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महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी की मार्मिक कथा
महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी की अधबुत कहानी - Full Story of महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी]- भक्तमाल


मध्यकालीन म्लेच्छाक्रान्त भारत देशमें भक्ति कल्पलताका छाया विस्तार करके भागवतधर्मकी प्रतिष्ठा अक्षुण्ण रखने में महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यने जो श्रेय प्राप्त किया, उससे उनकी प्रगाढ़ भगवद्भक्ति, मौलिक विचारधारा और विशिष्ट उपासनापद्धतिकी महत्ता प्रकट हो जाती है। वेदान्तके रङ्गमपर प्रतिष्ठित आत्मरमणशील ग्रहाकी चिन्तन- नीरसतासे प्रभावित जन-मस्तिष्कको भक्तिके अतल रस-सुधा सागरमें संप्लावन सुखसे सम्पन्नकर उन्होंने भगवान्‌के श्रीकृष्णरूपकी, रसरूपकी प्रधानताकी पताका फहरायी। वे महाभागवत, महादार्शनिक और भक्तिके महान् आचार्य थे।

पाँच सौ साल पहले की बात है, संवत् 1535 वि0 में दक्षिण भारतसे एक तैलङ्ग ब्राह्मण लक्ष्मणभट्ट तीर्थयात्राके लिये उत्तर भारतका भ्रमण कर रहे थे। वैशाख मास था, वे उस समय अपनी पत्नी इल्लम्मागारुके सहित काशी में थे। अचानक सुना गया कि काशीपर यवनोंका आक्रमण होनेवाला है; अतः वे दक्षिणकी ओर चल पड़े। रास्तेमें चम्पारण्य नामक वनमें इल्लम्माने पुत्र रनको जन्म दिया। वैशाख कृष्ण एकादशी थी, माताने महानदीके निर्जन तटपर नवजात बालकको छोड़ दिया। पर माताकी ममताने करवट ली। लक्ष्मण और इल्लम्मा बालकको लेकर काशी लौट आये, हनुमानघाटपर रहने लगे। बालक अद्भुत प्रतिभा और सौन्दर्यसे सम्पन्न होनेके कारण सबका प्रियपात्र था। बाल्यावस्थामें लोगोंने उसे 'बालसरस्वती वाक्पति' कहना आरम्भ किया। विष्णुचित, तिरुम्मल और माधव यतीन्द्रकी शिक्षासे बाल्यावस्था में ही वल्लभ समस्त वैष्णव-शास्त्रोंमें पारङ्गत हो गये, उनमें भगवद्भक्तिका उदय होने लगा; तुलसीमाला, एकादशी, विष्णुव्रत और भगवदाराधनमें उनका समय बीतने लगा; तेरह सालकी ही अवस्थामें वे वेद, वेदाङ्ग, पुराण, धर्मशास्त्र आदिमें पूर्ण निष्णात हो गये।

धीरे-धीरे उनकी कीर्ति फैलने लगी, लोग उनकी भगवद्भक्तिकी सराहना करने लगे। श्रीवल्लभाचार्यके चरित्रविकासपर विष्णुस्वामी-सम्प्रदायके भक्ति-सिद्धान्तोंकअधिक मात्रामें प्रभाव पड़ा था। उन्होंने विजयनगरकी राजसभामें शङ्करके दार्शनिक सिद्धान्तों, वेदान्त और मायावादका खण्डन करके भगवान्‌की शुद्ध भक्तिकी | मर्यादा स्थापित की। राजाने उनका कनकाभिषेक किया, वे जगद्गुरु महाप्रभु श्रीमदाचार्यकी उपाधिसे सम्मानित किये गये। कनकाभिषेकके बाद उन्होंने उत्तर भारतमें भागवतधर्मके प्रचारके लिये यात्रा की। अट्ठाईस सालकी अवस्थामें उन्होंने विधिपूर्वक विवाह कर लिया। उनकी पत्नी साध्वी महालक्ष्मीने उनके जीवनको सुखमय और भगवदीय बनानेकी प्रत्येक चेष्टा की। उनका गृहस्थ जीवन बहुत आनन्दप्रद रहा। उस समय वे प्रयागके सन्निकट यमुनाके दूसरे तटपर अडैलमें रहा करते थे। वे आचार्यत्व पद ग्रहण कर चुके थे। दक्षिणापथ और उत्तरापथ दोनों एक स्वरसे उनके पाण्डित्य, भक्ति-सिद्धान्त और आचार्यत्वके सामने नत हो चुके थे। अप्रैल-निवास कालमें ही महाप्रभु वल्लभने परमानन्ददासको ब्रह्मसम्बन्ध दिया था।

