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भक्त बालीग्रामदास की मार्मिक कथा
भक्त बालीग्रामदास की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त बालीग्रामदास (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त बालीग्रामदास]- भक्तमाल


श्रीजगन्नाथपुरीसे दो कोसपर बालीग्राम नामका एक कस्बा है। इस ग्राममें 'दासिया बावरी' नामका एक भील रहता था। दासिया बहुत गरीब था। कपड़े बुनकर किसी प्रकार अपना और अपनी स्त्रीका पेट भर पाता था। उसके कोई सन्तान नहीं थी। भील होनेपर भी इन स्त्री पुरुषको भगवान्‌का कीर्तन सुनना बहुत प्रिय लगता था। कहीं भी गाँवमें कथा-कीर्तन होता तो यह वहाँ जाता और पीछे बैठा सुना करता । कथा या कीर्तनके पदोंका अर्थ तो भला, इन अशिक्षितोंकी समझमें क्या आता; पर सुननेमें ही इनका प्रेम था ।

भगवन्नामकी अपार महिमा है। बिना समझे भी उसे सुनना, बोलना बहुत प्रभाव रखता है। दीर्घकालतककीर्तन सुनते-सुनते दासिया भीलका हृदय भी शुद्ध हो गया। भगवान्‌में उसकी रुचि हो गयी। धीरे-धीरे उसके मनमें वैराग्यका उदय हुआ। अब उसे खाने-पीनेकी भी सुधि नहीं रहती। अनमने भावसे ही वह घरके सब काम करता। उसे अब एक ही चिन्ता रहती - 'मैंने बड़ी नीच जातिमें जन्म लिया है। मुझे तो भगवान्‌की भक्ति क्या है, यह भी मालूम नहीं। मेरा मनुष्य-जीवन व्यर्थ गया । श्रीहरिके पावन पादपद्मोंको मैं कैसे पा सकता हूँ।'

श्रीजगन्नाथजीकी रथ यात्राका समय आया। दूर दूरके यात्री रथ-यात्राके दर्शन करने पुरी आने लगे। बालीग्राम तो पुरीसे केवल दो ही कोसपर था। दासियाको इस बातके सोचनेसे ही बड़ा कष्ट होने लगा कि इतनेसमीप रहकर भी मैंने श्रीजगन्नाथस्वामीकी रथ यात्राके दर्शन नहीं किये। इस वर्ष दूसरे यात्रियोंके साथ वह भी पुरी गया। रथ यात्राके दिन विशाल रथमें बैठे उन श्रीजगन्नाथजीके दर्शन करके, जो दोनोंके एकमात्र सर्वस्व हैं, वह आनन्दसिन्धुमें डूब गया। वह भगवान्‌के ध्यान में निमन हो गया। ध्यानमें ही उसने भगवान्के ज्योतिर्मय चतुर्भुज स्वरूपके दर्शन किये। अब तो दासिया के नेत्रोंसे धाराएँ चलने लगीं। दोनों हाथ उठाकर वह प्रार्थना करने लगा-'प्रभो! आपने जब दया करके मुझे दर्शन दिये हैं, तब मैं अब पतित नहीं हूँ। आपको इन नेत्रोंसे देखकर भी क्या कोई पतित रह सकता है। मुझ सरीखे पामर महापापीके भाग्यमें आपके दर्शन कहीं प्रभो! यह तो आपकी ही दया है। मेरे स्वामी! अब मुझे अपना लो। मेरे पाप ताप सदाके लिये दूर कर दो! अपने विरदकी रक्षा करो, नाथ!"

