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धन्य कौन  [प्रेरक कहानी]
Hindi Story - Hindi Story (Short Story)

एक बार भगवान् श्रीकृष्ण हस्तिनापुरके दुर्योधनके। यज्ञसे निवृत्त होकर द्वारका लौटे थे। यदुकुलकी लक्ष्मी उस समय ऐन्द्री लक्ष्मीको भी मात कर रही थी। सागरके मध्यस्थित श्रीद्वारकापुरीकी छटा अमरावतीकी शोभाको भी तिरस्कृत कर रही थी। इन्द्र इससे मन ही मन लज्जित तथा अपनी राज्यलक्ष्मीसे द्वेष-सा करनेलग गये थे। हृषीकेश नन्दनन्दनकी अद्भुत राज्यश्रीकी बात सुनकर उसे देखनेको उसी समय बहुत से राजा द्वारका पधारे। इनमें कौरव पाण्डवोंके साथ पाण्ड्य, चोल, कलिङ्ग, बाह्रीक, द्रविड़, खश आदि अनेक देशोंके राजा-महाराजा भी सम्मिलित थे।

एक बार इन सभी राजा-महाराजाओंके साथ भगवान्श्रीकृष्ण सुधर्मा सभामें स्वर्णमहान विराजमान थे। अन्य राजा-महाराजागण भी चित्र-विचित्र आसनोंपर यथास्थान चारों ओरसे उन्हें घेरे बैठे थे। उस समय वहाँकी शोभा बड़ी विलक्षण थी। ऐसा लगता था मानो देवताओं तथा अमुक बीच साक्षात् प्रजापति ब्रह्माजी विराज रहे हों।

इसी समय मेघनादके समान तीव्र वायुका नाद हुआ और बड़े जोरोंकी हवा चली। ऐसा लगता था कि अब भारी वर्षा होगी और दुर्दिन-सा दीखने लग गया पर लोगोंको बड़ा आश्चर्य हुआ जब कि इस तुमुल दुर्दिनका भेदन करके उसमेंसे साक्षात् देवर्षि नारद निकल पड़े। वे ठीक अग्निशिखाके सदृश नरेन्द्रोंके बीच सीधे उतर पड़े। नारदजीके पृथ्वीपर उतरते ही वह दुर्दिन (वायु-मेघादिका आडम्बर) समाप्त हो गया। समुद्र-सदृश नृपमण्डलीके बीच उतर कर देवर्षिने सिंहासनासीन श्रीकृष्णकी ओर मुख करके कहा - 'पुरुषोत्तम! देवताओंके बीच आप ही परम आश्चर्य तथा धन्य हैं।' इसे सुनकर प्रभुने कहा- हाँ, मैं दक्षिणाओंके साथ आश्चर्य और धन्य हूँ।' इसपर देवर्षिने कहा- 'प्रभो! मेरी बातका उत्तर मिल गया, अब मैं जाता हूँ।' श्रीनारदको चलते देख राजाओंको बड़ा आश्चर्य हुआ। वे कुछ भी समझ न सके कि बात क्या है। उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णसे पूछा-'प्रभो! हमलोग इस दिव्य तत्त्वको कुछ जान न पाये; यदि गोप्य न हो तो इसका रहस्य हमें समझानेकी कृपा करें।' इसपर भगवान्ने कहा- 'आपलोग धैर्य रखें, इसे स्वयं नारदजी ही सुना रहे हैं।' यों कहकर उन्होंने देवर्षिको इसे राजाओंके सामने स्पष्ट करनेके लिये कहा।

नारदजी कहने लगे-" राजाओ! सुनो-जिस प्रकार मैं इन श्रीकृष्णके माहात्म्यको जान सका हूँ, वह तुम्हें बतलाता हूँ। एक बार में सूर्योदयके समय एकान्तमें गङ्गा-किनारे घूम रहा था। इतनेमें ही वहाँ एक पर्वताकार कछुआ आया। मैं उसे देखकर चकित रह गया। मैंने उसे हाथसे स्पर्श करते हुए कहा- 'कूर्म । तुम्हारा शरीर परम आश्चर्यमय है। वस्तुतः तुम धन्य हो क्योंकि तुम निःशङ्क और निश्चिन्त होकर इस गङ्गामें सर्वत्र विचरते हो, फिर तुमसे अधिक धन्य कौन होगा ?' मेरी बात पूरी भी न हो पायी थी कि बिनाही सोचे वह कछुआ बोल उठा - 'मुने! भला कुछ मुझमें आश्चर्य क्या है तथा प्रभो! मैं धन्य भी कैसे हो सकता हूँ? धन्य तो हैं ये देवनदी गङ्गा, जो मुझ जैसे हजारों कछुए तथा मकर, नक्र, झषादि संकुल जीवोंकी आश्रयभूता शरणदायिनी हैं। मेरे-जैसे असंख्य जीव इनमें भरे हैं विचरते रहते हैं, भला इनसे अधिक आश्चर्य तथा धन्य और कौन है?'

"नारदजीने कहा, 'राजाओ! कछुएकी बात सुनकर मुझे बड़ा कुतूहल हुआ और मैं गङ्गादेवी के सामने जाकर बोला-'सरित् श्रेष्ठे गङ्गे! तुम धन्य हो। क्योंकि तुम तपस्वियोंके आश्रमोंकी रक्षा करती हो, समुद्र में मिलती हो, विशालकाय श्वापदोंसे सुशोभित हो और सभी आश्चयसे विभूषित हो।' इसपर गङ्गा तुरंत बोल उठीं- 'नहीं, नहीं, देवगन्धर्वप्रिय देवर्षे! कलहप्रिय नारद! मैं क्या आश्चर्यविभूषित या धन्य हूँ। इस लोकमें सर्वांश्चर्यकर परमधन्य तो समुद्र ही है, जिसमें मुझ जैसी सैकड़ों बड़ी-बड़ी नदियाँ मिलती हैं।' इसपर मैंने जब समुद्रके पास जाकर उसकी ऐसी प्रशंसा की तो वह जलतलको फाड़ता हुआ ऊपर उठा और बोला-'मुने! मैं कोई धन्य नहीं हूँ; धन्य तो है यह वसुन्धरा, जिसने मुझ जैसे कई समुद्रोंको धारण कर रखा है और वस्तुतः सभी आयको निवासभूमि भी यह भूमि ही है।'

"समुद्रके वचनोंको सुनकर मैंने पृथ्वीसे कहा, 'देहधारियोंकी योनि पृथ्वी! तुम धन्य हो। शोभने ! तुम समस्त आश्चर्योकी निवासभूमि भी हो।' इसपर वसुन्धरा चमक उठी और बड़ी तेजीसे बोल गयी- 'अरे! ओ संग्रामकलहप्रिय नारद! मैं धन्य वन्य कुछ नहीं हूँ, धन्य तो हैं ये पर्वत जो मुझे भी धारण करनेके कारण 'भूधर' कहे जाते हैं और सभी प्रकारके आश्चयके निवासस्थल भी ये हो हैं।' मैं पृथ्वीके वचनोंसे पर्वतों के पास उपस्थित हुआ और कहा कि 'वास्तवमें आपलोग बड़े आश्चर्यमय दीख पड़ते हैं। सभी श्रेष्ठ रत्न तथा सुवर्ण आदि धातुओंके शाश्वत आकर भी आप ही हैं, अतएव आपलोग धन्य हैं।' पर पर्वतोंने भी कहा 'बहायें। हमलोग धन्य नहीं हैं। धन्य हैं प्रजापति ब्रह्मा और वे सर्वाश्चर्यमय जगत्के निर्माता होनेके कारण भूत भी हैं।' "अब मैं ब्रह्माजी के पास पहुँचा और उनकी स्तुतिकरने लगा- 'भगवन्! एकमात्र आप ही धन्य हैं, आप ही आश्चर्यमय हैं। सभी देव, दानव आपकी ही उपासना करते हैं। आपसे ही सृष्टि उत्पन्न होती है, अतएव आपके तुल्य अन्य कौन हो सकता है ?' इसपर ब्रह्माजी बोले- 'नारद! इन धन्य, आश्चर्य आदि शब्दोंसे तुम मेरी क्यों स्तुति कर रहे हो ? धन्य और आश्चर्य तो ये वेद हैं, जिनसे यज्ञोंका अनुष्ठान तथा विश्वका संरक्षण होता है।' अब मैं वेदोंके पास जाकर उनकी प्रशंसा करने लगा तो उन्होंने यज्ञोंको धन्य कहा। तब मैं यज्ञोंकी स्तुति करने लगा। इसपर यज्ञोंने मुझे बतलाया कि-'हम धन्य नहीं, विष्णु धन्य हैं, वे ही हमलोगोंकी अन्तिम गति हैं। सभी यज्ञोंके द्वारा वे ही आराध्य हैं।''तदनन्तर मैं विष्णुकी गतिकी खोजमें यहाँ आया और आप राजाओंके मध्य श्रीकृष्णके रूपमें इन्हें देखा। जब मैंने इन्हें धन्य कहा, तब इन्होंने अपनेको दक्षिणाओंके साथ धन्य बतलाया। दक्षिणाओंके साथ भगवान् विष्णु ही समस्त यज्ञोंकी गति हैं। यहीं मेरा प्रश्न समाहित हुआ और इतनेसे ही मेरा कुतूहल भी निवृत्त हो गया। अतएव मैं अब जा रहा हूँ।"

