यत्र यत्र रघुनाथकीर्तनं
तत्र तत्र कृतमस्तकाञ्जलिम् ।
बाष्पवारिपरिपूर्णलोचनं
मारुतिं नमत राक्षसान्तकम् ॥
प्रनवउँ पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन ।
जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर ॥
भगवान् शङ्करके अंशसे वायुके द्वारा कपिराज केसरीकी पत्नी अञ्जनामें हनूमान्जीका प्रादुर्भाव हुआ। मर्यादापुरुषोत्तम श्रीरामकी सेवा शङ्करजी अपने रूपसे तो कर नहीं सकते थे; अतएव उन्होंने ग्यारहवें रुद्ररूपको इस प्रकार वानररूपमें अवतरित किया। जन्मके कुछ ही समय पश्चात् महावीर हनुमान्जीने उगते हुए सूर्यको कोई लाल-लाल फल समझा और उसे निगलने आकाशकी ओर दौड़ पड़े। उस दिन सूर्यग्रहणका समय था। राहुने देखा कि कोई दूसरा ही सूर्यको पकड़ने आ रहा है, तब वह उस आनेवालेको पकड़ने चला; किंतु जब वायुपुत्र उसकी ओर बढ़े, तब वह डरकर भागा। राहुने इन्द्रसे पुकार की। ऐरावतपर चढ़कर इन्द्रको आते देख पवनकुमारने ऐरावतको कोई बड़ा-सा सफेद फल समझा और उसीको पकड़ने लपके। घबराकर देवराजने वज्रसे प्रहारकिया। वज्रसे इनकी ठोड़ी (हनु) पर चोट लगनेसे वह कुछ टेढ़ी हो गयी, इसीसे ये हनूमान् कहलाने लगे। वज्र लगनेपर ये मूच्छित होकर गिर पड़े। पुत्रको मूच्छित | देखकर वायुदेव बड़े कुपित हुए। उन्होंने अपनी गति बन्द कर ली। श्वास रुकनेसे देवता भी व्याकुल हो गये। अन्तमें हनुमान्को सभी लोकपालोंने अमर होने तथा अग्नि-जल - वायु आदिसे अभय होनेका वरदान देकर वायुदेवको सन्तुष्ट किया।
जातिस्वभावसे चञ्चल हनुमान् ऋषियोंके आश्रमोंमें वृक्षोंको सहज चपलतावश तोड़ देते तथा आश्रमकी वस्तुओंको अस्त-व्यस्त कर देते थे। अतः ऋषियोंने इन्हें | शाप दिया- 'तुम अपना बल भूले रहोगे। जब कोई तुम्हें स्मरण दिलायेगा, तभी तुम्हें अपने बलका भान होगा।' तबसे वे सामान्य वानरकी भाँति रहने लगे। माताके आदेशसे सूर्यनारायणके समीप जाकर वेद, वेदाङ्ग प्रभृति समस्त शास्त्रों एवं कलाओंका इन्होंने अध्ययन किया। उसके पश्चात् किष्किन्धामें आकर सुग्रीवके साथ रहने लगे। सुग्रीवने इन्हें अपना निजी सचिव बना लिया। जब बालिने सुग्रीवको मारकर निकाल दिया, तब भी ये सुग्रीवके साथ ही रहे। सुग्रीवके विपत्तिके साथी होकरऋष्यमूकपर ये उनके साथ ही रहते थे।