दासिया रथ यात्राके दर्शन करके कैसे घर लौटा, उसे कुछ स्मरण नहीं। गाँवके दूसरे यात्री लौट रहे थे, उनके कहनेसे अर्धचेतनायें ही वह घर आया। घरपर पहुँचते ही स्त्रीने कहा- 'आप भूखे होंगे, भोजन कर लें।' वह बिना कुछ बोले भोजन करने बैठ गया। उसकी स्त्रीने हँड़ियामें भात बनाया था। उसीपर शाक रखकर उसने पतिके सम्मुख रख दिया। भोजन करनेके बदले दासिया उस हँडियाको ध्यानसे देखने लगा। उसे हँडियाका लाल रंग भगवान्‌की रतनारी आँखें जान पड़ा, भातको उसके भीतरका सफेद भाग और शाकको उसने पुतली देखा। मारे हर्षके वह खड़ा होकर नाचने लगा।

दासियाकी स्त्री पतिको नाचते, रोते हँसते पागलकी सी भङ्गिमा करते देख डर गयी। उसे लगा कि अवश्य रथयात्रा देखने जाते या लौटते समय मेरे पतिको कोई भूत-प्रेत लग गया है। रोते हुए उसने पड़ोसियोंको पुकारा। लोगोंने आकर स्त्रीको धीरज बँधाया। वे दासियाको पुकारने, सावधान करने और भोजन करनेको कहने लगे। दासियाने कहा-'भाइयो। रथपर विराजमान श्रीजगन्नाथके कमलनेत्र आपलोग क्या नहीं देख रहे हैं? ओह, कितना सुन्दर है भगवान्का नेत्र!' वह फिर भावावेशमें नृत्य करने लगा।दासियाके घर बहुत से लोग एकत्र हो गये थे। रथयात्रा से लौटते हुए बहुत से महात्मा भी उस ग्राम में ठहरे थे। उनमेंसे भी कुछ लोग वहाँ आ गये थे। एक भक्तने दासियाकी भाव स्थितिको समझ लिया। उन्होंने सबसे कहा- 'यह सचमुच भगवान्‌का दासिया- 'दास' ही है। हम इसे आजसे बालीग्रामदास कहेंगे, क्योंकि बालीग्रामके इस 'दास' ने अपने जन्मसे गाँवको कृतार्थ कर दिया है।' तभीसे 'दासिया बावरी' का नाम बालीग्रामदास हो गया। एक भक्तने स्त्रीको समझाया कि दूसरे बर्तनमें भात निकालकर और सागको अलग रखकर पतिको भोजन करनेके लिये दे। स्त्रीने हँड़िया उठा ली। एक पत्तेपर भात और दूसरेपर शाक रखकर पतिको दिया। तब बालीग्रामदासने भोजन किया।

दासियाका केवल नाम ही नहीं बदला, वे अब सम्पूर्ण ही बदल गये थे। चौबीसों घंटे भगवान्‌के ध्यानमें ही डूबे रहते थे। बाहरसे कुछ काम भी करते, तो भी चित्त श्रीजगन्नाथके ध्यानमें डूबा रहता। उनके मनमें अब भगवान् के प्रत्यक्ष दर्शनकी तीव्र लालसा जाग उठी। भगवान्का वियोग अन्तमें असह्य हो गया। उनके प्राण तड़फड़ाने लगे। भक्तकी व्याकुलताकी वही घड़ी तो धन्य होती है। भगवान् क्या जाति-पाँति या साधन-भजन देखते हैं? जब कोई सब ओरसे निराश होकर, चारों ओरसे थककर उन्हें पुकारता है और उसके प्राण व्याकुल हो उठते हैं, उसी समय प्रभु पधारते हैं। बालीग्रामदासकी वह व्याकुलता भी धन्य हुई। मन्द मन्द मुसकराते श्रीहरि प्रकट हो गये। भगवान्ने वरदान माँगने को कहा। दासियाने कहा - 'नाथ! मुझ जैसे अधमको जब आपने दर्शन दिये, तब और मुझे क्या चाहिये। आपके चरणकमलोंका दर्शन करते हुए मैं मरूँ, यही मुझे चाहिये। हाँ, जब मैं आपका ध्यान करूँ, तभी मुझे आपके दर्शन हों-यही आशीर्वाद आप मुझे दें।'

