मेरे जीवनमें कई घटनाएँ घटी हैं, जिनका अमिट प्रभाव मेरे विचारोंपर पड़ा है। उन्हें मैं ईश्वरप्रेरित समझता हूँ। उनमेंसे एक यह घटना प्रस्तुत है
कई दशक पहले मेरे एक घनिष्ठ मित्र थे। मित्र तो वे अब भी हैं; पर घनिष्ठता नहीं है। उन्होंने अपने एक कुटुम्बीपर धनके लिये मुकदमा चलाया। मुकदमा जोरोंसे चला। कुटुम्बीने अपने गवाहोंमें मेरा भी नाम लिखा दिया। उसे विश्वास था कि मैं सच ही बोलूँगा। इधर मित्रको भी भय हुआ कि मैं सच ही बोलूँगा और उससे उनकी हानि होगी। मुझे अपने ही पक्षका समर्थक बना लेनेका साहस उन्हें नहीं हुआ होगा। यद्यपि उनके कुटुम्बीको मैंने स्पष्टतः कह दिया था कि मैं किसी पक्षकी ओरसे गवाही न दूँगा; पर कुटुम्बीने इस बातको छिपा रखा। मित्रने यही उचित समझा होगा कि वह मुझे गवाही देनेयोग्य ही न रहने दें, तो उसका काम बन जाय
अब मित्रके यहाँ मैं रोज बुलाया जाने लगा। मित्र मुझे नदीके किनारे टहलाने ले जाते; भक्ति और ज्ञान वैराग्यकी बातें कहते; किसी सन्तका कोई पद या साखी सुनाते-सुनाते भक्तिविह्वल हो जाते और कृत्रिम उपायोंसे आँसू भी गिराते ।
हम टहलकर लौटते तो बैठने भी न पाते कि मित्रका नौकर दो प्यालोंमें बढ़िया मलाई लिये हुए सामने खड़ा हो जाता। उसके बाद रामचरितमानसकी चौपाइयोंपर तर्क-वितर्क होते
ऐसा होते-होते पाँचवाँ दिन आया। जाड़ेकी रात थी; जनवरीकी आठवीं तारीख थी। सात बज रहे होंगे। मित्रने नौकरको आवाज देकर कहा-'मलाईमें वह दवा भी डाल देना जो जर्मनीसे आयी है। पण्डितजीको बहुत पसंद आयेगी!
नौकर मलाई लाया। सचमुच मलाईमें स्वाद आ गया था। सत्कार, श्रद्धा और प्रेमके वचनोंसे वातावरण भी मोहक और दिङ्मूढ़ बनानेवाला बना ही था । मलाई समाप्त करते ही मेरी तो आँखें झपकने लगीं। मैं शिथिल-सा पड़ने लगा। मैंने मित्रसे कहा-'मेरी तबीयत खराब है; मैं घर जाऊँगा।' अन्य दिनोंमें तो मित्र अपने नौकरको लालटेन लेकर पहुँचाने भेजते थे। उस दिन इतना भी नहीं किया कि सीढ़ीतक तो पहुँचा जाते। मैं उठा और अँधेरेमें सीढ़ियाँ टटोलता हुआ नीचे उतरा। सड़क पर आया तो पलकें उठती ही न थीं। मुश्किलसे एक बार पलक उठाकर देख लेता तो बीस-पचीस कदम आँखें बन्द किये हुए ही चलता।
इस तरह दो-तीन फर्लांगका अँधेरा रास्ता मैंने पैंतालीस मिनटोंमें पार किया।
घर पहुँचकर मैं सीधे अपने कमरेमें चला गया और बिछौनेपर लेट गया। किसीको बुलानेकी शक्ति ही न थी ।
लगभग नौ बजे मेरी कन्या मुझे बुलाने आयी, भोजन ठण्डा हो रहा था। मेरे कमरेमें अँधेरा था; उसने पुकारा। मैं सुनता था, पर उत्तर नहीं दे सकता था। वह दौड़कर अपनी माँको बुला लायी। उसकी माँने शरीर छूकर देखा तो कमरतक पैर बरफ-जैसा ठण्डा हो गया था। उसने मुझे जगाना चाहा पर मैं तो मृत्युकी मीठी मीठी नींदमें डूबता जा रहा था। सुनता सब कुछ था; पर बोलना नहीं चाहता था। स्त्रीके बार-बार पूछनेसे उद्विग्न होकर मैंने शक्ति समेटकर कहा-'मैं इस वक्त खाना नहीं खाऊँगा, मुझे सोने दो। '
