जलबुद्बुदवन्मूढ क्षणविध्वंसि जीवनम् ।
किमर्थं शाश्वतधिया करोषि दुरितं सदा ॥
(पद्मपुराण, क्रियायोग0 16 । 32 )
'अरे मूर्ख प्राणी! यह जीवन तो जलके बुलबुलेके समान एक क्षणमें नष्ट हो जानेवाला है, फिर तू क्यों इसे शाश्वत – अविनाशी मानकर सदा पाप ही करता है?'
प्राचीन समयमें पुरुषोत्तमपुरीमें एक ब्राह्मण रहता था। उसका नाम था भद्रतनु । वह देखनेमें सुन्दर था और पवित्र कुलमें उत्पन्न हुआ था। माता-पिता उसे बचपनमें ही अनाथ करके परलोक चले गये। कोई संरक्षक न होनेसे भद्रतनु युवावस्थामें कुसङ्गमें पड़ गया। युवावस्था, धन, स्वतन्त्रता और कुसङ्ग-इन चारमेंसे एक ही मनुष्यको पतनके मार्गपर ले जानेको पर्याप्त है; जहाँ चारों हों, वहाँ तो विनाश आया ही मानना चाहिये। भद्रतनु कुसङ्गके प्रभावसे स्वाध्याय, संयम, नित्यकर्म आदिसे विमुख हो गया। सत्य, अतिथि सत्कार, उपासनादि सब उसके छूट गये। वह धर्मका निन्दक हो गया, सदा परधन तथा परस्त्रीको पानेकी घातमें रहने लगा। भोगासक्त और काम-क्रोध-परायण हो गया। जुआ, चोरी, मदिरापान प्रभृति दोष उसमें आ गये।
नगरके पास ही सुमध्या नामक एक सुन्दरी वेश्या रहती थी। बुरे सङ्गमें पड़कर उसका पतन हो गया थाऔर परिस्थितिवश उसको वेश्या बनना पड़ा था; किंतु | इस वृत्तिसे उसे बहुत घृणा थी। वह अपनी दशापर सदा दुःखी रहती, पछताती; पर उससे छूटनेका मार्ग नहीं था। मनुष्यका एक बार पतन हो जानेपर फिर सम्हलना बहुत कठिन होता है। भीड़में जो गिर पड़ता है, उसका कुचल जाना ही सहज सम्भाव्य है, वह कदाचित् ही उठ पाता है। कुछ ऐसी ही दशा होनेपर भी सुमध्याने साहस नहीं छोड़ा। उसके हृदयमें धर्मका भय था, परलोकपर विश्वास था, ईश्वरपर आस्था थी। अपने उद्धारके लिये वह भगवान्से सदा प्रार्थना करती रहती थी।
भद्रतनुका सुमध्यापर बड़ा प्रेम था। वह कामुक था और वेश्याके सौन्दर्यपर लट्टू था, पर सुमध्या उससे सचमुच प्रेम करती थी। अनेक स्थानोंसे ऊबकर वह उस ब्राह्मणकुमारसे अनुराग करने लगी थी। उसने भद्रतनुको अनेक बार समझाना चाहा। जुआ शराब आदिके भयङ्कर परिणाम बतलाकर उसे दोषमुक्त करनेके प्रयत्नमें वह लगी ही रहती थी। इस ब्राह्मण युवकके पतनसे उसे बड़ा दुःख होता था। परन्तु उसे यह भरोसा नहीं था कि वह छोड़ दे तो भद्रतनु सुधर जायगा तथा और कहीं न जायगा। फिर वेश्याके पेटका भी सवाल था; अतः । भद्रतनुको वह इस कुमार्गसे रोक नहीं पाती थी, मन मारकर रह जाती थी।एक दिन भद्रतनुके पिताका श्राद्ध-दिवस आया। श्रद्धा न होनेपर भी लोक-निन्दाके भयसे उसने श्राद्धकर्म किंतु उसका चित्त सुमध्यामें लगा रहा। श्राद्धकार्यसे छुटकारा पाकर वह वेश्याके यहाँ पहुँच गया। देर होनेका कारण बतलाकर कामियोंके प्रलापके समान उसने सुमध्याके सौन्दर्य तथा अपनी आसकिकी लम्बी चौड़ी बातें कीं। सुमध्या ब्राह्मण कुमारकी मूर्खतापर हँस रही थी। उसे भद्रतनुपर क्रोध आया। उसने कहा- ' अरे ब्राह्मण! धिक्कार