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भक्त अङ्गदसिंह की मार्मिक कथा
भक्त अङ्गदसिंह की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त अङ्गदसिंह (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त अङ्गदसिंह]- भक्तमाल


बहुत पहलेकी बात है, भारतवर्षकी पुण्यभूमिमें सैनगढ़ नामकी एक राजधानी थी। वहाँपर दीनसलाहसिंह नामके एक राजा राज्य करते थे। उनके भतीजेका नाम था अङ्गदसिंह, जो एक अत्यन्त सुन्दर, बलिष्ठ और पराक्रमी नवयुवक थे। इन गुणोंके कारण अङ्गदसिंहको राजा बड़े प्यारकी दृष्टिसे देखा करते थे और अङ्गदसिंह भी अपने चचाकी भलाईके लिये प्राणोंतककी बाजी लगानेको सदा तैयार रहा करते थे। परंतु जहाँ अङ्गदसिंहमें इतने गुण विद्यमान थे, वहीं उनमें एक बड़ा भारी दोष भी था। वे बड़े ही विषयासक्त थे तथा अपना सारा समय खेल-तमाशे और आमोद-प्रमोदमें ही बिताना चाहते थे। दैवयोगसे उनका विवाह एक अत्यन्त सद्गुणवती, सुशीला, सती-साध्वी और हरिभक्तिपरायणा स्त्रीके साथ हो गया था। वह प्रतिक्षण अपने पतिदेवकी चित्तवृत्तियोंको भगवदभिमुखी बनानेके लिये प्रयत्न करती रहती थी तथा पतिसेवाके अतिरिक्त उसे जो कुछ भी समय मिलता था,वह सब वृन्दावनविहारी श्रीकृष्णकी पूजा तथा उनके गुणानुवादको सुनने-सुनानेमें ही व्यतीत होता था। इस प्रकार यद्यपि उन दोनों पति-पत्नीके विचारोंमें आकाश पातालका अन्तर था, तथापि पतिव्रता पत्नीकी सुशीलता एवं उसके सुमधुर स्वभावके कारण अङ्गदसिंहको कभी भी उसपर रुष्ट होनेका मौका नहीं मिलता था, बल्कि वे उसकी प्रत्येक बातको बड़े आदर और सम्मानके साथ सुना करते थे।

संयोगवश एक दिन अङ्गदसिंह कहीं बाहर गये हुए थे। जब वे घर लौटे, तब उन्होंने देखा कि आँगनमें एक फर्शपर सुन्दर सिंहासन बिछा हुआ है, उसपर उनके सितकेश, वृद्ध तपस्वी ऋषिकल्प महात्मा विराजमान हैं और उनकी धर्मपत्नी अपने दोनों हाथोंको जोड़े हुए उनके सामने बैठकर कौतूहल और प्रेमके साथ भगवत्कथा सुननेमें तल्लीन है। अङ्गदसिंहको इन सब बातों में रुचि तो थी ही नहीं, वे उस दृश्यको देखकर झल्ला उठे औरगुरुदेवको बिना प्रणाम किये ही बकझक करते हुए किसी दूसरे काममें जा लगे। अङ्गदसिंहके इस अविनय एवं अनीतिपूर्ण व्यवहारको देखकर भी क्षमाशील और मानापमानको समान समझनेवाले गुरुदेवको कोई क्रोध तो नहीं आया; परंतु उन्होंने सोचा कि इस प्रकार हरि कथाका अपमान नितान्त अनुचित है। इसलिये वे वहाँसे उठकर चल दिये। अङ्गदसिंहकी धर्मपत्नीने प्रार्थना की, परंतु उन्होंने एक भी नहीं सुनी। उसके कहनेपर रुकना उचित नहीं समझा। इसपर अङ्गदसिंहकी धर्मशीला पत्नीको बड़ा परिताप हुआ वह मूर्च्छित होकर गिर पड़ी। जब उसे कुछ होश आया, तब उसने अपने पतिदेवको सामने खड़े देखा। देखते ही वह उनके चरणोंसे लिपट गयी और आँसुओंको अविरल धारा बहाते हुए उसने रुद्धकण्ठसे कहा- 'प्राणनाथ। आज आपने क्या किया? गुरुदेवके अपमानसे बढ़कर इस जगत्में और कोई जघन्य पापकर्म नहीं है। आपने गुरुदेवके रूपमें उस ललित सीलाधाम भगवान्‌का ही अपमान किया है, जो हम दोनोंके ही नहीं, समस्त विश्वके स्वामी हैं! उन्हींकी अपार दयासे हमें यह मनुष्यदेह मिला है। अतः जीवनधन! अपने इस भयानक अपराधके लिये हृदयमें पश्चात्ताप कीजिये और शीघ्र ही गुरुदेव के घर जाकर उनके श्रीचरणोंमें साष्टाङ्ग प्रणाम - करके क्षमा मागिये और नाथ! आजके इस पापकर्मके प्रायश्चित्तस्वरूप यह प्रतिज्ञा कीजिये कि आजसे आपके द्वारा गुरुदेवका ही नहीं, किसी भी साधु-संतका अपमान नहीं होगा।'

