डाक्टर दुर्गाचरण नाग महाशयका जन्म पूर्वबंगाल में नारायणगंजके पास देवभोग नामक एक छोटे से गाँवमें हुआ था। आपके पिताका नाम दीनदयाल और माताका नाम त्रिपुरासुन्दरी था। नाग महाशयकी माता उनको आठ वर्षका छोड़कर ही मर गयीं थीं। तबसे उनकी बुआ भगवतीने इनका पालन-पोषण किया था। नाग महाशयके पिता कलकत्तेमें नमकके व्यापारी श्रीराजकुमार हरिचरण पाल चौधरी महोदयके यहाँ नौकरी करते थे। पिताके साथ नाग महाशय भी कलकत्ते आ गये और कलकत्ते में। इन्होंने लगभग डेढ़ वर्ष 'कैम्बल मेडिकल स्कूल' में डाक्टरी पढ़ी और फिर प्रसिद्ध होमियोपैथिक डाक्टर भादुरी महाशय से आपने होमियोपैथोकी शिक्षा ग्रहणको। लड़कपनसे ही नाग महाशयकी वृत्ति वैराग्यकी और थी। वे कलकत्तेमें अकेले काशीमित्र श्मशानघाटमें चले जाते और मुर्दाको जलते देखकर जगत्की नश्वरतापर विचार करते। विभिन्न संन्यासियोंसे मिला करते तथा एकान्तमें ध्यान किया करते थे।
बुझाके मरनेपर उनके मनमें बड़ा वैराग्य हुआ और भोगों से बड़ी ही निराशा हो गयी। वे रात-दिन विचारमग्र रहने लगे। आखिर पिताके आग्रहसे उन्होंने डाक्टरी शुरू की और कुछ ही दिनोंमें बहुत अच्छे डाक्टर हो गये। परंतु अपने व्यवसायमें उनके बाह्याडम्बर कुछ भी नहीं था। न वै कोट-पतलून पहनते थे, न गाड़ी-घोड़ेपर ही कहीं जाते थे। दूरसे बुलाहट आनेपर भी पैदल ही जाते।पिताने एक दिन यह समझकर कि डाक्टरको सी होनेसे लोगोंका विश्वास अधिक बढ़ेगा पुत्रके लिये कोट पतलून इत्यादि बनवाकर ला दिये। नाग महाशयने कहा- 'पिताजी! मुझे पोशाकको आवश्यकता नहीं है। आप व्यर्थ हो ये कपड़े खरीदकर लाये: इन रुपयों से किसी गरीबकों सेवा की जाती तो बहुत उत्तम होता।'
इनकी विचित्र हालत थी। मुहल्लेमें कहाँ कौन बौमार है किसके पास खानेको नहीं है, कौन दुःखो है-नाग महाशय इसोको खोजमें रहते और अपनी शक्तिके अनुसार सेवा करनेसे कभी न चूकते। गरीबोंसे दिखायौके रुपये (फीस) तो लेते हो नहीं, दबाके दाम भी नहीं लेते। पध्यका खर्च भी अपने पाससे दे आते। रास्ते में पड़ा कोई निराश्रय रोगी मिल जाता तो उसे अपने घर लाकर उसका इलाज करते।
एक दिन एक गरीब रोगोके घर जाकर आपने देखा कि उसकी सेवा करनेवाला कोई नहीं है तो स्वयं चार घंटे वहाँ ठहरकर उसको दवा देते रहे और सेवा करते रहे। रातको फिर उसे देखने गये। आाहेको मौसम टूटी फूटी झोंपड़ी और रोगोंके बदनपर ओढ्नेको एक कपड़ा नहीं - यह देखकर नाग महोदयका हृदय पिघल गया।। उन्होंने अपनी भागलपुरी ऊनी चद्दर उतारकर रोगोको उढ़ा दो और धीरेसे निकल चले। सबेरे रोगीने कृतज्ञता प्रकट की, तब बोले 'आपको उस समय मुझसे अधिक जरूरत थी, इसलिये चद्दर आपको उढ़ा दो थी; आप कोई विचार न करें।'
