निर्मला सचमुच बहुत ही निर्मल थी। कलियुगको कालिमाएँ उसे नहीं गयी थीं। वह दिव्यलोककी देवी, की जीती-जागती प्रतिमा और भगवद्भक्तिका सजीव विग्रह थी। उसका मुखमण्डल जैसा सुन्दर और भोला भाला था, उसका अन्तःकरण उससे भी कहीं अधिक मनोहर और सरल था। संसारकी किसी भी वस्तुमें उसका मन फैसा नहीं था, उसको किसी भी चीजकी चाह नहीं भी और कहीं भी उसको सीमाबद्ध गंदी ममता नहीं थी। वह अपने प्राणाराम राममें अनुरक्त थी, राम ही उसको चाहके एकमात्र लक्ष्य थे और समस्त विश्वमें व्याप्त विश्वातीत रामके ही पावन चरणोंमें उसकी ममता थी। सदा प्रसन्न रहना उसका स्वभाव था। मोटी साफ सफेद साड़ी, सफेद कब्जा, गलेमें तुलसीजीकी माला, मस्तकपर सफेद चन्दन और जोभपर नित्य नाचनेवाला रामनाम यही उसका स्वाभाविक भृङ्गार था हृदयमें रामका ध्यान, मुँहमें रामका नाम और शरीरसे दिनभर रामको भावनाले घरभरकी छोटी-बड़ी सब तरहकी सेवा-यहीं उसका मन, वाणी, शरीरका काम था। वह कभी न चकती थी, न ऊबती थी, न झल्लाती थी। शान्ति, प्रसन्नता, आनन्द, मुसकान मानो भगवान्को देनके रूपमें सदा उसकी सेवा करते थे। वह रातके पिछले पहर उठती शौच स्नानके बाद छः बजेतक रामजीको मूर्तिके सामने बैठकर ध्यान-पूजन और रामायणका पाठ करतो; फिर काममें लग जाती दुपहरको एक समय बिना मसालेका सादा भोजन करती। जीभके स्वादको उसने जीत लिया था। चार घड़ी रात बीतनेपर उसका काम पूरा होता, तब जमीनपर टाट बिछाकर उसपर कुशका आसन डालकर बैठ जाती और प्रातःकालकी भाँति ही रामजीका ध्यान पूजन करती एक पहर रात बीत जानेपर कुशका आसन उठाकर उसी टाटपर रामजीके चरणोंमें उनके नामका स्मरण करती हुई सो जाती। जाड़ेमें भी उसका यही नियम चलता। उन दिनोंकि लिये वह एक रूईदार कब्जा और ऊनी कम्बल और रखती।
पण्डित विश्वनाथ गौड़ ब्राह्मण थे। थे तो गुजरातके,परंतु काशी में जाकर बस गये थे। विश्वनाथके पास भोग | विलासके लिये धन तो नहीं था, परंतु भगवान्को कृपाये उनके घर किसी बातकी कमी नहीं थी। वे बड़े विद्वान् थे। लोगोंमें उनका बड़ा आदर था। उनकी संस्कृत पाठशाला थी, वे विद्यार्थियोंको बड़े चावसे व्याकरण, न्याय और मीमांसा आदि दर्शनोंकी शिक्षा देते थे। बड़े विलक्षण व्याकरणी तथा दर्शनशास्त्र के महान् पण्डित होनेपर भी उनके हृदयप्राङ्गणमें भक्तिदेवी सदा नाचती रहती थीं। वे सन्ध्याके समय नित्यप्रति वाल्मीकीय रामायणकी बड़ी ही सुन्दर कथा बाँचते थे जो एक बार उनकी कथा सुन लेता, वह फिर उसे कभी न छोड़ता । उनकी वाणीमें बड़ा मधुर रस था, समझानेकी सुन्दर शैली थी और उससे पवित्र भावोंकी अखण्ड धाराएं बहती रहती थीं। कथा बाँचते बाँचते वे गद्गद हो जाते, कभी-कभी तो रो पड़ते। श्रोताओंकी भी यही दशा होती घरमें सदाचारिणी ब्राह्मणी थी। पतिकी भाँति पत्नी श्री रामजीकी भक्त थी। निर्मला उन्होंकी एकमात्र पुत्री थी। वह बचपनसे ही कथा सुनने लगी थी। पिता-माता दोनों भक्त थे। इससे बचपनमें ही निर्मलाके निर्मल हृदय-सरोवरमें भक्ति-लता लहराने लगी थी पिता उसने भगवान् रामको पूजापद्धति सीख ली थी। वही होनेपर पिताने बड़ी धूमधाम से निर्मलाका ब्याह किया। निर्मला पण्डितजीकी एकमात्र सन्तान थी, इससे उनके भक्तोंने निर्मलाके विवाहमें बड़ी उदारता और उमंगके साथ धन खर्च किया। वर भी बड़ा सुशील, सुन्दर और सदाचारी था। उसका नाम गुलाबराय था। सचमुच वह गुलाब-सा सुन्दर था और अपने सद्गुणोंकी सुगन्धा | सबको सुखी करता