रामलाल बहुत ही गरीब था, बाल-बच्चोंसहित कई बार तो उसे भूखे रहकर दिन बिताने पड़ते थे। वह कलकत्तेमें भगतराम नामक एक मारवाड़ी सेठकी दूकानपर नौकरी करता था। मामूली तनख्वाह थी। सबके पेट भी भली-भाँति नहीं भरते थे। सुबहसे लेकर शामतक अविराम परिश्रम करना पड़ता था। अपने सुख-दुःखकी बात सोचनेके लिये भी पूरा मौका नहीं मिलता था। खूब सबेरे गंगा स्नान और सन्ध्या-तर्पण करके रामलाल दूकान पहुँच जाता था। रामलालकी निर्लोभ वृत्ति और कर्तव्यपरायणताके कारण मालिक उसपर बहुत ही प्रसन्न रहता था।रामलालकी स्त्री दयावती पुत्र कन्याको लेकर काशीपुरमें एक छोटी-सी कोठरीमें रहती । सन्तानके भरण-पोषण और पतिके कठोर क्लेशकी चिन्तासे दयावतीका हृदय विदीर्ण हुआ जाता था। वह दिन-रात इसी चिन्तामें रहती कि कैसे स्वामीका परिश्रम कम हो । रामलाल रोज घर नहीं जा सकता था, बीच-बीचमें जाया करता था। महीना पूरा होते ही तनख्वाहके पन्द्रह रुपयोंको घर पहुँचाना उसका प्रधान काम था। इसके सिवा अपनी खुराकीसे चावल, दाल, आटा, नमक, तैल आदि जो कुछ भी सामान रामलाल बचा सकता, हर पन्द्रहवें दिन उसे भी वह दयावतीको दे आता था।दयावती घरपर काशीपुरमें रहती, रामलाल कलकलेरहता, काम पड़नेपर खबर लेने-देनेका भी कोई सुभीता नहीं था। कोई खास अड़चन होनेपर दयावती एकाग्र चित्तसे पतिका स्मरण किया करती और मन-ही-मन अपने अभावका समाचार पतितक पहुँचा देती बेतारके तारकी भाँति रामलालपर भी पत्नीके चिन्तनका प्रभाव पड़ता और वह उसी दिन घर जाकर सुख-दुःखके समाचार पूछ आता। इसी प्रकार उनका काम चलता था।
आज माघकी पूर्णिमा है, रामलालने अभीतक भोजन नहीं किया है, कामकाजकी भीड़में रामलालको रसोई बनाने और खानेकी फुरसत नहीं मिली। दिन बीत जानेपर काम काजसे निवटकर रामलाल गंगा किनारे जाकर स्वस्थ चित्तसे बैठ गया। इसी समय अकस्मात् उसका चित्त दयावतीकी चिन्तासे भर गया, उसने अनुभव किया, मानो दयावती मुझे याद कर रही है, वह उठकर घरकी ओर लपका। घर पहुँचते-पहुँचते रातके ग्यारह बज गये।
घर पहुँचकर रामलालने देखा, छोटा बच्चा बुखार और शीतलाके आक्रमणसे छटपटा रहा है, दयावतीसे मालूम हुआ कि पड़ोसी गृहस्थ होमियोपैथिक दवा देते थे, परंतु आज बीमारी बढ़ जाने और शरीरमें शीतलाका जोर हो जानेके कारण उन्होंने दवा देना बन्द कर दिया है और दयावतीसे कह दिया है कि हमारे घर दबाके लिये न आना। शीतला संक्रामक रोग है, पड़ोसी गृहस्थके घर भी छोटे-छोटे कई बच्चे हैं, ऐसी अवस्थामें उनका ऐसा करना स्वाभाविक ही है।
दयावती बीमार बच्चेको गोदमें लिये अनवरत आँसू बहा रही है। परके कोनेमें क्षुद्र दीपक टिमटिमा रहा है। रामलालने बच्चेको भलीभाँति देखनेकी इच्छासे दीपककी बत्तीको ठीक करना चाहा, परंतु दीपकमें तेल नहीं था। पत्नीसे पता लगा कि न तो घरमें तेल है और न तेल मँगानेको एक पैसा ही है। कुछ ही क्षणों बाद दीपक बुझ गया, घरमें अँधेरा छा गया। दयावती रोने लगी। रामलालने दयावतीको धीरज रखनेका उपदेश देते हुए कहा, 'तुम उद्वेग छोड़कर माँ दुर्गाका स्मरण करो और उन्होंका आश्रय रखो। मैं अभी बत्ती जलानेकी व्यवस्थाकरता हूँ।'
