दक्षिणके किसी जंगली प्रदेशमें रहनेवाली एक शिकारी जातिका सरदार नाग था। उसका काम था हत्या करना। उसके बाणोंकी नोकमें जहर लगा रहता था, जो आगके समान जलता था। धनुष-बाण चलानेमें वह अत्यन्त चतुर था। क्रोधोन्मत्त सिंहके समान वह बली था। उसकी पत्नीका नाम तत्ता था। वह भी सिंहनीके ही समान डरावनी थी। वह उजले शङ्खों और सिंहके दाँतोंकी माला पहनती थी। बहुत दिनोंके बाद उन्हें एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम तिण्ण रखा गया। तिण्णका अर्थ भारी होता है। अपने लड़केको गोदमें उठानेपरनागको वह भारी लगा, इसलिये उसका नाम उसने तिण्ण रख दिया।
तिण्ण सोलह वर्षकी उम्र में ही धनुष-बाण, भाला, तोमर और वीरोंके योग्य दूसरे अस्त्र-शस्त्र चलानेमें बहुत निपुण हो गया। नागको बुढ़ापा आता हुआ मालूम हुआ। उसने तिण्णको अपनी जातिका सरदार बना दिया। तिण्ण नियमानुसार पहले-पहल आखेटको निकला। बहुत-से जानवर मारनेके बाद उसने घने जंगलमें एक सूअरका शिकार किया। वहीं उसके दो नौकर नाण और काड | उससे आ मिले। उन्होंने सूअरको उठा लिया और बढ़चले रास्तेमें उनको जोरों की भूख लगी।
तिरणने पूछा- यहाँ मीठा पानी कहाँ मिलेगा?
तुम्हें कुछ पता है?" नाण बोला- 'उस विशाल शालवृक्षके उस पार एक पहाड़ी है और उसीके नीचे सुवर्णानदी बहती है।'
तिण्णने कहा-'चलो, तब वहीं चलें।' तीनों चल पड़े। वहाँ पहुँचनेपर तिण्णने पहाड़ीपर चढ़नेकी इच्छा जतायी।
नाणने भी जोर दिया, 'हाँ, यह पहाड़ बहुत ही रमणीक है। शिखरपर एक मन्दिर है, जिसमें भगवान् जटाजूटधारीकी मूर्ति है। आप उनकी पूजा कर सकते हैं।'
पहाड़पर चढ़ते चढ़ते तिष्णकी भूख-प्यास गायब हो गयी। उसे ऐसा मालूम होने लगा मानो सिरपरसे कोई भार उतरा जाता हो। उसे एक प्रकारका अनिर्वचनीय आनन्द मिलने लगा। उसके भीतर कोई नयी ही अभिलाषा उत्पन्न हो गयी।
वह बोला-'नाण! तुम्होंने कहा है न कि ऊपर भगवान् जटाजूटधारीका मन्दिर है; चलो, उनके दर्शन कर आयें।'
वे शिखरपर चढ़कर मन्दिरके सामने पहुँचे। देवप्रतिमाको देखते ही भावुक हृदय तिण्णने लपककर उसे प्रेमालिङ्गनमें बाँध लिया। उसके आनन्दका पार न रहा। उसकी आँखोंसे अजस्र अश्रुधारा बहने लगी। वह कहने लगा 'प्यारे भगवन्! क्या तुम यहाँ अकेले ही जंगलमें जंगली जन्तुओंके बीच रहते हो? यहाँ तुम्हारा कोई मित्र नहीं है?' भक्तिसे उसका हृदय गद्गद हो गया। उसकी इस समाधिस्थ अवस्थामें धनुष सरककर गिर गया। मूर्तिके सिरपर कुछ हरे पत्ते, जंगली फूल और शीतल जल देखकर वह दुःखित हो गया और कहने लगा-'किस नराधमने मेरे स्वामीके सिरपर ये चीजें रखी हैं?'
