भगवान् श्रीसूर्यनारायणके वरदानसे सूर्याजी पंतकी धर्मपत्नी राणूबाईके गर्भ से सं0 1662 मार्गशीर्ष शुक्ला 13 को प्रथम पुत्रका जन्म हुआ, जिसका नाम गङ्गाधर रखा गया, जिसने अपनी वयस्के 9 वे वर्षमें ही श्रीहनुमान् जीके मन्दिरमें ग्यारह दिनोंतक मारुतिकवचका पाठ करके श्रीहनुमानजीको प्रसन्न कर लिया और जिसे भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने भी दर्शन देकर अनुगृहीत किया। ये ही गङ्गाधरजी आगे चलकर 'श्रेष्ठ' या 'रामीरामदास' के नामसे प्रसिद्ध हुए। इनके जन्मके तीन वर्ष बाद वर्तमान दक्षिण हैदराबादके अन्तर्गत औरङ्गाबाद जिलेमें जाम्ब ग्राममें संवत् 1665 की चैत्र शुक्ला नवमीके दिन ठीक श्रीरामजन्म के समय राणूबाईने उस महापुरुषको जन्म दिया, जिसे संसार समर्थ गुरु रामदास स्वामीके नामसे जानता है। इनका नाम पिताने नारायण रखा।
नारायण जब पाँच वर्षके थे, तब उनका उपनयन संस्कार हुआ। बचपनमें ये बड़े ऊधमी थे। पेड़ोंपर चढ़ना, एक डालसे दूसरी डालपर या एक पेड़से दूसरे पेड़ पर कूदना, पहाड़ोंपर तेजीसे चढ़ना-उतरना, उछलना कूदना - फाँदना-ये ही सब इनके खेल थे। पाँचवें वर्ष में इनका उपनयन संस्कार हो गया था। लिखना पढ़ना और हिसाब लगाना तथा नित्यका ब्राह्मकर्म भी उन्होंने बहुत जल्द सीख लिया। सूर्यदेवको ये नित्य दो हजार नमस्कार किया करते थे। आठ वर्षकी अवस्थामें ही इन्होंने भी श्रीहनुमानजीको प्रसन्न किया और श्रीरामचन्द्रजीके दर्शन प्राप्त किये। भगवान् श्रीरामचन्द्रजीने स्वयं इन्हें दीक्षा दी और इनका नाम रामदास रखा। जब ये बारह वर्षके हुए, तब इनके विवाहकी तैयारी हुई। विवाहमण्डपमें वर-वधूके बीच अन्तः पट डालकर ब्राह्मणलोग मङ्गलाचरणके श्लोक बोलने लगे। पहले मङ्गलाचरणके पीछे सब लोग 'जब 'शुभलग्न सावधान' बोले, तब रामदासजी सचमुच ही सावधान होकर वहाँसे ऐसे भागे कि बारह वर्षोंतक फिर घरके लोगोंको पता ही न लगा कि वे कहाँ गये। वहाँसे तीन कीसपर गोदावरी नदी है, उसे तैरकररामदासजीने पार किया और किनारे-किनारे पैदल चलकर वे नासिक-पञ्चवटी पहुँचे। पञ्चवटीमें इन्हें भगवान् श्रीरामचन्द्रजीके फिर दर्शन हुए। उस अवसरपर रामदासजीने एक 'करुणादशक' द्वारा बड़ी करुणापूर्ण वाणीमें प्रभुकी विनय की। तत्पश्चात् नासिकके समीप टाफली ग्राममें जाकर, जहाँ गोदा और नन्दिनीका सङ्गम हुआ है, एक गुफामें रहने लगे। वहाँ इन्होंने त्रयोदशाक्षर (श्रीराम जय राम जय जय राम) मन्त्रका पुरश्चरण आरम्भ किया। दैनिक नियमोंका पालन करनेके पश्चात् दिन या रातको जब जो समय मिलता, उसमें ये रामायण, वेद-वेदान्त, उपनिषद्-गीता, भागवत आदि ग्रन्थ देखा करते थे। इस प्रकार वहाँ तप करते हुए इन्हें तीन वर्ष हो गये। एक दिन रामदासजी सङ्गमपर ब्रह्मयज्ञ कर रहे थे और उधरसे एक विधवा स्त्रीने आकर इन्हें प्रणाम किया। इसपर 'अष्टपुत्रा सौभाग्यवती