अङ्गदसिंहजी अपनी प्राणप्रिया पत्नीकी यह दशा देखकर पहलेसे ही अवाक् हो गये थे। उन्होंने उसके विनययुक्त आर्त अनुरोधको बड़े ध्यानके साथ सुना और सुनते ही उनकी विचारधारा बदल गयी। उन्हें अपने कुकृत्यपर बड़ा ही पश्चात्ताप होने लगा। अन्तमें उन्होंने अपनी धर्मशीला पत्नीको उठाया और उसे आश्वासन देते हुए बड़े प्रेमके साथ कहा- 'प्रिये! क्षमा करो। अब मेरी आँखें खुल गयी हैं, अब मुझसे ऐसा अपराध कभी नहीं होगा। मैं अभी जाकर गुरुदेवसे क्षमा भिक्षा माँग आता हूँ और तुम्हारे सामने शपथपूर्वक यह प्रतिज्ञाकरता हूँ कि आजसे मेरा समय साधु संतोंकी सेवामें ही बीतेगा।' अङ्गदसिंहके इस अनुकूल वचनको सुनकर उनकी स्त्रीको बड़ी प्रसन्नता हुई। वह मन-ही-मन भगवान्‌की इस अपार अनुकम्पाके लिये कृतज्ञता प्रकाश करने लगी। अङ्गदसिंह गुरुदेवके घर गये और उनको प्रसन्न करके घर ले आये। वे तो पहले भी प्रसन्न थे। अङ्गदसिंहका मन बदलनेके लिये ये कृपापूर्ण कोप करके चले गये थे। अङ्गदसिंहकी स्त्रीके आनन्दका अब पार नहीं रहा। वह जिस बात के लिये प्रतिपल भगवान्से प्रार्थना किया करती थी, वही सब प्रकारसे पूर्ण हो गयी। उसने अपनी तरसती हुई आँखोंसे देखा कि उसके प्राणनाथ अब उसके साथ ही अपना सारा समय सत्सङ्ग तथा भगवान्के चिन्तनमें व्यतीत करने लगे। फलतः उनकी बुद्धि भी गङ्गाजलके समान विमल और विवेकशीला बन गयी । यहाँतक कि वे भगवान् श्रीकृष्णके दर्शनार्थ उसी प्रकार व्याकुल हो उठे, जैसे प्रचण्ड ग्रीष्म ऋतुका एक थका और प्यासा पथिक केवल घूँटभर पानीके लिये बेचैन हो उठता है।