आचार्यने पुष्टिमार्गकी संस्थापना की। उन्होंने श्रीमद्भागवतमें वर्णित भगवान् श्रीकृष्णकी लीलाओं में पूर्ण और अखण्ड आस्था प्रकट की। उनकी प्रेरणासे स्थान-स्थानपर श्रीभागवतका पारायण होने लगा। वे स्वयं भागवतसप्ताह-श्रवणमें बड़ी अभिरुचि रखते थे। उन्होंने अपने महाभागवत होनेकी सार्थकता चरितार्थ कर दी। सारे भागवत धर्मावलम्बियोंके वे आश्रय हो गये। अपने समकालीन श्रीचैतन्य महाप्रभुसे भी उनकी जगदीश्वर यात्राके समय भेंट हुई थी। दोनोंने एक-दूसरेके साक्षात्कारसे अपनी ऐतिहासिक महत्ताकी एक-दूसरे पर छाप लगा दी। उन्होंने ब्रह्मसूत्र, श्रीमद्भागवत और श्रीगीताको अपने प्रधान साहित्य घोषित किया। प्रेमलक्षणा भक्तिपर विशेष जोर दिया। पुष्टि भगवदनुग्रह या कृपाका प्रतीक है। उन्होंने वात्सल्यरससे ओतप्रोत भक्ति-पद्धतिकी - सीख दी। भगवान्के यश लीला गानको वे अपने पुष्टिमार्गका श्रेय मानते थे। उन्होंने श्रीशङ्कराचार्यके मायावादका विरोध करके सिद्ध किया कि जीव उतनाहो सत्य है जितना सत्य ब्रह्म है। फिर भी वह ब्रह्मका अंश और सेवक ही है; अतएव उसका ब्रह्मके प्रति दास्य संख्य, माधुर्यकान्ताभाव सहज सिद्ध है। उन्होंने कहा कि जीव भगवान्को भक्तिके बिना कल ही नहीं पा सकता। उन्होंने जीवके अणुत्वका समर्थन किया। ब्रह्मसे जगत्को उत्पत्ति होनेके कारण जगत् भी ब्रह्मकी तरह सत् है। परमात्माको साकार मानते हुए श्रीवल्लभने जीवात्मक और जडात्मक सृष्टि निर्धारित की। श्रीशङ्कराचार्यकी तरह अद्वैत ब्रह्मका समर्थन करनेपर भ जीव और ब्रह्मके शुद्ध अद्वैतभावका उन्होंने प्रतिपादन करके भगवान्को भक्ति-प्राप्ति के लिये जीवको प्रेरित किया। भगवान् अनुग्रहसे हो जीवका पोषण होता है। लौकिक और वैदिक कर्मफलका त्याग अनिवार्य है। भगवान् श्रीकृष्ण ही परब्रह्म हैं। उनकी सेवा ही जीवका परम कर्तव्य है। संसारकी अहंता और ममताका त्याग करके श्रीकृष्णके चरणोंमें सर्वस्व समर्पणकर भक्तिके द्वारा उनका अनुग्रह पाना ही ब्रह्म-सम्बन्ध है।

इसी आशयको व्यक्त करनेवाला एक मन्त्र है, जो 'आत्म-निवेदन-मन्त्र के नामसे प्रसिद्ध है। कहते हैं आचार्य चरणोंके उपास्य श्रीनाथजीने ही यह मन्त्र आचार्यको कलि-मल-ग्रसित जीवोंके उद्धारार्थ प्रदान किया था। मन्त्र इस प्रकार है-

