संसारकी कोई वस्तु मनुष्यके साथ नहीं जाती। सब कुछ यहीं रह जाता है। यहाँ भी जो कुछ है, वह अपना नहीं है। वह भी भगवान्का ही दिया है। इस मनुष्य जीवनको पाकर जो उन दयामय भगवान्में नहीं नियोजित करता, उसके जीवनको धिक्कार है। मनुष्य अज्ञानवश विषय-भोगोंकी इच्छा करता है। विषय तो दुःखरूप ही हैं। जो विषय सेवन करना चाहता है, वह इस लोकमें भी दुःख ही भोगता है; विषय तो उसे रोगी बना देते हैं। वह विषयोंको भी भोग नहीं पाता और परलोकमें तो उसे अपने पापोंका दण्ड नरकमें भोगना ही पड़ता है। संसारका मोह भी व्यर्थ है। यहाँ कोई किसीका है नहीं। जबतक स्वार्थ रहता है, सभी घेरे रहते हैं और जब स्वार्थ नहीं रह जाता, कोई बाततक नहीं पूछता। स्त्री पुत्रतक उसका तिरस्कार करने लगते हैं। जीवनभर नाना प्रकारके कष्टसे जो धन इकट्ठा किया जाता है, उसे भी परिवारवाले दबा बैठते हैं। अपने सामने ही मनके प्रतिकूल कार्योंमें उस धनको लगते देख दूना दुःख होता है। इस दुःखमय संसारमें कहीं भी तो सुख नहीं है। एकमात्र भगवान् ही जीवके अपने हैं। वे दयासागर पुकारते ही अपना लेते हैं। अधम पापी भी उनकी शरण सच्चे भावसे जाय तो वे उसे पवित्र कर देते हैं। उनके भजनमें ही सच्चा सुख है। मनुष्य जन्मकी सफलता ही भगवान्का भजन करनेमें है। इस प्रकारके वैराग्य विवेकके विचार एक राज्यके दीवानके मनमें आ रहे थे। उनका नाम था गोविन्ददास। महल-जैसा भवन था; बाग-बगीचे, नौकर-चाकर, धन-रत्नसे भरा घर था । पतिव्रता स्त्री थी, एक पुत्री थी और दो पुत्र थे घरमें । परंतु गोविन्ददासका मन इन सबमें तनिक भी आसक्त नहीं था। उन्हें संसारके विषयोंसे विरक्ति हो गयी थी। इन्द्रियोंका महान् संयम हो, भगवान्पर दृढ़ विश्वास हो, तभी वैराग्य टिकता है। गोविन्ददासजीका इन्द्रियसंयम दृढ़ था, भगवानूपर उनको पूरा विश्वास था अतः उनका वैराग्य सच्चा था। उन्होंने घर छोड़ दिया और तीर्थयात्रा करने लगे। त्यागे हुए भोगोंकी ओर फिर कभी आँख उठाकर भी उन्होंने नहीं देखा।
उस समयकी तीर्थयात्रा आजकी भाँति सैर-सपाटा नहीं थी तीर्थ तब सब प्रकारके अच्छे-बुरे कर्मोके क्षेत्र नहीं थे और न वहाँ मनोविनोदके लिये जाया जा सकता था। घने वनों, दुर्गम पर्वतोंमेंसे अनेकों कष्ट सहते, प्राणोंका मोह छोड़कर श्रद्धालु जन तीर्थयात्रा करते थे। गोविन्ददासजीकी तीर्थयात्राका क्या वर्णन हो । मान अपमान, सुख-दुःख, सर्दी गरमी-सब उनके लिये एक से हैं। मुखसे बराबर 'हरि-हरि' की ध्वनि निकलती है। मनमें अहंकारका नाम नहीं बिना मांगे जो रूखा 1 सूखा कन्द-मूल, सागपात मिल जाय, उसे भगवान्को निवेदन करके खा लेते हैं। न मिले तो सन्तोषपूर्वक रह जाते हैं। कुँआ, तालाब, नदी, झरना मिल जाय तो जल पी लेते हैं। न मिले तो प्यासे रह जाते हैं भूख-प्यासके लिये मनमें कभी शोक नहीं होता। जाड़ा, गर्मी, वर्षा - सब एक से पासमें कोई सामान नहीं और न सामान बटोरना चाहते हैं। अनेक बार गाँवके लोग पागल समझकर गाँवसे बाहर निकाल देते हैं, अनेक बार लोग झिड़कियाँ या गालियाँ देते है। ऊधमी लड़के मार भी देते हैं इनके मनमें क्षोभ या दुःखका लेश नहीं। प्रभुकी लीला देखते सबमें प्रभुका दर्शन करते अपनी मस्ती में चले जाते हैं।