है तुझे तेरे जैसे पुत्रके होनेसे अच्छा था कि तेरे पिता पुत्रहीन ही रहते आज तेरे पिताका श्राद्ध-दिन है और तू निर्लज होकर एक वेश्याके यहाँ आया है। तूने शास्त्र पढ़े हैं; तू जानता है कि जो मनुष्य श्राद्धके दिन स्त्री सहवास करता है, परलोकमें उसके पितर तथा वह भी वीर्य-भक्षण करते हैं। मेरे इस शरीर में हड्डी, मांस, रक्त, मजा, मेद, मल, मूत्र, भूक आदिके अतिरिक्त और क्या है? तू क्यों इस नरककुण्डमें कूदने आया है? ऐसे प्रणित शरीरमें तूने क्यों सौन्दर्य मान लिया है? क्या मनुष्य शरीर तुझे पाप कमानेके लिये ही मिला है? मैं तो वेश्या हूँ, अधम हूँ, मुझमें आसक्त होकर तो तेरी अधोगति ही होनी है। यही आसक्ति यदि तेरी भगवान्में होती तो पता नहीं, अबतक तू कितनी ऊँची स्थितिको पा लेता। जीवनका क्या ठिकाना है, मृत्यु तो सिरपर ही खड़ी है। कच्चे घड़ेके समान काल कभी भी जीवनको नष्ट कर देगा। तू ऐसे अल्पजीवनमें क्यों पापमें लगा है? विचार कर। मनको मुझसे हटाकर भगवान्में लगा। भगवान् बड़े दयालु हैं, वे तुझें अवश्य अपना लेंगे।'
सुमध्याके वचनोंका भद्रतनुपर बहुत प्रभाव पड़ा। वह सोचने लगा- 'सचमुच में कितना मूर्ख हूँ। एक वेश्यामें जितना ज्ञान है, उतना भी मुझ दुरात्मामें नहीं है। ब्राह्मणकुलमें जन्म लेकर भी मैं पाप करनेमें ही लगा रहा। जब मृत्यु निश्चित है, जब मृत्युके पश्चात् पापका दण्ड भोगनेके लिये यमराजके पास जाना भी निश्चित हो है, तब क्यों मैं और पाप करूँ? मैंने तो जप-तप, अध्ययन-पूजन, हवन-तर्पण आदि कोई सत्कर्म किये नहीं। मुझसे भगवान्की उपासना भी नहीं हुई। अब मेरीक्या गति होगी? कैसे मेरा पापोंसे छुटकारा होगा।' इस प्रकार पश्चात्ताप करता वह सुमध्याको पूज्यभावसे प्रणाम करके लौट आया सुमध्याने भी उसी समय से वेश्या वृत्ति छोड़ दी और वह भगवान्के भजनमें लग गयी।
भद्रतनु पश्चात्ताप करता हुआ मार्कण्डेय मुनिके समीप गया। वह उनके चरणोंपर गिर पड़ा और फूट फूटकर रोने लगा। मार्कण्डेयजीने भद्रतनुकी बात सुनकर उससे बड़े स्नेहसे कहा-'तुम पाप करनेवाले होकर भी पुण्यात्मा जान पड़ते हो। अपने पापोंके लिये पश्चात्ताप, पापसे घृणा और फिर पाप न करनेका निश्चय बड़े पुण्य बलसे ही होता है। संसारके अधिकांश लोग तो पापको पाप मानते ही नहीं वे बड़े उत्साहसे उसीमें लगे रहते हैं। तुम्हारी बुद्धि पापसे अलग हुई, यह तुमपर भगवान्की कृपा है। जो पहले पापी रहा हो, पर पापप्रवृत्ति छोड़कर भगवान्के भजनका निश्चय कर ले तो वह भगवान्का प्रिय पात्र है; भगवान् ही उसे पापसे दूर होनेकी सद्बुद्धि देते हैं। तुमने अनेक जन्मोंमें भगवान्की पूजा की है, अतः तुम्हारा कल्याण शीघ्र होगा। मैं इस समय एक अनुष्ठानमें लगा हूँ, अतः तुम दान्त मुनिके पास जाओ। वे सर्वज्ञ महात्मा तुम्हें उपदेश करेंगे।'
