कूजन्तं राम रामेति मधुरं मधुराक्षरम् ।
आरुह्य कविताशाखां वन्दे वाल्मीकिकोकिलम् ॥
अङ्गिरागोत्रमें उत्पन्न एक ब्राह्मण था रत्नाकर। लुटेरे डाकुओंके सङ्गसे वह भी क्रूरहृदय डाकू हो गया था। धर्म-कर्म तो कभी किया ही नहीं था, बचपनसे ही कुसङ्गमें पड़नेसे विद्या भी नहीं प्राप्त की। वनमें छिपा रहता और उधरसे निकलनेवाले यात्रियोंको लूट-मारकर जो कुछ मिलता, उससे अपने परिवारका भरण-पोषण करता। संयोगवश एक दिन उधरसे नारदजी निकले। रत्नाकरने उन्हें भी ललकारा। देवर्षिने निर्भय होकर बड़े स्नेहसे कहा—'भैया ! मेरे पास धरा ही क्या है। परंतु तुम प्राणियोंको क्यों व्यर्थ मारते हो? जीवोंको पीड़ा देने और मारनेसे बड़ा दूसरा कोई पाप नहीं है। इस पापसे परलोकमें प्राणीको भयङ्कर नरकोंमें पड़ना पड़ता है।'जब अकारण कृपालु श्रीहरि दया करते हैं, जब अनेक जन्मोंके पुण्योंका उदय होता है, जब जीवके कल्याणका समय आ पहुँचता है, तभी उसे सच्चे साधुके दर्शन होते हैं। रत्नाकर जिसे लूटता वह रोता, गिड़गिड़ाता, भयभीत होता। आज उसने एक अद्भुत तेजस्वी साधु देखा था, जो तनिक भी उससे डरा नहीं, जिसने अपनी प्राणरक्षाके लिये एक शब्द नहीं कहा, जो उलटा उसे उपदेश दे रहा था। क्रूर डाकूपर प्रभाव पड़ा। उसके निष्ठुर हृदयमें रोने, कलपनेवालोंका गिड़गिड़ाना दया नहीं उत्पन्न करता था; किन्तु इस साधुकी निर्भयता और स्नेहपूर्ण वाणीने उसे प्रभावित कर दिया। वह बोला- 'मेरा परिवार बड़ा है। उन सबका पालन-पोषण अकेले मुझे करना पड़ता है। मैं यदि लूटकर धन न ले जाऊँ तो वे भूखों मर जायँ।'देवर्षिने कहा- 'भाई! तुम जिनका भरण-पोषण करनेके लिये इतने पाप करते हो, वे तुम्हारे इस पापमें भाग लेंगे या नहीं यह उनसे पूछ आओ। डरो मत, मैं भागकर कहीं नहीं जाऊँगा। विश्वास न हो तो मुझे एक वृक्षसे बाँध दो।'
नारदजीको बाँधकर रत्नाकर घर आया। उसने घरके सभी लोगोंसे पूछा। सबने उसे एक ही उत्तर दिया- हमारा पालन-पोषण करना तुम्हारा कर्तव्य है। हमें इससे कोई मतलब नहीं कि तुम किस प्रकार धन ले आते हो। हाय! हाय! जिनके लिये खून-पसीना एक करके, घोर वनमें भूखे-प्यासे दिन-रात वह छिपा रहता है, वर्षा, सर्दी, गरमी तथा दूसरे किसी कष्टकी जिनके लिये चिन्ता नहीं करता, जिनके लिये इतने प्राणियोंको उसने मारा, इतना पाप किया, उन्हें उसके पाप-पुण्य से कुछ मतलब नहीं? मारे शोकके रत्नाकर पागल सा हो गया। एक क्षणमें उसके मोहका सारा बन्धन टूट गया। रोता हुआ वह वनमें गया और ऋषिके बन्धन काटकर उनके चरणोंपर गिर पड़ा। वह छटपटाता हुआ क्रन्दन करने लगा- मेरे जैसे अधमका कैसे उद्धार होगा ?'