गया, गोमती, काशी, प्रयाग, मथुरा, वृन्दावन, अयोध्या, कुरुक्षेत्र, हरिद्वार, बदरिकाश्रम, द्वारका, प्रभास, श्रीरंगम्, सेतुबन्ध रामेश्वर आदि तीर्थोंका दर्शन करते हुए अन्तमें लक्ष्मण बालाजीका दर्शन करनेके लिये गोविन्ददासजी लक्ष्मण क्षेत्रके पास आये। घोर वन था, वर्षा हो रही थी, कीचड़ और पानीसे पगदण्डी भी दुर्गम हो गयी थी। जाड़की ऋतु थी बहुत ही अधिक सर्दी पड़ रही थी। गोविन्ददासजीका वृद्ध शरीर कई दिनोंसे भोजन मिला नहीं था, देहमें शक्ति नहीं थी और ऊपरसे । भीग गये। सर्दीके मारे दाँत बजने लगे, शरीर थर-थर काँपने लगा, शक्ति जाती रही, लड़खड़ाकर गिर पड़े। बहुत चेष्टा की, पर उठ नहीं सके।
गोविन्ददासजीको अब भी अपने कष्टकी चिन्ता नहीं थी। मृत्युका उन्हें भय नहीं था। वे मन-ही-मन प्रार्थना कर रहे थे। गोविन्ददासकी पुकार पहाड़ीके उच्च शिखरपर विशाल मन्दिरमें विराजमान बालाजीतक न पहुँचे, यह कैसे सम्भव था। क्या हुआ जो वाणी असमर्थ होनेसे पुकार मनमें ही रह गयी। भगवान् तो किसीकी कोई भाषा समझते नहीं, उन्हें तो एक ही भाषा आती है और । उसीको वे समझते हैं। वह है हृदयकी भाषा। उस भाषाका प्रत्येक अक्षर उनतक पहुँच जाता है और वे करुणासागर उसे सुनकर स्वीकार करते ही हैं। लक्ष्मणजी स्वयं एक भीलका रूप धारण किये, हाथमें जलती मशाल लिये गोविन्ददासके पास आये। वर्षा बंद हो गयी थी। उन्होंने ब्राह्मणके पास मशाल ले जाकर कहा- 'आपको बहुत जाड़ा लग रहा है। आप मशालसे तापकर स्वस्थ होइये।'
प्रेमभरे वे शब्द कानोंमें गये तो जैसे प्राणोंमें अमृत बरस गया। कुछ देर मशालकी उष्णता शरीरमें जानेपर तो बोलनेकी शक्ति आयी। गोविन्ददासने अपनेको उठाकर बैठा देनेको कहा। भीलने मशाल एक ओर रखकर उन्हें उठाकर बैठा दिया। अब उस अद्भुत स्पर्शसे शरीरकी थकावट मिट गयी। गोविन्ददास कहने लगे- 'मैं बूढ़ा हो गया, मरनेमें भला मुझे अब क्या दुःख; किंतु मैं श्रीलक्ष्मणजीका दर्शन करना चाहता हूँ। तुमने आज मेरे प्राण बचाये। तुम मेरे धर्मपिता हो। मैं किस प्रकार 'कृतज्ञता प्रकट करूँ।'
गोविन्ददास पूछते ही रह गये कि भीलका नाम क्या है, कहाँ रहता है वह, इस घोर वनमें वर्षाके समय मशाल | लेकर इतनी दया करने कैसे यहाँ आ गया। परंतु भील तो जैसे अब उनकी भाषा समझता ही न हो। मशाल वहीं छोड़कर वह मुसकराता हुआ जंगलमें चला गया। गोविन्ददासने उसे भगवान्की कृपासे ही आया समझा। अब गोविन्ददासको भूख-प्यासका पता लगा। कुछ पेटमें पहुँचे तो कदाचित् वे उठकर चल सकें। उन्हें बालाजीतक जाना है, श्रीलक्ष्मणजीके दर्शन करने हैं; किन्तु शरीरमें अब भी उठनेकी शक्ति नहीं। इस घोर वनमें भला, भोजन कहाँसे मिलेगा। अतएव मनको इधरसे हटाकर वे भगवन्नामका जप करने लगे। इतनेमें उन्होंने सुना - कोई कह रहा है- 'मैं आपके लिये भोजन लाया हूँ। आप भूखे जान पड़ते हैं, भोजन कर लें। भला, दीनानाथ विश्वम्भरका भक्त भूखा कैसे रहता। गोविन्ददासने देखा कि एक ब्राह्मण सामने खड़े हैं। उन्होंने गरमागरम खिचड़ी, शाक और दहीका थाल तथा पात्रमें जल इनके सामने रख दिया है।
गोविन्ददासकी अद्भुत दशा हो गयी ब्राह्मणके दर्शन करके। वे जैसे अपने-आपको सर्वथा भूल गये। अब भोजन करते हैं तो कुछ मुखमें जाता है, कुछ भूमिपर गिरता है। किसी प्रकार भोजन समाप्त हुआ। एकटक मूक भावसे वे ब्राह्मणकी ओर देखते रह गये। होश आया थोड़ी देरमें। वे बोले-'प्रभो! इस भयङ्कर वनमें मेरे जैसे अधम प्राणीको इस प्रकार भोजन पहुँचानेवाला आप दयाधामको छोड़कर और कौन हो सकता है। कौन इस प्रकार दीनोंकी सुधि लेनेवाला है। मेरे स्वामी! मैंने आपकी कृपासे आपको पहचान लिया। जब आपने इस साधन-भजनहीन पतितपर इतनी कृपा की, तब अपने वास्तविक रूपका दर्शन देकर इसे कृतार्थ भी कीजिये ।'
