सूरदासको किसी विशेषण या उपाधिसे समलंकृत करनेमें उनकी परमोत्कृष्ट भगवद्भक्ति, अत्यन्त विशिष्ट कवित्व शक्ति और मौलिक अलौकिकताकी उपेक्षाकी आशंका उठ खड़ी होती है; सूरदास पूर्ण भगवद्भक्त थे, अलौकिक कवि थे, महामानव थे। महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य के शब्दों में वे 'भक्तिके सागर और श्रीगोसाई विट्ठलनाथकी सम्मतिमें वे 'पुष्टिमार्गके जहाज' थे। उनका सूरसागर काव्यामृतका असीम सागर है। वे महात्यागी, अनुपम विरागी और परम प्रेमी भक्त थे। भगवान्की लीला ही उनकी अपार, अचल और अक्षुण्ण सम्पत्ति थी।
दिल्लीसे थोड़ी दूरपर सीही गाँवमें एक निर्धन ब्राह्मण के घर संवत् 1535 वि0 में वैशाख शुक्ल पञ्चमीको धरतीपर एक दिव्य ज्योति बालक सूरदासके रूपमें उतरी, चारों ओर शुभ्र प्रकाश फैल गया; ऐसा लगता था कि कलिकालके प्रभावको कम करनेके लिये भगवती भागीरथीने अपना कायाकल्प किया है। समस्त गाँववाले और शिशुके माता-पिता आश्चर्यचकित हो गये। शिशुके नेत्र बंद थे, घरमें 'सूर'ने जन्म लिया। अन्धे बालकके प्रति उनके पिता उदासीन रहने लगे, घरके और लोग भी उनकी उपेक्षा ही करते थे। धीरे-धीरे उनके अलौकिक और पवित्र संस्कार जाग उठे, घरके प्रति उनके मनमें वैराग्यका भाव उदय हो गया, उन्होंने गाँवके बाहर एकान्त स्थानमें रहना निश्चय किया। सूर घरसे निकल पड़े, गाँवसे थोड़ी दूरपर एक रमणीय सरोवरके किनारे पीपल वृक्षके तले उन्होंने अपना निवास स्थिर किया। वे लोगोंको शकुन बताते थे और विचित्रता तो यह थी कि उनकी बतायी बातें सही उतरती थीं।
एक दिन एक जमींदारकी गाय खो गयी। सूरने उसका ठीक-ठीक पता बता दिया। जमींदार उनके चमत्कारसे बहुत प्रभावित हुआ, उसने उनके लिये एक झोपड़ी बनवा दी। सूरका यश दिन दूना रात चौगुना बढ़ने लगा। सुदूर गाँवोंसे लोग उनके पास शकुनपूछनेके लिये अधिकाधिक संख्यामें आने लगे। उनकी मान-प्रतिष्ठा और वैभवमें नित्यप्रति वृद्धि होने लगी। सूरदासकी अवस्था इस समय अठारह सालकी थी। उन्होंने विचार किया कि जिस मायामोहसे उपराम होनेके लिये मैंने घर छोड़ा, वह तो पीछा ही करता आ रहा है। भगवान्के भजनमें विघ्न होते देखकर सूरने उस स्थानको छोड़ दिया। उनको अपना यश तो बढ़ाना नहीं था, वे तो भगवान्के भजन और ध्यानमें रस लेते थे। वे मथुराः आये, उनका मन वहाँ नहीं लगा। उन्होंने गऊघाटपर रहनेका विचार किया। गऊघाट जानेके कुछ दिन