भव' ऐसा आशीर्वाद श्रीरामदासजीके मुँह से निकल गया, जिसे सुनकर स्त्रीने पूछा - ' इस जन्ममें या दूसरे जन्ममें?" बात यह थी कि उस स्त्रीके पतिकी मृत्यु हो गयी थी और वह उसके साथ सती होनेको जा रही थी। सती होने जानेके पूर्व सत्पुरुषोंको प्रणाम करनेकी जो विधि है, उसके अनुसार वह इन्हें तपस्वी महात्मा जानकर प्रणाम करने आयी थी। रामदासजीने कहा- 'अच्छा, शवको यहाँ ले आओ।' लाशके सामने आते ही रामदासजीने श्रीराम नाम लेकर उसपर तीर्थोदक छिड़का। तुरंत वह मृत शरीर 'राम-राम' उच्चारण करता हुआ जीवित हो उठा। इस प्रकार जो पुनर्जीवित हुए, उनका नाम गिरधरपंत था और उनकी वह सती स्त्री अन्नपूर्णाबाई थी। अन्नपूर्णास फिर रामदासजीने कहा-'मैंने तुझे पहले आठ पुत्रोंका आशीर्वाद दिया था, अब श्रीरामकृपासे दोका और देता हूँ।' इस आशीर्वाद के अनुसार उस ब्राह्मणदम्पतिको दस पुत्र हुए और उन्होंने प्रथम पुत्र श्रीरामदासजीके चरणों में अर्पण किया। वही समर्पित पुत्र उद्धव गोसावीके नामसे प्रख्यात हुआ।
अस्तु, उस स्थानपर संवत् 1689 में जब पुरश्चरणसमाप्त हुआ, तब श्रीरामचन्द्रजीने समर्थ गुरु रामदासजीको
दर्शन देकर यह आज्ञा दी कि 'अब तुम सब तीर्थोकी यात्रा करके कृष्णा नदीके तटपर रहो।' तदनुसार श्रीसमर्थ रामदासजी तीर्थयात्राको चले। सबसे पहले श्रीसमर्थ काशी गये । वहाँसे अयोध्या जाकर श्रीराममन्दिरमें उन्होंने अपने परमाराध्यके दर्शन किये। तत्पश्चात् गोकुल, वृन्दावन, मथुरा, द्वारका होकर श्रीनगर, बदरीनारायण और केदारेश्वर गये । वहाँसे पर्वतशिखरपर ध्यान लगाये बैठे हुए श्री श्वेतमारुतिके दर्शन करने गये, जहाँ चार महीने ठहरे और श्री श्वेतमारुतिने इन्हें प्रसाद स्वरूप टोप, मेखला, वल्कल, भगवें वस्त्र, जयमाल, पादुका और कुबड़ी दी। यहाँसे उत्तरमानसकी यात्रा करके जगन्नाथपुरी और पूर्वी समुद्र के किनारे से लेकर दक्षिण समुद्रके तटपर श्रीरामेश्वर सेतुबन्ध तथा लङ्काके दर्शनकर गोकर्ण, महाबलेश्वर, शेषाचल, शैलमल्लिकार्जुन, पञ्चमहालिङ्ग, विष्किन्धा, पम्पासरोवर ऋष्यमूक पर्वत, करवीरक्षेत्र, परशुरामक्षेत्र, पण्ढरपुर, भीमाशंकर और त्र्यम्बकेश्वर होते हुए पञ्चवटी लौटे।
इस प्रकार जब तीर्थयात्रा समाप्त हो गयी, तब समर्थ गोदावरीकी परिक्रमा करने निकले। रास्तेमें एक दिन इन्होंने पैठणमें कीर्तन किया और एक अद्भुत चमत्कार दिखलाया, जिससे वहाँके लोगोंने इन्हें पहचान लिया और कहा कि 'आप तो निश्चिन्त होकर तीर्थोंमें घूम रहे हैं, परंतु घरमें आपकी माता आपके लिये तड़प रही हैं। आपके विरहमें रो-रोकर उन्होंने नेत्रोंकी ज्योति खो दी है।' यह सुनकर रामदासजी महाराज तुरंत ही माता के दर्शनार्थ जाम्ब गाँव गये। द्वारपरसे आवाज दी 'जय जय रघुवीर समर्थ!' श्रेष्ठजीकी धर्मपत्नी यह सुनकर भिक्षा लेकर आय, पर समर्थने कहा- 'यह भिक्षा माँगनेवाला कोई