नाणने जवाब दिया- आपके पूज्य पिताके साथ में यहाँ बहुत बार आया हूँ। हमने एक ब्राह्मणको यह करते देखा था। उसने देवताके सिरपर ठंडा पानी डाल दिया और फूल-पत्तियाँ रख दीं। फिर वह खूब उसी तरह बड़बड़ाता रहा, जैसा कि हम ढोल पीट-पीटकर देवताके सामने किया करते हैं; उसने आज भी जरूरयही किया होगा।"
तिण्णको भी पूजा करनेकी बड़ी प्रबल इच्छा थी; किंतु ढंग नहीं मालूम होनेसे उसने सोचा कि मैं भी न इसी तरह भूखे भगवान्को मांस लाकर खिला तिण्ण मन्दिरसे रवाना हुआ, मगर तुरंत ही लौट आया। वह बार-बार जानेकी कोशिश करता था, किंतु इस नयी निधिको छोड़नेकी इच्छा न होनेसे लौट आता था। उसकी हालत उसी गायकी-सी हो गयी, जो अपने पहले बछड़े को नहीं छोड़ना चाहती।
उसने सरलतासे कहा-'प्यारे मालिक! मैं जाकर तेरे लिये अपने हाथों मांस पकाकर लाऊँगा। तुझे यों अकेला और असहाय छोड़नेको जी नहीं चाहता। किंतु तुझे भूख लग रही है और जाकर तेरे खानेके लिये कुछ लाना ही होगा।' आँखोंमें आँसू भरे आते थे। यों वह जंगली शिकारी मन्दिरसे चला। नाण उसके पीछे-पीछे चला पहाड़ीके नीचे आनेपर उसने दूसरे नौकरको सारी कथा कह सुनायी। यह भी कहा कि मालिकने मूर्तिका आलिङ्गन किया था, उसे देरतक न छोड़ा और अब देवताके लिये पका हुआ मांस ले जानेको आये हैं।
नौकर रोने लगे-'हमारा तो सर्वनाश हो गया। सरदार पागल हो गये।' तिण्णने उनके रोनेकी जरा भी परवा न की। उसने पकाया। फिर उसे चखकर देखा कि ठीक-ठीक पका तो है, स्वाद ठीक है और सन्तोष हो जानेपर पहाड़पर ले जानेके लिये उसे शालके पत्ते में लपेटकर रखा।
नौकरोंने मन ही मन कहा-'पगला! कर क्या रहा है? पका हुआ मांस मुँहमें डालकर चखता है और इतना भूखा होनेपर भी उसे बिना खाये ही पत्तेपर रख देता है। अपनी भूख-प्यासकी तो कोई बात ही नहीं करता। हमें भी मांस देनेका नाम नहीं लेता अपने देवताके लिये थोड़ा-सा चुनकर बाकी फेंक देता है। इसका सिर फिर गया है, अब अच्छा नहीं हो सकता। खैर, चलो, इसके मापसे यह बात कह दें। दोनों नौकर उसे छोड़कर चले गये। तिण्णने न तो उनकी बात सुनी और न उनका जाना ही उसे मालूम हुआ। वह तो अपने ही काममें मग्न था। अभिषेकके लिये उसने अपने मुँहमें ताजा पानी भरलिया; क्योंकि उसके पास कोई बरतन नहीं था। चढ़ानेके लिये अपने बालोंमें उसने कुछ जंगली सुगन्धित फूल खाँस लिये। एक हाथमें उसने मांस लिया और दूसरेमें आत्मरक्षाके लिये तीर, धनुष; और वह दोपहरकी कड़कड़ाती धूपमें पहाड़पर चढ़ने लगा। यह सोचकर कि देवता भूखे होंगे, वह और भी तेजीसे चलने लगा। शिखरपर पहुँचनेके बाद वह मन्दिरमें जूता पहने ही दौड़कर घुस गया। देवताके सिरपरसे पुराने फूल उसने बड़े स्नेहके साथ पैरोंसे हटाये, अभिषेकके लिये ऊपरसे कुल्ला कर दिया और देवताके आगे मांस रखकर अपनी साधारण बोलीमें खानेका आग्रह करने लगा। अँधेरा हो आया। तिण्णने सोचा, 'यह समय तो जंगली जानवरोंके धूमका है। देवता यहाँ अकेले छोड़कर मैं नहीं जा सकता।' उसने हाथमें धनुष-बाण लेकर रातभर पहरा दिया। सबेरा होनेपर जब चिड़ियाँ चहचहाने लगीं, तब वह देवताके आगे प्रणिपात और प्रार्थना करके ताजा मांस लाने चला गया।
वह ब्राह्मण पुजारी, जो पूजा किया करता था, नियमानुसार प्रातःकाल आया। मन्दिरमें जूतों और कुत्तोंके पैरोंकी छाप देखकर तथा चारों ओर हाड़-मांस छितराया हुआ देखकर वह बहुत ही घबरा गया, विलाप करने लगा, 'हाय, भगवन्! अब मैं क्या करूँ? किसी जंगली शिकारीने मन्दिर भ्रष्ट कर दिया है!' लाचार उसने झाड़ बुहारकर साफ किया। मांसके टुकड़े कहीं पैरोंसे छू न जायें, इसलिये उसे बड़ी कठिनतासे इधर-उधर चलना पड़ता था। फिर वह नदीमेंसे स्नान करके आया और मन्दिरकी सम्पूर्ण शुद्धि की आँखोंमें आँसू भरकर देवताके आगे प्रणिपात करने लगा। फिर उठकर उसने वेद ऋचाओंसे परम पुरुष परमात्माकी स्तुति की। पूजा समाप्त करके वह अपने तपोवनको लौट गया।
