जननी सम जानहिं परनारी। धनु पराव विष तें विष भारी॥
जे हरहिं पर संपति देखी। दुखित होहिं पर बिपति बिसेषी।।
जिन्हहि राम तुम्ह प्रान पिआरे । तिन्ह के मन सुभ सदन तुम्हारे ॥
गण्डकीके तटपर भारद्वाज गोत्रीय कर्मनिष्ठ भगवद्भक्त एक शङ्कर पण्डित नामके विद्वान् ब्राह्मण रहते थे। घरमें भगवान् शालग्रामजीकी पूजा थी। प्रात:काल स्नान सध्या करके भगवान्की पूजा करते और तब एक पहरतक पडक्षर राममन्त्र ( ॐ रामाय नमः) का जप करते। तर्पणादि करके गाँवके बाहर जहाँ पीपलके पुराने पेड़के नीचे शिवालय था, वहाँ जाकर शिवजीकी पूजा करते पण्डितजी थे तो श्रीरामके भक्त, किंतु राम और 1 शिवमें भेद वे नहीं मानते थे शिवार्चनके बिना श्रीराम पूजा उनको पूर्ण नहीं लगती थी पूजा-पाठसे निवृत्त होकर भोजन करते और तब ग्रामकी पाठशालामें अध्यापन करने पहुँच जाते ।
उस गाँवके ठाकुर जगपाल बड़े ही धार्मिक थे। उन्होंने ही संस्कृत पाठशालाकी स्थापना की थी। दस विद्यार्थियोंके भोजनका प्रबन्ध उनकी ओरसे था। जगपालजीको भगवान् सूर्यकी उपासना करनेसे एक नवमें पंद्रह लाख रुपयेका सोना मिला था उसमेंसे दस लाखको भगवान् सूर्यका मन्दिर बनवाने में लगा देनेका उनका विचार था और शेष पाँच लाख पुत्रोंके लिये वे छोड़ जाना चाहते थे लेकिन मन्दिर बनवानेसे पहले ही उनका देहान्त हो गया। अपना विचार अवश्य वे पुत्रोंको बता चुके थे। शङ्कर पण्डितपर उनकी बड़ी श्रद्धा थी।मरते समय वे पुत्रोंको कह गये-'शङ्कर पण्डित-जैसा महात्मा इस गाँवमें कोई नहीं है। उन्हें मुझसे बढ़कर तुमलोग समझना और आदर करना।'
जगपालकी मृत्युके पश्चात् उनके बड़े लड़के कुशलपाल गाँवके ठाकुर हुए वे स्वभावसे अश्रद्धालु तथा विलासी थे परंतु लोकलज्जा तथा माताके भयसे पिताकी स्थापित पाठशाला उठा देनेका साहस वे नहीं कर सके। शङ्कर पण्डितका वह आदर तो नहीं रहा, किंतु उन्हें कोई कष्ट नहीं हुआ। सात रुपये मासिक और एक सीधा रोज उन्हें मिल जाता था। वे भी अपने भजन-पूजन तथा अध्यापनके अतिरिक्त बाकी सब बातोंसे उदासीन थे। पाठशालाका काम समाप्त होते ही घर चले आते और फिर भजनमें लग जाते थे।
कुशलपालकी माताका कुछ दिनोंमें देहान्त हो गया। अब कोई अंकुश न रहनेसे उन्होंने अपने भागका सब धन विलासितामें फूंक डाला। धनकी आवश्यकता हुई तो उनके मनमें पिताका छोड़ा हुआ सोना हड़प जानेका विचार उठा। उन्होंने एक जाली दस्तावेज बनाया और उसपर अपने पिताके हस्ताक्षरोंकी हूबहू नकल कर दी। उस दस्तावेजमें सोनेके तीन भाग कुशलपालको और एक भाग शेष तीनों लड़कोंको बाँटनेकी बात थी। कुशलपालने 'भाइयोंको बुलाकर दस्तावेज दिखाया और कहा-'पिताजीका विचार पहले तो मन्दिर बनवानेका था, किन्तु मरते समय बदल गया। उन्होंने यह दस्तावेज लिखा और शङ्कर पण्डितके सामने ही इसपर हस्ताक्षर किया।'जगपालके तीनों छोटे लड़के आश्चर्यचकित रह गये। वे अपने बड़े भाईके स्वभावको जानते थे, अतः उन्हें विश्वास नहीं हुआ। परंतु शङ्कर पण्डितपर उनकी पूरी श्रद्धा थी। उन्होंने कहा- 'यदि शङ्कर पण्डित कह देंगे कि पिताजीने उनके सामने इसपर हस्ताक्षर किये हैं, तो हमलोग दस्तावेजको मान लेंगे। पिताजीकी इच्छाके विपरीत हमें कुछ नहीं करना है।'
