दक्षिण भारतके वारसी नामक ग्राममें जोग परमानन्दजीका जन्म हुआ था। जब ये छोटे बालक थे, इनके गाँवमें भगवान की कथा तथा कीर्तन हुआ करता था। इनकी कथा सुननेमें रुचि थी। कोर्तन इन्हें अत्यन्त प्रिय था। कभी रातको देरतक कथा या कीर्तन होता रहता तो ये -से भूख-प्यास भूलकर मन्त्रमुग्ध से सुना करते। एक दिन कथा सुनते समय जोग परमानन्दजी अपने-आपको भूल गये। व्यासगदीपर बैठे वक्ता भगवान्के त्रिभुवन कमनीय स्वरूपका वर्णन कर रहे थे। जोग परमानन्दका वित्त उसी श्यामसुन्दरकी रूपमाधुरीके सागरमें डूब गया। नेत्र खोला तो देखते हैं कि वही वनमाली, पीताम्बरधारी प्रभु सामने खड़े हैं। परमानन्दकी अश्रुधाराने प्रभुके लाल-लाल श्रीचरणोंको पखार दिया और कमललोचन श्रीहरिके नेत्रोंसे कृपाके अमृतबिन्दुओंने गिरकर परमानन्दके मस्तकको धन्य बना दिया।
लोग कहने लगे कि जोग परमानन्द पागल हो गये। संसारकी दृष्टिमें जो विषयकी आसक्ति छोड़कर, इस बिषके प्यालेको पटककर ब्रजेन्द्र-सुन्दरमें अनुरक्त होता है, जो उस अमृतके प्यालेको होठोंसे लगाता है, उसे यहाँको मृग मरीचिकामें दौड़ते, तड़पते, जलते प्राणी पागल ही कहते हैं। पर जो उस दिव्य सुधा रसका स्वाद पा चुका, वह इस गड्ढे-जैसे संसारके सड़े कीचड़की और कैसे देख सकता है। परमानन्दको तो अब परमानन्द मिल गया। जगत्के भोग और मान बड़ाईसे उन्हें क्या लेना-देना। अब तो वे बराबर 'राम कृष्ण हरि' जपते हैं और कभी नाचते हैं, कभी रोते हैं, कभी हँसते हैं, कभी भूमिपर लोटते हैं 'विठ्ठल, विठ्ठल' कहते हुए। उनका चित्त अब और कुछ सोचता ही नहीं।
जोग परमानन्दजी अब पण्ढरपुर आ गये थे। वे पण्डरीनाथका पोडशोपचारसे नित्य पूजन करते और उसके पश्चात् मन्दिरके बाहर भगवान्के सामने गीताका एक श्लोक पढ़कर साष्टाङ्ग दण्डवत् करते। इस प्रकार सात सौ श्लोक पढ़कर सात सौ दण्डवत् नित्य करनेका उन्होंने नियम बना लिया था। सम्पूर्ण गोताका पाठ करकेसात सौ दण्डवत् पूरी हो जानेपर हो वे भिक्षा करने जाते और भिक्षामें प्रात अन्नसे भगवान्को नैवेद्य अर्पण करके प्रसाद पाते।
गरमी हो या सर्दी, पानी पड़े या पत्थर, जोग परमानन्दजीको तो सात सौ दण्डवत् नित्य करनी ही हैं। नेत्रोंके सम्मुख पाण्डुरङ्गका श्रीविग्रह, मुखमें गोताके श्लोक और हृदयमें भगवान्का ध्यान, सारा शरीर दण्डवत् करनेमें लगा है। ज्येष्ठमें पृथ्वी तवे-सी जलती हो तो भी परमानन्दजीको दण्डवत् चलेगी और पौष-माघमें बरफ सी शीतल हो जाय तो भी दण्डवत् चलेगी। वर्षा हो रही है. भूमि कीचड़से ढक गयी है; पर परमानन्दजी भोगते हुए कीचड़से लथपथ दण्डवत् करते जा रहे हैं।
एक बार एक साहूकार बाजार करने पण्डरपुर आया। योग परमानन्दको तितिक्षा देखकर उसके मनमें श्रद्धा हुई। रेशमी कपड़ेका एक थान लेकर वह उनके पास पहुँचा और स्वीकार करनेकी प्रार्थना करने लगा। परमानन्दजीने कहा- 'भैया! मैं इस वस्त्रको लेकर क्या करूंगा। मेरे लिये तो फटे चिथड़े ही पर्याप्त हैं। इस सुन्दर वस्त्रको तुम श्रीपाण्डुरङ्गको भेंट करो।' परंतु व्यापारी समझानेसे मान नहीं रहा था। वह आग्रह करता ही जाता था। वस्त्र न लेनेसे उसके हृदयको दुःख होगा, यह देखकर परमानन्दजीने वह रेशमी वस्त्र स्वीकार कर लिया।