तिण्णने कई जानवर मारे और पिछले दिनके समान चुनकर मांस पकाया और चख चखकर अच्छे-अच्छे टुकड़े अलग रख लिये। उसने कई अच्छे ताजे मधुके छत्ते इकट्ठे किये, उनका मधु मांसमें निचोड़ा। फिर वहहमें पानी भरकर बालोंमें फूल खोंसकर एक हाथमें मांस लिये हुए और दूसरे में धनुष-बाण लेकर पहाड़पर दौड़ा। ज्यों-ज्यों मन्दिर निकट आता जाता था, उसकी आतुरता भी बढ़ती जाती थी वह बड़े-बड़े डग भरता चला। उसने देवताके सिरपरसे फूल पत्ते पैरसे ठेलकर साफ किये, कुल्ला करके अभिषेक कराया और यह कहते हुए मांसका उपहार सामने रखा, 'देवता! कलसे आजका मांस मीठा है। कल तो केवल सूअरका मांस था। आज तो बहुत से स्वादिष्ट जानवरोंके मांस चखकर और खूब स्वादिष्ट चुनकर लाया हूँ। उसमें मधु भी निचोड़ा है।" इस तरह तिष्णके पाँच दिन, दिनभर शिकार करके | देवताके लिये मांस इकट्ठा करने और रातभर पहरा देने में बीते। उसे आप खाने-पीनेकी सुध ही न रही। तिष्णके चले जानेके बाद प्रतिदिन ब्राह्मण पण्डित आते और रातके इस भ्रष्टाचारपर विलाप करते, मन्दिर धोकर साफ करते, नदी स्नान करके शुद्धि करते और पूजा-पाठ करके अपने स्थानपर लौट जाते। जब इतने दिनोंतक तिण्ण नहीं लौटा, तब उसके सभी सम्बन्धी और मा बाप निराश हो गये।
ब्राह्मण पुजारी रोज ही हार्दिक प्रार्थना करते- 'प्रभु! मेरे पाप क्षमा करो। ऐसा भ्रष्टाचार रोको' एक रात स्वप्रमें परमेश्वर उनके सामने आकर बोले, 'मित्र! तुम मेरे इस प्रिय शिकारी भक्तको नहीं जानते। यह मत समझो कि वह निरा शिकारी ही है। वह तो बिलकुल ही प्रेममय है। वह मेरे सिवा और कुछ जानता ही नहीं। वह जो कुछ करता है, मुझको प्रसन्न करनेके लिये हो। जब वह अपने जूतेकी नोक मेरे सिरपरसे सूखे फूल हटाता है, तब उसका स्पर्श मुझे प्रिय पुत्र कुमारदेवके आलिङ्गनसे भी अधिक प्रिय लगता है। जब मुझपर वह प्रेम और भक्तिसे कुल्ला करता है, तब वह कुल्लेका ही पानी मुझे गङ्गाजलसे भी अधिक पवित्र जान पड़ता है। वह अनपढ़ मूर्ख सच्चे स्वाभाविक प्रेम और भक्तिसे जो फूल अपने बालोंमेंसे निकालकर मुझपर चढ़ाता है, वे | मुझे स्वर्गमं देवताओंके भी चढ़ाये फूलोंसे अधिक प्रियलगते हैं और अपनी मातृभाषामें वह आनन्द और भक्तिसे भरकर जो थोड़ेसे शब्द कहकर मेरे सिवा सारी दुनियाका भान भूलकर मुझे प्रसाद पानेको कहता है, वे शब्द मेरे कानों में ऋषि-मुनियोंके वेद पाठसे कहीं अधिक मीठे लगते हैं। यदि उसकी भक्तिका महत्त्व देखना हो तो कल आकर मेरे पीछे खड़े हो जाना।'
इस आदेश के बाद पुजारीको रातभर नींद नहीं आयी। प्रातःकाल वह नियमानुसार मन्दिरमें पहुँचा और पूजा-पाठ समाप्त करके मूर्तिके पीछे जा छिपा। तिण्णकी पूजाका यह छठा दिन था और दिनोंसे आज उसे कुछ देर हो गयी थी। इसलिये वह पैर बढ़ाता आया। रास्तेमें उसे अपशकुन हुए, वह सोचने लगा, 'कहीं खून गिरना चाहिये। कहीं देवताको कुछ हुआ तो नहीं?' इसलिये वह दौड़ा। अपने असगुनको पूरा होते देखकर उसके शोकका पार न रहा। हाय! देवताको कितना कष्ट हो रहा था; क्योंकि उनकी दाहिनी आँखसे खूनकी अविरल धारा बह रही थी। तिण यह दुःखद दृश्य नहीं देख सका। वह रोने, विलाप करने लगा। जमीनपर लोटने लगा। फिर उठा। उठकर भगवान्को आँखसे खून पोंछ दिया, परन्तु तो भी खूनका बहना रुका नहीं। वह फिर दुःखातुर होकर गिर पड़ा!