भद्रतनु वहाँसे दान्त मुनिके आश्रमपर गया। वहाँ उसने मुनिके चरणोंमें मस्तक रखकर प्रार्थना की - 'महात्मन्! मैं जातिसे ब्राह्मण होनेपर भी महापापी हूँ। मैंने सदा पाप ही किये हैं। आप सर्वज्ञ हैं, दयालु हैं। कृपया मुझ पापीके लिये संसार-बन्धनसे छूटनेका उपदेश कीजिये।'
दान्त मुनिने कृपापूर्ण स्वरमें कहा-'भाई। भगवान्की कृपासे ही तुम्हारी बुद्धि ऐसी हुई है। मैं तुम्हें वे उपाय बतला रहा हूँ, जिनसे मनुष्य सहज ही भव-बन्धनसे छूट जाता है।' मुनिने भद्रतनुको पाखण्डका त्याग, काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, असत्य और हिंसाका त्याग- ये दो 'निषेध' रूप तथा दया- शान्ति दमका सेवन करते हुए भगवान्की पूजा, भगवन्नामोंका जप तथा अहोरात्रव्रत, पञ्चमहायज्ञ और भगवद्गुणानुवाद- श्रवण ये चार 'विधि' रूप उपदेश किये। भद्रतनुने इन साधनों कोभलीभाँति समझानेकी प्रार्थना की तो मुनिने बताया 1- वेद-शास्त्र सम्मत कमको छोड़कर दूसरा कर्म करनेवाला पाखण्डी है और शास्त्रानुकूल अपने वर्णाश्रम धर्मका पालन करनेवाला सज्जन है।
2- कामिनी- काशन आदि विषयोंको सेवन करनेकी इच्छा 'काम' कहलाती है। अपने विपरीत काम होते देख या अपने अपमान तथा निन्दासे जो हृदयमें जलन होती है यह 'क्रोध' है। दूसरेके धनको पानेकी इच्छा 'लोग' है। 'मेरी स्त्री, मेरा पुत्र, मेरा घर, मेरा परिवार' आदिरूप मेरापन 'मोह' है अपने धन, बल, परिवार, गुणका गर्व होना 'मद' है दूसरे अपनेसे श्रेष्ठ क्यों हैं, ऐसी डाहको 'मत्सर' कहते हैं। सबको सुख पहुँचानेवाले यथार्थ वचनको सत्य कहते हैं और जो वाणी इससे उलटी है, वह 'असत्य' है। दूसरेको हानि पहुँचानेका विचार और यत्न 'हिंसा' है। इन सबका त्याग करना चाहिये।
3- दूसरेके को दूर करनेकी इच्छा 'दया' है। जो कुछ प्राप्त हो, उस थोड़ेमें ही तृति मान लेना 'शान्ति' है। बुरे कार्योंसे चित्तको हटाना 'दम' है सुख दुःख, शत्रु-मित्र, सबमें एक-सा भाव रखना 'समदृष्टि' है भगवानूपर विश्वास करके गन्ध, पुष्प, धूप, दीप आदिसे श्रद्धाके साथ भगवान्के श्रीविग्रहकी पूजा करना 'आराधना' है।
4-दोपहर और मध्यरात्रिमें भोजन न करना (पूरे चौबीस पटेका उपवास) 'अहो है तथा भगवान् के साथ आत्माके एकत्वका बराबर स्मरण रखना 'विष्णु स्मरण' है। 5- नरदेवयज्ञ, पितृयज्ञ और भूतयज्ञ- ये पाँच 'महायज्ञ' हैं।
6- ॐ नमो भगवते वासुदेवाय यही दशाक्षर मन्त्र जप करनेमें सर्वो है।दान्त मुनिने ये साधन बताये और भद्रतनु एकान्तमें जाकर मन लगाकर श्रद्धापूर्वक उनका आचरण करता हुआ भजन करने लगा। भगवान्ने कहा ही है कि 'जो महापापी भी मेरा अनन्यभावसे भजन करता है, वह सब पापोंसे छूटकर साधु हो जाता है।' भगवान्की अनन्य भक्तिसे भद्रतनुका हृदय शुद्ध हो गया। अतः उसपर कृपा करनेके लिये उसके सम्मुख दयामय प्रभु प्रकट हो गये।