एक दिन एक रोगीके घर जाकर आपने देखा कि वह जमीनपर लेट रहा है। उसी समय घरसे अपने शयनकी चौको मँगाकर उसपर रोगीको सुला दिया। रोगोको इससे आराम मिला। उसे आराम मिला देखकर नाग महाशयको बड़ी प्रसन्नता हुई। पर दुख दुख सुखी पर सुख तें - यह उनका व्रत था।
एक छोटे बच्चेको हैजा हो गया था। नाग महाशय दिनभर उसकी चिकित्सामें लगे रहे, परंतु बच्चा मर गया। घरवालोंने सोचा था आज दिनभरको बहुत बड़ीफीस लेकर डाक्टर साहब घर लौटेंगे। शामको देखा गया आप खाली हाथ रोते हुए घर लौटे और कहने लगे 'बेचारे गृहस्थके एक ही बच्चा था किसी तरह बच नहीं सका। उसका घर सूना हो गया। उस रातको इन्होंने जलतक ग्रहण नहीं किया।
नाग महाशयकी जैसी प्रसिद्धि हो गयी थी, उसमें वे चाहते तो बहुत धन कमा सकते थे; परंतु उन्होंने इस ओर ध्यान ही नहीं दिया। किसीसे भी वे फीस चाहते नहीं; जो देता सो ले लेते। कोई उधार माँगने आता तो 'ना' नहीं करते। एक पैसातक पास होता तो वह भी दे डालते। किसी-किसी दिन स्वयं दो-एक पैसेका भूजा लेकर दिन काटते, घरमें रसोई नहीं बनती; परंतु गरीबको देनेमें अपनी दशाका विचार कभी नहीं करते। कपट, दम्भ, अधर्म और बनावटसे नाग महाशयको बड़ी घृणा थी। सभी में वे भगवान्को देखनेकी चेष्टा करते।
नाग महाशयके घर कोई आ जाता तो उसे बिना खिलाये नहीं लौटने देते नारायण मानकर अतिथिसेवा करते। एक दिन नाग महाशयके पेटमें शूलका दर्द हो रहा था। दर्दके मारे बीच-बीचमें वे बेहोश हो जाते थे। घरमें कुछ था नहीं। अकस्मात् आठ-दस अतिथि आ गये। उसी बीमारीमें आप बाजार गये चावल लेने। कुलीके सिरपर सामान रखकर न लानेका आपका नियम था। चावलको गठरी सिरपर रखकर लाते समय रास्तेमें पेटका दर्द बढ़ गया। आप गिर पड़े और बोले, 'हाय! हाय ! यह क्या हुआ? घरमें नारायण उपस्थित हैं, उनकी सेवामें देर हो रही है। धिक्कार है, इस हाड़-मांसके चोलेको, जो आज नारायणकी सेवा नहीं हो रही है।' दर्द कुछ कम होनेपर घर आये और अतिथियोंको प्रणाम करके कहने लगे, 'मैं बड़ा अपराधी हूँ, आज आपके भोजनमें बड़ा विलम्ब हो गया!'
वर्षाकालमें एक दिन नाग महाशयके घर दो अतिथि आ गये। बादल घिरे थे और झड़ी लगी हुई थी। नाग महाशयके मकानमें एक ही कमरा ऐसा था जिसमें पानीनहीं गिरता था; उसीमें नाग महाशय सोते थे। अतिथियोंको भोजन करानेके बाद आपने अपनी धर्मशीला पत्नीसे कहा- 'आज हमलोगोंका परम सौभाग्य है, जो साक्षात् नारायण ही अपने घर पधारे हैं; क्या उनके लिये जरा सा कष्ट नहीं सह लिया जायगा? आओ, हमलोग बाहर दीवालके नीचे बैठकर भगवान्का नाम लें और इनको अंदर सोने दें।' कहना न होगा कि साध्वी पत्नीने पतिकी बातको बड़ी प्रसन्नतासे मान लिया और अतिथियोंको यह बात मालूम ही नहीं होने पायी!
