अयं हि देहिनो देहो द्रव्यज्ञानक्रियात्मकः ।
देहिनो
विविधक्लेश सन्तापकृदुदाहृतः ॥
श्रीमद्भा0 6 1525) 'जीवका यह स्थूल शरीर द्रव्य (पञ्चभूतादि), ज्ञान (अहंकार) तथा कर्म (प्रारब्ध) से बना है और शास्त्रोंका कहना है कि यह देह जीवके लिये नाना प्रकारके क्लेश तथा सन्ताप ही देनेवाला है।'
शूरसेन देशमें प्राचीन समयमें चित्रकेतु नामके एक राजा थे। बुद्धि, विद्या, बल, धन, यश, सौन्दर्य, स्वास्थ्य आदि सब था उनके पास उनमें उदारता, दया, क्षमा, प्रजावात्सल्य आदि सगुण भी पूरे थे। उनके सेवक नम्र और अनुकूल थे। मन्त्री नीति-निपुण तथा स्वामिभक्त थे। राज्यमें भीतर-बाहर कोई शत्रु नहीं था। राजाके बहुत-सी सुन्दरी रानियाँ थीं। इतना सब होनेपर भी राजा चित्रकेतु सदा दुःखी रहते थे। उनकी किसी रानीके कोई सन्तान नहीं थी। वंश नष्ट हो जायगा, इस चिन्तासे राजाको ठीक निद्रातक नहीं आती थी। एक बार अङ्गिरा ऋषि सदाचारी भगवद्भक्त राजा चित्रकेतुके यहाँ पधारे। महर्षि राजापर कृपा करके उन्हें तत्त्वज्ञान देने आये थे; किंतु उन्होंने देखा कि मोहवश राजाको पुत्र पानेकी प्रबल इच्छा है। ऋषिने सोच लिया कि जब यह पुत्र वियोगसे दुःखी होगा, तभी इसमें वैराग्य होगा और तभी कल्याणके सच्चे मार्गपर चलने योग्य होगा। अतः राजाकी प्रार्थनापर ऋषिने त्वष्टा देवताका यज्ञ किया और यज्ञसे बचा अन राजाको देकर यह कह दिया कि 'इसको तुम किसी रानीको दे देना।' महर्षिने यह भी कहा कि 'इससे जो पुत्र होगा, वह तुम्हें हर्ष-शोक दोनों देगा।'
उस अन्नको खाकर राजाकी एक रानी गर्भवती हुई। उसके पुत्र हुआ। राजा तथा प्रजा दोनोंको अपार हर्ष हुआ। अब पुत्रस्नेहवश राजा उसी रानीसे अनुराग करने लगे। दूसरी रानियोंकी याद ही अब उन्हें नहीं आती थी। राजाकी उपेक्षासे उनकी दूसरी रानियोंके मनमें सौतियाडाहउत्पन्न हो गया। सबने मिलकर उन नवजात बालकको एक दिन विष दे दिया और बच्चा मर गया। बालककी मृत्युसे मारे शोकके राजा पागल से हो गये। राजाको ऐसी विपत्तिमें देख उसी समय वहाँ देवर्षि नारदके साथ महर्षि अङ्गिरा आये। वे राजाको मृत बालकके पास पड़े देख समझाने लगे- 'राजन्। तुम जिसके लिये इतने दुःखी हो रहे हो, वह तुम्हारा कौन है? इस जन्मसे पहले वह तुम्हारा कौन था? अब आगे वह तुम्हारा कौन रहेगा? जैसे रेतके कण जलके प्रवाहसे कभी एकत्र हो जाते हैं। और फिर अलग-अलग हो जाते हैं, वैसे ही कालके द्वारा विवश हुए प्राणी मिलते और अलग होते हैं। यह पिता-पुत्रका सम्बन्ध कल्पित है। ये शरीर न जन्मके पूर्व थे, न मृत्युके पश्चात् रहेंगे। अतः तुम इनके लिये शोक मत करो।'