जोग परमानन्दजीने रेशमी वस्त्र स्वीकार तो किया था व्यापारीको कष्ट न हो इसलिये। पर जब वस्त्र ले लिया, तब इच्छा जगी कि उसे पहनना भी चाहिये। दूसरे दिन वे रेशमी वस्त्र पहनकर भगवान्की पूजा करने आये। आज भी वर्षा हो रही थी। पृथ्वी कीचड़से भरी थी। परमानन्दका मन वस्त्रपर लुभा गया। पूजा करके दण्डवत् करते समय उन्होंने वस्त्र समेट लिये। आज उनकी दृष्टि पाण्डुरङ्ग प्रभुपर नहीं थी-वे बार-बार वस्त्र देखते थे, वस्त्र सँभालते थे। दण्डवत् ठीक नहीं होती थी क्योंकि मूल्यवान् नवीन रेशमी वस्त्रके कीचड़से खराब हो जानेका भय था भक्ति मार्गमें दयामय भगवान अपने भक्तको सदा उसी प्रकार रक्षा करते रहतेहैं, जैसे स्नेहमयी माता अपने अबोध शिशुकी करती है। बालक खिलौना समझकर जब सर्प या अग्रिके अङ्गारे लेने दौड़ता है तब जननी उसे उठाकर गोदमें ले लेती है। जहाँ मायाके प्रलोभन दूसरे साधकोंको भुलावेमें डालकर पथभ्रष्ट कर देते हैं, वहाँ भक्तका उनसे कुछ भी नहीं बिगड़ता। जो अपनेको श्रीहरिके चरणोंमें छोड़ चुका, वह जब कहीं भूल करता है, तब झट उसे वे कृपासिन्धु सुधार देते हैं। वह जब कहीं मोहमें पड़ता है। तब वे हाथ पकड़कर उसे वहाँसे निकाल लाते हैं। आज जोग परमानन्द रेशमी वस्त्रोंके मोहमें पड़ गये थे। अचानक हृदयमें किसीने पूछा- 'परमानन्द ! तू वस्त्रोंको देखने लगा ! मुझे नहीं देखता आज तू?' परमानन्दने दृष्टि उठायी तो जैसे सम्मुख श्रीपाण्डुरङ्ग कुछ मुसकराते, उलाहना देते खड़े हों। झट उस रेशमी वस्त्रको टुकड़े टुकड़े फाड़कर उन्होंने फेंक दिया।
'मुझसे बड़ा पाप हुआ। मैं बड़ा अधम हूँ।' जोग परमानन्दको बड़ा ही दुःख हुआ। वे अपने इस अपराधका प्रायश्चित्त करनेका विचार करके नगरसे बाहर चले गये। दो बैलोंको जुएमें बाँधा और अपनेको रस्सीके सहारे जुएसे बाँध दिया। चिल्लाकर बैलोंको भगा दिया।शरीर पृथ्वी में घसिटता जाता था, कंकड़ोंसे छिल रहा था, काँटे चुभते और टूटते जाते थे, रक्तकी धारा चल रही थी; किंतु परमानन्द उच्चस्वरसे प्रसन्न मनसे 'राम! कृष्ण ! गोविन्द !' की टेर लगा रहे थे। जैसे-जैसे शरीर छिलता, घसिटता, वैसे-वैसे उनकी प्रसन्नता बढ़ती जाती थी। वैसे-वैसे उनका स्वर ऊँचा होता जाता था और वैसे-वैसे बैल भड़ककर जोरसे भागते जाते थे।
भक्तवत्सल प्रभुसे अपने प्यारे भक्तका यह कष्ट देखा नहीं गया। वे एक ग्वालेके रूपमें प्रकट हो गये। बैलोंको रोककर जोग परमानन्दको उन्होंने रस्सीसे खोल दिया और बोले—'तुमने अपने शरीरको इतना कष्ट क्यों दिया। भला, तुम्हारा ऐसा कौन-सा अपराध था। तुम्हारा शरीर तो मेरा हो चुका है। तुम जो कुछ खाते हो, वह मेरे ही मुखमें जाता है। तुम चलते हो तो मेरी उससे प्रदक्षिणा होती है। तुम जो भी बातें करते हो, वह मेरी स्तुति है। जब तुम सुखसे लेट जाते हो तब वह मेरे चरणोंमें तुम्हारा साष्टाङ्ग प्रणाम हो जाता है। तुमने यह कष्ट उठाकर मुझे रुला दिया है।' प्रभुने उठाकर उन्हें हृदयसे लगा लिया। जोग परमानन्द श्यामसुन्दरसे मिलकर उनमें एकाकार हो गये।
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