भक्तकी कातर प्रार्थना सुनकर श्रीलक्ष्मणजी उस ब्राह्मण-रूपको छोड़कर अपने वास्तविक स्वरूपमें प्रकट हो गये। नीलाम्बर धारण किये उनके ज्योतिर्मय स्वर्णगौर श्रीअङ्गकी वह शोभा - कन्धोंपर धनुष और बायें हाथमें बाण लिये, दाहिने हाथसे भक्तको अभय देते हुए उनकी वह मनोहर सौन्दर्यघन झाँकी ! गोविन्ददास तो विह्वल होकर श्रीचरणोंपर गिर पड़े।
सम्पूर्ण वन दिव्य ज्योतिसे परिपूर्ण हो उठा। पशु पक्षी, कीट-पतंगतक हर्षनाद करने लगे। आराध्यके चरणोंपर गिरा भक्त आराध्यमें मिल गया। मिट्टीकी देह तो मिट्टीमें मिल ही जायगी, पर गोविन्ददास तो भगवान्के परमधाममें पहुँच गये
sansaarakee koee vastu manushyake saath naheen jaatee. sab kuchh yaheen rah jaata hai. yahaan bhee jo kuchh hai, vah apana naheen hai. vah bhee bhagavaanka hee diya hai. is manushy jeevanako paakar jo un dayaamay bhagavaanmen naheen niyojit karata, usake jeevanako dhikkaar hai. manushy ajnaanavash vishaya-bhogonkee ichchha karata hai. vishay to duhkharoop hee hain. jo vishay sevan karana chaahata hai, vah is lokamen bhee duhkh hee bhogata hai; vishay to use rogee bana dete hain. vah vishayonko bhee bhog naheen paata aur paralokamen to use apane paaponka dand narakamen bhogana hee pada़ta hai. sansaaraka moh bhee vyarth hai. yahaan koee kiseeka hai naheen. jabatak svaarth rahata hai, sabhee ghere rahate hain aur jab svaarth naheen rah jaata, koee baatatak naheen poochhataa. stree putratak usaka tiraskaar karane lagate hain. jeevanabhar naana prakaarake kashtase jo dhan ikattha kiya jaata hai, use bhee parivaaravaale daba baithate hain. apane saamane hee manake pratikool kaaryonmen us dhanako lagate dekh doona duhkh hota hai. is duhkhamay sansaaramen kaheen bhee to sukh naheen hai. ekamaatr bhagavaan hee jeevake apane hain. ve dayaasaagar pukaarate hee apana lete hain. adham paapee bhee unakee sharan sachche bhaavase jaay to ve use pavitr kar dete hain. unake bhajanamen hee sachcha sukh hai. manushy janmakee saphalata hee bhagavaanka bhajan karanemen hai. is prakaarake vairaagy vivekake vichaar ek raajyake deevaanake manamen a rahe the. unaka naam tha govindadaasa. mahala-jaisa bhavan thaa; baaga-bageeche, naukara-chaakar, dhana-ratnase bhara ghar tha . pativrata stree thee, ek putree thee aur do putr the gharamen . parantu govindadaasaka man in sabamen tanik bhee aasakt naheen thaa. unhen sansaarake vishayonse virakti ho gayee thee. indriyonka mahaan sanyam ho, bhagavaanpar dridha़ vishvaas ho, tabhee vairaagy tikata hai. govindadaasajeeka indriyasanyam dridha़ tha, bhagavaanoopar unako poora vishvaas tha atah unaka vairaagy sachcha thaa. unhonne ghar chhoda़ diya aur teerthayaatra karane lage. tyaage hue bhogonkee or phir kabhee aankh uthaakar bhee unhonne naheen dekhaa.