राजाको इन वचनोंसे कुछ सान्त्वना मिली। उसने पूछा- 'महात्मन् ! आप दोनों कौन हैं? मेरे-जैसे विषयोंमें फँसे मूढबुद्धि लोगोंको ज्ञान देनेके लिये आप जैसे भगवद्भक्त सिद्ध महापुरुष निःस्वार्थ भावसे पृथ्वीमें विचरा करते हैं। आप दोनों मुझपर कृपा करें। मुझे ज्ञान देकर इस शोकसे बचायें।'
महर्षि अङ्गिराने कहा- 'राजन्! मैं तो तुम्हें पुत्र देनेवाला अङ्गिरा हूँ और मेरे साथ ये ब्रह्मपुत्र देवर्षि नारदजी हैं। तुम ब्राह्मणोंके और भगवान्के भक्त हो, अत: तुम्हें क्लेश नहीं होना चाहिये। मैं पहले ही तुम्हें ज्ञान देने आया था, पर उस समय तुम्हारा चित्त पुत्र प्राप्तिमें लगा था। अब तुमने पुत्रके वियोगका क्लेश देख लिया। इसी प्रकार स्त्री, धन, ऐश्वर्य आदि भी नश्वर हैं। उनका वियोग भी चाहे जब सम्भव है और ऐसा ही दुःखदायी है। ये राज्य, गृह, भूमि, सेवक, मित्र, परिवार आदि सब शोक, मोह, भय और पीड़ा ही देनेवाले हैं। ये स्वप्नके दृश्योंके समान हैं। इनकी यथार्थ सत्ता नहीं है। अपनी भावनाके अनुसार ही ये सुखदायी प्रतीत होतेहैं। द्रव्य, ज्ञान और क्रियासे बना इस शरीरका अभिमान ही जीवको क्लेश देता है। एकाग्रचित्तसे विचार करो और एकमात्र भगवान्को ही सत्य समझकर उन्हींमें चित्त लगाकर शान्त हो जाओ।'
राजाको बोध देनेके लिये देवर्षि नारदने जीवका आवाहन करके बालकको जीवितकर उससे कहा 'जीवात्मन्! देखो ये तुम्हारे पिता-माता, बन्धु बान्धव तुम्हारे लिये व्याकुल हो रहे हैं। तुम इनके पास क्यों नहीं रहते?'
जीवात्माने कहा-'ये किस-किस जन्ममें मेरे माता पिता हुए थे? मैं तो अपने कर्मोंका फल भोगनेके लिये देवता, मनुष्य, पशु-पक्षी आदि योनियोंमें अनन्तकालसे जन्म लेता आ रहा हूँ। सभी जीव परस्पर कभी पिता, कभी पुत्र, कभी मित्र, कभी शत्रु, कभी सजातीय, कभी विजातीय, कभी रक्षक, कभी विनाशक, कभी आत्मीय और कभी उदासीन बनते हैं। ये लोग मुझे अपना पुत्र मानकर रोते क्यों हैं? शत्रु मानकर प्रसन्न क्यों नहीं होते? जैसे व्यापारियोंके पास वस्तुएँ आती और चली जाती हैं, एक पदार्थ आज उनका है, कल उनके शत्रुका है, वैसे हौ कर्मवश जीव नाना योनियोंमें जन्म लेता घूमता है। जितने दिन जिस शरीरका साथ है, उतने दिन ही उसके सम्बन्धी अपने हैं। यह स्त्री-पुत्र घर आदिका सम्बन्ध यथार्थ नहीं है। आत्मा न जन्मता न मरता है। वह नित्य, अविनाशी, सूक्ष्म, सर्वाधार, स्वयंप्रकाश है। वस्तुतः भगवान् ही अपनी मायासे गुणोंके द्वारा विश्वके नाना रूपोंमें व्यक्त हो रहे हैं। आत्माके लिये न कोई अपना है, न पराया। वह एक है और हित-अहित करनेवाले शत्रु-मित्र आदि नाना बुद्धियोंका साक्षी है। साक्षी आत्मा किसी भी सम्बन्ध तथा गुण-दोषको ग्रहण नहीं करता। आत्मा तो कभी मरता नहीं, वह नित्य है और शरीर नित्य है नहीं, फिर ये लोग क्यों व्यर्थ से रहे हैं?"