इतना कहकर रामलाल घरसे निकल गया और पड़ोसीके दरवाजेपर जाकर पुकारने लगा। परंतु कोई जवाब नहीं मिला। अँधेरी आधी रातके समय आर्तकी पुकार सुननेवाले प्राण मानो किसीमें नहीं थे। रामलालने घर जाकर बच्चेको हृदयसे लगा आँसुओंको धारासे उसका ताप शान्त करनेकी इच्छा की, वह जल्दीसे घरकी ओर चला, परंतु उन्मनी भावके कारण घर न जाकर गंगा- तीरपर पहुँच गया। अब उसे घरका स्मरण आया, उसने सोचा कि अबतक बच्चा जरूर ही चल बसा होगा और दयावती भी अवश्य हो बेहोश हो गयी होगी। मैं भी जरा विश्राम करके घर जाऊँगा यों विचारकर वह घाटको सीढ़ियोंपर बैठ गया और 'दुर्गा दुर्गा' स्मरण करता हुआ आवेगके वश होकर रोने लगा।
उधर दयावती स्वामीकी याद कर-करके अँधेरेमें व्याकुल होकर रो रही है और सोच रही है कि बच्चेका श्वास रुक गया है, कफसे रुके हुए कण्ठसे अब तो कठोर ऊर्ध्वं श्वासका शब्द भी नहीं सुनायी देता, बच्चा जरूर ही मर गया है। यों सोचती सोचती 'माँ दुर्गा बचाओ बचाओ' पुकारकर दयावती मूर्च्छित हो गयी। थोड़ी ही देरमें बीमार बच्चेकी 'माँ माँ' की पुकार सुनकर दयावतीको होश हुआ, उसने देखा, स्नेह और दयाकी प्रतिमूर्ति एक रमणी हाथ फैलाकर उसकी गोदसे बच्चेको अपनी गोदमें ले रही है। 'हाय माँ!' कहकर दयावती उसके चरणोंमें लोट गयी।
रमणीने कहा, 'बेटी, घबरा मत, कोई डरकी बात नहीं है, तेरा बच्चा अच्छा हो गया है।' दयावतीने पूछा, 'माँ, तुम कौन हो ?' रमणीने कहा, 'मैं तुमलोगोंकी माँ हूँ, रामलालके मुझे पुकारते ही मैं आ गयी हूँ, तू कोई चिन्ता न कर, मैं अभी सब ठीक कर देती हूँ।' यों कहकर उसने जल्दी-जल्दी बच्चेके शरीरपर एक दिव्य औषधका लेप कर दिया। लेपकी स्निग्धता और मनोरम सुगन्धसे बच्चेके मुखपर हँसी आ गयी, उसने कहा, 'माँ, मुझे भूख लगी है।' माँ फल, दूध आदि सामान साथ लायी थी, भोजन करके बालकको बड़ीही तृप्ति और शान्ति मिली। अब मौने बच्चेको दयावती की गोदमें देकर उससे विदा माँगी, दयावतीने आपत्ति की, इसपर माँ बोली 'बेटी! रामलाल मेरे दरवाजेपर बैठा है, मेरे गये बिना वह आ नहीं सकेगा।' इतना कहकर वह वहाँसे चली गयी।
इधर आवेगपूर्ण अनन्य चित्तसे माँका स्मरण करता हुआ रामलाल ध्यानस्थ हो गया, भीतरसे जागृति और बाहरसे निद्रा आ गयी। रामलालने देखा 'मानो उसके 1 देह नहीं है, वह स्वयं ही एक आनन्दघन ज्योति है। उसके बाद ही उसने देखा, जगत् या संसार कुछ भी नहीं है, है एक आनन्दघन ज्योतिका सागर। ऊपर, नीचे, दिशाओंमें वही एक निष्पन्द- निश्चल प्रेम-मधुर-ज्योति राशि है। उसको विश्वास हो गया कि वह ज्योति राशि ही वह है, यही माँ दुर्गा है। कुछ ही क्षण पूर्व वह चित्तके आवेगसे व्याकुल था, अब व्याकुलताका लेश भी नहीं है। रामलालकी रात इसी तरह कटी। प्रातः कालके प्रकाशसे और घाटपर लोगोंके आने-जानेसे उसका ध्यान भंग हुआ। पहले-पहले तो रामलालको कुछ भी याद नहीं रहा, परंतु जब पूर्वस्मृति जाग्रत हुई, तब वह उठकर जल्दी जल्दी घरकी ओर चला।