किंतु भगवान् भी तो बड़े लीलामय हैं। वे अपने भक्तोंको पहले परीक्षानिमें खूब तपा लेनेके बाद तब कहीं अपना दर्शन देते हैं। अतः कुछ कालके बाद अङ्गदसिंहके भगवत्प्रेमकी परीक्षाका समय आया । तत्कालीन सम्राट्ने उनके चचा राजा दीनसलाहसिंहपर चढ़ाई करनेकी आज्ञा दे दी। सम्राट्का एक सूबेदार अपनी फौजके साथ सैनगढ़ पर चढ़ आया। इस समाचारको पाते ही दीनसलाहसिंहके होश उड़ गये। उन्होंने वीरवर अङ्गदसिंहको बुलाकर कहा- 'बेटा! आज सैनगढ़ के सम्मानकी रक्षाका भार तुम्हारे ही हाथोंमें है।' इस बातको सुनकर अङ्गदसिंहकी भुजाएँ फड़क उठीं। उन्होंने चचाके चरणोंमें प्रणाम किया और अपनी वीरोक्तिद्वारा चचाके हृदयमें ढाढ़स बँधाकर वे अपने चुने हुए सिपाहियोंके साथ युद्धक्षेत्रमें आ डटे। वहाँ बड़ी घमासान लड़ाई हुई, दोनों ओरके अनेकों सैनिक हताहत हुए; परंतु अन्तमें विजय रही वीरकेसरी अङ्गदसिंहकी । उन्होंने अपनी तलवारसे सूबेदारका सिर काट लिया। | सिर काटते ही उनके हाथमें सूबेदारका मुकुट आ गया।उसमें उन्होंने देखा कि अनेकों बहुमूल्य हीरे जड़े हुए थे। उनमें एक अनमोल हीरा भी था। उसको देखते ही अङ्गदसिंहने निकाल लिया और उसे हाथमें लेकर सोचा | कि यह अनमोल हीरा तो भगवान् श्रीजगन्नाथके ही रत्नहार में शोभा पानेके योग्य है। तत्पश्चात् वे अपने बचे । हुए बहादुर सिपाहियोंके साथ घर लौटे। सूबेदारका मुकुट राजाके हवाले किया, किंतु उन्होंने उस अनमोल होरेको भगवान् जगन्नाथजीके लिये अपने पास रख लिया। कुछ समयके पश्चात् इस बातकी खबर किसी प्रकार राजाको लग गयी। वे उस हौरेकी अत्यधिक प्रशंसा सुनकर लोभमें पड़ गये। फिर क्या था। उनकी मति मारी गयी, उन्हें अङ्गदसिंहका यह व्यवहार बिल्कुल ही पसंद नहीं आया। उन्होंने अङ्गदसिंहको बुला भेजा और कहा कि 'तुम्हें उस हीरेको अपने पास रखनेका कोई अधिकार नहीं है। तुम उसे अभी मेरे सिपुर्द कर दो।' इसपर अङ्गदसिंहने सिर हिलाकर उत्तर दिया- 'चचाजी ! उस रत्नको मैं किसी प्रकार आपको नहीं दे सकता। उसके योग्य आप बिलकुल नहीं हैं। उसको तो मैं भगवान् जगन्नाथजीके सुभग और सुन्दर रखहारमें ही थवाऊँगा।' यह सुनना था कि दीनसलाहसिंहको त्यौरी बदल गयी। वे क्रोधसे तमतमा उठे। उन्होंने बड़े कड़े स्वरमें कहा- 'ऐसी धृष्टता? यदि तुमने उस हीरेको मेरे हवाले नहीं कर दिया और मेरी इस अवज्ञाके लिये तुमने मुझसे माफी नहीं माँगी तो मैं जल्दी ही इसका मजा तुम्हें चखाऊँगा।' अङ्गदसिंहने इसका उत्तर विनयपूर्वक किंतु दृढभावसे दिया। उन्होंने कहा-'आपकी जैसी इच्छा! परंतु उस हौरेको तो जीते जी मैं आपको नहीं दे सकता। वह तो जिसकी वस्तु है, उसे समर्पित की जा चुकी है। अब उसपर मेरा कोई अधिकार नहीं है।' यह कहकर अङ्गदसिंह लापरवाहीके साथ वहाँसे उठ गये । राजा दीनसलाहसिंह भला, उस पराक्रमशील तेजस्वी नवयुवकका क्या कर सकते थे। वे अपना सा मुँह लेकर ताकते रह गये।

इसके बाद राजा दीनसलाहसिंहने सोचा कि बिना किसी छल-छद्मका सहारा लिये अङ्गदसिंहके समर्थ हाथोंसे उस जवाहरकी प्राप्ति कठिन ही नहीं, असम्भवमालूम होती है। निदान उन्होंने छल-कपट, लोभ लालच तथा डाँट-डपटके द्वारा किसीको बहकावे में डालकर उससे अङ्गदसिंहके भोजनमें विष मिलवा दिया। सबसे पहले उन्होंने बड़े प्रेमके साथ अपने इष्टदेवको भोज्य पदार्थोंका भोग लगाया। तदनन्तर भोजन करनेके लिये तैयार हुए। इतनेमें भोजन बनानेवालेकी बुद्धि पलटी और उसने दौड़कर इनको बता दिया कि 'इसमें विष है, आप न खायें। पर अङ्गदसिंहको इस बातसे कोई भय नहीं लगा, उन्होंने बड़े विश्वासके साथ स्वाभाविक ढंगसे कहा- 'जो कुछ भी हो, मैं विषके भयसे भगवान् के समर्पित हुए प्रसादका त्याग नहीं कर सकता। वस्तुतः अब यह प्रसाद विषमय नहीं रह गया है। अब तो यह अमृत है।' यह कहकर जबरदस्ती उस थालको छीन वे एक बंद कमरेमें बड़े चावसे उस सारे के सारे महाप्रसादको पा गये। परंतु भगवान्‌की कृपासे | उस विषमय भोजनका कोई असर अङ्गदसिंहके शरीरपर नहीं पड़ा; क्योंकि हरि प्रसाद हो जानेके बाद वह 'विषमय भोजन' रहा ही कहाँ। बल्कि उस महाप्रसादसे तो उलटे अङ्गदसिंहके शरीरके रहे-सहे रोग भी सदाके लिये दूर हो गये।