प्रभुने कहा- 'बेटा! तेरी सभी प्रार्थनाएँ पूरी होंगी। जब तू पुरी आयेगा, तब मैं मन्दिरके नीलचक्रपर बैठ जाऊँगा। उस समय तू जिस रूपमें चाहेगा, उसी रूपमें मेरे दर्शन तुझे होंगे। तू मुझे जो कुछ देगा, मैं उसीका भोग लगाऊँगा।' इस प्रकार कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।दासिया अपनेको नीच जातिका मानकर बहुत सङ्कोच करते थे। उनके मनमें इच्छा तो थी कि भगवान् उनकी भेंट स्वीकार करें; पर वे प्रार्थना करनेका साहस नहीं कर सके थे। सर्वान्तर्यामी भगवान्ने भक्तकी इच्छा जानकर स्वयं उसकी भेंटका भोग लगाना स्वीकार किया। प्रातः काल उठते ही दासिया सोचने लगे कि भगवान्‌को क्या भोग लगाऊँ। उन्होंने कुछ कपड़ा बुन रखा था। उसे बेचने ग्राम में निकले। एक ब्राह्मणने कपड़ा खरीदा। कपड़ा लेकर ब्राह्मण पैसे लेने घरमें गये और दासिया द्वारपर खड़े रहे। द्वारपर खड़े-खड़े दासियाने देखा कि एक नारियलका नया पेड़ है, उसपर पहला ही फल लगा हैं। फल पक गया है। वे सोचने लगे- 'यदि यह फल मुझे मिल जाय तो इसे भगवान्‌को चढ़ाऊँ।'

पैसा लेकर जब ब्राह्मण निकले, तब दासियाने वह नारियल माँगा। ब्राह्मणने पहले तो वृक्षका पहला फल देना अस्वीकार कर दिया, पर फिर उसके मनमें लोभ आ गया। दासियाके आग्रह करनेपर कपड़ेके पूरे मूल्यके रूपमें नारियल देना उसने स्वीकार कर लिया। दासियाने बड़ी प्रसन्नतासे यह शर्त मान लो और नारियल लेकर घर चले आये।

बालीग्रामदास रोज कपड़ा बुनते थे। उस कपड़ेको बेचकर उन्हीं पैसोंसे दूसरे दिनके लिये सूत खरीदने और जो कुछ बचता, उससे रूखा सूखा खाकर काम चलाते। नारियलके लिये कपड़े का पूरा मूल्य दे आनेका अर्थ उनके लिये केवल एक दिनका उपवास ही नहीं था। आगे सूत खरीदनेको पैसे न रहनेसे उनकी आजीविका ही नष्ट हो गयी थी। परंतु भगवान्‌को भेंट करनेके लिये मनचाही वस्तु मिल गयी इस आनन्दमें अपने भूखों मरनेकी बातका ध्यान भी उनके मनमें नहीं आया।

एक ब्राह्मण पूजाकी सामग्री लिये जगन्नाथजी जा रहे थे प्रार्थना करनेपर बड़ी सरलतासे उन्होंने यह नारियल ले जाकर भगवान्को चढ़ाना स्वीकार कर लिया। नारियल देते हुए दासियाने कहा-"महाराज! मेरे फलको सब सामग्रियोंके साथ मत चढ़ाना। इसे भगवान् के सामने भी मत रखना। अपनी पूजासे आप जब छुट्टी पा लें, तब सबसे पीछे गरुडस्तम्भके पास खड़े होकर इसे लेकरकहना-'प्रभो! बालीग्रामदासने आपके लिये यह श्रीफल भेजा है। आप इसे ग्रहण करें।' आप इतना कहकर चुपचाप खड़े रहना। भगवान् यदि अपने हाथसे इसे ले लें तो दे देना, नहीं तो मेरा लौटा लाना।

