भगवान्की लीला विचित्र है। किसी-किसीपर वे बहुत शीघ्र दुल जाते हैं और किसी-किसीकी वे बड़ी कठिन परीक्षा लेकर तब उन्हें अपना कृपापात्र बनाते हैं। और जिस प्रकार काँटेको काँटेसे ही निकाला जाता है, उसी प्रकार किसी-किसीको मायामुक्त करनेके लिये वे उसपर अपनी मायाका ही प्रयोग करते हैं। विप्रनारायणके साथ उन्होंने तीसरे प्रकारका प्रयोग किया था ।
विप्रनारायण भगवान्की वनमालाके अवतार माने जाते हैं। इनका जन्म एक पवित्र ब्राह्मणकुलमें हुआ था । इन्होंने भलीभाँति वेदाध्ययन करके अपनेको समस्त वेदोंके सारभूत भगवान्के चरणोंमें ही सर्वतोभावेन समर्पित कर देना चाहा था। ये भगवान्से प्रार्थना करते 'मुझे आपकी कृपाके सामने इन्द्रका पद भी नहीं चाहिये। शास्त्रोंमें मनुष्यकी आयु सौ वर्षकी बतायी गयी है। इसमेंसे आधी तो निद्रामें ही बीत जाती है और आधीमेंसे भी पंद्रह वर्ष बालकपनकी अज्ञान अवस्थामें निकल जाते हैं और शेष आयु भी भूख-प्यास, काम क्रोधादि विकारों तथा नाना प्रकारकी व्याधियों औरमानसिक कष्टोंमें ही बीतती है। अत: हे नाथ! ऐसी कृपा कीजिये कि मुझे इस संसारमें पुनः जन्म न लेना पड़े और यदि जन्म लेना भी पड़े तो मुझे आपकी सेवाका सुख निरन्तर मिलता रहे। इस प्रकार मन-ही-मन प्रार्थना करते हुए वे श्रीरङ्गजीके स्थानपर गये और वहाँ अपने-आपको श्रीरङ्गजीके अर्पणकर विष्णुचित्तकी भाँति मन्दिरके चारों ओर एक सुन्दर बगीचा लगा दिया। वहाँसे फूल ला- लाकर और उनके हार गूँथ गूँथकर वे भगवान्को अर्पण किया करते। वे स्वयं एक वृक्षके नीचे एक मामूली झोंपड़ी बनाकर रहते थे और भगवान् श्रीरङ्गनाथके प्रसादसे ही जीवननिर्वाह करते थे। संसार उनकी दृष्टिमें मानो था ही नहीं, भगवान् श्रीरङ्गनाथजी उनके लिये सब कुछ थे। वे कहते- 'अहा! जब-जब मैं भगवान्को शेषशय्यापर लेटे हुए देखता हूँ, मेरा शरीर प्रेम-विह्वल हो जाता है।' वे जब इस प्रकार भगवान्के ध्यान और भजनमें लीन थे, भगवान्ने कदाचित् उन्हें शुद्ध करने और उनकी वासनाओंका क्षय करनेके लिये ही उनकी एक बार कठिन परीक्षा ली।वहाँ एक बड़ी रूपवती वाराङ्गना रहती थी, जिसके सौन्दर्यपर स्वयं राजा भी मुग्ध थे। उसका नाम देवदेवी था। एक दिन वह अपनी बहिनको साथ लेकर विप्रनारायणके बगीचेमें आयी और वहाँको प्राकृतिक शोभाको देखकर दोनों की दोनों चमत्कृत हो गयीं। सहसा देवदेवीकी दृष्टि विप्रनारायणपर पड़ी। ये भगवान्का नाम लेते जाते थे और तुलसोके वृक्षोंको सींचते जाते थे। वे अपनी धुनमें इस प्रकार मस्त थे कि उन्होंने देवदेवोकी ओर आँख उठाकर भी