भगवान्का दर्शन करके भद्रतनुको बड़ा आनन्द हुआ; वह गद्गद स्वरसे स्तुति करने लगा। भगवान्की महिमाका वर्णन करते हुए उसने भगवद्भक्तोंके भावका बड़ा सुन्दर वर्णन किया। उसने कहा- 'भगवन् ! जिनका भजन करके लोग समस्त विपत्तियोंसे छूट जाते हैं और परमपद प्राप्त कर लेते हैं, उन आपमें मेरा मन लगा रहे। जो धन, स्तुति, दान, तपस्याके बिना केवल भक्तिसे ही सन्तुष्ट होते हैं, उन आपमें मेरा मन लगा रहे। जो कृपापूर्वक गौ, ब्राह्मण और साधुओंका नित्य हित करते हैं; जो दोन, अनाथ, वृद्ध और रोगियोंका दुःख दूर करते हैं; जो देवता, नाग, मनुष्य, राक्षस और कीट पतझमें भी समान भावसे विराजमान है जो पण्डित मूर्ख, धनी दरिद्र - सबमें समदृष्टि हैं; जिनके तनिक लीलापूर्वक रोष दिखलानेपर पर्वत भी तृणके समान हो जाता है और जिनके तुष्ट होनेपर तृण भी पर्वताकार हो जाता है— उन आपमें मेरा मन लगा रहे। जैसे पुण्यात्मा पुरुषका मन पुण्यमें, पिताका पुत्रमें तथा सती स्त्रीका अपने पतिमें लगा रहता है, वैसे ही मेरा मन आपमें लगा रहे। जैसे कामीका मन स्त्रीमें लोभीका धनमें, भूखेका भोजनमें, प्यासेका जलमें, गरमीसे व्याकुलका चन्द्रमाकी शीतलतामें और जाड़ेसे ठिठुरतेका सूर्यमें लगा रहता है, वैसे ही मेरा मन आपमें लगा रहे। *
इसके पश्चात् भद्रतनुको अपने पापोंका ध्यान आया।
उसने उनका जो वर्णन किया, वह साधकोंके बड़ेकामका है। उनसे सबको बचना चाहिये। उसने कहा- 'प्रभो! मैंने बुद्धिमान् होकर परस्त्री-सङ्ग किया, मोहवश अवध्यका वध किया, अज्ञानमें पड़कर विश्वासघात किया, अखाद्य खाया और न पीनेयोग्य सुरापान किया, लोभवश दूसरेका धन हरण किया; भ्रूणहत्या, व्यभिचार, परनिन्दा, हिंसा आदि पाप किये; शरणागतका अहित किया, दूसरेकी जीविका नष्ट की, दूसरोंको लज्जित करके नीचा दिखाया, अयोग्यसे दान लिया; रास्ते, देवस्थान, गोशाला आदिमें मल-मूत्र त्याग किया; हरे वृक्ष काटे, स्नान और भोजनको जाते मनुष्योंको रोका, पिता-माताके प्रति अभक्ति और अश्रद्धा की, घर आये अतिथिका सत्कार नहीं किया, जल पीनेके लिये दौड़कर जाती हुई गायोंको रोक दिया, प्रारम्भ किये व्रतको बीचमें ही छोड़ दिया, पति-पत्नीमें भेद डाला, भगवत्कथामें विघ्न किये, मन लगाकर दूसरोंकी निन्दा सुनी, जीविका चलानेवालोंका तिरस्कार किया, दूसरोंकी पापचर्चा सुनी, याचकों और ब्राह्मणोंका अपमान किया* – ऐसे-ऐसे सहस्रों पाप मैंने अनेक जन्मोंमें किये; परन्तु आज वे सब दूर हो गये ! आज मैंआपका दर्शन करके कृतार्थ हो गया। प्रभो ! दयामय! आपको नमस्कार।'
भगवान्की कृपाका अनुभव करके भद्रतनु विह्वल होकर उनके चरणोंपर गिर पड़ा। भगवान्ने उसे उठाकर हृदयसे लगा लिया। भगवान्का दर्शन करते ही भद्रतनुकी मुक्तिकी इच्छा दूर हो गयी थी। वह तो भक्तिका भूखा हो उठा था। उसने भगवान् से प्रार्थना की- 'प्रभो! आपके दर्शनसे मैं कृतार्थ हो गया, फिर भी मैं आपसे एक वरदान माँगता हूँ । आपके चरणोंमें जन्म-जन्म मेरा अनुराग अविचल रहे ।'
जन्मजन्मनि मे भक्तिस्त्वय्यस्तु सुदृढा प्रभो ।
(पद्मपुराण, क्रियायोग0 17 । 91)