'सहस्त्रपरिवत्सरमितकालजातकृष्णवियोगजनितताप- क्लेशानन्दतिरोभावोऽहं भगवते कृष्णायदेहेन्द्रियप्राणान्तः करणानि तद्धर्मांश्च दारागारपुत्राप्तवित्तेहापराणि आत्मना सह समर्पयामि दासोऽहं श्रीकृष्ण तवास्मि ।'

श्रीवल्लभके उपर्युक्त सिद्धान्त थे। उन्होंने श्रीकृष्णकी प्रसन्नताको ही भक्ति-तत्त्वकी संज्ञासे विभूषित किया। पुष्टि श्रीकृष्ण प्रेमको प्रकट करनेवाली भक्तिका नाम है। श्रीवल्लभने कहा कि गोलोकस्थ श्रीकृष्णकी सायुज्य प्राप्ति ही मुक्ति है। जो जीव पुरुषोत्तमके साथ युक्त है, वह सब कुछ उपभोग में ला सकता है। पुष्टिभक्तिके उदयका मूलाधार भगवत्प्रसाद ही है। आचार्य वल्लभने साधिकार सुबोधिनीमें अपना यह मत प्रकट किया है कि प्राणिमात्रके मोक्षदानके लिये ही भगवान् अभिव्यक्त होते हैं।

श्रीवल्लभने कहा-

गृहं सर्वात्मना त्याज्यं तच्चेत्यक्तुं न शक्यते ।

कृष्णार्थं तत्प्रयुञ्जीत कृष्णोऽनर्थस्य मोचकः ॥

श्रीवल्लभ जीवनका अधिकांश व्रजमें बीता, वे अलसे व्रज आये। अलसे व्रज आते समय उन्होंने गऊघाटपर महाकवि सूरदासको दीक्षित किया, दो या तीन दिनों बाद उसी यात्रामें विश्रामघाटपर कृष्णदास अधिकारीको पुष्टिमार्ग में सम्मिलितकर ब्रह्म-सम्बन्ध दिया। कुम्भनदास भी उनके शिष्य हुए। गोवर्धनमें एक मन्दिर बनवाकर उसमें श्रीनाथजीको मूर्ति प्रतिष्ठित की। उनके चौरासी शिष्यों में प्रमुख सूर, कुम्भन, कृष्णदास और परमानन्द श्रीनाथजीकी विधिवत् सेवा और कीर्तन आदि करने लगे। उन्होंने वैष्णवोंको गुरुतत्त्व सुनाया, लोला भेद बताया। सूरने उनकी चरण-भक्तिसे साहित्य में भगवान्‌को लीलाका सागर उडेल दिया, कुम्भनदासने श्रीवल्लभ प्रतापसे प्रमत्त होकर सीकरीमें लोकपति अकबरका मद-मर्दन कर दिया, परमानन्ददासने परमानन्दसागरको सृष्टि की, श्रीकृष्णदासने कहा- 'कृष्णदास गिरिधरके द्वारे श्रीवल्लभ-पद-रज-बल गरजत। 'चारों महाकवि उनकी भक्ति कल्पलताके अमर फल थे।

व्रजमें श्रीनाथजीकी कीर्ति-पताका फहराकर वे अपने पूर्व निवासस्थान' अप्रैल में चले आये श्रीआचार्यक दो पुत्र हुए। पहलेका नाम गोपीनाथ था और दूसरेका नाम श्रीविट्ठलनाथ था। उनका पारिवारिक जीवन अत्यन्त सुखमय और शान्त था।