तिण्ण बिलकुल ही घबरा गया। उसका चित्त अत्यन्त दुःखी हो गया। वह समझता नहीं था कि क्या करना चाहिये। थोड़ी देर बाद वह उठा और तीर-धनुष लेकर उस आदमी या जानवरको मारने निकला, जिसने देवताकी यह दुर्दशा की हो परन्तु उसे कहीं कोई प्राणी नहीं दिखलायी पड़ा वह लौट आया और मूर्तिको छाती से लगा करके विलाप करने लगा, 'हाय मैं महापापी हूँ। रास्तेके सभी अपशकुन सच्चे हुए हैं। भगवन् पिता मेरे प्यारे तुम्हें क्या हुआ है? मैं तुम्हें क्या सहायता दूँ?' तब उसे कुछ जड़ी-बूटियोंकी याद आयी, जिन्हें उसकी जातिके लोग घावोंपर लगाते थे।वह दौड़ा और जब लौटा तो जड़ी-बूटियोंका एक गट्ठर | लेकर उन्हें उसने देवताकी आँखमें एक-एककर निचोड़ दिया, पर इससे कुछ लाभ नहीं हुआ। उस समय उसे शिकारियोंकी कहावत याद आयी कि 'मांस मांससे ही अच्छा होता है।' यह खयाल आते ही उसके मनमें आनन्दकी नयी ही उमंग खेलने लगी। उसने देर न की। एक तेज बाणकी नोकसे अपनी दाहिनी आँख निकाल डाली और भगवान्की आँखपर धीरेसे धरकर उसे दबाया और आश्चर्य कि इससे तुरंत खूनका बहना रुक गया!
वह आनन्दसे नाच उठा ताल ठोक ठोककर आनन्दोन्मत हो नाचने लगा। उसकी असीम प्रसन्नतापूर्ण हँसी और आनन्दध्वनिसे मन्दिर गूंज उठा; पर यह क्या हुआ? अरे, इस बीच बाँयीं आँखसे भी खून बहने लगा। इसपर दुःख और घबराहटमें तिण्ण भान भूल गया। परन्तु यह विस्मृति क्षणिक ही थी। तुरंत ही वह सँभल उठा और उसने कहा, 'मेरे जैसा कौन मूर्ख होगा, जो इसपर शोक करता है? इसकी दवा तो मुझे मिल ही गयी है अब भी मेरी एक आँख तो है।" तब देवताकी बाँ आँखपर अपना बाँयाँ पैर रखकर, जिससे उसे पता चले कि कहाँ आँख लगानी है क्योंकि आँख निकालनेके बाद उसे कुछ भी नहीं सूझेगा-उसने पहलेसे भी अधिक तेजीसे बाँयीं आँखके कोनेमें तीरकी नोक लगायी। देवता उसकी इस भक्तिपर पुष्प बरसाने लगे। स्वयं भगवान् ने अपने हाथ बढ़ाकर तिण्णका हाथ पकड़कर रोक लिया और कहा-'ठहरो, मेरे कण्णप्प ! मेरे कण्णप्प! ठहर जाओ।' [कण-आँख, अप्प वत्स, कण्णप्प - कण+ अप्प। फिर परमेश्वरने कण्णप्पका हाथ पकड़कर उसे अपने पास खींच लिया और कहा 'त्याग और प्रेमकी मूर्ति कण्णप्प! तू इसी भाँति सर्वदा मेरे पास रहा कर!'
