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राजा बहुलाश्व और ब्राह्मण श्रुतदेव की मार्मिक कथा
राजा बहुलाश्व और ब्राह्मण श्रुतदेव की अधबुत कहानी - Full Story of राजा बहुलाश्व और ब्राह्मण श्रुतदेव (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [राजा बहुलाश्व और ब्राह्मण श्रुतदेव]- भक्तमाल


देवा: क्षेत्राणि तीर्थानि दर्शनस्पर्शनार्चनैः ।

शनैः पुनन्ति कालेन तदप्यर्हतमेक्षया ।।

(सोमद्धा0 10 86 52)

'देवता, पुण्यक्षेत्र और तीर्थ आदि तो धीरे-धीरेबहुत दिनोंमें पवित्र करते हैं। परंतु महापुरुष अपनी दृष्टिसे ही सबको पवित्र कर देते हैं।

मिथिलाएँ वहाँके नरेश महाराज बहुलाव भगवान्‌के भक्त, अहङ्कारहीन तथा प्रजावत्सल थे। उसी नगरमें तदेव नामके भगवान्के परम भक्त दरिद्र ब्राह्मण भी रहते थे। श्रुतदेव विद्वान थे, बुद्धिमान् थे और थे । गृहस्थ किंतु वे अत्यन्त शान्त स्वभावके थे, विषयोंमें उनकी तनिक भी आसक्ति नहीं थी। भगवान्‌की भक्तिसे हो वे सन्तुष्ट थे। बिना माँगे जो कुछ मिल जाता, उसीसे वे जीवन-निर्वाह करते थे। एक दिनका घरका काम चल जाय, इससे अधिक वस्तु बिना माँगे मिलनेपर भी वे लेते नहीं थे। वे 'कलके लिये' संग्रह नहीं करते थे। सध्यातर्पण, देवाराधन आदि शास्त्रसम्मत अपना कर्तव्य विधिपूर्वक करते थे और भगवान्की पूजा तथा ध्यानमें लगे रहते थे। महाराज बहुलाश्व भी सदा भगवान्के स्मरण पूजनमें हो लगे रहते थे। भगवान्‌को प्रसन्न करनेके लिये महाराज यज्ञ, दान एवं गौ, ब्राह्मण तथा अतिथिका पूजन आदि बड़ी श्रद्धासे करते थे।

जब श्रीसत्यभामाजीके पिता सत्राजितको शतधन्वाने रात में छिपकर भवनमें प्रवेश करके मार दिया, उस समय श्रीराम कृष्ण द्वारकामें नहीं थे। समाचार पाकर वे हस्तिनापुरसे आये। शतधन्वा भयके मारे घोड़ेपर बैठकर भागा । बलरामजी के साथ श्रीकृष्णचन्द्र ने उसका रथमें बैठकर पीछा किया। मिथिला नगरके बाहरी उपवनमें पहुँचकर शतधन्वा मारा गया। उस समय श्रीकृष्णचन्द्र तो द्वारका लौट गये, किंतु बलरामजी मिथिलामें महाराज बहुलावके समीप चले आये महाराजकी भक्ति, सेवा तथा प्रेमसे प्रसन्न होकर, द्वारकासे बार-बार सन्देश आते। रहनेपर भी, श्रीबलरामजी मिथिलामें लगभग तीन वर्ष रह गये। फिर मिथिलानरेशको सन्तुष्ट करके वे द्वारका गये।जबसे महाराज बहुलाश्व और विप्र श्रुतदेवने सुना कि भगवान् श्रीकृष्ण मिथिलाके बाहरी उद्यानतक आकर लौट गये, तबसे उनका हृदय व्याकुल रहने लगा। दोनोंको ही लगा कि 'अवश्य हमारी भक्तिमें, हमारे प्रेममें ही कमी है। भगवान् तो दयासागर हैं। वे तो अकारण दया करते हैं। अवश्य हममें कोई बड़ी त्रुटि है, जिससे इतने समीप आकर भी भगवान्ने हमें दर्शन नहीं दिये।' दोनों और भी प्रेमसे भगवान्‌की पूजा तथा उनके नाम-जपमें लग गये। सच्चे प्रेमका यही लक्षण है कि निराश होनेसे प्रेमी भक्तका भजन छूटता नहीं। उसे अपनेमें ही कुछ त्रुटि जान पड़ती है। इससे उसका भजन और बढ़ जाता है।

ब्राह्मण श्रुतदेव तथा राजा बहुलाश्वपर कृपा करके उन्हें दर्शन देनेके लिये श्रीद्वारकानाथ रथपर बैठकर मिथिला पधारे। भगवान् के साथ देवर्षि नारद, वामदेव, अत्रि, व्यासजी, परशुरामजी, असित, आरुणि, शुकदेवजी, बृहस्पति, कण्व, मैत्रेय, च्यवन आदि ऋषि-मुनि भी द्वारकासे मिथिला आये। भगवान्‌के आनेका समाचार पाकर सभी नगरवासी नाना प्रकारके उपहार लेकर नगरसे बाहर आये और उन्होंने भूमिपर लेटकर भगवान्‌को प्रणाम किया। राजा बहुलाश्व तथा ब्राह्मण श्रुतदेव दोनोंको ऐसा लगा कि भगवान् मुझपर कृपा करने पधारे हैं। अतएव दोनोंने एक साथ भगवान्‌को प्रणाम किया और फिर एक साथ हाथ जोड़कर अपने-अपने घर पधारनेकी प्रार्थना की। सर्वज्ञ भगवान्ने दोनोंका भाव समझकर ऋषि-मुनियोंसहित दो रूप धारण कर लिये। श्रुतदेव और बहुलाश्व दोनोंके साथ वे उनके घर गये।