स्त्रीको शान्ति कहाँ ? वह दौड़कर रसोईघरमें गयी और काफी बनाकर ले आयी तथा मुझे हाथसे जबरदस्ती उठाकर बैठाया। उसने काफीका प्याला मेरे ओठोंसे लगा दिया।
स्त्री तो पहरेपर थी ही। वह जाती कहाँ ? रातमें ग्यारह बजे उसने मुझे फिर जगाया और एक गिलास गरम दूध पिला दिया।
रातभर मैं मीठी नींदमें सोता रहा। सबेरे जागा तो | इच्छा हुई कि बिछौनेसे उठकर खड़ा होऊँ उठते ही चक्कर खाकर गिर पड़ा। गिरनेकी आवाज सुनकर स्त्री और कन्या दौड़कर आयीं। मुझे उठाकर बिछौनेपर लिटा दिया। स्त्री फिर काफी बनाकर ले आयी और दो प्याले काफी पिला गयी। मैं फिर सो गया और दिनके ग्यारह बजे जागा तबीयत कुछ होशमें थी, स्त्रीने दातुन आदि कराके दो प्याले काफी फिर पिला दिये। मैं फिर सो गया और एक बजे दोपहरको जागा हालत पहलेसे अच्छी थी। पैर भी अब ठण्डे नहीं रह गये थे। मैं फिर सो गया और तीन बजे जागा तब भला-चंगा हो चुका था। मैंने नहानेको पानी माँगा। नहाकर और कपड़े पहनकर मैं खड़ा हुआ तो मुझे यह एक विचित्र अनुभव होने लगा कि बहुत से मनुष्योंकी बोली सुने बिना रहा नहीं जाता था। मैंने कुछ मुँह में डालकर एक प्याला काफी ली और स्टेशनकी तरफ चल पड़ा, जो पास ही था।
प्लेटफार्म पर पहुँचकर और कुछ मनुष्योंको बोलते बतलाते सुनकर मुझे एक प्रकारका तृप्तिबोध-सा होने लगा। वहीं मुझे रेलवेके डॉक्टर मिले। मैंने उनसे अपने इस आकस्मिक रोगकी चर्चा की। उन्होंने सुनते ही कहा 'किसीने आपको मार्फिया दिया है। ये मुझे अपने अस्पतालमें ले गये। पूछनेपर भी मैंने मित्रका नाम उनको नहीं बताया, डॉक्टरीकी पुस्तक खोलकर उन्होंने मार्फिया विषके सब लक्षण पढ़ सुनाये सबसे आश्चर्यकी बात जो उन्होंने सुनायी वह यह थी कि मार्फियाकी दवा कॉफी है। कॉफीकी केटलीको केटली मार्फियाके विषमें पिला देनी चाहिये। वैसे ही चाय मार्फियाके विषको तत्काल घातक बना देती है।
मैं भगवान की लीलापर आश्चर्यचकित हो गया। यह प्रश्न उसी समय उत्पन्न हुआ था कि क्या कोई पीछे खड़ा है ? भगवान् तो पन्द्रह दिन पहलेसे इस विषके शमनका प्रबन्ध कर चुके थे। उनके प्रबन्धका खुलासा यह है
मेरे परमें चाय ही पी जाती है। उत्तर भारतमें प्रायः सर्वत्र चायका ही चलन है। मैं दक्षिण-भारत दो-तीन बार घूम आया हूँ, इससे मुझे काफी भी रुचने लगी है। मैं दिल्ली गया था और वहाँसे काफीका एक बण्डल लेता आया था। उक्त घटनाके पन्द्रह दिन पहले घरमें चाय चुक गयी और पत्नीने दूसरा बण्डल मैगा लेनेको कहा तब मैंने कहा था कि काफी रखे रखे खराब हो जायगी, अब उसे खतम कर लो, तब चाय आयेगी। घटनाके पन्द्रह दिन पहलेसे ही चाय घरमें थी ही नहीं, नहीं तो, चाय ही बनकर आती; क्योंकि काफी तो मेरे कहनेपर ही बनती थी और चायसे मेरी मृत्यु निश्चित थी। पत्नीको विवश होकर काफी बनानी पड़ी थी। यह पीछे खड़े भगवान्की चौकसी थी, जो वे मेरे पीछे खड़े होकर कर रहे थे।