था। विधाताका विधान कोई टाल नहीं सकता। सालभरके बाद ही हैजेसे उसका देहान्त हो गया। विश्वनाथपर मानो वज्रपात हुआ। उनका हृदय आकुल हो उठा परंतु प्रभु रामजीकी भक्तिने उनको संभाला। आकुलतामें ही उनका मन रामजीके चरणोंमें चला गया। विश्वनाथजी रो-रोकर मानसिक भावोंसे रामजीको पूजा करने लगे। प्रभु रामजोने भक्तपर कृपाकी। वे अपने संतसुखदायी सर्वदुःखहारी मङ्गलमय युगलस्वरूपमें दिव्य सिंहासनसहित प्रकट हो गये और भक्त विश्वनाथजीको ढाढ़स बँधाते हुए बोले- 'भैया विश्वनाथ। इतने आतुर क्यों हो रहे हो? जानते नहीं हो मेरा प्रत्येक विधान मङ्गलमय होता है? निर्मलाको यह वैधव्य तुम्हारे और उसके कल्याणके लिये ही प्राप्त हुआ है। सुनो! पूर्वजन्ममें भी तुम सदाचारी ब्राह्मण थे। वहाँ भी निर्मला तुम्हारी कन्या थी तुम्हारा नाम था जगदीश और निर्मलाका नाम था सरस्वती। तुममें और सरस्वतीमें सभी सद्गुण थे। परंतु तुम्हारे पड़ोसमें एक क्षत्रियका घर था, वह बड़ा ही दुष्टहृदय था। वह मनसे बड़ा कपटी, हिंसक और दुराचारी था, परंतु ऊपरसे बहुत मीठा बोलता था। वह बातें बनानेमें बहुत चतुर था। सद्गुणी होनेपर भी उसके कुसङ्गसे तुम्हारे हृदयपर कुछ कालिमा आ गयी थी, वह सरस्वतीको कुदृष्टिसे देखता था। उसके बहकावे में आकर सरस्वतीने अपने पतिका घोर अपमान f किया था और तुमने उसका समर्थन किया था। सरस्वतीके पतिने आकुल होकर मन-ही-मन सरस्वतीको और तुमको शाप दे दिया था। यद्यपि उसके लिये यह उचित नहीं था, फिर भी दुःखमें मनुष्यको चेत नहीं र रहता। उसी शापके कारण निर्मला इस जन्ममें विधवा हो ह गयी है और तुम्हें यह सन्ताप प्राप्त हुआ है। पतिके तिरस्कारके सिवा सरस्वतीका जीवन बड़ा पवित्र रहा। उसने दुराचारी पड़ोसीके बुरे प्रस्तावको ठुकरा दिया। है जीवनभर तुलसीजीका सेवन, एकादशीका व्रत और रामनामका जाप वह करती रही। तुम इसमें उसके सहायक रहे। इसीसे तुमको और उसको दूसरी बार फिर वही र ब्राह्मणका शरीर प्राप्त हुआ है और मेरी कृपासे तुम दोनोंके हृदयमें भक्ति आ गयी है। मेरी भक्ति एक बार जिसके हृदयमें आ जाती है, वह कृतार्थ हुए बिना नहीं रहता। भक्तिका यह स्वभाव है कि एक बार जिसने उसको अपने हृदयमें धारण कर लिया, उसको वह मेरी प्राप्ति कराये बिना नहीं मानती। बड़ी-बड़ी रुकावटोंको हटाकर, बड़े-बड़े प्रलोभनोंसे छुड़ाकर वह उसे मेरी ओर लगा देती है और मुझे ले जाकर उसके हृदयमें बसा देती है। मैं भक्तिके वश रहता हूँ-यह तो प्रसिद्ध हीहै। तुमलोगोंपर जो यह दुःख आया है, यह भक्तिदेवीकी कृपासे तुम्हारे कल्याणके लिये ही आया है। यह दुःख तुम्हारे सारे दुःखोंका सदाके लिये नाश कर देगा। इतना कहकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।।
विश्वनाथ विचित्र स्वप्न देखकर जगे हुए पुरुषकी भाँति चकित से रह गये। इतनेमें ही निर्मला सामने आ गयी। निर्मलाको देखकर विश्वनाथका हृदय फिर भर आया उनके नेत्रोंसे आँसू बहने लगे। वे दुःसह मर्मपीड़ासे पीड़ित हो गये। परंतु निर्मलाको साधना बहुत ऊँची थी। वह अपने वैधव्यकी हालतको खूब समझती थी, परंतु यह साधनाकी जिस भूमिकापर स्थित थी, उसपर वैधव्यकी भीषणताका कुछ प्रभाव नहीं था। उसने कहा- 'पिताजी! आप विद्वान्, ज्ञानी और भगवद्भक्त होकर रोते क्यों हैं? शरीर तो मरणधर्मा है ही। जड पक्षभूतों से बने हुए शरीरमें तो मुर्दापन ही है। फिर उसके लिये शोक क्यों करना चाहिये। यदि शरीरकी दृष्टिसे ही