राजपुत्रका जीवात्मा इतना कहकर चला गया। उसकी बातोंसे सबका मोह दूर हो गया। मृतकका अन्त्येष्टि संस्कार करके राजा शान्त हो गये। जबबालकको विष देनेवाली रानियोंने यह ज्ञान सुना, उन्हें बड़ा पश्चाताप हुआ। यमुनातटपर जाकर उन्हें अपने पापका प्रायश्चित किया। राजा चित्रकेतु ऋदि उपदेशसे शोक, मोह, भय और क्लेश देनेवाले दुर | गृहके स्नेहको छोड़कर महर्षि अङ्गिरा और नारदजीके पास जाकर उनसे भगवत्प्राप्तिका साधन पूछने लगे। नारदजीने उन्हें भगवान् शेषका ध्यान तथा स्मृति मन्त्र बतलाया। उपदेश करके दोनों ऋषि चले गये। राजाने सात दिन केवल जलपर रहकर एकाग्र चिनये उस स्तुतिरूप विद्याका अखण्ड जप किया। उसके प्रभावसे वे विद्याधरोंके स्वामी हो गये। कुछ दिनों राजा चित्रकेतु विद्याके बलसे मनोगतिके अनुसार भगवान् शेषके समीप पहुँच गये। यहाँ उन्होंने सनत्कुमारादि महर्षियोंसे सेवित संकर्षणभगवान् के दर्शन किये। राजाने प्रेमवित होकर भगवान् के वरणोंमें प्रणिपात किया और वे भगवान्को स्तुति करने लगे। दयामय भगवान् प्रसन्न हुए। उन्होंने चित्रकेतुको परम तत्त्वत्का उपदेश किया। तत्त्वज्ञानका उपदेश करते हुए अन्तमें संकर्षण प्रभुने कहा- 'राजन्! मनुष्यशरीरमें ही ज्ञानकी प्राप्ति होती है। जो मानव देह पाकर भी ज्ञान नहीं पाता आत्माको नहीं जानता, उसका फिर किसी योनिमें कल्याण नहीं होता। विषयोंमें लगनेसे ही दुःख होता है, उन्हें छोड़ देनेमें कोई भय नहीं है अतः बुद्धिमान् पुरुषको विषयोंसे निवृत्त हो जाना चाहिये। जगत्के सभी स्त्री पुरुष दुःखोंको दूर करने और सुख पानेके लिये अनेक प्रकारके कर्म करते हैं, पर उन कर्मोंसे न तो दुःख दूर हो पाते और न सुख ही मिलता है। जो लोग अपनेको बुद्धिमान् मानकर कर्मोंमें लगे हैं, वे दुःख ही पाते हैं। आत्मा जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति- इन तीनों अवस्थाओंसे पृथक् है-यों समझकर बुद्धिमान् पुरुषको चाहिये कि इन अवस्थाओंमें प्राप्त होनेवाले विषयोंसे निवृत्त हो जाए लोक-परलोकसे चित्त हटा से और ज्ञान-विज्ञानसे संतुष्ट होकर मेरी भक्ति करे। एक परमात्मा ही सब स्थानों में सर्वदा है, यह योगमार्गमें लगनेवालोंको जान लेनाचाहिये।' इस प्रकार दिव्य उपदेश देकर भगवान् | अन्तर्धान हो गये।
चित्रकेतु द्वन्द्वरहित समदर्शी हो गये थे। वे कामना, स्पृहा, अहंकार छोड़कर सदा परमात्मायें ही चित्त लगाये | रहते थे तपोबल इच्छानुसार चौदा भुवनोंमें घूम सकते थे। एक दिन विमानपर बैठकर वे आकाशमार्गसे। जा रहे थे। उसी समय उन्होंने मुनियोंकी सभामें । तीजको भगवान् शङ्करको गोदमें बैठे देखा चित्रकेतुको यह व्यवहार अनुचित लगा। उन्होंने इसकी कड़ी आलोचना की। भगवान् शङ्कर तो आलोचना सुनकर हँसकर रह गये, पर पार्वतीजीको क्रोध आ गया। उन्होंने शाप दिया- 'तू बड़ा अविनीत हो गया है, अतः भगवान्के चरणोंमें रहनेयोग्य नहीं है। जाकर असुरयोनिमें जन्म ग्रहण कर।'
