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भक्त श्रीगोविन्ददासजी (1) की मार्मिक कथा
भक्त श्रीगोविन्ददासजी (1) की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त श्रीगोविन्ददासजी (1) (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त श्रीगोविन्ददासजी (1)]- भक्तमाल


श्रीगोविन्ददासजीका जन्म व्रजके निकट आँतरी ग्राममें सं0 1562 वि0 में हुआ था। वे ब्राह्मण थे। बाल्यावस्थासे ही उनमें वैराग्य और भक्तिके अङ्कुर प्रस्फुटित हो रहे थे। कुछ दिनोंतक गृहस्थाश्रमका उपभोग करनेपर उन्होंने घर छोड़ दिया, वैराग्य ले लिया। महावनमें जाकर भगवान्‌के भजन और कीर्तनमें समयका सदुपयोग करने लगे। महावनके टीलेपर बैठकर शास्त्रोक्त विधिसे कीर्तन करते थे। धीरे-धीरे उनकी प्रसिद्धि दूर-दूरतक फैल गयी। वे गानविद्याके आचार्य थे। काव्य एवं सङ्गीतका पूर्ण रूपसे उन्हें ज्ञान था । गोसाई विट्ठलनाथजी उनकी भक्ति-निष्ठा और सङ्गीत माधुरीसे परिचित थे यद्यपि दोनोंका साक्षात्कार नहीं हुआ था, तो भी दोनों एक-दूसरेकी ओर आकृष्ट थे। गोविन्दस्वामीने श्रीविट्ठलनाथजीसे सं0 1592 वि0 में गोकुल आकर ब्रह्मसम्बन्ध ले लिया। उनके परम कृपापात्र और भक्त हो गये। गोसाईंजीने कर्म और भक्तिका तात्त्विक विवेचन किया। उनकी कृपासे गोविन्द स्वामीसे गोविन्ददास हो गये। उन्होंने गोवर्धनको ही अपना स्थायी निवास स्थिर किया। गोवर्धनके निकट कदम्ब वृक्षोंकी एक मनोरम वाटिकामें वे रहने लगे। वह स्थान 'गोविन्ददासकी कदमखण्डी' नामसे प्रसिद्ध है। वे सरस पदोंकी रचना करके श्रीनाथजीकी सेवा करते थे। व्रजके प्रति उनका दृढ़ अनुराग और प्रगाढ़ आसक्ति थी । उन्होंने व्रजकी महिमाका बड़े सुन्दर ढंगसे बखान किया है। वे कहते हैं-'वैकुण्ठ जाकर क्या होगा, न तो वहाँ कलिन्दगिरिनन्दिनीतटको चूमनेवाली सलोनी लतिकाओंकीशीतल और मनोरम छाया है, न भगवान् श्रीकृष्णकी मधुर वंशीध्वनिकी रसालता है; न तो वहाँ नन्द-यशोदा हैं और न उनके चिदानन्दघनमूर्ति श्यामसुन्दर हैं; न तो वहाँ व्रजरज है, न प्रेमोन्मत्त राधारानीके चरणारविन्द मकरन्दका रसास्वादन है।'

गोविन्ददास स्वरचित पदोंको श्रीनाथजीके सम्मुख गाया करते थे। भक्तिपक्षमें उन्होंने दैन्य-भाव कभी नहीं स्वीकार किया। जिनके मित्र अखिल लोकपति साक्षात् नन्दनन्दन हों, दैन्य भला उनका स्पर्श ही किस तरह कर सकता है। गोविन्ददासका तो स्वाभिमान भगवान्‌की सख्य-निधिमें संरक्षित और पूर्ण सुरक्षित था । गोसाईं विट्ठलनाथने उन्हें कवीश्वरकी संज्ञासे समलङ्कृतकर अष्टछापमें सम्मिलित किया था। सङ्गीतसम्राट् तानसेन उनकी सङ्गीत-माधुरीका आस्वादन करनेके लिये कभी-कभी उनसे मिलने आया करते थे।

एक समय आँतरी ग्रामसे कुछ परिचित व्यक्ति उनसे मिलने आये, वे यशोदाघाटपर स्नान कर रहे थे। उन्होंने गाँववालोंको पहचान लिया; पर वे नहीं जान सके कि गोविन्दस्वामी वे ही हैं। उन्होंने गोविन्ददाससे पूछा कि 'गोविन्दस्वामी कहाँ हैं?' गोविन्ददासने कहा- 'वे तो मरकर गोविन्ददास हो गये।' गाँववालोंने उनके चरणका स्पर्श किया, उनके पवित्र दर्शनसे अपने सौभाग्यकी सराहना की।

एक दिन गोविन्ददास यशोदाघाटपर बैठकर बड़े प्रेमसे भैरव राग गा रहे थे। प्रातः कालके शीतल शान्त वातावरणमें चराचर जीव तन्मय होकर भगवान्‌की कीर्तिमाधुरीका पान कर रहे थे। बहुत-से यात्री एकत्र हो गये। भक्त भगवान्के रिझानेमें निमग्न थे। वे गा रहे थे-


आओ मेरे गोविन्द, गोकुल चंदा भट्ट बड़ि बार खेलत जमुना तट, बदन दिखाय देहु आनंदा ॥

गायन की आवन की विरियों, दिन मनि किरन होति अति मंदा।

आए तात मात छतियाँ लगे, 'गोविंद' प्रभु ब्रज जन सुख कंदा ॥

भक्तके हृदयके वात्सल्यने भैरव रागका माधुर्य बढ़ा दिया। श्रोताओंमें बादशाह अकबर भी प्रच्छन्न वेषमें उपस्थित थे। उनके मुखसे अनायास 'वाह वाह' की ध्वनि निकल पड़ी। गोविन्ददास पश्चात्ताप करने लगे और उन्होंने उसी दिनसे श्रीनाथजीके सामने भैरव राग गाना छोड़ दिया! उनके हृदयमें अपने प्राणेश्वर प्रेमदेवता ब्रजचन्द्रके लिये कितनी पवित्र निष्ठा थी।