नाग महाशय अपने लिये दूसरोंसे काम करवाना नहीं सह सकते थे, इसलिये वे कभी नौकर नहीं रखते थे। अतएव वे जब घर रहते, तब घरकी मरम्मत होना भी कठिन होता था। नाग महाशय जब बाहर जाते, तब पीछेसे उनकी पत्नी घरकी मरम्मत करवातीं। एक बार नाग महाशय बहुत दिनोंतक जन्मभूमिमें रहे। घरोंकी मरम्मत न होनेसे सब बेकाम हो गये । उनको पत्नीने घर छानेके लिये एक थवई (छानेवाला) नियुक्त किया। थवईके घरमें आते ही नाग महाशयको उसकी सेवाकी चिन्ता लगी। उसे आपने चिलम भर दी और हवा करने लगे। किसी तरह इनसे छूटकर वह बेचारा ऊपर चढ़कर छाने लगा। नाग महाशयने बार-बार नीचे उतर आनेकी प्रार्थना की। जब वह नहीं उतरा, तब इनसे नहीं रहा गया और ये रोकर कहने लगे 'हे भगवन् मेरे सुखके लिये दूसरे आदमीको इतना कष्ट हो रहा है और मैं खड़ा खड़ा देख रहा हूँ; मुझको धिक्कार है!' इनकी व्याकुलता देखकर बेचारा थवई नीचे उतर आया। नाग महाशयने प्रसन्न होकर उसके लिये फिर एक चिलम भर दी और हवा करने लगे और थोड़ी देर बाद उसे दिनभरकी मजदूरी देकर विदा किया।
नाग महाशय कभी नावपर चढ़ते तो केवटको नाव नहीं खेने देते। उसकी लग्गी लेकर स्वयं नाव खेने लगते। बंगाली प्राय: मांस-मछली खानेमें कोई बुराईनहीं समझते; पर इनके लिये खाना तो दूर रहा, पशु पक्षियोंका दुःख भी इनसे नहीं देखा जाता। कई बार इन्होंने मछली बेचनेवालोंसे मछलियाँ खरीदकर तालाबों में छुड़वायी थीं। एक दिन नारायणगंजके पाटके कारखानेके कुछ साहब पक्षियोंका शिकार करने देवभोग आये। बंदूककी आवाज सुनते ही नाग महाशय दौड़े और हाथ जोड़कर साहब लोगोंसे विनती करने लगे। साहबलोग इनकी बातको सुनी-अनसुनी करके फिरसे बंदूक चलानेको तैयारी करने लगे, तब तो नाग महाशयने बड़े जोरसे डाँटकर उनकी बंदूकें छीन लीं। साहबोंने समझा, यह पागल है और वहाँसे लौटकर वे नाग महाशयपर मुकद्दमा चलानेका विचार करने लगे। नाग महाशयने घर आकर बंदूकोंको अलग रख दिया और प्राणघातक अस्त्रसे स्पर्श होनेके कारण हाथोंको अच्छी तरहसे धोया। कुछ देर बाद नाग महाशयने पाटके कारखाने के एक कर्मचारीके द्वारा बंदूकें लौटा दीं। कर्मचारीके मुख नाग महाशयके साधु-चरित्रकी प्रशंसा सुनकर साहबोंके मनमें उनके प्रति श्रद्धा हो गयी और फिर वे शिकार खेलनेके लिये देवभोग कभी नहीं गये।
उनके जीवन में ऐसी अनेकों घटनाएँ हैं जिनसे उनके साधुस्वभाव, अहिंसा-प्रेम, परदुःखकातरता, भगवद्भक्ति और अनोखी सहनशीलताका पता लगता है। नाग महाशय परमहंस रामकृष्णके खास शिष्योंमेंसे थे और इनपर परमहंसदेवकी बड़ी ही कृपा रहती थी। सभी लोग इनको बड़े आदरको दृष्टिसे देखते थे प्रसिद्ध स्वामी विवेकानन्दने तो अमेरिकासे लौटकर यहाँतक कहा था कि 'हमारा जीवन तो तत्त्वको खोजमें ही व्यर्थ बीत गया। हमलोगों में एक नाग महाशय ही ऐसे हैं, जो परमहंसदेवकी सफल सन्तान हैं।'
पिताके परलोकगमनके तीन वर्ष बाद तिरपन वर्षको उम्र में आपने देहत्याग किया। उस समय प्रसिद्ध स्वामी शारदानन्द आपके पास थे।
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