बचपन में माता अञ्जनासे बार-बार आग्रहपूर्वक इन्होंने अनादि रामचरित सुना था। अध्ययनके समय वेदमें, पुराणोंमें श्रीरामकथाका अध्ययन किया था। किष्किन्धा आनेपर यह भी ज्ञात हो गया कि परात्पर प्रभुने अयोध्यामें अवतार धारण कर लिया। अब ये बड़ी उत्कण्ठासे अपने स्वामीके दर्शनकी प्रतीक्षा करने लगे। श्रीमद्भागवतमें कहा गया है जो निरन्तर भगवान्की कृपाकी आतुर प्रतीक्षा करते हुए अपने प्रारब्धसे प्राप्त सुख-दुःखको सन्तोषपूर्वक भोगते रहकर हृदय बाणी तथा शरीरसे भगवान्को प्रणाम करता रहता है-हृदयसे भगवान्का चिन्तन, वाणीसे भगवान् के नाम-गुणका गान कीर्तन और शरीरसे भगवान्का पूजन करता रहता है, वह मुक्तिपदका स्वत्वाधिकारी हो जाता है।' श्रीहनुमान्जी तो जन्मसे ही मायाके बन्धनोंसे सर्वथा मुक्त थे। वे तो अहर्निश अपने स्वामी श्रीरामके ही चिन्तनमें लगे रहते थे। अन्तमें श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मणके साथ रावणके द्वारा सीताजीके चुरा लिये जानेपर उन्हें हुए ऋष्यमूकके पास पहुँचे। सुग्रीवको शङ्का हुई कि इन राजकुमारोंको बालिने मेरे मारनेको न भेजा हो। हनुमानजीको परिचय जाननेके लिये उन्होंने भेजा। विप्रवेष धारणकर हनुमानजी आये और परिचय पूछकर जब अपने स्वामीको पहचाना, तब वे उनके चरणोंपर गिर पड़े। वे रोते-रोते कहने लगे-
एकु मैं मंद मोहबस कुटिल हृदय अग्यान।
पुनि प्रभु मोहि बिसारेउ दीनबंधु भगवान ॥
श्रीरामने उठाकर उन्हें हृदयसे लगा लिया। तभी से हनुमानजी श्री अवधेशकुमारके चरणोंके समीप ही रहे। हनुमानजीकी प्रार्थनासे भगवान्ने सुग्रीवसे मित्रता की और बालिको मारकर सुग्रीवको किष्किन्धाका राज्य दिया। राज्यभोगमें सुग्रीवको प्रमत्त होते देख हनुमानजीने ही उन्हें सीतान्वेषणके लिये सावधान किया। वे पवनकुमार ही वानरोंको एकत्र कर लाये। श्रीरामजीने उनको ही अपनी मुद्रिका दी। सौ योजन समुद्र लाँघनेका प्रश्न आनेपर जब जाम्बवन्तजीने हनुमानजीको उनके बलका स्मरण दिलाकर कहा कि 'आपका तो अवतार हीरामकार्य सम्पन्न करनेके लिये हुआ है, तब अपनी शक्ति का बोधकर केसरीकिशोर उठ खड़े हुए। देवताओंके द्वारा भेजी हुई नागमाता सुरसाको सन्तुष्ट करके समुद्र में छिपी राक्षसी सिंहिकाको मारकर हनुमानजी लगा पहुँचे। द्वाररक्षिका लङ्किनीको एक घूँसेमें सीधा करके छोटा रूप धारणकर ये लङ्कामें रात्रि के समय प्रविष्ट हुए। विभीषणजीसे पता पाकर अशोकवाटिकामें जानकीजीके दर्शन किये। उनको आश्वासन देकर अशोकवनको उजाड़ डाला। रावणके भेजे राक्षसों तथा रावणपुत्र अक्षयकुमारको मार दिया। मेघनाद इन्हें किसी प्रकार बाँधकर राजसभामें ले गया। वहाँ रावणको भी हनुमानजीने अभिमान छोड़कर भगवान्की शरण लेनेकी शिक्षा दी। राक्षसराजकी आज्ञासे इनकी पूँछमें आग लगा दी गयी। इन्होंने उसी अग्निसे सारी लङ्का फूँक दी। सीताजीसे चिह्नस्वरूप चूड़ामणि लेकर भगवान् के समीप लौट आये।