शाप सुनकर चित्रकेतुको न डर लगा, न दुःख हुआ। असुरयोनिमें भी सर्वव्यापी भगवान् तो हैं ही, यह वे जानते थे। शिष्ट व्यवहार करनेके लिये विमानसे वे उत्तर पड़े और उन्होंने पार्वतीजीके चरणोंमें प्रणाम करके कहा-'माता! आपने जो शाप दिया है, उसे मैं सादर स्वीकार करता हूँ। मैं जानता है कि देवतालोग मनुष्यके लिये जो कुछ कहते हैं, वह उसके कर्मानुसार ही कहते हैं। अज्ञानसे मोहित प्राणी इस संसारचक्रमें घूमता हुआ सदा, सब कहीं सुख-दुःख भोगता ही रहता है। गुणोंके इस प्रवाहमें शाप वरदान, स्वर्ग नरक, सुख-दुःख- कुछ भी वास्तविक नहीं है। स्वयं मायातीत भगवान् अपनी मायासे प्राणियोंको रचते और उनके सुख-दुःख, बन्ध-मोक्षकी व्यवस्था करते हैं। उन ईश्वरका न कोई अपना है, न पराया न कोई प्रिय है, न अप्रिय। वे सर्वत्र समान और असङ्ग हैं। जब उन सर्वेश्वरको सुखसे प्रेम नहीं है, तब क्रोध तो होगा ही कैसे। परंतु उनकी मायासे मोहित जीव जो पुण्य पापरूप कर्मोंको करता है, वे कर्म ही उसके सुखदुःखादिके कारण होते हैं। देवि में शापसे छूटनेके लिये आपको प्रसन्न नहीं कर रहा हूँ। आपको मेरे वचन बुरे लगे, इसके लिये आप मुझे क्षमा करें।" इस प्रकार क्षमा माँगकर चित्रकेतु विमानपर बैठकर चले गये। उनकी यह असङ्ग स्थिति देखकर सबकी बड़ा आशर्य हुआ। शङ्करजीने कहा- देवि! तुमने भगवान्के दासानुदासोंका माहात्म्य देखा ? भगवान् नारायणके परायण भक्त किसीसे भी डरते नहीं। वे स्वर्ग, नरक तथा मोक्षमें भी एक-सी दृष्टि रखते हैं। भगवान्की लीलासे ही जीव देह धारण करके सुख दुःख, जन्म-मरण, शाप अनुग्रहका भागी होता है। जैसे रस्सीमें अज्ञानसे सर्पका भ्रम होता है, वैसे ही इष्ट-अनिष्टका बोध अज्ञानसे ही है। भगवान्के आश्रित भक्त ज्ञान-वैराग्यके बलसे किसी भी सांसारिक पदार्थको अच्छा मानकर ग्रहण नहीं करते। जब मैं, ब्रह्माजी, सनत्कुमार, नारद, महर्षिगण तथा इन्द्रादि देवता भी परमेश्वरकी लीलाका रहस्य नहीं जान पाते, तब अपनेको समर्थ माननेवाले क्षुद्र अभिमानी उन परम प्रभुका स्वरूप कैसे जान सकते हैं। उन श्रीहरिका न कोई अपना है, न पराया। वे सबके आत्मा होनेसे सबके प्रिय हैं। फिर भी यह महाभाग चित्रकेतु उन्हीं भगवान्का प्यारा भक्त हैं, उन्हींकी रुचिसे चलनेवाला हैं, शान्त और समदर्शी है। मैं भी उन्हीं अच्युतका भक्त हूँ। अतः मुझको उसपर क्रोध नहीं आया। ऐसे शान्त, समदर्शी, भगवद्भक्त महापुरुषोंके चरित्रपर आश्चर्य नहीं करना चाहिये।'
सतीका आश्चर्य इन वचनोंसे दूर हो गया। शाप देने में समर्थ होनेपर भी चित्रकेतुने पार्वतीको शाप नहीं दिया था, उलटे उनका शाप स्वीकार करके क्षमा माँगी। इसी शापके फलसे त्वष्टाके यज्ञमें दक्षिणाग्निसे वे वृत्रासुरके रूपमें प्रकट हुए।
वृत्रासुरका चरित्र इसी अङ्कमें आगे दिया जायगा।
ayan hi dehino deho dravyajnaanakriyaatmakah .