इस घटना के बाद अङ्गदसिंहने विचार किया कि अब सैनगढ़ में उनका रहना बिलकुल ठीक नहीं है; क्योंकि जहाँका राजा ही इतना लालची और भगवद्विमुख है, वहाँका वातावरण उनके लिये कब हितकर हो सकता है। बस, उन्होंने पुरीमें ही जाकर भगवान् जगन्नाथजीको वह महार्घ हीरा समर्पित करनेका निश्चय कर लिया। अकस्मात् एक दिन वे अपने निश्चयानुसार घरसे निकल भी पड़े; किंतु अभी वे घरसे दो-तीन कोससे अधिक नहीं गये होंगे कि राजा दीनसलाहसिंहके कानोंमें यह भनक पड़ गयी। उन्होंने तुरंत अपने सिपाहियोंको बुलवाया और आज्ञा दी कि 'चाहे जिस प्रकार हो, तुमलोग अङ्गदसिंहसे वह हीरा छीनकर अवश्य लाओ।' सिपाही यह सुनते ही अपने-अपने हथियारोंसे लैस होकर दौड़ पड़े। अङ्गदसिंहको भला, इसकी क्या खबर थी। वे एक जगह डेरा डालकर भगवान्‌के ध्यानमें बैठे हुए थे। तबतक पता लगातेलगाते दीनसलाह सिंहकी फौज उनके पास पहुँच गयी। सिपाहियोंने अङ्गदसिंहको ललकारा और कहा कि 'यदि आप अपने प्राणोंकी रक्षा चाहते हैं तो उस हीरेको हमें दे दीजिये। नहीं तो उसके बदलेमें आपका सिर काटकर राजाके हवाले किया जायगा। उनकी यही आज्ञा है ।'

अङ्गदसिंहने विवशता देखकर उस हौरेको हाथमें लिया और भगवान जगन्नाथजीसे यह प्रार्थना की कि 'नाथ! मेरे जीते जी यह हीरा राजा कैसे ले सकते हैं। इस समय और कोई वश न देखकर मैं यहींसे इस हीरेको आपकी सेवामें भेंट करता हूँ।' यह कहकर उन्होंने सामनेके एक गहरे जलाशयमें उस अनमोल होरेको फेंक दिया। सिपाही यह देखकर अवाक् रह गये। उनके ऊपर अङ्गदसिंहजीके इस त्यागका बड़ा प्रभाव पड़ा। वे उलटे पैर वहाँसे लौट गये और राजाके पास जाकर उन्होंने सब हाल कहा। राजा भी इस बातको सुनकर आश्चर्यचकित हो गये, किंतु फिर भी लोभने उनका पीछा नहीं छोड़ा। वे अपने सिपाहियोंको साथ लेकर उस तालाब के पास आये। उन्होंने तरह-तरहके उपायोंसे उस तालाबको छान डाला, परंतु उस हीरेका कहीं पता नहीं चला। वह वहाँ हो, तब न पता चले। अन्तमें लाचार और लज्जित होकर वे अपनी राजधानीको लौट गये।

इधर उसी रातको भगवान्ने स्वप्रमें अपने परमप्रिय भक्त अङ्गदसिंहजीसे कहा- प्यारे अङ्गद! तुमने विवश होकर जिस अनमोल रत्नको मेरे लिये उस गहरे जलाशयमें फेंका था, उसको मैंने इतनी दूरीसे ही स्वीकार कर लिया है। इस समय वह हीरा तुम्हारे इच्छानुसार मेरे रत्नहारमें सुशोभित हो रहा है! तुम जल्दी ही नीलाचलपर पहुँची और मेरा प्रत्यक्ष दर्शन करके अपनी मन:कामना पूरी करो!' इस सुखमय और सुनहले स्वप्रसे जागनेके बाद अङ्गदसिंहजीकी प्रसन्नताका पारावार न रहा। वे बार-बार अपने सौभाग्यकी सराहना करनेलगे। पुरी पहुँचने में उन्हें देर नहीं लगी। वहाँ पहुँचकर उन्होंने भक्तभयहारी भगवान्‌के प्रत्यक्ष दर्शन किये। उनकी भाग्यशीला आँखोंने प्रत्यक्ष देखा कि उनके पासका वह अनमोल रत्न भगवान्‌के हृदयपर रत्नहार सुशोभित हो रहा है और भगवान् अपनी दिव्य मुसकराहटके साथ स्नेहपूर्ण नेत्रोंसे अङ्गदसिंहजीकी ओर देख रहे हैं। अङ्गदसिंहजीने भी आँखें फाड़-फाड़कर भगवान्‌की उस रूप-माधुरीका पान किया और षोडशोपचारसे उनकी पूजा तथा प्रार्थना की। इसके बाद तो पुरीके कण-कण में उनकी इतनी ममता हो गयी कि उन्होंने सदा उसीकी पवित्र गोदमें रहनेका विचार कर लिया। वहीं रहकर ये विद्याभ्यास तथा साधु-संतोंकी सेवा करने लगे और पिछली सारी घटनाओंको भूल से गये।

