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श्रीविष्णुचित्त (पेरि-आळवार) की मार्मिक कथा
श्रीविष्णुचित्त (पेरि-आळवार) की अधबुत कहानी - Full Story of श्रीविष्णुचित्त (पेरि-आळवार) (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [श्रीविष्णुचित्त (पेरि-आळवार)]- भक्तमाल


आळवार भक्तोंमें श्रीविष्णुचित्तका नाम पहले आता है। इनका प्रसिद्ध नाम 'पेरि-आळवार' (महान् आळवार) है, जिनके पदोंको वैष्णवलोग मङ्गलाचरणके रूपमें देखते हैं।

पाण्ड्यवंशके बलदेव नामक राजा जो मदुरा और तिन्नेवेली जिलोंपर शासन करते थे। उन दिनों राजालोग अपनी प्रजाके हितका इतना अधिक ध्यान रखते थे कि बहुधा प्रजाके कष्टों का पता लगाने और उनका निवारण करनेके लिये रात्रिके समय भेष बदलकर घूमा करते थे। बलदेव भी प्रजाको किसी प्रकारका कष्ट न हो, इस बातका बड़ा ध्यान रखते थे। एक दिन रातके समय जब वे मदुरा नगरीमें इसी प्रकार भेष बदलकर घूम रहे थे, उन्होंने किसी आगन्तुकको एक वृक्षके नीचे विश्राम करते देखा। राजाने आगन्तुकसे पूछा- 'तुम कौन हो और कहाँसे आये हो?' आगन्तुकने कहा-'महाशय ! मैं एक ब्राह्मण हूँ, गङ्गा-स्नान करके मैं अब सेठूं नदीमें स्नान करनेके लिये जा रहा हूँ । रातभर विश्राम करनेके लिये यहाँ ठहर गया हूँ।' राजाने कहा- 'अच्छी बात है, आपकी बातोंसे मालूम होता है कि आप बड़े विद्वान् हैं और देशाटन किये हुए हैं। अतः आप मुझे अपने अनुभवकी कोई बात कहिये।' आगन्तुकने कहा, अच्छा सुनिये—

वर्षार्थमष्टौ प्रयतेत मासानिशार्थमर्थं दिवसं यतेत ।
वार्द्धक्यहेतोर्वयसा नवेन परत्रहेतोरिह जन्मना च ॥ राजाने कहा- 'कृपया इसका अर्थ समझाइये।'

आगन्तुकने कहा, 'मनुष्यको चाहिये कि आठ महीनेतक खूब परिश्रम करें, जिससे वह वर्षा ऋतु सुखपूर्वक खा सके, दिनभर इसलिये परिश्रम करे कि रातमें सुखकी नींद सो सके, जवानीमें बुढ़ापेके लिये संग्रह करे और इस जन्ममें परलोकके लिये कमाई करे।' राजाने कहा- 'ब्राह्मणदेवता! आप बहुत ठीक कहते हैं, मुझे अपनी भूल मालूम हो गयी। हाय! मैंने अपने अबतकके जीवनको संसारके पचड़े में फँसाकर व्यर्थ ही खोया । अब मेरी बड़ी अभिलाषा है कि मैं उन गुणोंका अर्जन करूँ, जिनसे मुझे सच्चा सुख प्राप्त हो सके। कृपा करके आप तीर्थयात्रा से लौटकर जल्दी आइये और कुछ दिन मेरे पास रहकर मुझे सच्चा मार्ग दिखलाइये।'

