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रसिकशेखर स्वामी हरिदासजी की मार्मिक कथा
रसिकशेखर स्वामी हरिदासजी की अधबुत कहानी - Full Story of रसिकशेखर स्वामी हरिदासजी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [रसिकशेखर स्वामी हरिदासजी]- भक्तमाल


पाँच सौ साल पहलेकी बात है, वृन्दावनसे आधे कोसकी दूरीपर राजपुर गाँव सं0 1530 वि0 के लगभग स्वामी हरिदासजीका जन्म हुआ। उनके पिताका नाम गंगाधर और माताका चित्रादेवी था। वे ब्राह्मण थे। बाल्यावस्था से ही उन्हें भगवान्‌को लोलाके अनुकरणके प्रति प्रेम था और वे खेलमें भी बिहारीजीकी सेवायुक्त क्रीड़ामें ही तत्पर रहते थे। माता-पिता भगवान्‌के सीधे सादे भक्त थे, हरिदासके चरित्र-विकासपर उनके सम्पर्क और सङ्ग तथा शिक्षा-दीक्षा और रीति-नीतिका विशेषप्रभाव पड़ा। हरिदासका मन घर-गृहस्थीमें बहुत ही कम लगता था, वे उपवनोंमें, सर-सरिताके तटपर और एकान्त स्थानोंमें विचरण किया करते थे। एक दिन अवसर पाकर पचीस वर्षकी अवस्थामें एक विरक्त वैष्णवकी तरह वे घरसे अचानक निकल पड़े। माता पिताका स्नेह भगवदनुरागकी रसमयी सीमामें बढ़नेसे उन्हें रोक न सका। परिवार सुख वैराग्यकी अचल नींवको न हिला सका। बचपनमें उन्हें काव्य और | सङ्गीतकी सुन्दर शिक्षा मिली थी, इन दोनों कलाओंकेअभ्यासका सुख उन्होंने भगवान् श्रीकृष्णके चरणोंपर निछावरकर उनके सरस यश-गानको ही अपनी साधनाकी। परमोत्कृष्ट सिद्धि समझा। वे घरसे सीधे वृन्दावन आये, अपने उपास्यदेवता विहारीजीके दर्शन किये और उन्हींके शरणागत होकर निधिवनमें रहने लगे। आशुधीरजी उनके दीक्षा-गुरु थे। धीरे-धीरे उनके त्याग, निःस्पृहता, रसोपासना और सङ्गीतदक्षताकी प्रसिद्धि चारों ओर भक्त, संत तथा सङ्गीतज्ञ मण्डलीमें व्याप्त हो गयी। लोग उनके सरस चमत्कार और गम्भीर जीवनचर्यासे आकृष्ट होकर सुदूर प्रान्तोंसे दर्शनके लिये आने लगे। शिष्योंकी संख्या बढ़ने लगी।

भावावेशमें सदा उनकी सहज समाधि-सी लगी रहती थी। प्रिया-प्रियतम श्रीराधा-कृष्णके सौन्दर्य और माधुर्यके महासागरमें वे रात-दिन डूबे रहते थे। उनका वही अचल धन था। उन्होंने बड़ी सरलतासे भगवान्का स्तवन करते हुए कहा है-'हरि! तुम जिस तरह हमें रखना चाहते हो, उसी तरह रहनेमें हमें सन्तोष है।' उनका पूर्ण विश्वास था कि सब कुछ विहारी-विहारिनिजीकी कृपासे ही होता है। हरिदास निम्बार्क सम्प्रदायके अनुयायी थे, उनकी उपासना सखीभावकी थी और भक्ति शृङ्गारमूलक रासेश्वरकी सौन्दर्य-निष्ठाकी प्रतीक थी। उनके सिद्धान्तसे भोक्ता केवल भगवान् हैं और समस्त चराचर उनका भोग्य है। उनकी कुटीके सामने दर्शनके लिये बड़े-बड़े राजा-महाराजाओंकी भीड़ लगी रहती थी, पर उन्होंने कभी किसीकी मुँहदेखी नहीं की। करका करवा ही उनका एकमात्र सामान था।