ब्राह्मण पुजारीने यह आश्चर्यजनक दृश्य देखा और । सच्ची तथा सीधी-सादी भक्तिका रहस्य समझा!
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is aadesh ke baad pujaareeko raatabhar neend naheen aayee. praatahkaal vah niyamaanusaar mandiramen pahuncha aur poojaa-paath samaapt karake moortike peechhe ja chhipaa. tinnakee poojaaka yah chhatha din tha aur dinonse aaj use kuchh der ho gayee thee. isaliye vah pair badha़aata aayaa. raastemen use apashakun hue, vah sochane laga, 'kaheen khoon girana chaahiye. kaheen devataako kuchh hua to naheen?' isaliye vah dauda़aa. apane asagunako poora hote dekhakar usake shokaka paar n rahaa. haaya! devataako kitana kasht ho raha thaa; kyonki unakee daahinee aankhase khoonakee aviral dhaara bah rahee thee. tin yah duhkhad drishy naheen dekh sakaa. vah rone, vilaap karane lagaa. jameenapar lotane lagaa. phir uthaa. uthakar bhagavaanko aankhase khoon ponchh diya, parantu to bhee khoonaka bahana ruka naheen. vah phir duhkhaatur hokar gir pada़aa!
tinn bilakul hee ghabara gayaa. usaka chitt atyant duhkhee ho gayaa. vah samajhata naheen tha ki kya karana chaahiye. thoda़ee der baad vah utha aur teera-dhanush lekar us aadamee ya jaanavarako maarane nikala, jisane devataakee yah durdasha kee ho parantu use kaheen koee praanee naheen dikhalaayee pada़a vah laut aaya aur moortiko chhaatee se laga karake vilaap karane laga, 'haay main mahaapaapee hoon. raasteke sabhee apashakun sachche hue hain. bhagavan pita mere pyaare tumhen kya hua hai? main tumhen kya sahaayata doon?' tab use kuchh jada़ee-bootiyonkee yaad aayee, jinhen usakee jaatike log ghaavonpar lagaate the.vah dauda़a aur jab lauta to jada़ee-bootiyonka ek gatthar | lekar unhen usane devataakee aankhamen eka-ekakar nichoda़ diya, par isase kuchh laabh naheen huaa. us samay use shikaariyonkee kahaavat yaad aayee ki 'maans maansase hee achchha hota hai.' yah khayaal aate hee usake manamen aanandakee nayee hee umang khelane lagee. usane der n kee. ek tej baanakee nokase apanee daahinee aankh nikaal daalee aur bhagavaankee aankhapar dheerese dharakar use dabaaya aur aashchary ki isase turant khoonaka bahana ruk gayaa!
vah aanandase naach utha taal thok thokakar aanandonmat ho naachane lagaa. usakee aseem prasannataapoorn hansee aur aanandadhvanise mandir goonj uthaa; par yah kya huaa? are, is beech baanyeen aankhase bhee khoon bahane lagaa. isapar duhkh aur ghabaraahatamen tinn bhaan bhool gayaa. parantu yah vismriti kshanik hee thee. turant hee vah sanbhal utha aur usane kaha, 'mere jaisa kaun moorkh hoga, jo isapar shok karata hai? isakee dava to mujhe mil hee gayee hai ab bhee meree ek aankh to hai." tab devataakee baan aankhapar apana baanyaan pair rakhakar, jisase use pata chale ki kahaan aankh lagaanee hai kyonki aankh nikaalaneke baad use kuchh bhee naheen soojhegaa-usane pahalese bhee adhik tejeese baanyeen aankhake konemen teerakee nok lagaayee. devata usakee is bhaktipar pushp barasaane lage. svayan bhagavaan ne apane haath badha़aakar tinnaka haath pakada़kar rok liya aur kahaa-'thaharo, mere kannapp ! mere kannappa! thahar jaao.' [kana-aankh, app vats, kannapp - kana+ appa. phir parameshvarane kannappaka haath pakada़kar use apane paas kheench liya aur kaha 'tyaag aur premakee moorti kannappa! too isee bhaanti sarvada mere paas raha kara!'
braahman pujaareene yah aashcharyajanak drishy dekha aur . sachchee tatha seedhee-saadee bhaktika rahasy samajhaa!