देखा जाय तो स्त्री अपने स्वामीको अर्धाङ्गिनी है। उसके आधे अङ्गमें वह है और आधे अङ्गमें उसके स्वामी हैं। इस रूपमें स्वामीका बिछोह कभी होता ही नहीं। सती स्त्रीका स्वामी तो सदैव अर्धाङ्गरूपमें उसके साथ मिला हुआ ही रहता है। अतएव सती स्त्री वस्तुतः कभी विधवा होती ही नहीं। वह विलासके लिये विवाह नहीं करती, वह तो धर्मतः पतिको अपना स्वरूप बना लेती है! ऐसी अवस्थामें-पृथक् शरीरके लिये रोनेकी क्या आवश्यकता है। इसके अतिरिक्त सबसे महत्त्वकी बात तो यह है कि सारा जगत् हो प्रकृति है, पुरुष-स्वामी तो एकमात्र भगवान् श्रीरघुनाथजी ही हैं। श्रीरघुनाथजी अजर, अमर, नित्य, शाश्वत, सनातन, अखण्ड, अनन्त, अनामय, पूर्ण पुरुषोत्तम हैं। प्रकृति कभी उनके अंदर सोती है, कभी बाहर उनके साथ खेलती है। प्रकृति उनको अपनी ही स्वरूपा शक्ति है। इस प्रकृतिसे पुरुषका वियोग कभी होता ही नहीं पुरुषके बिना प्रकृतिका अस्तित्व ही नहीं रहता। अतएव हमारे रघुनाथजी नित्य ही हमारे साथ हैं। आप इस बातको जानते हैं, फिर आप रोते क्यों हैं। कर्मकी दृष्टिसे देखें तो जीव अपने-अपने कर्मवश जगतुमें जन्म लेते हैं.कर्मवश ही सबका परस्पर यथायोग्य संयोग होता है, फिर कर्मवश ही समयपर वियोग हो जाता है। कर्मजनित यह सारा सम्बन्ध अनित्य, क्षणिक और मायिक है। यह नश्वर जगत् संयोग-वियोगमय ही तो है, यहाँपर नित्य क्या है। इस संयोग-वियोगमें हर्ष-विषाद क्यों होना चाहिये।
'फिर, भगवान्का भक्त तो प्रत्येक बातमें भगवान्के मङ्गलमय विधानको देखकर, विधानके रूपमें स्वयं विधाताका स्पर्श पाकर प्रफुल्लित होता रहता है— चाहे वह विधान देखनेमें कितना ही भीषण क्यों न हो जाय। अतएव पिताजी! आप निश्चय मानिये - भगवान्ने हमारे परम मङ्गलके लिये ही यह विधान किया है जो जगत्की दृष्टिमें बड़ा ही अमङ्गलस्वरूप और भयानक है। आप निश्चिन्त रहिये, हमारा परम कल्याण ही होगा।'
निर्मलाके दिव्य वचन सुनकर विश्वनाथजीकी सारी पीड़ा जाती रही। उन्होंने कहा- 'बेटी! तू मानवी नहीं है, तू तो दिव्यलोककी देवी है। तभी तेरे ऐसे भाव हैं। तूने मुझको शोकसागरसे निकाल लिया! मैं धन्य हूँ जो तेरा पिता कहलाने योग्य हुआ हूँ।'
तभीसे निर्मला पिताके घर रहने लगी और माता
पितासहित अपना जीवन भगवान्के भजनमें बितानेलगी। घरमें श्रीरघुनाथजीका विग्रह था। माता-पिताकी तथा श्रीरघुनाथजीकी सेवा करना ही उसका काम था। घरका काम करते समय भी उसका मन भगवान्में लगा रहता। भगवान्का सङ्ग उसके जीवनका जीवन बन गया था। वह कुछ भी करती, किसी भी काममें रहती, स्वाभाविक ही भगवान्के साथ रहती। भगवान्के बिना वह रह ही नहीं सकती थी।
कुछ समय बाद उसके माता-पिता दोनों एक ही दिन भगवान्का स्मरण करते हुए संसारसे विदा हो गये। वह रोयी नहीं। भगवान्के नित्य सान्निध्यने उसके जीवनको निर्भय, रसमय, आनन्दमय, संयोगमय, चिन्मय और भगवन्मय बना दिया था। किसी भी बाहरी अवस्थाका उसकी इस नित्य स्थितिपर असर नहीं पड़ता था। माता-पिताकी यथोचित क्रिया करनेके बाद वह घर छोड़कर गङ्गातीरपर कुछ दूर चली गयी। उस समय काशीका गङ्गातट तपोभूमि थी। वहाँ उसने मा भागीरथीके पावन तटपर तीस साल भगवान्के ध्यानमें बिताये और अन्तमें शरीरको गङ्गामैयाकी गोदमें छोड़कर भगवान् शङ्करकी कृपासे वह भगवान् श्रीरामजीके दिव्य साकेत में पहुँचकर उनकी नित्य-चर्यामें नियुक्त हो गयी।
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