प्रत्येकने यही समझा कि भगवान् मेरे ही घर पधारे हैं। विदेहराज जनक (बहुलाश्व) ने अपने राजभवनमें भगवान्को तथा ऋषियोंको स्वर्णके सिंहासनोंपर बैठाकर उनके चरण धोये। विधिपूर्वक पूजा की। भगवान्‌के चरण अपनी गोद में लेकर धीरे-धीरे दबाते हुए उन्होंने भगवान्की स्तुति की और प्रार्थना की- 'प्रभो ! कुछ दिन यहाँ निवास करके अपनी सेवासे मुझे कृतार्थहोनेका अवसर दें ।' भगवान्ने उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली।

दूसरी ओर श्रुतदेव अपनी कुटियापर भगवान्‌को लेकर पहुँचे। वे भगवान्‌की कृपाका अनुभव करके प्रेममें इतने तन्मय हो गये कि सब सुधि-बुधि भूल गये । अपना दुपट्टा फहराते उड़ाते हुए भगवान्‌के मङ्गलमय नामोंका कीर्तन करके नाचने लगे। जब कुछ देरमें सावधान हुए, तब कुशकी चटाई, पीढ़ा, वेदिका आदिपर उन्होंने सबको आसन दिये। कंगाल ब्राह्मणकी झोपड़ी में सबके बैठनेके लिये चटाई भी पूरी कहाँसे आती। श्रुतदेवने भगवान्के चरण धोये और वह चरणोदक मस्तकपर चढ़ाया। पूजा किस क्रमसे करनी चाहिये, वे इस बातको भूल ही गये। भगवान्‌को कन्द, मूल तथा फल और खस पड़ा हुआ शीतल जल उन्होंने निवेदित किया। तुलसीके नीचेकी सुगन्धित मिट्टी ही उनके लिये चन्दन था, दूर्वादल, कुश, तुलसीदल और कमलके फूल - बस, इतनी सामग्री थी उनके पास पूजा करनेकी। इन्हींसे उन्होंने भगवान्की पूजा की।

श्रुतदेव भक्तिके आवेशमें आत्मविस्मृत हो गये थे।भगवान् चुपचाप भक्तके इस भावको देखकर प्रसन्न हो रहे थे। श्रुतदेव जब पूजा करके, स्तुति करके कुछ सावधान हुए, तब भगवान्ने उन्हें संतोंका माहात्म्य समझाया और ऋषियोंका पूजन करनेको कहा। अबतक श्रुतदेवने जानबूझकर ऋषियोंका पूजन न किया हो, ऐसी बात नहीं थी। वे तो अपनेको भी भूल गये थे। अब उन्होंने उसी श्रद्धा, उसी सम्मानसे प्रत्येक ऋषिका पूजन किया, जिस प्रकार भगवान्‌का पूजन किया था। सबको उन्होंने भगवान्का स्वरूप ही मानकर उनकी सेवा की। श्रुतदेवकी जिस झोपड़ीमें बैठनेके लिये पूरे पीढ़े और चटाइयाँ भी नहीं थीं, उसी झोपड़ीमें ऋषियोंके साथ समस्त ऐश्वर्योंके स्वामी द्वारकानाथ प्रभु उतने ही दिनोंतक रहे, जितने दिन वे जनकके राजमहलमें रहे। एक कंगाल और एक राजाधिराज दोनों श्रीकृष्णचन्द्रके लिये समान हैं—यह उन्होंने वहाँ प्रत्यक्ष दिखा दिया। कुछ दिन वहाँ रहकर राजा बहुलाश्व तथा ब्राह्मण श्रुतदेवसे विदा लेकर वे द्वारका लौट आये। बहुलाश्व तथा श्रुतदेव उन आनन्दकन्द मुकुन्दका चिन्तन करते हुए अन्तमें उनके धामको प्राप्त हुए।



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devaa: kshetraani teerthaani darshanasparshanaarchanaih .

shanaih punanti kaalen tadapyarhatamekshaya ..

(somaddhaa0 10 86 52)

'devata, punyakshetr aur teerth aadi to dheere-dheerebahut dinonmen pavitr karate hain. parantu mahaapurush apanee drishtise hee sabako pavitr kar dete hain.

mithilaaen vahaanke naresh mahaaraaj bahulaav bhagavaan‌ke bhakt, ahankaaraheen tatha prajaavatsal the. usee nagaramen tadev naamake bhagavaanke param bhakt daridr braahman bhee rahate the. shrutadev vidvaan the, buddhimaan the aur the . grihasth kintu ve atyant shaant svabhaavake the, vishayonmen unakee tanik bhee aasakti naheen thee. bhagavaan‌kee bhaktise ho ve santusht the. bina maange jo kuchh mil jaata, useese ve jeevana-nirvaah karate the. ek dinaka gharaka kaam chal jaay, isase adhik vastu bina maange milanepar bhee ve lete naheen the. ve 'kalake liye' sangrah naheen karate the. sadhyaatarpan, devaaraadhan aadi shaastrasammat apana kartavy vidhipoorvak karate the aur bhagavaankee pooja tatha dhyaanamen lage rahate the. mahaaraaj bahulaashv bhee sada bhagavaanke smaran poojanamen ho lage rahate the. bhagavaan‌ko prasann karaneke liye mahaaraaj yajn, daan evan gau, braahman tatha atithika poojan aadi bada़ee shraddhaase karate the.

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