कुशलपालने शङ्कर पण्डितका नाम तो ले लिया, पर फिर उसे मनमें बड़ा भय हुआ' कहीं उस हठी निर्लोभी ब्राह्मणने मेरी बात न मानी तो ?' परंतु फिर उसने सोचा- 'मानेगा क्यों नहीं। मैं उसके सामने सोनेकी ढेरी लगा दूंगा। धनसे तो देवतातक वशमें किये जा सकते हैं। यदि कहीं न माना तो मैं ऐसा दण्ड दूँगा, जिसका नाम।' वह भाइयोंके पाससे घर आया और घरसे शङ्कर पण्डितके घर पहुँचा। आज उसने बड़ी नम्रतासे साष्टाङ्ग प्रणाम किया। कुशलप्रश्नके पश्चात् उसने पिताके दस्तावेज लिखनेकी बात कहकर दस्तावेज दिखाया। पण्डितजीने ध्यानसे देखकर कहा- 'हस्ताक्षर दीखते तो तुम्हारे पिताके अक्षरों-जैसे हैं, पर उनके हैं नहीं। यह दस्तावेज जाली है। हस्ताक्षर किसी धूर्तने बनाये हैं।'
कुशलपालने कहा-'पण्डितजी! आप यह क्या कहते हैं? दस्तावेज मेरे हाथका लिखा है और मेरे पक्षमें है; अतः लोग तो मुझे ही धूर्त कहेंगे न?'
पण्डितजीने समझाया-'धन किसीके साथ नहीं जाता। एक दिन सभीको मरना है। झूठ और पापसे कमाया धन यहीं रह जाता है, किंतु प्राणीको अपने पापका फल परलोकमें भी भोगना ही पड़ता है। एक कौड़ी भी जब साथ जाने वाली नहीं है, तब थोड़े-से जीवनके लिये पाप बटोरना अच्छा नहीं पापका धन यहाँ भी सुख नहीं देता। उससे यहाँ भी चिन्ता, अपयश, रोग आदिका क्लेश मिलता है और मरनेपर नरककी आगमें जलना पड़ता है।'
कुशलपालकी समझमें ये बातें बैठ नहीं सकती थीं।लोभने उसकी बुद्धि हर ली थी। उसने कहा- पण्डितजी आप मुझे झूठा क्यों समझ रहे हैं? मैं तो पिताजीकी इच्छाको ही सफल करना चाहता हूँ। आप कृपा करके मेरी बात सुनें। आप यदि इस एक बातमें मेरी सहायता करें तो मैं भी आपकी सेवासे दूर नहीं रहूँगा। मैं कृतघ्न नहीं हूँ। सोनेका आधा हिस्सा आपका होगा। आप उससे भगवान्की भरपूर सेवा-पूजा कीजिये आपके बाल बच्चे भी सुखी होंगे।'
शङ्कर पण्डितने यह सुनकर कहा-'ठाकुर साहब! आप अब पधारें। सोनेका लोभ देकर आप मुझे अपने पापमें सम्मिलित करना चाहते हैं? मेरे ठाकुरजी चोरीके धनकी सेवा स्वीकार नहीं करते। बाल-बच्चोंको सुख गाढ़ी कमाईके पैसेसे होगा। पापका धन तो उनको दुःखी और आचारभ्रष्ट करेगा। पापके धनसे बुद्धि नष्ट हो जाती है और फिर नाना प्रकारके अनर्थ होते हैं। मुझे आपका सोना नहीं चाहिये।'
कुशलपालको क्रोध आ गया। उसने कहा-'होम करते हाथ जलता है। भिखारी ब्राह्मणको इतना अभिमान? पण्डित! पिताजीने तुम्हें बहुत सिर चड़ा लिया है, उसीका यह फल है। मैं जाता हूँ; परंतु याद रखना, मेरा नाम कुशलपाल है।'