समाचार पाकर श्रीरामने युद्धके लिये प्रस्थान किया। समुद्रपर सेतु बाँधा गया। संग्राम हुआ और अन्तमें रावण अपने समस्त अनुचर, बन्धु बान्धवोंके साथ मारा गया। युद्धमें श्रीहनुमान्जीका पराक्रम, उनका शौर्य, उनकी वीरता सर्वोपरि रहो। वानरीसेनाके संकटके समय वे सदा सहायक रहे। राक्षस उनकी हुंकारसे ही काँपते थे। लक्ष्मणजी जब मेघनादकी शक्तिसे मूच्छित हो गये, तब मार्गमें पाखण्डी कालनेमिको मारकर द्रोणाचलको हनुमान्जी उखाड़ लाये और इस प्रकार संजीवनी ओषधि आनेसे लक्ष्मणजीको चेतना प्राप्त हुई। मायावी अहिरावण जब माया करके राम-लक्ष्मणको युद्धभूमिसे चुरा ले गया, तब पाताल जाकर अहिरावणका वध करके हनुमान्जी श्रीरामजीको भाई लक्ष्मणजीके साथ ले आये। रावणवधका समाचार श्रीजानकीजीको सुनानेका सौभाग्य और श्रीराम लीट रहे हैं-यह आनन्ददायी समाचार भरतजीको | देनेका गौरव भी प्रभुने अपने प्रिय सेवक हनुमानजीको ही दिया।
हनुमान्जी विद्या, बुद्धि, ज्ञान तथा पराक्रमकी मूर्ति हैं, किंतु इतना सब होनेपर भी अभिमान उन्हें छू-तक नहीं गया। जब वे लङ्का जलाकर अकेले ही रावणका | मानमर्दन करके प्रभुके पास लौटे और प्रभुने पूछा कि'त्रिभुवन विजयी रावणकी लङ्काको तुम कैसे जल
सके?' तब उन्होंने उत्तर दिया -
साखामृग के बड़ि मनुसाई साखा तें साखा पर जाई ।। नाघि सिंधु हाटकपुर जारा निसिचर गन बंधि विपिन उजारा।। यो सब तब प्रताप रघुराई। नाथ न कछू मोरि प्रभुताई ।।
हनुमान्जीकी भक्ति तो अतुलनीय है। अयोध्यामें राज्याभिषेक हो जानेपर भगवान्ने सबको पुरस्कृत किया। सबसे अमूल्य अयोध्याके कोषकी सर्वश्रेष्ठ मणियोंकी माला श्रीजानकीजीने अपने कण्ठसे उतारकर हनुमानजीके गलेमें डाल दी। हनुमानजी मणियोंको ध्यानसे देख-देखकर तोड़ने लगे और मुखमें डालकर फोड़ने भी लगे। दुर्लभ रत्नोंको इस प्रकार नष्ट होते देख कुछ लोगोंको बड़ा कष्ट हुआ। कुछने उन्हें रोका। हनुमानजीने कहा- 'मैं इनमें भगवान्का नाम तथा उनकी मूर्ति ढूँढ़ रहा हूँ। जिस वस्तुमें मेरे स्वामी श्रीसीतारामका नाम न हो, जिसमें उनकी मूर्ति न हो, वह तो व्यर्थ है।' प्रश्न करनेवालेने पूछा- 'क्या आपके शरीरमें वह मूर्ति और नाम है?" तुरन्त अपने नखोंसे हनुमान्जीने छातीका चमड़ा फाड़कर सबको दिखाया। उनके रोम-रोममें 'राम' यह परम दिव्य नाम अङ्कित था और उनके हृदयमें श्रीजनकनन्दिनीजीके साथ सिंहासनपर बैठे महाराजाधिराज श्रीअवधेशकी भुवनसुन्दर मूर्ति विराजमान थी। सब लोग 'जयजयकार' करने लगे। भगवान्ने हनुमानजीको हृदयसे लगा लिया।