वैरागी नहीं है।' तबतक माताने आवाज सुनी और पूछा- 'कौन मेरा बेटा नारायण?' समर्थने कहा- 'हाँ, माताजी! मैं ही हूँ।' और यह कहकर उन्होंने माताके समीप पहुँचकर उनके चरणोंमें मस्तक रख दिया। चौबीस वर्षके दीर्घकालके बाद माता और पुत्रका मिलन हुआ था। समर्थने माताके नेत्रोंपर अपना हाथ फेरा, जिससे खोयी हुई नेत्रज्योति माताको फिर प्राप्त हो गयी। इसके बाद समर्थने माताको कपिलगीता सुनायी और उनसे आज्ञा लेकर गोदावरीकी परिक्रमाका रास्ता लिया।सप्तगोदावरी सङ्गमकी सव्य परिक्रमा करके सीधे त्र्यम्बकेश्वर और त्र्यम्बकेश्वरसे पञ्चवटी पहुंचकर श्रीरामचन्द्रजीका दर्शन करनेके पश्चात् समर्थ टाफलीमें आये, जहाँ वे उद्धवसे मिले। यहाँ यह बतला देना आवश्यक है कि तीर्थयात्रा के प्रसङ्गसे श्रीसमर्थ जहाँ जहाँ गये, वहाँ-वहाँ इन्होंने अपने मठ स्थापित किये और प्रत्येक मठमें एक एक अधिकारी शिष्यकी नियुक्ति की ।
इस तरह बारह वर्ष तपस्या और बारह वर्ष तीर्थयात्रा करके श्रीसमर्थ सं0 1701 के वैशाख मासमें श्रीरामचन्द्रजीके | आज्ञानुसार कृष्णानदी के तटपर आये यहाँ भाडुली क्षेत्रमें श्रीसमर्थ जब रहने लगे, तब बड़े-बड़े संतलोग इनसे मिलनेके लिये आने लगे। बड़गाँवके जयराम स्वामी, निगडीके रङ्गनाथ स्वामी ब्रह्मराके आनन्दमूर्ति स्वामी भागा नगरके केशव स्वामी और स्वयं श्रीसमर्थ-ये पाँचों मिलकर दास पञ्चायतन कहलाते थे। यहीं श्रीतुकारामजी महाराज और चिंचवडके देव श्रीसमर्थसे मिलने आये। कुछ काल बाद श्रीसमर्थ माहुलीसे कृष्णा और कोपनाके 'प्रीतिसङ्गम' पर कऱ्हाड स्थानमें आये और वहाँसे पाँच मीलपर शाहपुरके समीप पर्वतकी एक गुफार्मे रहने लगे। शाहपुर में श्रीसमर्थने 'प्रतापमारुतिमन्दिर' की स्थापना की और तत्पश्चात् वहाँसे चलकर चाफलखोरे आये, जहाँक सूबेदार इनसे दीक्षा ली। यह घूमते यामते श्रीसमर्थ कहा पहुँचे और फिर वहाँ मीरण होते हुए कोल्हापुर गये कोल्हापुरके सूबेदार पाराजी पंत बने इनसे दीक्षा ली और उनकी वाहन रखनाईने भी अपने अम्बाजी और दत्तात्रेय नामक दो पुत्रोंके साथ अपनेको श्रीसमर्थ-चरणों में समर्पित कर दिया।
सं0 1702 से श्रीसमर्थ रामनवमीका उत्सव करने लगे। सबसे पहला उत्सव मसूरमें बड़े धूम-धामके साथ सम्पन्न हुआ। उसके बाद प्रतिवर्ष अन्यान्य स्थानों में क्रमशः श्रीसमर्थ सम्प्रदायानुसार नवचैतन्यके साथ श्रीराम जयन्त्युत्सव मनाया जाने लगा। उन्हीं दिनों महाराष्ट्रमें श्रीशिवाजी महाराज हिंदू-धर्मराज्यकी संस्थापना करने के उद्योगमें लगे हुए थे। श्रीसमर्थ रामदास स्वामीको सत्कीर्ति सुनकर श्रीशिवाजीका मन उनकी ओर आकर्षित हो गया और उन्होंने इनको गुरुरूपमें वरण कर लिया। सं0 1706 में चाफलके समीप शिगणवाडीमें श्रीसमर्थनेउन्हें शिष्यरूपमें ग्रहण किया और श्रीरामचन्द्रके त्रयोदशाक्षर मन्त्रका उपदेश दिया। सं0 1707 में श्रीसमर्थ पार्लमें आकर रहने लगे। वह तभीसे सज्जनगढ़ कहलाने लगा और वहाँ अनेक साधु-संतोंके अतिरिक्त सुभीतेका स्थान होनेके कारण श्रीशिवाजी महाराज बार-बार इनके दर्शनार्थ आने लगे। सं0 1712 में जब शिवाजी महाराज सातारामें थे, तब श्रीसमर्थ करजगाँवसे चलकर भिक्षा माँगते हुए राजद्वारपर पहुँचे। महाराजने इन्हें साष्टाङ्ग प्रणाम करके एक पत्र लिखकर इनकी झोलीमें डाल दिया, जिसमें यह लिखा था कि 'आजतक मैंने जो कुछ अर्जित किया है, वह सब स्वामीके चरणोंमें समर्पित है।' दूसरे दिन श्रीशिवाजी महाराज स्वामीके साथ झोली लटकाकर भिक्षा भी माँगने लगे; परंतु जब श्रीसमर्थने उन्हें समझाया कि 'राज्य करना ही तुम्हारा धर्म है, तब श्रीशिवाजी महाराजने अपने हाथमें फिर शासनसूत्र ले लिया और स्वामीके मन्त्रणानुसार राजकार्य सँभालने लगे।
श्रीसमर्थ जब तंजावर गये थे, तब वहाँके एक अन्धे कारीगरको आँखें देकर इन्होंने श्रीराम, लक्ष्मण, सीता और हनुमान्जीकी चार मूर्तियाँ बनानेका काम सौंपा था। वे मूर्तियाँ सं0 1738 फाल्गुन कृष्णा 5 को सज्जनगढ़ पहुँचीं। उन्हें देखकर श्रीसमर्थको परम सन्तोष हुआ। इन्होंने उसी दिन चारों मूर्तियोंकी विधिपूर्वक स्थापना की। उनकी पूजा-अर्चा होने लगी। फिर माघ कृष्णा 9 के दिन सबसे कह सुनकर श्रीसमर्थने महाप्रयाणकी तैयारी की। श्रीराममूर्तिके सामने आसन लगाकर बैठगये। उनके प्रयाणकालीन उद्वारोंको सुनकर उद्धव आदि शिष्य घबराये। इसपर श्रीसमर्थने कहा कि आजतक जो अध्यात्म-श्रवण करते रहे, क्या उसका यही फल है?" शिष्योंने कहा- 'स्वामी! आप सर्वान्तर्यामी हैं, घट-घटके वासी हैं; पर आपके प्रत्यक्ष और सम्भाषणका लाभ अब नहीं मिलेगा।' यह सुनकर श्रीसमर्थने शिष्योंके मस्तकपर हाथ रखकर कहा- 'आत्माराम', 'दासबोध, इन दो ग्रन्थोंका सेवन करनेवाले भक्त कभी दुःखी न होंगे। तत्पश्चात् इक्कीस बार 'हर-हर' शब्दका उच्चारण करके श्रीसमर्थने ज्यों ही श्रीराम-नाम लिया, त्यों ही उनके मुखसे एक ज्योति निकलकर श्रीरामचन्द्रजीको मूर्तिमें समा गयी!
श्रीसमर्थके प्रसिद्ध ग्रन्थोंके नाम ये हैं- 'दासबोध, मनोबोध, करुणाष्टक, पुराना दासबोध, आत्माराम, रामायण, ओवी चौदह शतक, स्फुट ओवियाँ, पड्रिपु, पञ्चीकरणयोग, चतुर्थमान, मानपञ्चक, पञ्चमान, स्फुट प्रकरण और स्फुट श्लोक। '
श्रीसमर्थद्वारा स्थापित जो सुप्रसिद्ध ग्यारह मारुति हैं, उनके स्थान ये हैं- शाहपुर, मसूर, चाफलमें दो स्थान, डंव्रज, शिरसप्त, मनपाडलें, वारगाँव, माजगाँव, शिंगणवाडी और बाहें।
श्रीसमर्थने लगभग सात सौ मठोंकी संस्थापना की थी। उनमें कुछ मुख्य मठोंके नाम ये हैं-जांब, चाफल, सज्जनगढ़, टाफली, तंजावर, डोमगाँव, मनपाडले, मीरज, राशिबड़े, पण्ढरपुर, प्रयाग, काशी, अयोध्या, मथुरा, द्वारका, बदी केदार, रामेश्वर, गङ्गासागर आदि ।
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