पण्डितजीने कहा- भैया! तुम इतना गर्व क्यों करते हो? मैं भिखारी हूँ, पर तुम्हारी भाँति धनके लिये मेरा ईमान कभी नहीं डिगा देखो! यह संसार सर्वेश्वर भगवान्का है। उनके राज्यमें अन्याय नहीं चला करता। उन कोसलपालके रहते किसी निरपराधका कुशलपाल कुछ बिगाड़ नहीं सकते। यहाँ तो सबको अपने-अपने कर्मोंका फल ही भोगना पड़ता है। तुम अपने मनसे पापमय विचारको निकाल दो तो तुम्हारा मङ्गल होगा। भगवान् तुम्हें सुबुद्धि दें।
कुशलपाल यह कहकर लौट आया 'तुम जैसोंके आशीर्वादकी मुझे आवश्यकता नहीं तुम अपने लिये हो भगवान् से प्रार्थना करो।' बदला लेनेकी आग उसके मनमें जल रही थी वह जानता था कि शङ्कर पण्डितसन्ध्याको गाँवके तालाबपर ही सन्ध्या आदि करते हैं। और शङ्करजीका पूजन करके लगभग घंटेभर रात गये। लौटते हैं। शिव मन्दिरसे गाँवके मार्ग सुनसान जंगल पड़ता था। वह सायंकाल वहीं रास्तेके पास एक पेड़की। आड़में एक छुरा लेकर छिप गया। भगवन्नामका गान करते, रातके अँधेरेमें पण्डितजी मन्दिरसे घरको चले | आ रहे थे। अचानक कुशलपालने उनकी छाती में छुरा भोंक दिया और भागा। रुधिरकी धारा बह चली। 'हा राम' कहकर पण्डित भूमिपर गिर पड़े।
छुरेका आघात लगनेसे मूर्छित होकर शङ्कर पण्डित गिरे। दूसरे ही क्षण उन्होंने जो दिव्य दृश्य देखा, उसका वर्णन सम्भव नहीं है। एक फल-पुष्पोंसे भरा बहुत ही सुन्दर बगीचा है। उसमें पक्षी चहक रहे हैं, मयूर नाच रहे हैं, भीर गुंजार कर रहे हैं। एक विशाल पीपलका वृक्ष है उसमें उसके नीचे मणिमय सिंहासनपर श्रीराम एवं श्रीजनकनन्दिनी विराजमान हैं। भरतलाल और लक्ष्मणजी चवर कर रहे हैं, शत्रुघ्रकुमार जलकी झारी लिये खड़े हैं और श्रीहनुमानजी प्रभुके चरण दवा रहे हैं। भक्तों और संतोंका समुदाय पंक्तिबद्ध खड़ा प्रभुका स्तवन कर रहा है। वह छवि, वह सुषमा शङ्कर पण्डित कृतकृत्य हो गये। उनकी छातीका घाव तो कबका अदृश्य हो चुका। वे तो अपलक लोचनोंसे प्रभुकी झाँकीका दर्शन कर रहे हैं। भगवान्के चरणों में वे लोट गये। प्रभुका संकेत पाकर श्रीहनुमान्जीने उन्हें उठाया। उठते ही वे मारुतिकी छातीसे चिपट गये। आँखोंसे अजस्र स्रोत चलने लगा। प्रभुने कहा 'शङ्कर! मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ। मुझे तुम्हारे-जैसे दम्भहीन, निर्लोभी, निष्काम भक्त अत्यन्त प्रिय हैं। मेरा चिन्तन करते हुए अभी कुछ समय पृथ्वीपर रहकर जगत्का कल्याण करो। शीघ्र ही तुम मेरे धाममें आओगे।'
शङ्कर पण्डितके सम्मुखसे वह दृश्य हट गया। उन्होंने अपनेको सुनसान जंगलमें पृथ्वीपर पड़े पाया। छातीका घाव अब सर्वथा ठीक हो चुका था। भगवान्कास्मरण करते हुए वे घरकी ओर चल पड़े।
