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आचार्य श्री श्रीधर स्वामी की मार्मिक कथा
आचार्य श्री श्रीधर स्वामी की अधबुत कहानी - Full Story of आचार्य श्री श्रीधर स्वामी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [आचार्य श्री श्रीधर स्वामी]- भक्तमाल


वागीशा यस्य वदने लक्ष्मीर्यस्य च वक्षसि ।

यस्यास्ते हृदये संवित् तं नृसिंहमहं भजे ॥

- श्रीधरस्वामी

प्रामाणिक सामग्री तो कोई है नहीं; जो किंवदन्तियाँ हैं, उन्होंके आधारपर कुछ कहना है। महापुरुषोंके जीवनके सत्यको ऐसी किंवदन्तियाँ ही बहुत कुछ प्रकट कर पाती हैं। ईसाकी दसवीं या ग्यारहवीं सदीकी बात होगी। दक्षिण भारतके किसी नगरमें वहाँके राजा और मन्त्रीमें मार्ग चलते समय भगवान्की कृपा तथा प्रभावके सम्बन्धमें बात हो रही थी। मन्त्री कह रहे थे-'भगवान्को उपासनासे उनकी कृपा प्राप्त करके अयोग्य भी योग्य हो जाता हैं, कुपात्र भी सत्पात्र हो जाता है, मूर्ख भी विद्वान् हो जाता है।' संयोगकी बात या दयामय भगवान्को इच्छा- राजाने देखा कि एक बालक ऐसे पात्रमें तेल लिये जा रहा है, जिसका उपयोग कोई थोड़ा समझदार भी नहीं करेगा। राजाने मन्त्रोसे पूछा- 'क्या यह बालक भी बुद्धिमान् हो सकता है?' मन्त्रीने बड़े विश्वासके साथ कहा- 'भगवान्की कृपासे अवश्य हो सकता है।' बालक बुलाया गया। पता लगा कि वह ब्राह्मणका बालक है। उसके माता-पिता उसे बचपनमें ही छोड़कर परलोक चले गये थे। परीक्षाके लिये नृसिंहमन्त्री दीक्षा दिलाकर उसे आराधनायें लगा दिया गया। बालक भी सब प्रकारसे भगवान्‌के भजनमें लग गया। उस अनाथ बालककी भक्ति देखकर अनाथोंके वे एकमात्र नाथ प्रकट हो गये। नृसिंहरूपमें दर्शन देकर भगवान्ने बालकको वरदान दिया- 'तुम्हें वेद, वेदाङ्ग, दर्शनशास्त्र आदिका सम्पूर्ण ज्ञान होगा और मेरी भक्ति तुम्हारे हृदयमें निवास करेगी।' बालक और कोई नहीं वे हमारे चरित्रनायक श्रीधर स्वामी ही थे।

अब इस बालककी विद्वत्ताका क्या पूछना। भगवान्को दी हुई विद्याकी लोकमें भला कौन बराबरी कर सकता था। बड़े-बड़े विद्वान् इनका सम्मान करने लगे। राजा इन्हें आदर देने लगे। धनका अभाव नहीं रहा। विवाह हुआ और पत्नी आयी। परंतु भगवान्‌के भक्त विषयोंमें उलझनहीं करते और न दयामय भगवान् ही भक्तोंको संसारके विषयोंमें आसक्त रहने देते हैं। गृहस्थ होकर भी इनका चित घरमें लगता नहीं था। सब कुछ छोड़कर केवल प्रभुका भजन किया जाय, इसके लिये इनके प्राण तड़पते रहते थे। इनकी स्त्री गर्भवती हुई, प्रथम सन्तानको जन्म देकर वह परलोक चली गयी। स्त्रीकी मृत्युसे इन्हें दुःख नहीं हुआ। इन्होंने इसे प्रभुकी कृपा ही माना। परंतु अब नवजात बालकके पालन-पोषणमें ही व्यस्त रहना इन्हें अखरने लगा। ये विचार करने लगे-'मैं मोहवश ही अपने को इस बच्चे का पालन-पोषण करनेवाला मानता हूँ। जीव अपने कर्मोंसे ही जन्म लेता है और अपने कमौका ही फल भोगता है। विश्वम्भर भगवान् ही सबका पालन तथा रक्षण करते हैं।' ये शिशुको भगवान्‌की दयापर छोड़कर भजनका निश्चय करके घर छोड़नेको उद्यत हुए, पर बच्चेके मोहने एक बार रोका। लीलामय प्रभुकी लीलासे इनके सामने घरकी छतसे एक पक्षीका अण्डा भूमिपर गिर पड़ा और फूट गया। अण्डा पक चुका था। उससे लाल-लाल बच्चा निकलकर अपना मुख हिलाने लगा। इनको ऐसा लगा कि इस बच्चेको भूख लगी है; | यदि अभी कुछ न मिला तो यह मर जायगा। उसी समय एक छोटा कीड़ा उड़कर फूटे अण्डेके रसपर आ बैठा और उसमें चिपक गया। पक्षीके बच्चेने उसे खा लिया। भगवान्की यह लीला देखकर श्रीधर स्वामीके हृदयमें बल आ गया। ये वहाँसे काशी चले आये। विश्वनाथपुरीमें आकर ये भगवान के भजनमें तल्लीन हो गये।

गीता, भागवत, विष्णुपुराणपर श्रीधर स्वामीको टीकाएँ मिलती हैं। इनकी टीकाओंमें भक्ति तथा प्रेमका अखण्ड प्रवाह है। एकमात्र श्रीधर स्वामी हो ऐसे हैं कि जिनकी टीकाका सभी सम्प्रदायके लोग आदर करते हैं। कुछ लोगोंने इनकी भागवतको टीकापर आपत्ति की, उस समय इन्होंने वेणीमाधवजीके मन्दिरमें भगवान् के पास ग्रन्थ रख दिया। कहते हैं कि स्वयं भगवान्ने अनेक साधु-महात्माओंके सम्मुख वह ग्रन्थ उठाकर हृदयसे लगा लिया। भगवान्के ऐसे लाइले भक्त हो पृथ्वीको पवित्र करते हैं।



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- shreedharasvaamee

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