कुछ दिनोंके अनन्तर इन सारी बातोंका पता दीनसलाहसिंहको चल गया। फिर तो वे बड़े ही विस्मयमें पड़कर अपनी करनीपर लज्जित हो गये। उन्होंने सोचा कि 'मेरे ही कारण महात्मा अङ्गदसिंहको इतने कष्ट उठाने पड़े ! अब उनकी कृपासे वञ्चित रहने में मेरा कल्याण कदापि नहीं है।' यह सोचकर बहुत जल्दी ही दीनसलाहसिंहने पुरीकी यात्रा कर दी। पुरीमें पहुँचकर उन्होंने अङ्गदसिंहका पता लगाया और उनके पास स्वयं जाकर अपने सारे अपराधोंकी क्षमा माँगी। उन्होंने अङ्गदसिंहसे सैनगढ़ पधारनेके लिये भी प्रार्थना की। भक्तवर अङ्गदसिंहका दयार्द्र हृदय अपने चचाके इस प्रस्तावको टाल न सका। वे राजाके साथ सैनगढ़में पधार गये। फिर तो उनके पधारते ही सैनगढ़की स्थिति बदल गयी। वहाँ रामराज्य हो गया। राजा दीनसलाहसिंह भी उनके सत्सङ्गसे भगवान्के परम भक्त बन गये। उन्होंने अपनेको और अपने सारे घरको भक्तराज अङ्गदसिंहके हवाले कर दिया और स्वयं साधु-संतोंकी सेवा तथा अपनी प्रजाको भगवान्के विविध विग्रह मानकर उनकी भलाई के कार्योंमें संलग्न रहने लगे। उनकी दिनचर्या ही बदल गयी !!