बालीग्रामदासकी बात सुनकर ब्राह्मण हँस पड़े; किंतु उन्होंने उनकी बात स्वीकार कर ली। एक भोले भीलकी प्रसन्नताके लिये एक नारियल ले जाकर इतना कह देना उन्हें कठिन नहीं जान पड़ा। ब्राह्मणने भगवान्की विधिपूर्वक पूजा की और प्रसाद लेकर कुछ देर विश्राम किया। घर लौटते समय उन्हें उस नारियलकी याद आयी। उसे लेकर वे गरुडस्तम्भके पास गये। हाथमें नारियल लेकर उन्होंने प्रार्थना की- 'स्वामी! आपके लिये बालीग्रामदासने यह श्रीफल भेजा है और कहा है कि भगवान् अपने हाथसे लें तो देना, नहीं तो लौटा लाना। अब आप या तो कृपा करके इस फलको ग्रहण करें या मैं लौटा ले जाऊँ।' ब्राह्मणने नेत्र बंद करके भगवान्‌का ध्यान किया, इतनेमें भगवान्ने हाथ बढ़ाकर फल उठा लिया। आश्चर्यचकित ब्राह्मण नेत्र खोलकर देखता है कि श्रीजगन्नाथजी उस फलका भोग लगा रहे हैं। वह भगवान्‌के कर स्पर्शसे आनन्दमन हो गया। बालीग्रामदासके सहज विश्वास और प्रेमको भूरि-भूरि प्रशंसा करने लगा। घर लौटकर ब्राह्मणने बालीग्रामदासको मन्दिरकी सब घटनाएँ सुनायें।

इस घटनाको सुनकर दासियाका हृदय आनन्दसे नाच उठा । वे समझ गये कि भगवान् प्रेमसे दी हुई नीच जातिके पुरुषकी भेंट भी स्वीकार करते हैं। अब वे स्वयं प्रसाद लेकर निःसङ्कोच प्रभुके पास जानेका विचार करने लगे। नीलचक्रपर प्रभुके दर्शन देनेकी बात भी उन्हें स्मरण आयी। अब वे क्या लेकर नीलाचल जायें? इतनेमें एक माली आम बेचने आया। सुन्दर आमोंको देखकर मालीको मुँहमाँगे दाम देकर उन्होंने दो टोकरियोंमें उनको सजाया। काँवर बनाकर आमोंको लिये वे पुरी पहुँचे।

पके सुन्दर आम लेकर बालीग्रामदासको आते देख पण्डोंने उन्हें घेर लिया। वे परस्पर झगड़ने लगे। बालीग्रामदासने उनसे कहा-' आपलोग क्यों व्यर्थमें झगड़ा करते हैं। ये आम आपमेंसे किसीको नहीं मिलेंगे। इन्हेंतो मेरे प्रभु खायँगे और मैं अपने हाथोंसे खिलाऊँगा।'

पण्डोंकी समझमें यह बात कैसे आये। वे तो यही जानते हैं कि जो कोई जो कुछ भगवान्‌को भोग लगाने लाता है, वह उन्हींको देता है। भगवान्‌के सामने कुछ देर रखनेके पश्चात् वह पदार्थ उन्हींका हो जाता है। एक भील भला, अपने हाथसे भगवान्‌को कैसे खिलायेगा । उसे मन्दिरमें कोई कैसे जाने देगा। परंतु उनके ऐसे तर्क, ऐसी बातें बालीग्रामदासको जँचीं नहीं। पण्डे क्रोधित हुए; पर उन्होंने किसीकी कुछ सुनी नहीं। पण्डे भी उनके पीछे लग गये कि गरुड़स्तम्भसे आगे तो यह भील जा नहीं सकेगा, फिर हममेंसे किसीको आम देगा ही।

बालीग्रामदास मन्दिरके बड़े द्वारसे भीतर आये। नीलचक्र के दर्शन होते ही वे प्रेममें विह्वल हो उठे। उन्हें उस नीलचक्रपर साक्षात् श्रीहरिके दर्शन हुए। बारंबार भूमिमें लेटकर उन्होंने प्रभुको प्रणाम किया और फिर एक-एक आम हाथमें लेकर कहने लगे-'लो, प्रभो! आप इस दासको कृतार्थ करो।' देखते-देखते दोनों टोकरियाँ खाली हो गयीं।

पण्डोंने आमोंको अदृश्य होते देखा तो पहले उन्होंने इसे जादू समझा; किंतु मन्दिरमें जाकर देखा तो भगवान्‌की
भक्तरत्नवेदीके पास छिलके और गुठलियोंका ढेर लगा है। अब उन्हें बालीग्रामदासकी भक्तिका प्रभाव समझ पड़ा। प्रभुकी प्रसादी माला भक्तके गलेमें पहनाकर वे कहने लगे- 'भक्तराज ! तुम धन्य हो। हमलोग तो नाममात्रके भगवान्के सेवक हैं। जगदीशके सच्चे सेवक तो तुम्हीं हो। तुम्हारे दर्शन करके आज हम कृतार्थ हो गये।'

