar, tyaag evan sevaabhaavakee neenv pada़ee. aage chalakar in gunonka unake andar adbhut vikaas huaa.

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dekhiye, dharmake anusaar aap donon mujhe ek n ek din chhoda़ denge. isaliye aaj hee mujhe chhoda़kar apanee raksha kyon naheen kar lete? log santaan iseeliye chaahate hain ki vah hamen duhkhase bachaaye.' kanyaakee baat sunakar maan-baap donon rone lage, kanya bhee roye bina n rah sakee. sabako rote dekhakar nanha sa braahmana-baalak kahane lagaa- 'pitaajee! maataajee! bahin mat roo.' phir usane ek tinaka uthaakar hansate hue kahaa- 'main iseese raakshasako maar daaloongaa.' tab sab log hans pada़e. kuntee yah sab dekh sun rahee theen. ve aage badha़kar unase boleen- 'mahaaraaj ! aapake to ek putr aur ek hee kanya hai. mere aapakee dayaase paanch putr hain. raakshasako bhojan pahunchaaneke liye main unase kiseeko bhej doongee, aap ghabaraayen naheen' braahmanadevataane kunteedeveeke is prastaavako asveekaar kar diyaa. unhonne kahaa- 'devi! aapaka is prakaar kahana aapake anuroop hee hai; parantu main to apane liye apane atithikee hatya naheen kara sakataa.' kunteene unhen batalaaya ki 'main apane jis putrako raakshasake paas bhejoongee, vah bada़a balavaan mantrasiddh aur tejasvee hai; usaka koee baal bhee baanka naheen kar sakataa.' isapar braahman raajee ho gaye. tab kunteene bheemasenako us kaamake liye raakshasake paas bhej diyaa. bhala, doosaronkee praana-rakshaake liye is prakaar apane hridayake tukada़eka jaana-boojhakar koee maata balidaan kar sakatee hain? kahana n hoga ki kunteeke is aadarsh tyaagaka sansaarapar bahut hee achchha prabhaav pada़aa. ataev sabheeko isase shiksha lenee chaahiye.

kunteedeveeka jeevan aarambhase antatak bada़a hee tyaagapoorn, tapasyaamay aur anaasakt tha . paandavonke vanavaas evan ajnaatavaasake samay ye unase alag hastinaapur men hee raheen aur vaheense inhonne apane putronke liye apane bhateeje bhagavaan shreekrishnake dvaara kshatriyadharmapar date rahaneka sandesh bhejaa. inhonne vidula aur sanjayaka drishtaant dekar bada़e hee maarmik shabdonmen unhen kahala bheja ki- 'putro ! jis kaaryake liye kshatraanee putr utpann karatee hai, us kaaryake karaneka samay a gaya hai." is samay tumalogamere doodhako n lajaanaa.' mahaabhaaratayuddhake samay bhee ye vaheen raheen aur yuddh samaaptike baad jab dharmaraaj yudhishthir samraatke padapar abhishikt hue aur inhen raajamaata bananeka saubhaagy praapt hua, us samay inhonne putraviyog se duhkhee apane jetha-jethaaneekee sevaaka bhaar apane oopar le liya aur dvesh evan abhimaanase rahit hokar unakee sevaamen apana samay bitaane lageen. yahaantak ki jab ve donon yudhishthirase anumati lekar van jaane lage, tab ye bhee chupachaap unake sang ho leen aur yudhishthir aadike samajhaanepar bhee apane dridha़ nishchayase vichalit naheen huee. jeevanabhar duhkh aur klesh bhoganeke baad jab sukhake din aaye, us samay bhee saansaarik sukh bhogako thukaraakar svechchhaase tyaag, tapasya evan sevaamay jeevan sveekaar karana kunteedevee jaisee pavitr aatmaaka hee kaam thaa. jin jetha-jethaanee se unhen tatha unake putron evan putravadhuonko kasht, apamaan evan atyaachaarake atirikt kuchh naheen mila, un jetha-jethaaneeke liye itana tyaag sansaaramen kahaan dekhaneko milata hai hamaaree maataaon evan bahinonko kunteedeveeke is anupam tyaagase shiksha lenee chaahiye.

kunteedeveeko van jaate samay bheemasenane samajhaaya ki 'maataa! yadi tumhen antamen yahee karana tha to phir vyarth hamalogonke dvaara itana nar sanhaar kyon karavaayaa? hamaare banavaasee pitaako mrityuke baad hamen vanase nagar men kyon laaya?' us samay kunteedeveene unhen jo uttar diya, vah hridayamen ankit karaneyogy hai. ve boleen- 'betaa! tumalog kaayar banakar haath par haath dharakar n baithe raho, kshatriyochit purushaarthako tyaagakar apamaanapoorn jeevan n vyateet karo, shakti rahate apane nyaayochit adhikaarase sadaake liye haath n dho baitho-iseeliye mainne tumalogonko yuddhake liye ukasaaya tha, apane sukhakee ichchhaase aisa naheen kiya tha mujhe raajya-sukh bhoganekee ichchha naheen hai. main to ab tapake dvaara patilokamen jaana chaahatee hoon.isaliye apane vanavaasee jetha-jethaaneekee sevaamen rahakar main apana shesh jeevan tapamen hee bitaaoongee. tumalog sukhapoorvak ghar laut jaao aur dharmapoorvak prajaaka paalan karate hue apane parijanonko sukh do.' is prakaar apane putronko samajhaa-bujhaakar kunteedevee apane jetha-jethaaneeke saath vanamen chalee gayeen aur ant samayatak unakee sevaamen rahakar unhonne unheenke saath daavaagnimen jalakar yogiyonkee bhaanti shareer chhoda़ diyaa. kunteedevee-jaisee aadarsh mahilaaen sansaarake itihaasamen bahut kam milengee.