dehino
vividhaklesh santaapakridudaahritah ..
shreemadbhaa0 6 1525) 'jeevaka yah sthool shareer dravy (panchabhootaadi), jnaan (ahankaara) tatha karm (praarabdha) se bana hai aur shaastronka kahana hai ki yah deh jeevake liye naana prakaarake klesh tatha santaap hee denevaala hai.'
shoorasen deshamen praacheen samayamen chitraketu naamake ek raaja the. buddhi, vidya, bal, dhan, yash, saundary, svaasthy aadi sab tha unake paas unamen udaarata, daya, kshama, prajaavaatsaly aadi sagun bhee poore the. unake sevak namr aur anukool the. mantree neeti-nipun tatha svaamibhakt the. raajyamen bheetara-baahar koee shatru naheen thaa. raajaake bahuta-see sundaree raaniyaan theen. itana sab honepar bhee raaja chitraketu sada duhkhee rahate the. unakee kisee raaneeke koee santaan naheen thee. vansh nasht ho jaayaga, is chintaase raajaako theek nidraatak naheen aatee thee. ek baar angira rishi sadaachaaree bhagavadbhakt raaja chitraketuke yahaan padhaare. maharshi raajaapar kripa karake unhen tattvajnaan dene aaye the; kintu unhonne dekha ki mohavash raajaako putr paanekee prabal ichchha hai. rishine soch liya ki jab yah putr viyogase duhkhee hoga, tabhee isamen vairaagy hoga aur tabhee kalyaanake sachche maargapar chalane yogy hogaa. atah raajaakee praarthanaapar rishine tvashta devataaka yajn kiya aur yajnase bacha an raajaako dekar yah kah diya ki 'isako tum kisee raaneeko de denaa.' maharshine yah bhee kaha ki 'isase jo putr hoga, vah tumhen harsha-shok donon degaa.'
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maharshi angiraane kahaa- 'raajan! main to tumhen putr denevaala angira hoon aur mere saath ye brahmaputr devarshi naaradajee hain. tum braahmanonke aur bhagavaanke bhakt ho, ata: tumhen klesh naheen hona chaahiye. main pahale hee tumhen jnaan dene aaya tha, par us samay tumhaara chitt putr praaptimen laga thaa. ab tumane putrake viyogaka klesh dekh liyaa. isee prakaar stree, dhan, aishvary aadi bhee nashvar hain. unaka viyog bhee chaahe jab sambhav hai aur aisa hee duhkhadaayee hai. ye raajy, grih, bhoomi, sevak, mitr, parivaar aadi sab shok, moh, bhay aur peeda़a hee denevaale hain. ye svapnake drishyonke samaan hain. inakee yathaarth satta naheen hai. apanee bhaavanaake anusaar hee ye sukhadaayee prateet hotehain. dravy, jnaan aur kriyaase bana is shareeraka abhimaan hee jeevako klesh deta hai. ekaagrachittase vichaar karo aur ekamaatr bhagavaanko hee saty samajhakar unheenmen chitt lagaakar shaant ho jaao.'
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sateeka aashchary in vachanonse door ho gayaa. shaap dene men samarth honepar bhee chitraketune paarvateeko shaap naheen diya tha, ulate unaka shaap sveekaar karake kshama maangee. isee shaapake phalase tvashtaake yajnamen dakshinaagnise ve vritraasurake roopamen prakat hue.
vritraasuraka charitr isee ankamen aage diya jaayagaa.