नहीं देखा। उनकी इस उपेक्षासे देवदेवीके मानको बड़ी ठेस पहुँची। उसने सोचा- मेरे जिस अनुपम सौन्दर्यपर राजालोग भी मुग्ध हैं, यह तपस्वी युवा उसकी और आँख उठाकर भी नहीं देखता।' देवदेवीकी बहिनने कहा-'जिनका चित्त अखिल सौन्दर्यके भण्डार भगवान् नारायणके चरणकमलोंका चञ्चरीक बन चुका है, वे क्या नारीके घृणित रूपपर आसक्त हो सकते हैं ?' देवदेवीने बड़े गर्वके साथ कहा-'मैं भी देखूंगी कि यह ब्राह्मणकुमार मेरे रूपपाशमें कैसे नहीं बंधता।' उसकी बहिनने कहा- 'तुम्हारी यह आशा दुराशामात्र है। यदि तुम्हारे रूपका जादू इस ब्राह्मणकुमारपर चल गया तो मैं छः महीनेतक तुम्हारी दासी होकर रहूँगी।' देवदेवीने भी बड़े आत्मविश्वासके साथ कहा- 'यदि मेरा चक्कर इसपर न चल सका तो मैं भी छः महीनेतक तुम्हारी दासी होकर रहूँगी। इस प्रकार दोनों बहिनोंमें होड़ बद गयो ।
उक्त घटनाको कई दिन हो गये। एक दिन अकस्मात् विप्रनारायणने देखा कि उनके सामने एक संन्यासिनी खड़ी है। उन्होंने चकित होकर पूछा—'तुम कौन हो और यहाँ क्यों आयी हो ? तुम्हारा यहाँ इस प्रकार आना उचित नहीं, अतः शीघ्र लौट जाओ।' संन्यासिनीने कहा- 'महाराज! एक बार मेरी करुण-कथा सुन लीजिये, इसके बाद जैसा उचित समझें, करें। मेरी माता मुझे अपनी आबरू बेचकर धन कमानेके लिये बाध्य करती है; किंतु मेरी इच्छा नहीं है कि मैं अपने जीवनको इस प्रकार कलंकित करूँ। अतः मैं आपको शरणमें आयी हूँ, आप कृपाकर मुझे आश्रय दीजिये। मैं इसी वृक्षके नीचे पड़ी रहकर आपके बगीचेकी रक्षा करूँगी, भगवान्के लिये सुन्दर हार गूंथकर आपके अर्पण करूंगी और आपकी जूँठन पाकर अपना शेष जीवनव्यतीत करूंगी।' सरलहृदय विप्रनारायणको उसकी इस | कपटभरी करुण कथाको सुनकर दया आ गयी और उन्होंने दया-परवश होकर उसे अपने बगीचेमें रहनेके लिये अनुमति दे दी।
माघका महीना है। बड़े जोरकी वर्षा हो रही है और साथ-साथ ओले भी गिर रहे हैं। वह दीन-हीन | संन्यासिनी बाहर खड़ी ठिठुर रही है, उसकी साड़ी पानीसे तर हो गयी है। उसकी इस दशाको देखकर विप्रनारायणको दया आ गयी, उन्होंने उसे अपनी झोंपड़ीमें बुला लिया और उसे पहननेको सूखे वस्त्र दिये। शास्त्रोंकी आज्ञा है कि पुरुषको परस्त्रीके साथ और स्त्रीको परपुरुषके साथ एकान्तमें भूलकर भी नहीं रहना चाहिये। ऐसे समय मनका वशमें रहना बड़ा कठिन होता है। विप्रनारायण उस छद्मवेशिनी संन्यासिनीके चंगुल में फँस गये। उनकी तपस्या, उनका शास्त्रज्ञान, उनका त्याग, उनका वैराग्य सब कुछ उस वाराङ्गनाकी मोह- सरितामें बह गया! कुसंगका परिणाम होता ही है!