us samayakee teerthayaatra aajakee bhaanti saira-sapaata naheen thee teerth tab sab prakaarake achchhe-bure karmoke kshetr naheen the aur n vahaan manovinodake liye jaaya ja sakata thaa. ghane vanon, durgam parvatonmense anekon kasht sahate, praanonka moh chhoda़kar shraddhaalu jan teerthayaatra karate the. govindadaasajeekee teerthayaatraaka kya varnan ho . maan apamaan, sukha-duhkh, sardee garamee-sab unake liye ek se hain. mukhase baraabar 'hari-hari' kee dhvani nikalatee hai. manamen ahankaaraka naam naheen bina maange jo rookha 1 sookha kanda-mool, saagapaat mil jaay, use bhagavaanko nivedan karake kha lete hain. n mile to santoshapoorvak rah jaate hain. kuna, taalaab, nadee, jharana mil jaay to jal pee lete hain. n mile to pyaase rah jaate hain bhookha-pyaasake liye manamen kabhee shok naheen hotaa. jaada़a, garmee, varsha - sab ek se paasamen koee saamaan naheen aur n saamaan batorana chaahate hain. anek baar gaanvake log paagal samajhakar gaanvase baahar nikaal dete hain, anek baar log jhida़kiyaan ya gaaliyaan dete hai. oodhamee lada़ke maar bhee dete hain inake manamen kshobh ya duhkhaka lesh naheen. prabhukee leela dekhate sabamen prabhuka darshan karate apanee mastee men chale jaate hain.
gaya, gomatee, kaashee, prayaag, mathura, vrindaavan, ayodhya, kurukshetr, haridvaar, badarikaashram, dvaaraka, prabhaas, shreerangam, setubandh raameshvar aadi teerthonka darshan karate hue antamen lakshman baalaajeeka darshan karaneke liye govindadaasajee lakshman kshetrake paas aaye. ghor van tha, varsha ho rahee thee, keechada़ aur paaneese pagadandee bhee durgam ho gayee thee. jaada़kee ritu thee bahut hee adhik sardee pada़ rahee thee. govindadaasajeeka vriddh shareer kaee dinonse bhojan mila naheen tha, dehamen shakti naheen thee aur ooparase . bheeg gaye. sardeeke maare daant bajane lage, shareer thara-thar kaanpane laga, shakti jaatee rahee, lada़khada़aakar gir pada़e. bahut cheshta kee, par uth naheen sake.
govindadaasajeeko ab bhee apane kashtakee chinta naheen thee. mrityuka unhen bhay naheen thaa. ve mana-hee-man praarthana kar rahe the. govindadaasakee pukaar pahaada़eeke uchch shikharapar vishaal mandiramen viraajamaan baalaajeetak n pahunche, yah kaise sambhav thaa. kya hua jo vaanee asamarth honese pukaar manamen hee rah gayee. bhagavaan to kiseekee koee bhaasha samajhate naheen, unhen to ek hee bhaasha aatee hai aur . useeko ve samajhate hain. vah hai hridayakee bhaashaa. us bhaashaaka pratyek akshar unatak pahunch jaata hai aur ve karunaasaagar use sunakar sveekaar karate hee hain. lakshmanajee svayan ek bheelaka roop dhaaran kiye, haathamen jalatee mashaal liye govindadaasake paas aaye. varsha band ho gayee thee. unhonne braahmanake paas mashaal le jaakar kahaa- 'aapako bahut jaada़a lag raha hai. aap mashaalase taapakar svasth hoiye.'