ब्राह्मण राजाको भक्तिमार्गकी दीक्षा देकर वहाँसे विदा हो गये। अब राजाके हृदयमें परमात्माके तत्त्वको जाननेकी उत्कण्ठा जाग्रत् हो गयी। उन्होंने अपने पुरोहित चेल्वनम्बिको बुलाया, जो बड़े सदाचारी और सच्चे विष्णुभक्त थे और कहा-'महाराज ! मैं धर्माचरण करके अपने जीवनको सुधारना चाहता हूँ, जिससे मैं भगवान्के चरणोंके निकट पहुँच सकूँ। आप कृपया बताइये कि मुझे क्या करना चाहिये।' पुरोहितने कहा * राजन्! संतों और भक्तोंकी सेवा करना, उनके उपदेशोंका श्रवण करना, उनके संग रहना और उनके आचरणका अनुकरण करना - यही सच्चा सुख प्राप्त करनेका एकमात्र उपाय है और यही मनुष्यमात्रका कर्तव्य है।' 'ऐसे संत कहाँ मिलेंगे, कृपाकर बताइये और उन्हें कैसे पहचाना जाय?' राजाने कहा। पुरोहितने उत्तर दिया- 'राजन् ! भक्तोंके बाह्य वेशको देखकर पहचानना बड़ा कठिन है। वे किसी स्थानविशेषमें नहीं रहते और न उनके रहनेका कोई निश्चित प्रकार ही है। वे चाहे जहाँ और चाहे जिस रूपमें रह सकते हैं। अतः उनका दर्शन प्राप्त करनेका एक ही उपाय है- वह यह कि देशभरके धर्मों, सम्प्रदायों और मजहबोंके प्रतिनिधियोंकी एक सभा एकत्रित कीजिये और उसमें यह घोषणा कर दीजिये- 'मैं उस सच्चे और सरल मार्गको जानना चाहता हूँ, जिसपर चलकर हम आनन्दरूप भगवान्‌को प्राप्त कर सकें।' साथ ही यह भी घोषणा करवा दें कि 'जो मनुष्य हमारे प्रश्नका संतोषजनक एवं यथार्थ उत्तर देगा, उसे कई भार सोना उपहाररूपमें दिया जायगा।' यों करनेसे आपको कम-से-कम उस सभामें एकत्रित होनेवाले संतों और भक्तोंको देखनेका और उनसे सम्भाषण करनेका सौभाग्य तो प्राप्त हो ही जायगा।' राजाने पुरोहितकी आज्ञाके अनुसार मदुरामें सारे धर्मोके प्रतिनिधियोंकी एक सभा एकत्रित की। शैव, वैष्णव, शाक्त, सूर्योपासक, गाणपत्य, मायावादी, सांख्य, वैशेषिक, पाशुपत, जैन और बौद्ध - सभी धर्मोके प्रतिनिधि उस सभामें उपस्थित हुए। उनमें परस्पर बड़ा विवाद हुआ, परंतु राजाका समाधान कोई भी नहीं कर सका। उनका हृदय किसी महान् भक्तकी खोजमें था। हमारे चरित्रनायक विष्णुचित्तके सिवा दूसरा कोई भक्त उन्हें कहाँ मिलता। अब उनके पवित्र जीवनका कुछ वृत्तान्त सुनिये।

मद्रासप्रदेशके तिन्नेवेली जिलेमें विल्लीपुतूर नामका पवित्र स्थान है। वहाँ मुकुन्दाचार्य नामके एक सदाचारी ब्राह्मण रहते थे। उनकी पत्नीका नाम पद्मा था। मुकुन्दाचार्य और उनकी पतिव्रता स्त्री दोनों वटपत्रशायी भगवान् | महाविष्णुके मन्दिरमें जाकर प्रतिदिन उनसे एक दिव्य पुत्रके लिये प्रार्थना किया करते थे। उनकी प्रार्थना स्वीकार हुई हमारे चरित्र उसी ब्राह्मण-दम्पति यहाँ अवतीर्ण हुए। ये गरुड़के अवतार माने जाते हैं। इनका जन्म एकादशी रविवारको स्वाति में हुआ था। इनकी माताको सबके समय कोई वेदना नहीं हुई। बालक देखने में बड़ा सुन्दर था और उसके शरीरके चारों ओर एक दिव्य तेजोमण्डल था। सामान्य बालकोंसे यह बालक कुछ विलक्षणता लिये हुए था। माता-पिताने बालकका बड़े प्रेमके साथ लालन-पालन किया और उसके ब्राह्मणोचित सभी संस्कार करवाये सातवें वर्ष उसका यज्ञोपवीत संस्कार हुआ। बालकने भगवान् विष्णुको बिना जाने-पहचाने ही अपने अन्तरात्माको उन्होंके चरणों में लगा दिया था। अतएव उन्हें लोग विष्णुचित्तके नामसे पुकारने लगे। वे अपना अधिकांश समय भगवान्के मन्दिरमें ही बिताते थे और संत हरिदासकी भाँति भगवान् नारायणके स्वरूपका ध्यान और उनके नामका जप किया करते और विष्णुसहस्त्रनामको गाया करते थे। 'नारायण ही सारी विद्याओंके सार हैं और सारे धर्मोके एकमात्र ध्येय हैं। अतः मैं उन्हींकी शरण ग्रहण करूँगा' ऐसा दृढ निश्चय करके उन्होंने अपनेको भगवान् विष्णुके चरणोंमें समर्पित कर दिया। भक्तिके आवेशमें उन्हें संसारकी भी सुध-बुध न रही। अभी वे नवयुवक ही थे कि उन्होंने अपनी सारी सम्पत्ति बेच डाली और बदले में एक सुन्दर उपजाऊ भूमि खरीदकर वहाँ एक सुन्दर बगीचा लगाया। प्रतिदिन सबेरे 'नारायण' शब्दका उच्चारण: करते हुए थे फूल चुनते और उनके सुन्दर हार गूंथकर वे भगवान् नारायणको धारण कराते उन हारोंसे अलङ्कृत भगवान्की दिव्य मूर्तिको देखकर वे मुग्ध हो जाते और निर्निमेष नेत्रोंसे उनकी अनूप रूप-माधुरीका आस्वादन करते। उन्हें भगवत्प्रेमके अतिरिक्त कोई दूसरी बात सुहाती ही न थी एक दिन रातको विष्णुचित्त बहुत देरतक भजन ध्यान करनेके बाद विश्राम कर रहे थे कि उन्हें भगवान् नारायणने स्वप्न में दर्शन दिये और उनसे कहा कि 'तुम तुरंत मदुरामें जाकर वहाँक धर्मात्मा राजा बलदेवसे मिलो। वहाँ सारे धर्मोके प्रतिनिधि एकत्र हुए हैं और राजाने यह घोषणा की है कि जो पुरुष सच्चे आनन्दकी प्राप्तिका सर्वश्रेष्ठ मार्ग बतलायेगा, उसे उपहाररूपमें कई भार सोना दिया जायगा। वहाँ जाकर मेरी विजयपताका फहराओ। मेरे प्रेम और भक्तिका महत्त्व लोगोंपर प्रकट करो। वहाँ जाकर यह प्रमाणित कर दो कि भगवान्‌के सविशेष रूपकी उपासना ही आनन्द प्राप्त करनेका एकमात्र सच्चा और सरल मार्ग है।'