एक बार वे भगवती यमुनाकी रेतीमें बैठे हुए थे। वसन्त ऋतुका यौवन अपनी पराकाष्ठापर था। चारों ओर कोयलकी सुरीली और मीठी कण्ठध्वनि कुञ्ज-कुञ्ज में अनुपम उद्दीपनका संचार कर रही थी। लताएँ कुसुमित होकर पादपोंके गाढ़ालिङ्गनमें शयन कर रही थीं, वृन्दावनके मन्दिरोंमें धमारकी धूम थी। रसिक हरिदासका मन डोल उठा। उनके प्राणप्रिय रास-विहारी और उनकी रामेश्वरी श्रीराधारानीकी कृपादृष्टिकी मनोरम दिव्यता उनके नयनोंमें समा गयी, वृन्दावनकी चिन्मयताकी आरसी में अपने उपास्यकी झाँकी करके वे ध्यानस्थ होगये। उन्हें तनिक भी बाह्य ज्ञान नहीं था, वे मानस जगत्की सोमामें भगवदीय कान्तिका दर्शन करने लगे। भगवान् राधारमण रंगोत्सवमें प्रमत्त होकर राधारानीके अङ्ग अङ्गको करमें कनक पिचकारी लेकर सराबोर कर रहे थे। ललिता, विशाखा आदि रासेश्वरीकी ओरसे नन्दनन्दनपर गुलाल और अबीर फेंक रही थीं, यमुना जल रंगसे लाल हो चला था, बालुकाओंमें गुलाल और चुकेके कण चमक रहे थे। भगवान् होली खेल रहे थे। हरिदासके प्राणोंमें रंगीन चेतनाएँ लहराने लगीं। नन्दनन्दनके हाथकी पिचकारी छूट ही तो गयी, हरिदासके तन-मन भगवान् के रंगमें शीतल हो गये, उनका अन्तर्देश गहगहे रंगमें सराबोर था। भगवान्ने भक्तको ललकारा। हरिदासने भगवान् के पीताम्बरपर इत्रकी शीशी उड़ेल दी इनकी शीशी जिसने भेंट की थी, वह तो उनके इस चरित्रसे आश्चर्यचकित हो गया। जिस वस्तुको उसने इतने प्रेमसे प्रदान किया था, उसे उन्होंने रेतीमें छिड़ककर अपार आनन्दका अनुभव किया। रसिक हरिदासकी आँखें खुलों, उन्होंने उस व्यक्तिको मानसिक वेदनाकी बात जान ली और शिष्योंके साथ श्रीविहारीजीके दर्शनके लिये भेजा। उस व्यक्तिने विहारीजीका वस्त्र इत्रसे सराबोर देखा और देखा, पूरा मन्दिर विलक्षण सुगन्धसे परिपूर्ण था वह बहुत लज्जित हुआ; पर भगवान्ने उसकी परम प्यारी भेंट स्वीकार कर ली. यह सोचकर उसने अपने सौभाग्यको सराहना की।

एक बार एक धनी तथा कुलीन व्यक्तिने हरिदाससे दीक्षित होनेकी इच्छा प्रकट की और उन्हें पारस भेटस्वरूप दिया। हरिदासने पारसको पत्थर कहकर यमुनाजीमें फेंक दिया और उसे शिष्य बना दिया।

अपने दरबारी गायक भक्तवर तानसेनसे एक बार सम्राट् अकबरने पूछा था- 'क्या तुमसे बढ़कर भी कोई गानेवाले व्यक्ति हैं?' तानसेनने विनम्रतापूर्वक स्वामी हरिदासजीका नाम लिया। अकबरने उन्हें राजसभामें आमन्त्रित करना चाहा; पर तानसेनने निवेदन किया कि वे कहीं आते-जाते नहीं। निधिवन जानेका निश्चय हुआ। हरिदासजी तानसेनकै सङ्गीत-गुरु थे, उनके सामने जानेमें तानसेनके लिये कुछ भी अड़चन नहीं थी। रहीअकबरकी बात, सो उन्होंने वेष बदलकर एक साधारण नागरिकके रूपमें उनका दर्शन किया। तानसेनने जान बूझकर एक गीत गलत रागमें गाया। स्वामी हरिदासने उसे परिमार्जित और शुद्ध करके कोकिलकण्ठसे जब अलाप भरना आरम्भ किया, तब सम्राट् अकबरने सङ्गीतकी दिव्यताका अनुभव किया। तानसेनने कहा- 'स्वामीजी सम्राटोंके सम्राट् भगवान् श्रीकृष्णके गायक हैं।'

एक बार श्रीकृष्णचैतन्य गौराङ्ग महाप्रभुसे वे बात कर रहे थे। ठीक उसी समय राधाकुण्ड निवासी रघुनाथदास मानसिक शृङ्गारमें खोयी हुई प्रियाजीकी पुष्प वेणी खोजते उनके निकट आ पहुँचे। स्वामीजीने अश्वत्थ वृक्षके नीचे पता लगाकर उनकी मानसिकसेवाकी समस्त व्यवस्थाका निरूपण कर दिया।

स्वामी हरिदासने रसकी प्रीति-रीति चलायी; जिस पथपर यती, योगी, तपी और संन्यासी ध्यान लगाकर भगवान्‌के दर्शनसे अपनी साधना सफल करते हैं और फिर भी उनके रूप-रसकी कल्पना नहीं कर पाते, उसीको स्वामी हरिदासने अपनाकर भगवान् 'रसो वै सः' को मूर्तिमान् पा लिया।

स्वामी हरिदासजी निम्बार्क सम्प्रदायके अन्तर्गत 'टट्टी संस्थान' के संस्थापक थे। संवत् 1632 वि0 तक वे निधिवनमें विद्यमान | वृन्दावनकी नित्य नवीन भगवल्लीलामयी चिन्मयताके सौन्दर्यमें उनकी रसोपासनाने विशेष अभिवृद्धि की।



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svaamee haridaasane rasakee preeti-reeti chalaayee; jis pathapar yatee, yogee, tapee aur sannyaasee dhyaan lagaakar bhagavaan‌ke darshanase apanee saadhana saphal karate hain aur phir bhee unake roopa-rasakee kalpana naheen kar paate, useeko svaamee haridaasane apanaakar bhagavaan 'raso vai sah' ko moortimaan pa liyaa.

svaamee haridaasajee nimbaark sampradaayake antargat 'tattee sansthaana' ke sansthaapak the. sanvat 1632 vi0 tak ve nidhivanamen vidyamaan | vrindaavanakee nity naveen bhagavalleelaamayee chinmayataake saundaryamen unakee rasopaasanaane vishesh abhivriddhi kee.

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