पूर्व वे रेणुकाक्षेत्रमें भी रहे, रेणुका (रुनकता) में उन्हें संतों | और महात्माओंका सत्सङ्ग मिला; पर उस पवित्र स्थानमें उन्हें एकान्तका अभाव बहुत खटकता था। रुनकतासे तीन मील दूर पश्चिमकी और यमुनातटपर गऊघाटमें आकर वे काव्य और सङ्गीतशास्त्रका अभ्यास करने लगे। सूरदासकी एक महात्माके रूपमें ख्याति चारों ओर फैलने लगी।
पुष्टिसम्प्रदायके आदि आचार्य महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्य अपने निवास स्थान अड़ैलसे व्रजयात्राके लिये संवत् 1560 वि0 में निकल पड़े। उनकी गम्भीर विद्वत्ता, शास्त्रज्ञान और दिग्विजयकी कहानी उत्तर भारतके धार्मिक पुरुषोंके कानोंमें पड़ चुकी थी। महाप्रभुने विश्रामके लिये गऊघाटपर ही अस्थायी निवास घोषित किया। सूरदासने वल्लभाचार्यके दर्शनकी उत्कट इच्छा प्रकट की, आचार्य भी उनसे मिलना चाहते थे। पूर्वजन्मके शुद्ध तथा परम पवित्र संस्कारोंसे अनुप्राणित होकर सूरने आचार्यके दर्शनके लिये पैर आगे बढ़ा दिये, वे चल पड़े। उन्होंने दूरसे ही चरण-वन्दना की, हृदय चरण-धूलि स्पर्शके लिये आकुल हो उठा। आचार्यने उन्हें आदरपूर्वक अपने पास बैठा लिया, उनके पवित्र संस्पर्शसे सूरके अङ्ग अङ्ग भगवद्भक्तिकी रसामृतलहरीमें निमग्न हो गये। सूरने विनयके पद सुनाये, भक्तनेभगवान् के सामने अपने-आपको पतिलोंका नायक घोषित कर उनकी कृपा प्राप्त करना चाहा था यही उस पदका अभिप्राय था। आचार्यने कहा, 'तुम सूर होकर इस तरह क्यों धिधिया हो। भगवान्का यश सुनाओ, उनकी लीलाका वर्णन करो।' सूर आचार्यचरणके इस आदेश से बहुत प्रोत्साहित हुए। उन्होंने विनम्रतापूर्वक कहा कि 'मैं भगवानकी लीलाका रहस्य नहीं जानता।' आचार्यने सबोधिनी सुनायी, उन्हें भगवान्को लीलाका रस मिला से लीला-सम्बन्धी पद गाने लगे। आचार्यने उन्हें दीक्षा दी। वे तीन दिनोंतक गऊघाटपर रहकर गोकुल चले आये सूरदास उनके साथ थे। गोकुलमें सूरदास नवनीतप्रियका नित्य दर्शन करके लीलाके सरस पद रचकर उन्हें सुनाने लगे। आचार्य वल्लभके भागवत पारायणके अनुरूप ही सूरदास लीलाविषयक पद गाते थे। वे आचार्यके साथ गोकुलसे गोवर्धन चले आये, उन्होंने श्रीनाथजीका दर्शन किया और सदाके लिये उन्होंकी चरण शरणमें जीवन बितानेका शुभ संकल्प कर लिया। श्रीनाथजीके प्रति उनकी अपूर्व भक्ति थी, आचार्यकी कृपासे वे प्रधान कीर्तनकार नियुक्त हुए।