premabhare ve shabd kaanonmen gaye to jaise praanonmen amrit baras gayaa. kuchh der mashaalakee ushnata shareeramen jaanepar to bolanekee shakti aayee. govindadaasane apaneko uthaakar baitha deneko kahaa. bheelane mashaal ek or rakhakar unhen uthaakar baitha diyaa. ab us adbhut sparshase shareerakee thakaavat mit gayee. govindadaas kahane lage- 'main boodha़a ho gaya, maranemen bhala mujhe ab kya duhkha; kintu main shreelakshmanajeeka darshan karana chaahata hoon. tumane aaj mere praan bachaaye. tum mere dharmapita ho. main kis prakaar 'kritajnata prakat karoon.'
govindadaas poochhate hee rah gaye ki bheelaka naam kya hai, kahaan rahata hai vah, is ghor vanamen varshaake samay mashaal | lekar itanee daya karane kaise yahaan a gayaa. parantu bheel to jaise ab unakee bhaasha samajhata hee n ho. mashaal vaheen chhoda़kar vah musakaraata hua jangalamen chala gayaa. govindadaasane use bhagavaankee kripaase hee aaya samajhaa. ab govindadaasako bhookha-pyaasaka pata lagaa. kuchh petamen pahunche to kadaachit ve uthakar chal saken. unhen baalaajeetak jaana hai, shreelakshmanajeeke darshan karane hain; kintu shareeramen ab bhee uthanekee shakti naheen. is ghor vanamen bhala, bhojan kahaanse milegaa. ataev manako idharase hataakar ve bhagavannaamaka jap karane lage. itanemen unhonne suna - koee kah raha hai- 'main aapake liye bhojan laaya hoon. aap bhookhe jaan pada़te hain, bhojan kar len. bhala, deenaanaath vishvambharaka bhakt bhookha kaise rahataa. govindadaasane dekha ki ek braahman saamane khada़e hain. unhonne garamaagaram khichada़ee, shaak aur daheeka thaal tatha paatramen jal inake saamane rakh diya hai.
govindadaasakee adbhut dasha ho gayee braahmanake darshan karake. ve jaise apane-aapako sarvatha bhool gaye. ab bhojan karate hain to kuchh mukhamen jaata hai, kuchh bhoomipar girata hai. kisee prakaar bhojan samaapt huaa. ekatak mook bhaavase ve braahmanakee or dekhate rah gaye. hosh aaya thoda़ee deramen. ve bole-'prabho! is bhayankar vanamen mere jaise adham praaneeko is prakaar bhojan pahunchaanevaala aap dayaadhaamako chhoda़kar aur kaun ho sakata hai. kaun is prakaar deenonkee sudhi lenevaala hai. mere svaamee! mainne aapakee kripaase aapako pahachaan liyaa. jab aapane is saadhana-bhajanaheen patitapar itanee kripa kee, tab apane vaastavik roopaka darshan dekar ise kritaarth bhee keejiye .'
bhaktakee kaatar praarthana sunakar shreelakshmanajee us braahmana-roopako chhoda़kar apane vaastavik svaroopamen prakat ho gaye. neelaambar dhaaran kiye unake jyotirmay svarnagaur shreeangakee vah shobha - kandhonpar dhanush aur baayen haathamen baan liye, daahine haathase bhaktako abhay dete hue unakee vah manohar saundaryaghan jhaankee ! govindadaas to vihval hokar shreecharanonpar gir pada़e.
sampoorn van divy jyotise paripoorn ho uthaa. pashu pakshee, keeta-patangatak harshanaad karane lage. aaraadhyake charanonpar gira bhakt aaraadhyamen mil gayaa. mitteekee deh to mitteemen mil hee jaayagee, par govindadaas to bhagavaanke paramadhaamamen pahunch gaye