भगवान्ने उसे 'सख्य भक्ति' प्रदान की। उसके अनुरोधपर उसके गुरु दान्त मुनिको भी भगवान्ने दर्शन दिये। दान्त मुनिने भी भगवान्से भक्तिका ही वरदान माँगा। गुरु-शिष्य दोनोंको कृतार्थ करके भगवान् अन्तर्धान हो गये। भक्तिमय जीवन बिताकर अन्तमें गुरु दान्त मुनि और उनके शिष्य भद्रतनु दोनों ही भगवान्के परम धामको प्राप्त हुए।
jalabudbudavanmoodh kshanavidhvansi jeevanam .
kimarthan shaashvatadhiya karoshi duritan sada ..
(padmapuraan, kriyaayoga0 16 . 32 )
'are moorkh praanee! yah jeevan to jalake bulabuleke samaan ek kshanamen nasht ho jaanevaala hai, phir too kyon ise shaashvat – avinaashee maanakar sada paap hee karata hai?'
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2- kaaminee- kaashan aadi vishayonko sevan karanekee ichchha 'kaama' kahalaatee hai. apane vipareet kaam hote dekh ya apane apamaan tatha nindaase jo hridayamen jalan hotee hai yah 'krodha' hai. doosareke dhanako paanekee ichchha 'loga' hai. 'meree stree, mera putr, mera ghar, mera parivaara' aadiroop meraapan 'moha' hai apane dhan, bal, parivaar, gunaka garv hona 'mada' hai doosare apanese shreshth kyon hain, aisee daahako 'matsara' kahate hain. sabako sukh pahunchaanevaale yathaarth vachanako saty kahate hain aur jo vaanee isase ulatee hai, vah 'asatya' hai. doosareko haani pahunchaaneka vichaar aur yatn 'hinsaa' hai. in sabaka tyaag karana chaahiye.
3- doosareke ko door karanekee ichchha 'dayaa' hai. jo kuchh praapt ho, us thoड़emen hee triti maan lena 'shaanti' hai. bure kaaryonse chittako hataana 'dama' hai sukh duhkh, shatru-mitr, sabamen eka-sa bhaav rakhana 'samadrishti' hai bhagavaanoopar vishvaas karake gandh, pushp, dhoop, deep aadise shraddhaake saath bhagavaanke shreevigrahakee pooja karana 'aaraadhanaa' hai.
4-dopahar aur madhyaraatrimen bhojan n karana (poore chaubees pateka upavaasa) 'aho hai tatha bhagavaan ke saath aatmaake ekatvaka baraabar smaran rakhana 'vishnu smarana' hai. 5- naradevayajn, pitriyajn aur bhootayajna- ye paanch 'mahaayajna' hain.
6- oM namo bhagavate vaasudevaay yahee dashaakshar mantr jap karanemen sarvo hai.daant munine ye saadhan bataaye aur bhadratanu ekaantamen jaakar man lagaakar shraddhaapoorvak unaka aacharan karata hua bhajan karane lagaa. bhagavaanne kaha hee hai ki 'jo mahaapaapee bhee mera ananyabhaavase bhajan karata hai, vah sab paaponse chhootakar saadhu ho jaata hai.' bhagavaankee anany bhaktise bhadratanuka hriday shuddh ho gayaa. atah usapar kripa karaneke liye usake sammukh dayaamay prabhu prakat ho gaye.