गोवर्धन आनेपर सूरने अपना स्थायी निवास चन्द्रसरोवर के सन्निकट परासोलीमें स्थिर किया। वे वहाँसे प्रतिदिन श्रीनाथजीका दर्शन करने जाते थे और नये-नये पद रखकर उन्हें बड़ी श्रद्धा और भक्तिसे समर्पित करते थे। धीरे-धीरे व्रजके अन्य सिद्ध महात्मा और पुष्टिमार्गके भक्त कवि नन्ददास, कुम्भनदास, गोविन्ददास आदिसे उनका सम्पर्क बढ़ने लगा। भगवद्धभक्तिकी कल्पलताकी शीतल छायामें बैठकर उन्होंने सूरसागर जैसे विशाल ग्रन्थकी रचना कर डाली। आचार्य वल्लभके लीलाप्रवेश के बाद गोसाई विट्ठलने सूरदासकी अष्टछापमें स्थापना की। वे प्रमुख कवि घोषित हुए। कभी-कभी परासोलीसे वे नवनीतप्रियके दर्शनके लिये गोकुल भी जाया करते थे। एक बार सङ्गीत सम्राट् तानसेन अकबरके सामने सूरदासका एक अत्यन्त सरस और भक्तिपूर्ण पद गा रहे थे। बादशाह पदकी सरसतापर मुग्ध हो गये। उन्होंने सूरदाससे स्वयं मिलनेकी इच्छा प्रकट की। उस समय आवश्यक राजकार्यसे मथुरा भी जाना था। वे तानसेनकेसाथ सूरदाससे संवत् 1623 वि0 में मिले। उनकी सहृदयता और अनुनय-विनयसे प्रसन्न होकर सूरदासने पद गाया, जिसका अभिप्राय यह था कि 'हे मन! तुम माधवसे प्रीति करो।' अकबरने परीक्षा ली. उन्होंने अपना यश गानेको कहा। सूर तो राधा चरण चारण चक्रवर्ती श्रीकृष्णके गायक थे, वे गाने लगे
नाहिन रह्यौ हिय महं ठौर। नंदनंदन अछत कैसें आनिए उर और अकबर उनकी निःस्पृहतापर मौन हो गये। भक्त सूरके मनमें सिया श्रीकृष्णके दूसरा रह ही किस तरह पाता। उनका जीवन तो रासेश्वर, लीलाधाम श्रीनिकुञ्जनायकके प्रेम मार्गपर नीलाम हो चुका था।
सूरदास एक बार नवनीतप्रियका दर्शन करने गोकुल गये, वे उनके शृङ्गारका ज्यों-का-त्यों वर्णन कर दिया करते थे। गोसाईनाथ के पुत्र रजीने गोकुलनाथ के कहनेसे उस दिन सूरदासकी परीक्षा ली। उन्होंने भगवान्का अद्भुत शृङ्गार किया, वस्त्रके स्थानपर मोतियोंकी मालाएँ पहनायें सूरने शृङ्गारका अपने दिव्य पसे देखकर वर्णन किया। वे गाने लगे -
देखे री हरि नंगम नंगा।
जलसुत भूषन अंग विराजत,
बसन होन छबि उठत तरंगा ॥
अंग अंग प्रति अमित माधुरी,
निरखि लजित रति कोटि अनंगा।।
किलकत दधिसुत मुख ले मन भरि, सूर हँसत ब्रज जुवतिन संगा ॥ भक्तकी परीक्षा पूरी हो गयी, भगवान्ने अन्धे महाकविकी प्रतिष्ठा अक्षुण्ण रखी, वे भक्तके हृदय कमलपर नाचने लगे, महागायककी सङ्गीत-माधुरीसे रासरसोन्मत्त नन्दनन्दन प्रमत्त हो उठे, कितना मधुर वर्णन था उनके स्वरूपका!