विष्णुचित्त भगवान् के स्वप्रादेशको पाकर मारे हर्षके फूले न समाये और भगवान्से इस प्रकार कहने लगे- 'प्रभो! मुझे आपकी आज्ञा स्वीकार है, मैं अभी मदुराके लिये रवाना होता हूँ। किंतु मुझे शास्त्रोंका ज्ञान बिलकुल नहीं है, मैं तो आपका एक तुच्छ सेवक हूँ। आपके चरणोंको हृदयमें रखकर मैं उस सभामें जाता हूँ। ऐसी कृपा कीजिये कि आपका यह यन्त्र आपकी इच्छाको पूर्ण कर सके।' यों कहकर विष्णुचित्त मदुरा चले गये। राजाने इनका बड़ा सत्कार किया और वहाँकी पण्डितमण्डलीमें विष्णुचित्त नक्षत्रोंमें चन्द्रमाके समान सुशोभित हुए। उन्होंने सबकी शङ्काओंका यथोचित उत्तर देते हुए यह सिद्ध किया कि - 'भगवान् नारायण ही सर्वोपरि हैं और उनके चरणोंमें अपनेको सर्वतोभावेन समर्पित कर देना ही कल्याणका एकमात्र उपाय है। भगवान् नारायण ही हमारे रक्षक हैं, वे अपनी योगमायासे साधुओंकी रक्षा और दुष्टोंका दलन करनेके लिये समय समयपर अवतार लेते हैं। वे समस्त भूतोंके हृदयमें स्थित हैं। भगवान् ही मायासे परे हैं और उनकी उपासना ही मायासे छूटनेका एकमात्र उपाय है। उनपर विश्वास करो, उनकी आराधना करो, उनके नामकी रट लगाओ और उनका गुणानुवाद करो। ॐ नमो नारायणाय।'

विष्णुचित्तके उपदेशका राजापर बड़ा प्रभाव पड़ा। वह उनके चरणोंपर गिर पड़ा और उन्हें अपने गुरुके रूपमें वरणकर बड़ी धूमधामके साथ उनका जुलूस निकाला। किंतु विष्णुचित्त इस सम्मानसे प्रसन्न नहीं हुए। उन्होंने बड़े करुणापूर्ण नेत्रोंसे ऊपर आकाशकी और देखा तो वहाँ उन्हें साक्षात् भगवान् नारायण महालक्ष्मीके साथ गरुड़पर विराजे हुए दिखायी दिये। वे अपने भक्तका सम्मान देखकर तथा लाखों नर-नारियोंके मुखसे 'नारायण' मन्त्रकी ध्वनि सुनकर बड़े प्रसन्न हो रहे थे। विष्णुचित्त अपने इष्टदेवका दर्शन पाकर कृतार्थ हो गये। वे राजासे विदा लेकर विल्लीपुतूर चले गये और वहाँ उन्होंने कई सुन्दर पद रचकर उनके द्वारा भगवान्‌की अर्चा की। उनके एक पदका भाव नमूनेके तौरपर नीचे दिया जाता है। वे कहते हैं-' वास्तवमें दयाके पात्र हैं, जो भगवान् नारायणकी उपासना नहीं करते। उन्होंने अपनी माताको व्यर्थ ही प्रसवका कष्ट दिया। जो लोग नारायण-नामका उच्चारण नहीं करते, वे पाप ही खाते हैं और पापमें ही रहते हैं। जो लोग भगवान् माधवको अपने हृदयमन्दिरमें स्थापितकर प्रेमरूपी सुमनसे उनकी पूजा करते हैं, वे ही मृत्युपाशसे छूटते हैं।' विष्णुचित्त भगवान्की वात्सल्यभावसे उपासना करते थे।



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[Bhakt Charitra - Bhakt Katha/Kahani - Full Story] [shreevishnuchitt (peri-aalavaara)]- Bhaktmaal


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