विप्रनारायण, जो अबतक भगवान्की सेवामें तल्लीन रहते थे, आज एक वेश्याके क्रीतदास हो गये। देवदेवीने अब अपना असली रूप प्रकट कर दिया। वह वापस अपने स्थानको चली गयी और विप्रनारायण प्रतिदिन खिये हुए उसके घर जाने लगे। उन्होंने अपना सर्वस्व उसके चरणोंमें न्योछावर कर दिया। उनकी विपुल सम्पत्ति, उनके देवोपम गुण और उनका उदात्त चरित्र सब कुछ स्वाहा हो गया!
परंतु जिसने एक बार भगवान्के चरणोंका आश्रय ले लिया, भगवान् क्या उसकी उपेक्षा कर सकते हैं? कदापि नहीं। देवदेवीने विप्रनारायणका सब कुछ लूटकर उन्हें दर-दरका भिखारी बना दिया। जब उनके पास उसकी पूजा करनेको कुछ भी न रहा, तब उसने उन्हें दुत्कारकर अपने घरसे बाहर निकाल दिया और लाख गिड़गिड़ानेपर भी भीतर न आने दिया। विप्रनारायण निराश होकर लौट गये, परंतु उनका देवदेवीके प्रति आकर्षण कम न हुआ।
रात्रिका समय है। देवदेवीने देखा कि कोई बाहर खड़ा हुआ उसके द्वारको खटखटा रहा है। पूछनेपरमालूम हुआ वह विप्रनारायणका सेवक है। उसने |
कहा- 'विप्रनारायणने आपके लिये एक सोनेका थाल भेजा है।' थाल देखकर देवदेवी फूली न समायी। उसने इटसे थालको ले लिया और नौकरसे कहा- 'विप्रनारायणजीको जल्दी मेरे पास भेज दो, मैं उनके लिये व्याकुल हो रही हूँ।' इधर उसी आदमीने विप्रनारायणको जगाकर कहा—'जाओ, तुम्हें देवदेवी याद करती है।' इस संवादको सुनकर विप्रनारायणके निर्जीव देहमें मानो प्राण आ गये। वे चारपाई उठकर सोधे देवदेवीके यहाँ पहुँचे और देवदेवीने उस दिन उनकी बड़ी आवभगत की! अब हमें यह देखना है कि विप्रनारायणका यह नौकर कौन था।
दूसरे दिन प्रातः काल श्रीरङ्गाजीके मन्दिरमें बड़ी सनसनी फैल गयी। पुजारीने देखा कि 'श्रीरङ्गाजीका सोनेका थाल गायब है।' राज्यके कर्मचारियोंने जाँच पड़ताल आरम्भ की। चोरीका पता लगानेके लिये गुप्तचर भी नियुक्त हुए। अन्तमें वह थाल देवदेवीके यहाँ मिला। देवदेवीने कर्मचारियोंको बतलाया कि 'यह थाल कल रातको ही उसे विप्रनारायणका नौकर दे गया था।' विप्रनारायणने कहा- 'मैं तो एक दीन-हीन कंगाल हूँ, मेरे पास नौकर कहाँसे आया और न मेरे पास इस प्रकारकी मूल्यवान् चीजें ही हैं।' थाल मन्दिरमें पहुँचा दिया गया। देवदेवीको चोरीका माल स्वीकार करनेके लिये राज्यकी ओरसे दण्ड दिया गया और विप्रनारायणको निगलापुरीके राजाकी ओरसे हिरासत में रखा गया; क्योंकि श्रीरङ्गम्का मन्दिर निगलापुरीके राजाके अधीन ही था। राजाकी विप्रनारायणके सम्बन्धमें यह धारणा थी कि वे बड़े अच्छे भक्त हैं, अतः उनकी बुद्धि इस सम्बन्धमें कुछ निर्णय नहीं कर सकी। उन्होंने सोचा, 'जो विप्रनारायण श्रीरङ्गनाथजीकी