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kintu bhagavaan bhee to bada़e leelaamay hain. ve apane bhaktonko pahale pareekshaanimen khoob tapa leneke baad tab kaheen apana darshan dete hain. atah kuchh kaalake baad angadasinhake bhagavatpremakee pareekshaaka samay aaya . tatkaaleen samraatne unake chacha raaja deenasalaahasinhapar chadha़aaee karanekee aajna de dee. samraatka ek soobedaar apanee phaujake saath sainagadha़ par chadha़ aayaa. is samaachaarako paate hee deenasalaahasinhake hosh uda़ gaye. unhonne veeravar angadasinhako bulaakar kahaa- 'betaa! aaj sainagadha़ ke sammaanakee rakshaaka bhaar tumhaare hee haathonmen hai.' is baatako sunakar angadasinhakee bhujaaen phada़k utheen. unhonne chachaake charanonmen pranaam kiya aur apanee veeroktidvaara chachaake hridayamen dhaadha़s bandhaakar ve apane chune hue sipaahiyonke saath yuddhakshetramen a date. vahaan bada़ee ghamaasaan lada़aaee huee, donon orake anekon sainik hataahat hue; parantu antamen vijay rahee veerakesaree angadasinhakee . unhonne apanee talavaarase soobedaaraka sir kaat liyaa. | sir kaatate hee unake haathamen soobedaaraka mukut a gayaa.usamen unhonne dekha ki anekon bahumooly heere jada़e hue the. unamen ek anamol heera bhee thaa. usako dekhate hee angadasinhane nikaal liya aur use haathamen lekar socha | ki yah anamol heera to bhagavaan shreejagannaathake hee ratnahaar men shobha paaneke yogy hai. tatpashchaat ve apane bache . hue bahaadur sipaahiyonke saath ghar laute. soobedaaraka mukut raajaake havaale kiya, kintu unhonne us anamol horeko bhagavaan jagannaathajeeke liye apane paas rakh liyaa. kuchh samayake pashchaat is baatakee khabar kisee prakaar raajaako lag gayee. ve us haurekee atyadhik prashansa sunakar lobhamen pada़ gaye. phir kya thaa. unakee mati maaree gayee, unhen angadasinhaka yah vyavahaar bilkul hee pasand naheen aayaa. unhonne angadasinhako bula bheja aur kaha ki 'tumhen us heereko apane paas rakhaneka koee adhikaar naheen hai. tum use abhee mere sipurd kar do.' isapar angadasinhane sir hilaakar uttar diyaa- 'chachaajee ! us ratnako main kisee prakaar aapako naheen de sakataa. usake yogy aap bilakul naheen hain. usako to main bhagavaan jagannaathajeeke subhag aur sundar rakhahaaramen hee thavaaoongaa.' yah sunana tha ki deenasalaahasinhako tyauree badal gayee. ve krodhase tamatama uthe. unhonne bada़e kada़e svaramen kahaa- 'aisee dhrishtataa? yadi tumane us heereko mere havaale naheen kar diya aur meree is avajnaake liye tumane mujhase maaphee naheen maangee to main jaldee hee isaka maja tumhen chakhaaoongaa.' angadasinhane isaka uttar vinayapoorvak kintu dridhabhaavase diyaa. unhonne kahaa-'aapakee jaisee ichchhaa! parantu us haureko to jeete jee main aapako naheen de sakataa. vah to jisakee vastu hai, use samarpit kee ja chukee hai. ab usapar mera koee adhikaar naheen hai.' yah kahakar angadasinh laaparavaaheeke saath vahaanse uth gaye . raaja deenasalaahasinh bhala, us paraakramasheel tejasvee navayuvakaka kya kar sakate the. ve apana sa munh lekar taakate rah gaye.

isake baad raaja deenasalaahasinhane socha ki bina kisee chhala-chhadmaka sahaara liye angadasinhake samarth haathonse us javaaharakee praapti kathin hee naheen, asambhavamaaloom hotee hai. nidaan unhonne chhala-kapat, lobh laalach tatha daanta-dapatake dvaara kiseeko bahakaave men daalakar usase angadasinhake bhojanamen vish milava diyaa. sabase pahale unhonne bada़e premake saath apane ishtadevako bhojy padaarthonka bhog lagaayaa. tadanantar bhojan karaneke liye taiyaar hue. itanemen bhojan banaanevaalekee buddhi palatee aur usane dauda़kar inako bata diya ki 'isamen vish hai, aap n khaayen. par angadasinhako is baatase koee bhay naheen laga, unhonne bada़e vishvaasake saath svaabhaavik dhangase kahaa- 'jo kuchh bhee ho, main vishake bhayase bhagavaan ke samarpit hue prasaadaka tyaag naheen kar sakataa. vastutah ab yah prasaad vishamay naheen rah gaya hai. ab to yah amrit hai.' yah kahakar jabaradastee us thaalako chheen ve ek band kamaremen bada़e chaavase us saare ke saare mahaaprasaadako pa gaye. parantu bhagavaan‌kee kripaase | us vishamay bhojanaka koee asar angadasinhake shareerapar naheen pada़aa; kyonki hari prasaad ho jaaneke baad vah 'vishamay bhojana' raha hee kahaan. balki us mahaaprasaadase to ulate angadasinhake shareerake rahe-sahe rog bhee sadaake liye door ho gaye.

is ghatana ke baad angadasinhane vichaar kiya ki ab sainagadha़ men unaka rahana bilakul theek naheen hai; kyonki jahaanka raaja hee itana laalachee aur bhagavadvimukh hai, vahaanka vaataavaran unake liye kab hitakar ho sakata hai. bas, unhonne pureemen hee jaakar bhagavaan jagannaathajeeko vah mahaargh heera samarpit karaneka nishchay kar liyaa. akasmaat ek din ve apane nishchayaanusaar gharase nikal bhee pada़e; kintu abhee ve gharase do-teen kosase adhik naheen gaye honge ki raaja deenasalaahasinhake kaanonmen yah bhanak pada़ gayee. unhonne turant apane sipaahiyonko bulavaaya aur aajna dee ki 'chaahe jis prakaar ho, tumalog angadasinhase vah heera chheenakar avashy laao.' sipaahee yah sunate hee apane-apane hathiyaaronse lais hokar dauda़ pada़e. angadasinhako bhala, isakee kya khabar thee. ve ek jagah dera daalakar bhagavaan‌ke dhyaanamen baithe hue the. tabatak pata lagaatelagaate deenasalaah sinhakee phauj unake paas pahunch gayee. sipaahiyonne angadasinhako lalakaara aur kaha ki 'yadi aap apane praanonkee raksha chaahate hain to us heereko hamen de deejiye. naheen to usake badalemen aapaka sir kaatakar raajaake havaale kiya jaayagaa. unakee yahee aajna hai .'