गोविन्ददासजीकी भक्ति सख्य भावकी थी, श्रीनाथजी साक्षात् प्रकट होकर उनके साथ खेला करते थे, बाल लीलाएँ किया करते थे गोविन्ददास सिद्ध महात्मा और उच्च कोटिके भक्त थे। एक बार रासेश्वर नन्दनन्दन उनके साथ खेल रहे थे, कौतुकवश गोविन्ददासने श्रीनाथजीको कंकड़ मारा। गोसाई विट्ठलनाथजीसे पुजारीने शिकायत की, गोविन्ददासने निर्भयतापूर्वक उत्तर दिया कि आपके लालाने तो तीन कंकड़ मारे थे। श्रीविट्ठलने उनके सौभाग्यकी सराहना की।

भक्तोंकी लीलाएँ बड़ी विचित्र होती हैं। उनको समझने के लिये प्रेमपूर्ण हृदय चाहिये। एक बार गोविन्ददासजी श्रीनाथजी के साथ गुठी खेल रहे थे, राजभोगका समय हो रहा था, भगवान् बिना दाँव दिये ही मन्दिरमें चले गये। गोविन्ददासने पीछा किया, श्रीनाथजीको गुल्ली मारी। प्रेमराज्यमें रमण करनेवाले सखाकी भावना मुखिया और पुजारियोंकी समझमें न आयी, उन्होंने उनको तिरस्कारपूर्वक मन्दिरसे बाहर निकाल दिया। गोविन्ददास रास्तेपर बैठ गये; उन्होंने सोचा कि श्रीनाथजी इसी मार्गसे जायेंगे, बदला लेनेमें सुविधा होगी। उधर भगवान्के सामने राजभोग रखा गया। मित्र रूठकर चले गये, विश्वपतिके दरवाजेसे अपमानित होकर गये थे। भोगकी थाली पड़ी रह गयी, भोग अस्वीकार हो गया। सखा भूखे हों, रूठे हों और भगवान् भोग स्वीकार करें? असम्भव बात थी। मन्दिरमें हाहाकार मच गया, व्रजके रंगीले ठाकुर रूठ गये, उन्हें तो उनके सखा ही मनापायेंगे। विट्ठलनाथजीने गोविन्ददासकी बड़ी मनौती की, वे उनके साथ मन्दिर आ गये। भगवान्‌ने राजभोग स्वीकार किया, गोविन्ददासने भोजन किया, मित्रता भगवान्के पवित्र यशसे धन्य हो गयी।

एक बार पुजारी श्रीनाथजीके लिये राजभोगकी थाली ले जा रहा था; गोविन्ददासने कहा कि पहले मुझे खिला दो। पुजारीने गोसाईंजीसे कहा। गोविन्ददासने सख्यभावके आवेशमें कहा कि 'आपके लाला खा पीकर मुझसे पहले ही गाय चराने निकल जाते हैं।' गोसाईजीने व्यवस्था कर दी कि राजभोगके साथ-ही साथ गोविन्ददासको भी खिला दिया जाय।

भगवान्‌को जो जिस भावसे चाहते हैं, वे उसी भावसे उनके वशमें हो जाते हैं। एक समय गोविन्ददासको श्रीनाथजीने प्रत्यक्ष दर्शन दिया। वे श्यामढाकपर बैठकर वंशी बजा रहे थे। इधर मन्दिरमें उत्थापनका समय हो गया था। गोसाईजी स्नान करके मन्दिरमें पहुँच गये थे। श्रीनाथजी उतावली में वृक्षसे कूद पड़े, उनका बागा वृक्षमें उलझ कर फट गया। श्रीनाथजीका पट खुलनेपर गोसाईं विट्ठलनाथने देखा कि उनका बागा फटा हुआ है। बादमें गोविन्ददासने रहस्योद्घाटन किया, गोसाईजीको साथ ले जाकर वृक्षपर लटका हुआ चीर दिखलाया। गोविन्ददासका सखाभाव सर्वथा सिद्ध था।

कभी-कभी कीर्तन गानके समय श्रीनाथजी स्वयं उपस्थित रहते थे, एक बार उन्हें श्रीनाथजीने राधारानीसहित प्रत्यक्ष दर्शन दिये। श्रीनाथजी स्वयं पद गा रहे थे और श्रीराधाजी ताल दे रही थीं। गोविन्ददासने श्रीगोसाईजीसे इस घटनाका स्पष्ट वर्णन किया।

श्रीनाथजी उनसे प्रकटरूपसे बात करते थे, पर देखनेवालोंकी समझमें कुछ भी नहीं आता था। एक समय शृङ्गारदर्शनमें श्रीनाथजीकी पाग ठीकरूपसे नहीं बाँधी गयी थी, गोविन्ददासने मन्दिरमें प्रवेश करके उनकी पाग ठीक की। भक्तोंके चरित्रकी विलक्षणताका पता भगवान्के भक्तोंको ही लगता है।

गोविन्दस्वामीने गोवर्धनमें एक कन्दराके निकट संवत् 1642 वि0 में लीला प्रवेश किया। उन्होंने आजीवन श्रीराधा-कृष्णकी शृङ्गार- लीलाके पद गाये, भगवान्‌को अपनी सङ्गीत और काव्य-कलासे रिझाया।



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aae taat maat chhatiyaan lage, 'govinda' prabhu braj jan sukh kanda ..

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