maata kunteene kabhee saansaarik sukh naheen bhogaa; jabase ve vivaahit hokar aayeen, unhen vipattiyonka hee saamana karana pada़aa. pati rogee the, unake saath jangalonmen bhatakatee raheen. vaheen putr paida hue, unakee dekha-rekh kee, thoड़e din hastinaapuramen putronke saath raheen, vah bhee doosarekee aashrita banakara. phir laakshaagrihase kisee prakaar apane putronko lekar bhaageen aur bhikshaake annapar jeevan bitaatee raheen. thoda़e din raajyasukh bhoganeka samay aaya ki dharmaraaj yudhishthir kapatake jue men sarvasv haarakar vanavaasee bane. vidurake gharamen rahakar kunteejee jaise-taise jeevan bitaatee raheen . yuddh huaa. parivaaravaalonka sanhaar huaa. paandavonkee vijay huee. par ve paandavonke saath raajya-bhogamen sammilit naheen hueen. is prakaar unaka jeevan sada vipattimen hee kata . is vipattimen bhee unhen sukh thaa. ve is vipattiko bhagavaan se chaahatee theen aur hridayase ise vipatti maanatee bhee naheen thee-

vipado naiv vipadah sampado naiv sampadah .
vipad vismaranan vishnoh sampannaaraayanasmritih ..

'vipatti yathaarthamen vipatti naheen hai, sampatti bhee sampatti naheen. bhagavaanka vismaran hona hee vipatti hai. aur unaka smaran bana rahe, yahee sabase bada़ee sampatti hai.' so unhen bhagavaanaka vismaran kabhee hua naheen, atah ve vastutah sada sukhamen hee raheen.

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शयाम सुंदर मुख चंदा, भजो रे मन गोविंदा
फाग खेलन बरसाने आये हैं, नटवर नंद
फाग खेलन बरसाने आये हैं, नटवर नंद
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दिल दीवाना हो गया, दिल दीवाना हो गया ॥
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तेरी मंद मंद मुस्कनिया पे ,बलिहार
तेरी मंद मंद मुस्कनिया पे ,बलिहार
ये सारे खेल तुम्हारे है
जग कहता खेल नसीबों का
इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से
गोविन्द नाम लेकर, फिर प्राण तन से
जा जा वे ऊधो तुरेया जा
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गोवर्धन वासी सांवरे, गोवर्धन वासी
तुम बिन रह्यो न जाय, गोवर्धन वासी
सत्यम शिवम सुन्दरम
सत्य ही शिव है, शिव ही सुन्दर है
मुझे रास आ गया है,
तेरे दर पे सर झुकाना
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श्री राधा श्री राधा, श्री राधा श्री
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किशोरी तेरे चरणन में, महारानी तेरे
आप आए नहीं और सुबह हो मई
मेरी पूजा की थाली धरी रह गई
मेरा यार यशुदा कुंवर हो चूका है
वो दिल हो चूका है जिगर हो चूका है
तू राधे राधे गा ,
तोहे मिल जाएं सांवरियामिल जाएं
तेरे दर की भीख से है,
मेरा आज तक गुज़ारा
वृन्दावन धाम अपार, जपे जा राधे राधे,
राधे सब वेदन को सार, जपे जा राधे राधे।
कोई कहे गोविंदा, कोई गोपाला।
मैं तो कहुँ सांवरिया बाँसुरिया वाला॥
बाँस की बाँसुरिया पे घणो इतरावे,
कोई सोना की जो होती, हीरा मोत्यां की जो
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मोहे आन मिलो श्याम, बहुत दिन बीत गए।
बहुत दिन बीत गए, बहुत युग बीत गए ॥
श्यामा तेरे चरणों की गर धूल जो मिल
सच कहता हूँ मेरी तकदीर बदल जाए॥
दाता एक राम, भिखारी सारी दुनिया ।
राम एक देवता, पुजारी सारी दुनिया ॥
हे राम, हे राम, हे राम, हे राम
जग में साचे तेरो नाम । हे राम...
तेरा गम रहे सलामत मेरे दिल को क्या कमी
यही मेरी ज़िंदगी है, यही मेरी बंदगी है

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होली खेले लठमार बृज में होली है
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सीट ना मिलेगी तो खड़े होकर जाएंगे,
आओ सब महिमा गाये मिल के हनुमान की,
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