बालीग्रामदास इस सम्मानसे घबरा उठे। पुजारी ब्राह्मणोंके चरणोंमें गिरकर वे कहने लगे-'मैं तो नीच जातिका हूँ। मुझमें नामको भी भक्ति नहीं है यह तो भगवान्की और उनके भक्त आपलोगोंकी कृपाका प्रभाव है।'

बालीग्रामदास सम्मानसे डरकर पुरी छोड़कर घर लौट आये, पर यहाँ भी उनका दर्शन करनेके लिये लोगोंकी भीड़ लगी ही रहती थी। इससे उन्हें बड़ी लज्जा आती थी कि लोग उनको भक्त कहते हैं। उन्होंने घरसे बाहर निकलना ही छोड़ दिया। अब वे घरका द्वार बंद करके रात-दिन भगवान्‌के कीर्तन, ध्यान, भजनमें लगे रहने लगे। स्त्री-पुरुष दोनों जीवनभर भगवान्‌के स्मरणमें निमग्न रहे और अन्तमें नश्वर शरीर छोड़कर भगवान्के दिव्यधाममें उन परम प्रभुके सेवक बन गये।



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pake sundar aam lekar baaleegraamadaasako aate dekh pandonne unhen gher liyaa. ve paraspar jhagada़ne lage. baaleegraamadaasane unase kahaa-' aapalog kyon vyarthamen jhagada़a karate hain. ye aam aapamense kiseeko naheen milenge. inhento mere prabhu khaayange aur main apane haathonse khilaaoongaa.'

pandonkee samajhamen yah baat kaise aaye. ve to yahee jaanate hain ki jo koee jo kuchh bhagavaan‌ko bhog lagaane laata hai, vah unheenko deta hai. bhagavaan‌ke saamane kuchh der rakhaneke pashchaat vah padaarth unheenka ho jaata hai. ek bheel bhala, apane haathase bhagavaan‌ko kaise khilaayega . use mandiramen koee kaise jaane degaa. parantu unake aise tark, aisee baaten baaleegraamadaasako jancheen naheen. pande krodhit hue; par unhonne kiseekee kuchh sunee naheen. pande bhee unake peechhe lag gaye ki garuda़stambhase aage to yah bheel ja naheen sakega, phir hamamense kiseeko aam dega hee.

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pandonne aamonko adrishy hote dekha to pahale unhonne ise jaadoo samajhaa; kintu mandiramen jaakar dekha to bhagavaan‌kee
bhaktaratnavedeeke paas chhilake aur guthaliyonka dher laga hai. ab unhen baaleegraamadaasakee bhaktika prabhaav samajh pada़aa. prabhukee prasaadee maala bhaktake galemen pahanaakar ve kahane lage- 'bhaktaraaj ! tum dhany ho. hamalog to naamamaatrake bhagavaanke sevak hain. jagadeeshake sachche sevak to tumheen ho. tumhaare darshan karake aaj ham kritaarth ho gaye.'

baaleegraamadaas is sammaanase ghabara uthe. pujaaree braahmanonke charanonmen girakar ve kahane lage-'main to neech jaatika hoon. mujhamen naamako bhee bhakti naheen hai yah to bhagavaankee aur unake bhakt aapalogonkee kripaaka prabhaav hai.'

baaleegraamadaas sammaanase darakar puree chhoda़kar ghar laut aaye, par yahaan bhee unaka darshan karaneke liye logonkee bheeda़ lagee hee rahatee thee. isase unhen bada़ee lajja aatee thee ki log unako bhakt kahate hain. unhonne gharase baahar nikalana hee chhoda़ diyaa. ab ve gharaka dvaar band karake raata-din bhagavaan‌ke keertan, dhyaan, bhajanamen lage rahane lage. stree-purush donon jeevanabhar bhagavaan‌ke smaranamen nimagn rahe aur antamen nashvar shareer chhoda़kar bhagavaanke divyadhaamamen un param prabhuke sevak ban gaye.