घर पहुँचते ही बच्चेको स्वस्थ देखकर उसे बड़ा आश्चर्य हुआ, पीछे दयावती माँके आने की बात सुनकर रामलाल रोने लगा और दयावतीसे बोला, 'सती! तुम बड़ी भाग्यवती हो, जो तुमको माँने दर्शन दिये। मैं बड़ा मन्दभागी है, इसीसे मोने मुझे वंचित कर दिया।' रामलाल 'दुर्गा-दुर्गा' पुकारकर रोने लगा। जब दयावतीने यह समझा कि 'पुत्रको बचानेके लिये जो माँ आयी थी, वह इस संसारकी आरोपित माता नहीं थी, स्वयं जगज्जननी थी।' तब वह भी 'दुर्गा दुर्गा' पुकारकर रोने लगी।
उसी रातको रामलालके मालिकने स्वप्नमें देखा, उसकी स्वर्गीय जननी आकर उससे कह रही है 'अरे भगत! तू बड़ा ही कठोरहृदय है, जो सुखकी नींद सो रहा है। तेरे बड़े भाईके सदृश सम्मान्य रामलाल आज तेरे कारण भूखा है, उसका लड़कामौतके मुँहमें पड़ा है, तू उसकी कोई खबर नहीं सेता ?' भगतरामकी माँ बचपन में ही मर गयी थी | उसने होश सँभालनेपर कभी माँको नहीं देखा था, इसीसे वह माँकी कोपभरी मूर्तिको देखकर डर गया, और पसीनेमें भरा हुआ चकित चित्तसे बिछौनेपर उ बैठा। उसके मनमें बड़ी ही घबराहट हुई। वह दौड़कर रामलालके डेरेपर गया, परंतु वहाँ रामलाल नहीं मिला। पता लगानेपर मालूम हुआ कि कल काम-काजकी भीड़में उसे भोजन करनेकी फुरसत नहीं मिली थी और वह शामको सन्ध्या करनेके बाद गंगाजीकी ओर चला गया था, तबसे लौटकर नहीं आया। भगतरामने विस्मित और भीतचित्तसे स्वयं गंगातीरपर जाकर रामलालको खोजा, परंतु कहीं पता नहीं चला। तब वह रामलालके घर काशीपुर पहुँचा, वहाँ जाकर देखा कि दोनों स्त्री-पुरुष 'दुर्गा दुर्गा' पुकारते हुए रो रहे हैं। रामलालने मालिकको आया देखकर नम्रतासे कहा, 'बड़ा अच्छा हुआ, आप आ गये, आजसे दया करके मुझे कामसे छुट्टी दे दीजिये।' इतना कहकर रामलाल रोने लगा। भगतराम सारा हाल देखकर रामलालके चरणोंपर गिरकर कहने लगा, 'रामलाल! तुम मेरे बड़े भाई हो, छोटे भाईका कसूर माफ करो, आजसे मेरी सारी धन-सम्पत्ति और व्यापारमें तुम्हारा आधा हिस्सा है। तुम मुझे छोड़ो नहीं, दया करके आश्रय दो।'
भगतरामने बहुत चेष्टा की, परंतु रामलालको वह किसी तरह राजी नहीं कर सका। उसी समय भगतराम अपने घर, सम्पति आदिका ठीक आधा बँटवाराकर रामलालसे भाँति-भाँतिसे विनय करने लगा। रामलालने कहा 'भाई! तुम्हीं मेरी ओरसे इस सम्पत्तिकी रक्षा करो, और इसे देव-ब्राह्मणोंकी सेवामें लगाओ। मुझे अब माँ बुला रही है, अतः तुरंत उसकी गोद में पहुँच जाने दो।' इतना कहकर रामलाल और उसकी पत्नी दोनों गंगाकी ओर चले गये। किसीकी इच्छा होनेपर कभी-कभी गंगातीरपर खोजनेसे अबतक भी इन साधु स्त्री-पुरुषके दर्शन हो जाते हैं।
[ श्रीमनोरंजनजी चक्रवर्ती ]
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[ shreemanoranjanajee chakravartee ]