कुशलपाल शङ्कर पण्डितको छुरा मारकर भागा था। कुछ दूर जाते न जाते दो अत्यन्त भयङ्कर यमदूतोंने उसे पकड़ लिया और बोले-'नराधम। हम अभी तुझे मार डालते और ले जाकर नरकमें पटक देते; पर क्षमाशील शङ्कर पण्डितने तुझे क्षमा कर दिया। वे सच्चे हृदयसे तेरा मङ्गल चाहते हैं तू उनके आशीर्वादसे सुरक्षित है। अतः हमलोग तुझे थोड़ा-सा दण्ड देकर ही छोड़ देते हैं। अब भी तू द्वेष और लोभ छोड़ दे, नहीं तो तेरी भयङ्कर दुर्दशा होगी।' इतना कहकर उसके मस्तकमें एक घूँसा जमा दिया उन्होंने उसके मुखसे रक्त निकल आया और मूर्छित होकर वह गिर पड़ा।
शङ्कर पण्डितने मार्गमें कुशलपालको मूर्छित देखा। अब चन्द्रमा निकल आया था। उजेलेमें उसकी दुर्दशा देखकर पण्डितको बड़ा दुःख हुआ। कुएँसे जल लाकर उसका रक्त धोया उन्होंने कुछ देरमें उसे होश आया। चेतन होते ही वह पण्डितके चरणोंमें गिर पड़ा और फूट-फूटकर रोने लगा। उसने कहा-'मैं बड़ा नीच हूँ। बड़ा पापी हूँ मैं। जन्मभर पाप ही मैंने कमाये । आप महापुरुष हैं। मुझे क्षमा कर दें। मुझे अपने चरणों में स्वीकार करें।'
कुशलपालने अपने धोखा देनेकी बात, यमदूतोंसे दण्ड पाना आदि सब सुनाया और क्रन्दन करने लगा। पण्डितजीने कहा- 'भाई! तुमने तो मेरा उपकार ही किया। तुम छुरा न मारते तो मुझे भगवान्के दर्शन कैसे होते। तुम तो मेरे सबसे बड़े हितैषी हो।'
कुशलपालका चित्त शुद्ध हो गया था। उसका आग्रह देखकर पण्डितजीने उसे श्रीरामषडक्षर ( ॐ रामाय नमः) मन्त्रकी दीक्षा दी। उसका जीवन ही पलट गया। घर आकर उसने सारा धन भाइयोंको दे दिया। भाइयोंने दस लाखके सोनेसे अपने पिताकी इच्छाके अनुसार सूर्यमन्दिर बनवाया। कुशलपाल तो शङ्कर पण्डितका शिष्य होकर भजनमें लग गया। गुरु-शिष्य दोनों अन्तमें भगवान्के धाममें पहुँचकर कृतार्थ हो गये।
jananee sam jaanahin paranaaree. dhanu paraav vish ten vish bhaaree..
je harahin par sanpati dekhee. dukhit hohin par bipati biseshee..
jinhahi raam tumh praan piaare . tinh ke man subh sadan tumhaare ..
gandakeeke tatapar bhaaradvaaj gotreey karmanishth bhagavadbhakt ek shankar pandit naamake vidvaan braahman rahate the. gharamen bhagavaan shaalagraamajeekee pooja thee. praata:kaal snaan sadhya karake bhagavaankee pooja karate aur tab ek paharatak padakshar raamamantr ( oM raamaay namah) ka jap karate. tarpanaadi karake gaanvake baahar jahaan peepalake puraane peda़ke neeche shivaalay tha, vahaan jaakar shivajeekee pooja karate panditajee the to shreeraamake bhakt, kintu raam aur 1 shivamen bhed ve naheen maanate the shivaarchanake bina shreeraam pooja unako poorn naheen lagatee thee poojaa-paathase nivritt hokar bhojan karate aur tab graamakee paathashaalaamen adhyaapan karane pahunch jaate .
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