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करदो करदो बेडा पार, राधे अलबेली सरकार।
राधे अलबेली सरकार, राधे अलबेली सरकार॥
लाली की सुनके मैं आयी
कीरत मैया दे दे बधाई
मोहे आन मिलो श्याम, बहुत दिन बीत गए।
बहुत दिन बीत गए, बहुत युग बीत गए ॥
प्रीतम बोलो कब आओगे॥
बालम बोलो कब आओगे॥
सब हो गए भव से पार, लेकर नाम तेरा
नाम तेरा हरि नाम तेरा, नाम तेरा हरि नाम
अपने दिल का दरवाजा हम खोल के सोते है
सपने में आ जाना मईया,ये बोल के सोते है
तीनो लोकन से न्यारी राधा रानी हमारी।
राधा रानी हमारी, राधा रानी हमारी॥
मीठी मीठी मेरे सांवरे की मुरली बाजे,
होकर श्याम की दीवानी राधा रानी नाचे
मुझे चढ़ गया राधा रंग रंग, मुझे चढ़ गया
श्री राधा नाम का रंग रंग, श्री राधा नाम
फाग खेलन बरसाने आये हैं, नटवर नंद
फाग खेलन बरसाने आये हैं, नटवर नंद
मेरा अवगुण भरा रे शरीर,
हरी जी कैसे तारोगे, प्रभु जी कैसे
कैसे जिऊ मैं राधा रानी तेरे बिना
मेरा मन ही ना लागे तुम्हारे बिना
तेरे दर पे आके ज़िन्दगी मेरी
यह तो तेरी नज़र का कमाल है,
सब दुख दूर हुए जब तेरा नाम लिया
कौन मिटाए उसे जिसको राखे पिया
ज़रा छलके ज़रा छलके वृदावन देखो
ज़रा हटके ज़रा हटके ज़माने से देखो
एक दिन वो भोले भंडारी बन कर के ब्रिज की
पारवती भी मना कर ना माने त्रिपुरारी,
सुबह सवेरे  लेकर तेरा नाम प्रभु,
करते है हम शुरु आज का काम प्रभु,
कोई कहे गोविंदा कोई गोपाला,
मैं तो कहूँ सांवरिया बांसुरी वाला ।
नगरी हो अयोध्या सी,रघुकुल सा घराना हो
चरन हो राघव के,जहा मेरा ठिकाना हो
तुम रूठे रहो मोहन,
हम तुमको मन लेंगे
कहना कहना आन पड़ी मैं तेरे द्वार ।
मुझे चाकर समझ निहार ॥
किसी को भांग का नशा है मुझे तेरा नशा है,
भोले ओ शंकर भोले मनवा कभी न डोले,
फूलों में सज रहे हैं, श्री वृन्दावन
और संग में सज रही है वृषभानु की
कैसे जीऊं मैं राधा रानी तेरे बिना
मेरा मन ही न लगे श्यामा तेरे बिना
हो मेरी लाडो का नाम श्री राधा
श्री राधा श्री राधा, श्री राधा श्री
सब के संकट दूर करेगी, यह बरसाने वाली,
बजाओ राधा नाम की ताली ।
मेरी बाँह पकड़ लो इक बार,सांवरिया
मैं तो जाऊँ तुझ पर कुर्बान, सांवरिया
अरे बदलो ले लूँगी दारी के,
होरी का तोहे बड़ा चाव...
सांवरे से मिलने का, सत्संग ही बहाना है,
चलो सत्संग में चलें, हमें हरी गुण गाना
अपनी वाणी में अमृत घोल
अपनी वाणी में अमृत घोल

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मेरे बाला जी के धाम पे आके देखलो,
संकट सबके कटे है गुण गाके देख लो,
तेरी आरती माँ शेरावाली,
गावे संगत सारी,
सारे जग में ये ऐलान होना चहिये,
हर गली हर मोड़ पे एक मंदिर होना चाहिए...
आजा मेरे सांवरे,
देख मेरे हालात,
जाना है मुझे माँ के दर पे,
सुनो बाग के माली,