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गायकाचार्य तानसेन की मार्मिक कथा
गायकाचार्य तानसेन की अधबुत कहानी - Full Story of गायकाचार्य तानसेन (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [गायकाचार्य तानसेन]- भक्तमाल


तानसेनजीका जन्म ग्वालियर राज्यके बेहट ग्राममें मकरन्द पाण्डेयके घर सन् 1532 ई0 में हुआ था। भगवान् शङ्करकी उपासना के फलस्वरूप मकरन्दको तानसेन जैसे पुत्ररत्नकी प्राप्ति हुई थी पाँच सालतक वे मूक रहे, भगवान् महेश्वरको कृपासे उनका कण्ठ खुल गया। उनमें बाल्यावस्थासे ही सङ्गीत और वैराग्यके प्रति निष्ठा थी। एक दिन उनके मनमें वैराग्यका उदय हुआ, वे गेरुआ वस्त्र धारणकर, हाथमें माला लेकर परमात्माका नाम लेते हुए घरसे निकल पड़े। उस समय रीवाँमें महाराज रामचन्द्र राज करते थे। प्रातः कालका समय था। वे मधुर कण्ठसे सङ्गीत गाते हुए राजपथपर विचरण कर रहे थे, राजाने उन्हें अपने प्रासादमें बुलाकर पूर्णरूपसे स्वागत किया। ये रोवामें रामचन्द्रके ही साथ रहने लगे। धीरे-धीरे उनके सङ्गीत-माधुर्यकी ख्याति देशके कोने कोनेमें फैल गयी। तानसेनके सङ्गीतगुरु वृन्दावनके रसिकराजेश्वर स्वामी हरिदासजी थे। एक बार वे थकावट और अमसे क्लान्त होकर वृन्दावनमें रातको किसी वृक्षके नीचे विश्राम कर रहे थे कि प्रात:काल निधिवनसे कालिन्दी तटपर जाते समय स्वामी हरिदासने उनपर कृपा वृष्टि की। उनके आशीर्वादसे तानसेन महासङ्गीतज्ञ हो गये। भारतके तत्कालीन सम्राट् अकबरकीसभाके नवरलोंमेंसे वे एक प्रमुख रत्न घोषित किये गये। भारतके बड़े-बड़े देशपति और सामन्त उनकी कलाकारितासे धन्य होनेके लिये लालायित और उत्सुक रहा करते थे। अकबरकी राजसभामें तानसेन एक सङ्गीतसाधककी तरह भगवद्भक्तिसम्बन्धी पद ही विशेषरूपसे गाया करते थे। कई बार उनके साथ अकबरने व्रज आदि भक्ति क्षेत्रोंमें आकर भगवान्‌के लीला-गायकोंके सङ्गीत सुने थे। मेवाड़की राजरानी भक्तिमती मीराका अकबरने तानसेनके साथ ही पवित्र दर्शन करके अपने-आपको कृतार्थ किया था। उन्हींके साथ अकबरने स्वामी हरिदासजीके मुखसे भगवद्गुण-गान सुना था।

तानसेनकी सूरदाससे घनी मित्रता थी। दोनों एक दूसरेकी हृदयसे सराहना करते थे। अपने जीवनके अन्तिम समयमें तानसेनने गोसाई विट्ठलनाथजी महाराजसे दीक्षा ले ली। एक बार वे व्रज गये हुए थे। गोसाईंजीने उनका गीत सुना और दस हजार रुपयेकी थैली पुरस्काररूपमें दी, साथ-ही-साथ एक कौड़ी भी थी। कारण पूछनेपर उन्होंने तानसेनसे कहा कि 'तुम बादशाह कलाकार हो, इसलिये उचित पुरस्कार देना आवश्यक था; पर हमारे श्रीनाथजी और नवनीतप्रियके गायकों के सामने तुम्हारा गीत एक कौड़ीका है।' गोसाईंजीकीआज्ञासे तानसेनके सामने गोविन्ददासने विष्णुपद गाया। तानसेनने गोसाईंजीसे ब्रह्मसम्बन्ध लिया, वे प्रायः व्रजमें ही रहा करते थे। एक बार वे श्रीनाथजीके सामने पद गा रहे थे, श्रीनाथजी उनके वश हो गये। व्रजेश्वरके अधरोंपर मुसकानकी ज्योत्स्ना थिरक उठी, तानसेनने सर्वस्व अर्पण कर दिया और आजीवन उन्हींकी सेवा करते रहे।

तानसेन सङ्गीत-साधक और भक्त दोनों थे। वृन्दावनकी प्राकृतिक वासन्ती शोभासे ओतप्रोत रासरसेश्वर श्रीकृष्णसदा उनके नयनोंमें झूला करते थे। उनके श्याम सदा कुञ्जधाममें वसन्त खेलते रहते थे। यद्यपि उन्होंने भगवान्‌को 'बहुनायक' पदसे विभूषित किया, तथापि उनके दर्शनके लिये वे रात-दिन तड़पा करते थे। वे विरही चातककी तरह अपने सङ्गीतसे अपने प्राणेश्वर घनश्यामका आवाहन करके हृदयका विरह-ताप शीतल किया करते थे।

अकबरके देहावसानके बाद भी वे जहाँगीरके शासनकालमें बहुत दिनों तक जीवित रहे। उनकी सङ्गीतसाधना भगवान् नन्दनन्दनके यश-कीर्तनसे कृतार्थ हो गयी।



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