angadasinhane vivashata dekhakar us haureko haathamen liya aur bhagavaan jagannaathajeese yah praarthana kee ki 'naatha! mere jeete jee yah heera raaja kaise le sakate hain. is samay aur koee vash n dekhakar main yaheense is heereko aapakee sevaamen bhent karata hoon.' yah kahakar unhonne saamaneke ek gahare jalaashayamen us anamol horeko phenk diyaa. sipaahee yah dekhakar avaak rah gaye. unake oopar angadasinhajeeke is tyaagaka bada़a prabhaav pada़aa. ve ulate pair vahaanse laut gaye aur raajaake paas jaakar unhonne sab haal kahaa. raaja bhee is baatako sunakar aashcharyachakit ho gaye, kintu phir bhee lobhane unaka peechha naheen chhoda़aa. ve apane sipaahiyonko saath lekar us taalaab ke paas aaye. unhonne taraha-tarahake upaayonse us taalaabako chhaan daala, parantu us heereka kaheen pata naheen chalaa. vah vahaan ho, tab n pata chale. antamen laachaar aur lajjit hokar ve apanee raajadhaaneeko laut gaye.

idhar usee raatako bhagavaanne svapramen apane paramapriy bhakt angadasinhajeese kahaa- pyaare angada! tumane vivash hokar jis anamol ratnako mere liye us gahare jalaashayamen phenka tha, usako mainne itanee dooreese hee sveekaar kar liya hai. is samay vah heera tumhaare ichchhaanusaar mere ratnahaaramen sushobhit ho raha hai! tum jaldee hee neelaachalapar pahunchee aur mera pratyaksh darshan karake apanee mana:kaamana pooree karo!' is sukhamay aur sunahale svaprase jaaganeke baad angadasinhajeekee prasannataaka paaraavaar n rahaa. ve baara-baar apane saubhaagyakee saraahana karanelage. puree pahunchane men unhen der naheen lagee. vahaan pahunchakar unhonne bhaktabhayahaaree bhagavaan‌ke pratyaksh darshan kiye. unakee bhaagyasheela aankhonne pratyaksh dekha ki unake paasaka vah anamol ratn bhagavaan‌ke hridayapar ratnahaar sushobhit ho raha hai aur bhagavaan apanee divy musakaraahatake saath snehapoorn netronse angadasinhajeekee or dekh rahe hain. angadasinhajeene bhee aankhen phaada़-phaada़kar bhagavaan‌kee us roopa-maadhureeka paan kiya aur shodashopachaarase unakee pooja tatha praarthana kee. isake baad to pureeke kana-kan men unakee itanee mamata ho gayee ki unhonne sada useekee pavitr godamen rahaneka vichaar kar liyaa. vaheen rahakar ye vidyaabhyaas tatha saadhu-santonkee seva karane lage aur pichhalee saaree ghatanaaonko bhool se gaye.

kuchh dinonke anantar in saaree baatonka pata deenasalaahasinhako chal gayaa. phir to ve bada़e hee vismayamen pada़kar apanee karaneepar lajjit ho gaye. unhonne socha ki 'mere hee kaaran mahaatma angadasinhako itane kasht uthaane pada़e ! ab unakee kripaase vanchit rahane men mera kalyaan kadaapi naheen hai.' yah sochakar bahut jaldee hee deenasalaahasinhane pureekee yaatra kar dee. pureemen pahunchakar unhonne angadasinhaka pata lagaaya aur unake paas svayan jaakar apane saare aparaadhonkee kshama maangee. unhonne angadasinhase sainagadha़ padhaaraneke liye bhee praarthana kee. bhaktavar angadasinhaka dayaardr hriday apane chachaake is prastaavako taal n sakaa. ve raajaake saath sainagadha़men padhaar gaye. phir to unake padhaarate hee sainagadha़kee sthiti badal gayee. vahaan raamaraajy ho gayaa. raaja deenasalaahasinh bhee unake satsangase bhagavaanke param bhakt ban gaye. unhonne apaneko aur apane saare gharako bhaktaraaj angadasinhake havaale kar diya aur svayan saadhu-santonkee seva tatha apanee prajaako bhagavaanke vividh vigrah maanakar unakee bhalaaee ke kaaryonmen sanlagn rahane lage. unakee dinacharya hee badal gayee !!