हनुमान्जी आजन्म नैष्ठिक ब्रह्मचारी हैं। व्याकरणके महान् पण्डित हैं, वेदज्ञ हैं, ज्ञानिशिरोमणि हैं, बड़े विचारशील, तीक्ष्णबुद्धि तथा अतुलपराक्रमी हैं। श्रीहनुमान्जी बहुत निपुण संगीतज्ञ और गायक भी हैं। एक बार एक देव ऋषि-दानवोंके महान् सम्मेलनमें जलाशयके तटपर भगवान् शङ्कर तथा देवर्षि नारदजी आदि गा रहे थे। अन्यान्य देवर्षि-दानव भी योग दे रहे थे। इतनेमें ही हनुमानजीने मधुर स्वरसे ऐसा सुन्दर गान आरम्भ किया कि जिसे सुनकर उन सबके मुख म्लान हो गये, जो बड़ेउत्साहसे गा-बजा रहे थे और सभी अपना-अपना गान छोड़कर मोहित हो गये और चुप होकर सुनने लगे। उस समय केवल हनुमान्जी ही गा रहे थे l
म्लानमम्लानमभवत् कृशाः पुष्टास्तदाभवन् ।
स्वां स्वां गीतिमतः सर्वे तिरस्कृत्यैव मूर्छिताः ॥ तूष्णीम्भूतं समभवद् देवर्षिगणदानवम् ।
एकः स हनुमान् गाता श्रोतारः सर्व एव ते ।
(पद्मपुराण, पातालखंड)
जबतक पृथ्वीपर श्रीरामकी कथा रहेगी, तबतक पृथ्वीपर रहनेका वरदान उन्होंने स्वयं प्रभुसे माँग लिया है। श्रीरामजीके अश्वमेधयज्ञमें अश्वकी रक्षा करते समय जब अनेक महासंग्राम हुए, तब उनमें हनुमान्जीका पराक्रम ही सर्वत्र विजयी हुआ। महाभारतमें भी केसरीकुमारका चरित है। वे अर्जुनके रथकी ध्वजापर बैठे रहते थे। उनके बैठे रहनेसे अर्जुनके रथको कोई पीछे नहीं हटा सकता था। कई अवसरोंपर उन्होंने अर्जुनकी रक्षा भी की। एक बार भीम, अर्जुन और गरुड़जीको आपने अभिमानसे भी बचाया था।
कहते हैं कि हनुमानजीने अपने वज्रनखसे पर्वतकी शिलाओंपर एक रामचरित-काव्य लिखा था। उसे | देखकर महर्षि वाल्मीकिको दुःख हुआ कि यदि वह काव्य लोकमें प्रचलित हुआ तो मेरे आदिकाव्यका समादर न होगा। ऋषिको सन्तुष्ट करनेके लिये हनुमान्जीने वे शिलाएँ समुद्रमें डाल दीं। सच्चे भक्तमें यश, मान, बड़ाईकी इच्छाका लेश भी नहीं होता। वह तो अपने प्रभुका पावन यश ही लोकमें गाता है।
श्रीरामकथा श्रवण, राम नामकीर्तनके हनुमानजी अनन्यप्रेमी हैं। जहाँ भी रामनामका कीर्तन या रामकथा | होती है, वहाँ वे गुप्तरूपसे आरम्भमें ही पहुँच जाते हैं। | दोनों हाथ जोड़कर सिरसे लगाये सबसे अन्ततक वहाँ वे खड़े ही रहते हैं। प्रेमके कारण उनके नेत्रोंसे बराबर आँसू झरते रहते हैं। उन अनन्य तथा अतुलनीय श्रीरामभक्तके पावन पदकमलोंमें अनन्त नमस्कार !
yatr yatr raghunaathakeertanan
tatr tatr kritamastakaanjalim .
baashpavaariparipoornalochanan
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pranavaun pavanakumaar khal ban paavak gyaan ghan .
jaasu hriday aagaar basahin raam sar chaap dhar ..
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ekah s hanumaan gaata shrotaarah sarv ev te .
(padmapuraan, paataalakhanda)
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