bhagavaanka darshan karake bhadratanuko bada़a aanand huaa; vah gadgad svarase stuti karane lagaa. bhagavaankee mahimaaka varnan karate hue usane bhagavadbhaktonke bhaavaka baड़a sundar varnan kiyaa. usane kahaa- 'bhagavan ! jinaka bhajan karake log samast vipattiyonse chhoot jaate hain aur paramapad praapt kar lete hain, un aapamen mera man laga rahe. jo dhan, stuti, daan, tapasyaake bina keval bhaktise hee santusht hote hain, un aapamen mera man laga rahe. jo kripaapoorvak gau, braahman aur saadhuonka nity hit karate hain; jo don, anaath, vriddh aur rogiyonka duhkh door karate hain; jo devata, naag, manushy, raakshas aur keet patajhamen bhee samaan bhaavase viraajamaan hai jo pandit moorkh, dhanee daridr - sabamen samadrishti hain; jinake tanik leelaapoorvak rosh dikhalaanepar parvat bhee trinake samaan ho jaata hai aur jinake tusht honepar trin bhee parvataakaar ho jaata hai— un aapamen mera man laga rahe. jaise punyaatma purushaka man punyamen, pitaaka putramen tatha satee streeka apane patimen laga rahata hai, vaise hee mera man aapamen laga rahe. jaise kaameeka man streemen lobheeka dhanamen, bhookheka bhojanamen, pyaaseka jalamen, garameese vyaakulaka chandramaakee sheetalataamen aur jaada़ese thithurateka sooryamen laga rahata hai, vaise hee mera man aapamen laga rahe. *
isake pashchaat bhadratanuko apane paaponka dhyaan aayaa.
usane unaka jo varnan kiya, vah saadhakonke bada़ekaamaka hai. unase sabako bachana chaahiye. usane kahaa- 'prabho! mainne buddhimaan hokar parastree-sang kiya, mohavash avadhyaka vadh kiya, ajnaanamen pada़kar vishvaasaghaat kiya, akhaady khaaya aur n peeneyogy suraapaan kiya, lobhavash doosareka dhan haran kiyaa; bhroonahatya, vyabhichaar, paraninda, hinsa aadi paap kiye; sharanaagataka ahit kiya, doosarekee jeevika nasht kee, doosaronko lajjit karake neecha dikhaaya, ayogyase daan liyaa; raaste, devasthaan, goshaala aadimen mala-mootr tyaag kiyaa; hare vriksh kaate, snaan aur bhojanako jaate manushyonko roka, pitaa-maataake prati abhakti aur ashraddha kee, ghar aaye atithika satkaar naheen kiya, jal peeneke liye dauda़kar jaatee huee gaayonko rok diya, praarambh kiye vratako beechamen hee chhoda़ diya, pati-patneemen bhed daala, bhagavatkathaamen vighn kiye, man lagaakar doosaronkee ninda sunee, jeevika chalaanevaalonka tiraskaar kiya, doosaronkee paapacharcha sunee, yaachakon aur braahmanonka apamaan kiyaa* – aise-aise sahasron paap mainne anek janmonmen kiye; parantu aaj ve sab door ho gaye ! aaj mainaapaka darshan karake kritaarth ho gayaa. prabho ! dayaamaya! aapako namaskaara.'
bhagavaankee kripaaka anubhav karake bhadratanu vihval hokar unake charanonpar gir pada़aa. bhagavaanne use uthaakar hridayase laga liyaa. bhagavaanka darshan karate hee bhadratanukee muktikee ichchha door ho gayee thee. vah to bhaktika bhookha ho utha thaa. usane bhagavaan se praarthana kee- 'prabho! aapake darshanase main kritaarth ho gaya, phir bhee main aapase ek varadaan maangata hoon . aapake charanonmen janma-janm mera anuraag avichal rahe .'
janmajanmani me bhaktistvayyastu sudridha prabho .
(padmapuraan, kriyaayoga0 17 . 91)
bhagavaanne use 'sakhy bhakti' pradaan kee. usake anurodhapar usake guru daant muniko bhee bhagavaanne darshan diye. daant munine bhee bhagavaanse bhaktika hee varadaan maangaa. guru-shishy dononko kritaarth karake bhagavaan antardhaan ho gaye. bhaktimay jeevan bitaakar antamen guru daant muni aur unake shishy bhadratanu donon hee bhagavaanke param dhaamako praapt hue.