सूरदासजी त्यागी, विरक्त और प्रेमी भक्त थे। श्रीवल्लभाचार्यके सिद्धान्तोंके पूर्ण ज्ञाता थे। उनकी मानसिक भगवत्सेवा सिद्ध थी। वे महाभागवत थे। उन्होंने अपने उपास्य श्रीराधारानी और श्रीकृष्णका यश-वर्णन ही श्रेय मार्ग समझा। गोपी-प्रेमकी ध्वजा भारतीय काव्य साहित्यमें फहरानेमें वे अग्रगण्य स्वीकार किये जाते हैं।
उन्होंने पचासी सालकी अवस्थामें गोलोक प्राप्त किया। एक दिन अन्तिम समय निकट जानकर सूरदासनेश्रीनाथजीकी केवल मङ्गला-आरतीका दर्शन किया। वे नित्य श्रीनाथजीकी प्रत्येक झाँकीका दर्शन करते थे। गोसाई विट्ठलनाथ शृङ्गार-झाँकीमें उन्हें अनुपस्थित देखकर आश्चर्यचकित हो गये। उन्होंने श्यामसुन्दरकी ओर देखा, प्रभुने अपने परम भक्तका पद नहीं सुना था, सूरदासजी उन्हें नित्य पद सुनाया करते थे। कुम्भनदास, गोविन्ददास आदि चिन्तित हो उठे। गोसाईंजीने करुण स्वरसे कहा—'आज पुष्टिमार्गका जहाज जानेवाला है। जिसको जो कुछ लेना हो, वह ले ले।' उन्होंने भक्तमण्डलीको परासोली भेज दिया और राजभोग समर्पित कर वे कुम्भनदास, गोविन्ददास और चतुर्भुजदास आदिके साथ स्वयं गये। इधर सूरकी दशा विचित्र थी। परासोली आकर उन्होंने श्रीनाथजीकी ध्वजाको नमस्कार किया। उसीकी ओर मुख करके चबूतरेपर लेटकर सोचने लगे कि यह काया पूर्णरूपसे हरिकी सेवामें नहीं प्रयुक्त हो सकी। वे अपने दैन्य और विवशताका स्मरण करने लगे। समस्त लौकिक चिन्ताओंसे मन हटाकर उन्होंने श्रीनाथजी और गोसाईंजीका ध्यान किया। गोसाईजी आ पहुँचे, आते ही उन्होंने सूरदासका कर अपने हाथमें ले लिया। महाकविने उनकी चरण-वन्दना की। सूरने कहा कि 'मैं तो आपकी ही प्रतीक्षा कर रहा था।'
वे पद गाने लगे खंजन नैन रूप रस माते।
अतिसय चारु चपल अनियारे, पल पिंजरा न समाते ।।
चलि चलि जात निकट स्त्रवननि के, उलटि पलटि ताटंक फैदाते।
सूरदास अंजन गुन अटके, नतरु अबहिं उड़ि जाते ।।
अन्त समयमें उनका ध्यान युगलस्वरूप श्रीराधामनमोहनमें लगा हुआ था। श्रीविट्ठलनाथके यह पूछनेपर कि 'चित्तवृत्ति कहाँ है?' उन्होंने कहा कि 'मैं राधारानीकी वन्दना करता हूँ, जिनसे नन्दनन्दन प्रेम करते हैं।'
चतुर्भुजदासने कहा कि 'आपने असंख्य पदोंकी रचना की, पर श्रीमहाप्रभुका यश आपने नहीं वर्णन किया।' सूरकी गुरु-निष्ठा बोल उठी कि 'मैं तो उन्हें साक्षात् भगवान्का रूप समझता हूँ, गुरु और भगवान्में तनिक भी अन्तर नहीं है। मैंने तो आदिसे अन्ततक उन्हींका यश गाया है।' उनकी रसनाने गुरु-स्तवन किया।
भरोसो दृढ़ इन चरननि केरो ।
श्रीबल्लभ नख चंद्र छटा बिनु सब जग माझ अँधेरो ॥
साधन नाहिं और या कलि में जासों होय निबेरो।
'सूर' कहा कहै द्विविधि आँधरो बिना मोल को चेरो ॥
चतुर्भुजदासकी विशेष प्रार्थनापर उन्होंने उपस्थित | भगवदीयोंको पुष्टिमार्गके मुख्य सिद्धान्त संक्षेपमें सुनाये ! उन्होंने कहा कि 'गोपीजनोंके भावसे भावित भगवान्के भजनसे पुष्टिमार्गके रसका अनुभव होता है। इस मार्गमें केवल प्रेमकी ही मर्यादा है।' सूरदासने श्रीराधाकृष्णकी रसमयी छविका ध्यान किया और वे सदाके लिये ध्यानस्थ हो गये।
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bharoso driढ़ in charanani kero .
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