यों कहकर देवर्षि नारद चले गये। इस रहस्य तथा संवादको सुनकर राजालोग भी बड़े विस्मित हुए और सबने एकमात्र प्रभुको ही धन्यवाद, आश्चर्य एवं सर्वोत्तम प्रशंसाका पात्र माना।

-जा0 श0

(हरिवंश, विष्णुपर्व, अध्याय 110, धन्योपाख्यानसे)



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dhany kauna

ek baar bhagavaan shreekrishn hastinaapurake duryodhanake. yajnase nivritt hokar dvaaraka laute the. yadukulakee lakshmee us samay aindree lakshmeeko bhee maat kar rahee thee. saagarake madhyasthit shreedvaarakaapureekee chhata amaraavateekee shobhaako bhee tiraskrit kar rahee thee. indr isase man hee man lajjit tatha apanee raajyalakshmeese dvesha-sa karanelag gaye the. hrisheekesh nandanandanakee adbhut raajyashreekee baat sunakar use dekhaneko usee samay bahut se raaja dvaaraka padhaare. inamen kaurav paandavonke saath paandy, chol, kaling, baahreek, dravida़, khash aadi anek deshonke raajaa-mahaaraaja bhee sammilit the.

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naaradajee kahane lage-" raajaao! suno-jis prakaar main in shreekrishnake maahaatmyako jaan saka hoon, vah tumhen batalaata hoon. ek baar men sooryodayake samay ekaantamen gangaa-kinaare ghoom raha thaa. itanemen hee vahaan ek parvataakaar kachhua aayaa. main use dekhakar chakit rah gayaa. mainne use haathase sparsh karate hue kahaa- 'koorm . tumhaara shareer param aashcharyamay hai. vastutah tum dhany ho kyonki tum nihshank aur nishchint hokar is gangaamen sarvatr vicharate ho, phir tumase adhik dhany kaun hoga ?' meree baat pooree bhee n ho paayee thee ki binaahee soche vah kachhua bol utha - 'mune! bhala kuchh mujhamen aashchary kya hai tatha prabho! main dhany bhee kaise ho sakata hoon? dhany to hain ye devanadee ganga, jo mujh jaise hajaaron kachhue tatha makar, nakr, jhashaadi sankul jeevonkee aashrayabhoota sharanadaayinee hain. mere-jaise asankhy jeev inamen bhare hain vicharate rahate hain, bhala inase adhik aashchary tatha dhany aur kaun hai?'

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yon kahakar devarshi naarad chale gaye. is rahasy tatha sanvaadako sunakar raajaalog bhee bada़e vismit hue aur sabane ekamaatr prabhuko hee dhanyavaad, aashchary evan sarvottam prashansaaka paatr maanaa.

-jaa0 sha0

(harivansh, vishnuparv, adhyaay 110, dhanyopaakhyaanase)

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