पीछे खड़ी कोई महान् शक्ति मुझे बचानेमें लगी थी, तब मुझे मार कौन सकता था ? मेरे प्राण बच गये। इस खुशीमें मैंने मित्रके प्रति जो मनमें द्वेष भाव उत्पन्न हो गया था, उसे निकाल दिया। पर फिर उनसे मिलने नहीं गया। महीने - दो महीने बाद वही मित्र स्टेशनके प्लेटफार्म पर खड़े अपने कुछ मित्रोंसे बातें कर रहे थे। मैं अखबार लेने गया था। उनकी बगलसे निकला; पर मेरी दृष्टि उनपर नहीं पड़ी। उन्होंने कहा- 'प्रणाम !' मैंने नहीं सुना। तब फिर उन्होंने जरा जोरसे कहा 'मिलना-जुलना छोड़ दिया तो क्या प्रणाम लेना भी बन्द कर दिया ?" उनकी आवाज पहचानकर मैंने लौटकर कहा- 'किसे आप प्रणाम कर रहे हैं ?' उन्होंने मेरा पूरा नाम लिया। मैंने कहा- 'वे तो मर गये; मैं तो उनका प्रेत हूँ, घूम रहा हूँ।' यह कहकर मैं आगे चला गया।
संसारकी सारी घटनाएँ पूर्वनिश्चित-सी हैं। किसीके लिये हर्ष, किसीके लिये विषाद करना मनुष्यका अज्ञान ही है। यह बात सच न हो तो भी इसे मान रखनेमें यह लाभ तो है ही कि मनमें किसीके लिये द्वेष नहीं रह जाता। मेरे मित्र अब भी मित्र ही हैं। हम साथ बैठते और हँसते-बोलते हैं; पर खान-पानमें मैं थोड़ा सावधान रहने लगा हूँ। द्वेष करता तो मैं ज्यादा जलता और वे कम। और फिर द्वेषाग्निमें तो प्रत्येक वाक्यका ईंधन पड़ने लगता और वह कभी बुझती ही नहीं।
कोई अदृश्य शक्ति मनुष्यके जीवनका संचालन करती है; जिसके लाखों प्रमाण मनुष्य जातिके पास होंगे, उनमें यह प्रमाण भी सम्मिलित कर लिया जाय। मनुष्यके पीछे अवश्य कोई खड़ा है
[ पं० श्रीरामनरेशजी त्रिपाठी ]
mere jeevanamen kaee ghatanaaen ghatee hain, jinaka amit prabhaav mere vichaaronpar pada़a hai. unhen main eeshvaraprerit samajhata hoon. unamense ek yah ghatana prastut hai
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sansaarakee saaree ghatanaaen poorvanishchita-see hain. kiseeke liye harsh, kiseeke liye vishaad karana manushyaka ajnaan hee hai. yah baat sach n ho to bhee ise maan rakhanemen yah laabh to hai hee ki manamen kiseeke liye dvesh naheen rah jaataa. mere mitr ab bhee mitr hee hain. ham saath baithate aur hansate-bolate hain; par khaana-paanamen main thoda़a saavadhaan rahane laga hoon. dvesh karata to main jyaada jalata aur ve kama. aur phir dveshaagnimen to pratyek vaakyaka eendhan pada़ne lagata aur vah kabhee bujhatee hee naheen.
koee adrishy shakti manushyake jeevanaka sanchaalan karatee hai; jisake laakhon pramaan manushy jaatike paas honge, unamen yah pramaan bhee sammilit kar liya jaaya. manushyake peechhe avashy koee khada़a hai
[ pan0 shreeraamanareshajee tripaathee ]