देवर्षि भी सोच विचारमें पड़ गये। भगवन्नाम भगवानका साक्षात् स्वरूप है। वह दया करके ही सौभाग्यशाली जीवोंके मुखपर स्वयं आता है। पापी रत्नाकर 'राम' यह सोधा सरल नाम भी नहीं ले पाता था सोचकर नारदजीने उसे 'मरा' यह उलटा नाम जपनेका आदेश दिया और चले गये। रत्नाकर वहाँ बैठकर जपने
लगा-मरामरामरामरामरामरा मास बोते, ऋतुएँ बौतों वर्ष बीता और युग बीत गया: किंतु रत्नाकर उठा नहीं। उसने नेत्र नहीं खोले। उसका जप अखण्ड चलता रहा। उसके शरीरपर दोमकोंने भर बना लिया। वह उनको बाँबी वल्मीकसे ढक गया। अन्तमें ब्रह्माजी इस तपस्वी के पास आये। उन्होंने अपने कमण्डलुका अमृत जल छिड़ककर उसके दीमकोंद्वारा खाये हुए अङ्गोंको सुन्दर, पुष्ट बना दिया। उन सृष्टिकर्ताने ही उसे ऋषि वाल्मीकि कहकर पुकारा। वल्मीकसे निकलनेके कारण उस दिनसे वह वाल्मीकि हो गया।जो कभी क्रूर दस्यु था, प्राणियोंको मारना हो जिसका कर्म था, भगवन्नाम-जपके प्रभावसे वह परम दयालु ऋषि हो गया। जब उसके सामने एक दिन एक | व्याधने क्रौंच पक्षीके जोड़ेमेंसे एकको मार दिया, तब दयाके कारण व्याधको शाप देते समय उसके मुखसे श्लोक निकला। वैदिक छन्द तो अनादि हैं, लौकिक छन्दोंका वह प्रथम छन्द था। उसी छन्दसे वाल्मीकिजी आदिकवि हुए। किंतु वनवासके समय मर्यादापुरुषोत्तम श्रीराम भाई लक्ष्मण एवं जानकीजीके साथ वाल्मीकिजी के आश्रम में पधारे। यहाँ श्रीराम के पूछनेपर जो चौदह स्थान ऋषिने उनके रहने योग्य बताये, उनमें भक्तिके सभी साधन आ जाते हैं। इन चौदह स्थानोंका सुन्दर वर्णन गोसाईजीको भाषामें ही देखिये
सुनहु राम अब कहउँ निकेता। जहाँ बसहुँ सिय लखन समेता ॥ जिन्ह के श्रवन समुद्र समाना। कथा तुम्हारि सुभग सरि नाना ।। भरहि निरंतर होहिं न पूरे तिन्ह के हिय तुम्ह कहुँ गृह रूरे।। लोचन चातक जिन्ह करि राखे। रहहिं दरस जलधर अभिलाषे ।। निदरहिं सरित सिंधु सर भारी रूप बिंदु जल होहिं सुखारी ॥ तिन्ह के हृदय सदन सुखदायक। बसहु बंधु सिय सह रघुनायक ॥
। 'जसु तुम्हार मानस विमल हंसिनि जीहा जासु ।
मुकताहल गुन गन चुनइ राम बसहु हियँ तासु ।। 128 ।। प्रभु प्रसाद सुचि सुभग सुवासा सादर जासु लहड़ नित नासा ॥ तुम्हहि निवेदित भोजन करहीं। प्रभु प्रसाद पट भूषन धरहीं सीस नवहिं सुर गुरु द्विज देखी। प्रीति सहित करि बिनय बिसेषी।। कर नित करहिं राम पद पूजा राम भरोस हृदयँ नहिं दूजा चरन राम तीरथ चलि जाहीं राम बसहु तिन्ह के मन माहाँ ।। मंत्रराजु नित जपहिं तुम्हारा पूजहिं तुम्हहि सहित परिवारा। तरपन होम करहिं बिधि नाना। बिप्र जेवाँइ देहिं बहु दाना ॥ तुम्ह तें अधिक गुरहि जियें जानी सकल भायें सेवहिं सनमानी सबु करि मागहिं एक फलु राम चरन रति होउ।
तिन्ह के मन मंदिर बसहु सिय रघुनंदन दोउ ।। 129 ।। काम कोह मद मान न मोहा। लोभ न छोभ न राग न द्रोहा।। जिन्ह के कपट दंभ नहिं माया तिन्ह के हृदय बसहु रघुराया ॥ सब के प्रिय सब के हितकारी। दुख सुख सरिस प्रसंसा गारी ॥ कहहिं सत्य प्रिय बचन बिचारी। जागत सोवत सरन तुम्हारी ॥तुम्हहि छाड़ि गति दूसरि नाहीं राम बसहु तिन्ह के मन माहीं ।। जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव विष तें विष भारी ।। जे हरषहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर विपति बिसेषी।। जिन्हहि राम तुम्ह प्रानपिआरे तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ।। स्वामि सखा पितु मातु गुर जिन्ह के सब तुम्ह तात ।
मन मंदिर तिन्ह कें बसहु सीय सहित दोउ भ्रात ।। 130 ।। अवगुन तजि सब के गुन गहहीं बिप्र धेनु हित संकट सहहीं ॥ नीति निपुन जिन्ह कइ जग लीका घर तुम्हार तिन्ह कर मनु नीका ॥ गुन तुम्हार समुझइ निज दोसा। जेहि सब भाँति तुम्हार भरोसा ॥ राम भगत प्रिय लागहिं जेही तेहि उर बसहु सहित बैदेही ।। जाति पाँति धनु धरमु बड़ाई। प्रिय परिवार सदन सुखदाई ॥ सब तजि तुम्हहि रहइ उर लाई। तेहि के हृदयँ रहहु रघुराई ॥सरगु नरकु अपबरगु समाना। जहँ तहँ देख धरें धनु बाना ।। करम बचन मन राउर चेरा। राम करहु तेहि कें उर डेरा ।। जाहि न चाहिअ कबहुँ कछु तुम्ह सन सहज सनेहु ।
बसहु निरंतर तासु मन सो राउर निज गेहु ।। 131 ।। अन्तिम समयमें जब मर्यादापुरुषोत्तमने लोकापवादके कारण श्रीविदेहनन्दिनीका त्याग कर दिया, तब वे वाल्मीकिजीके ही आश्रममें रहीं। वहीं लव-कुशकी उत्पत्ति हुई। महर्षिने रामायण-गानकी शिक्षा लव-कुशको ही पहले दी। महर्षि वाल्मीकिका रामायण पञ्चम वेदके समान परम सम्मान्य तथा भवसागरसे पार करनेवाला है। महर्षिने अपने दिव्य ज्ञानके प्रभावसे रामायणकी रचना रामावतारसे पहले ही कर दी थी।
koojantan raam raameti madhuran madhuraaksharam .
aaruhy kavitaashaakhaan vande vaalmeekikokilam ..
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