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ज़रा छलके ज़रा छलके वृदावन देखो
ज़रा हटके ज़रा हटके ज़माने से देखो
किसी को भांग का नशा है मुझे तेरा नशा है,
भोले ओ शंकर भोले मनवा कभी न डोले,
प्रीतम बोलो कब आओगे॥
बालम बोलो कब आओगे॥
कान्हा की दीवानी बन जाउंगी,
दीवानी बन जाउंगी मस्तानी बन जाउंगी,
मीठे रस से भरी रे, राधा रानी लागे,
मने कारो कारो जमुनाजी रो पानी लागे
इक तारा वाजदा जी हर दम गोविन्द गोविन्द
जग ताने देंदा ए, तै मैनु कोई फरक नहीं
लाडली अद्बुत नज़ारा तेरे बरसाने में
लाडली अब मन हमारा तेरे बरसाने में है।
मन चल वृंदावन धाम, रटेंगे राधे राधे
मिलेंगे कुंज बिहारी, ओढ़ के कांबल काली
तेरा गम रहे सलामत मेरे दिल को क्या कमी
यही मेरी ज़िंदगी है, यही मेरी बंदगी है
मेरी करुणामयी सरकार पता नहीं क्या दे
क्या दे दे भई, क्या दे दे
बोल कान्हा बोल गलत काम कैसे हो गया,
बिना शादी के तू राधे श्याम कैसे हो गया
मेरी चुनरी में पड़ गयो दाग री कैसो चटक
श्याम मेरी चुनरी में पड़ गयो दाग री
हे राम, हे राम, हे राम, हे राम
जग में साचे तेरो नाम । हे राम...
लाली की सुनके मैं आयी
कीरत मैया दे दे बधाई
कैसे जीऊं मैं राधा रानी तेरे बिना
मेरा मन ही न लगे श्यामा तेरे बिना
दुनिया से मैं हारा तो आया तेरे दवार,
यहाँ से जो मैं हारा तो कहा जाऊंगा मैं
सांवरे से मिलने का, सत्संग ही बहाना है,
चलो सत्संग में चलें, हमें हरी गुण गाना
हम राम जी के, राम जी हमारे हैं
वो तो दशरथ राज दुलारे हैं
अपने दिल का दरवाजा हम खोल के सोते है
सपने में आ जाना मईया,ये बोल के सोते है
मुँह फेर जिधर देखु मुझे तू ही नज़र आये
हम छोड़के दर तेरा अब और किधर जाये
राधिका गोरी से ब्रिज की छोरी से ,
मैया करादे मेरो ब्याह,
यशोमती मैया से बोले नंदलाला,
राधा क्यूँ गोरी, मैं क्यूँ काला
ਮੇਰੇ ਕਰਮਾਂ ਵੱਲ ਨਾ ਵੇਖਿਓ ਜੀ,
ਕਰਮਾਂ ਤੋਂ ਸ਼ਾਰਮਾਈ ਹੋਈ ਆਂ
तेरी मंद मंद मुस्कनिया पे ,बलिहार
तेरी मंद मंद मुस्कनिया पे ,बलिहार
इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से
गोविन्द नाम लेकर, फिर प्राण तन से
सब हो गए भव से पार, लेकर नाम तेरा
नाम तेरा हरि नाम तेरा, नाम तेरा हरि नाम
राधे तु कितनी प्यारी है ॥
तेरे संग में बांके बिहारी कृष्ण
रंगीलो राधावल्लभ लाल, जै जै जै श्री
विहरत संग लाडली बाल, जै जै जै श्री
आज बृज में होली रे रसिया।
होरी रे रसिया, बरजोरी रे रसिया॥
दिल की हर धड़कन से तेरा नाम निकलता है
तेरे दर्शन को मोहन तेरा दास तरसता है

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तेरी आराधना करूँ,
तेरी आराधना करूँ,
आ गया दर तेरे हार कर सांवरे,
बेड़ा पार करो बेड़ा पार करो,
हे शिव शंकर भोलेनाथ, मने तेरा एक सहारा
एक सहारा है, मने तेरा एक सहारा है,
जय साईं की जय साईं की,
साईं के नाम का रंग जिसको चढ़ जाये,
मेरी रंग दे चुनरिया राम रंग में,
राम रंग में सियाराम रंग में,