इतनी भक्ति करते हैं, क्या वे उन्हींकी वस्तुको इस प्रकार चुरा सकते हैं ? इसी उधेड़बुनमें उन्हें नींद लग गयी। स्वप्रमें उन्हें श्रीरङ्गनाथजीने दर्शन दिये और कहा- 'यह सब लोला मैंने अपने भक्तका उद्धार करनेके लिये की है। मैंने हो उनका नौकर बनकर थाल देवदेवीके यहाँ पहुँचाया। था। मैं तो सदा ही अपने भक्तोंका अनुचर रहा हूँ। विप्रनारायण बिलकुल निर्दोष हैं; उन्हें वापस अपनी कुटिया में भेज दो, जिससे पुन: मेरी भक्ति और सेवामेंप्रवृत्त हो जायें।' राजाको यह स्वप्न देखकर बड़ा आश्चर्य हुआ, उनका हृदय भगवान्की दयाका स्मरण करके गदद हो गया। उन्हें इस बात के लिये बड़ा पञ्चात्ताप हुआ कि मैंने एक भक्तको हिरासतमें रखकर उनका अपमान किया और उन्हें तुरंत मुक्त कर दिया।
इस घटना से विप्रनारायणकी आँखें खुल गयीं, उनके नेत्रोंसे अज्ञानका पर्दा हट गया। उनके नेत्रोंमें आँसू भर आये और हृदय पश्चात्तापसे भर गया। वे दौड़े हुए श्रीरङ्गजीके मन्दिरमें पहुँचे और भगवान्के चरणों में गिरकर उनकी अनेक प्रकारसे स्तुति और अपनी गर्हणा करने लगे। उन्होंने कहा- 'प्रभो। मैं बड़ा नीच हूँ, बड़ा पतित हूँ, पापी हूँ: फिर भी आपने मेरी रक्षा की आपने मेरे इस वज्रहृदयको भी पिघला दिया। मैंने अबतक अपना जीवन व्यर्थ ही खोया, मेरा हृदय बड़ा कलुषित है। मेरी जिह्नाने आपके मधुर नामका परित्याग कर दिया, | मैंने सत्य और सदाचारको तिलाञ्जलि दे दी, मैंने स्वयं अपने पैरोंमें कुल्हाड़ी मारी और मैं एक वाराङ्गनाके रूपजाल में फँस गया। मैं अब इसीलिये जीवन धारण करता हूँ, जिससे आपकी सेवा कर सकूँ । मैं जानता हूँ आप अपने सेवकोंका कदापि परित्याग नहीं करते। मैं जनताकी दृष्टिसे गिर गया हूँ, मेरी साधन-सम्पत्ति जाती रही। अब संसारमें आपके सिवा मेरा कोई नहीं है। पुरुषोत्तम! अब मैंने आपके चरणोंको दृढ़तापूर्वक पकड़ लिया है। आप ही मेरे माता-पिता हैं, आपके सिवा मेरा कोई रक्षक नहीं हैं। जीवनधन! अब मुझे आपकी कृपाके सिवा और किसीका भरोसा नहीं है।' इसी समयसे विप्रनारायणका जीवन पलट गया, वे दृढ़ वैराग्यके साथ भगवान्की भक्तिमें लग गये। उन्होंने अपना नाम 'भक्तपदरेणु' रखा और बड़ी श्रद्धाके साथ वे भक्तोंकी सेवा करने लगे। उनकी वाणी निरन्तर भगवान् के नाम और गुणोंका कीर्तन करने लगी। इधर देवदेवीको भी अपने पापमय जीवनसे घृणा हो गयी, उसने अपनी सारी सम्पत्ति मन्दिरको भेंट कर दी और वह स्वयं सब कुछ त्यागकर श्रीरङ्गजीकी सेवा करने लगी। इस प्रकार भक्तपदरेणु और उनकी प्रेयसी देवदेवी दोनों भगवान्के परम भक्त हो गये।
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