एक बारकी बात है-एक सज्जन शालग्रामशिला एवं प्रतिमा दोनोंकी एक साथ ही पूजा कर रहे थे; परंतु उनके मनमें भेदभाव था। ये शिलाको अच्छी एवं प्रतिमाको निम्र श्रेणीको समझते थे। आचार्यने उन्हें समझाया कि 'भगवद्-विग्रहमें इस तरहको भेदभावना नहीं रखनी चाहिये।' इसपर वे सज्जन बिगड़ खड़े हुए एवं अकड़कर प्रतिमाको छातीपर शालग्रामको रखकर रातमें पधरा दिया। प्रातःकाल देखनेपर मालूम हुआ कि शालग्रामको शिला चूर-चूर हो गयी है तब तो उन्हें बड़ा पश्चात्ताप हुआ और जाकर उन्होंने आचार्यचरणोंसे क्षमा माँगी फिर आचार्यने भगवान्‌के चरणामृत उस चूर्णको भिगोकर गोली बनानेको कहा। ऐसा करनेपरमूर्ति फिर ज्यों-की-त्यों हो गयी।

उनका समग्र जीवन ऐसी चमत्कारपूर्ण घटनाओंसे प्र ओतप्रोत था; परंतु एक महान् भगवद्भक्तके जीवनमें इन चमत्कारोंका कोई भी ऊँचा स्थान है ही नहीं। गोकुलमें भगवान् श्रीकृष्णने उन्हें प्रत्यक्ष दर्शन दिये थे। सबसे ऊँची वस्तु तो उनके जीवनमें है- भगवान्‌की विशुद्ध अनन्यभक्ति।

उन्होंने तन-मन-धन सब कुछ भगवान्‌को समर्पित कर दिया था। एक बार भोगके लिये द्रव्यका अभाव देखकर उन्होंने सोनेकी कटोरी गिरवी रखवाकर भगवान्‌के सामने भोग उपस्थित किया। उन्होंने स्वयं प्रसाद नहीं लिया। दो दिनके बाद द्रव्य आनेपर प्रसाद लिया। वैष्णवोंके पूछनेपर उन्होंने कहा- 'कटोरी ठाकुरजीको पूर्व समर्पित थी, उनके भागका प्रसाद लेना महापातक है।' इस घटनासे उनकी कथनी-करनीके साम्यका पता चलता है। आचार्यने घोषणा कर दी थी कि 'मेरे वंशमें, या मेरा कहलाकर, जो कोई भगवद्-द्रव्यका उपयोग करेगा, उसका नाश हो जायगा।'श्रीवल्लभाचार्य महान् भक्त होनेके साथ ही दर्शनशास्त्र के प्रकाण्ड पण्डित थे। उन्होंने ब्रह्मसूत्रपर बड़ा सुन्दर 'अणुभाष्य' लिखा है और श्रीभागवतके दशम स्कन्ध तथा कुछ अन्य स्कन्धोंपर सुबोधिनी टीका लिखी है। श्रीमद्भागवतको वे प्रस्थानत्रयीके अन्तर्गत मानते थे।

श्रीवल्लभके परमधाम पधारनेके विषयमें एक घटना प्रसिद्ध है। ये अपने जीवनके अन्तिम दिनोंमें अड़ैलसे लौटकर प्रयाग होते हुए काशी आ गये थे। अपने जीवनके कार्य समाप्तकर वे एक दिन हनुमानघाटपर गङ्गा-स्नान करने गये। जहाँपर खड़े होकर वे स्नान कर रहे थे, वहाँसे एक उज्ज्वल ज्योति-शिखा उठी और बहुत-से आदमियोंके सामने श्रीवल्लभ सदेह ऊपर उठने लगे और लोगोंके देखते-ही-देखते आकाशमें लीन हो गये। हनुमानघाटपर उनकी एक बैठक बनी हुई है। इस प्रकार वि0 सं0 1587 आषाढ़ शुक्ला 3 को 52 वर्षकी अवस्थामें आपने भगवान्‌के आज्ञानुसार अलौकिक रीतिसे इहलीला संवरण करके गोलोकको प्रयाण किया।



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हम तड़पते ही तड़पते रह गए,
जय माँ जय माँ, अंबे माँ
आओगे जब तुम अंबे के द्वार,
मिलेगा तुमको मैया का प्यार,
थे जाणो या ना जाणो सांवरिया,
थारा सु यारी म्हे कर लिया,
जय हनुमान जय हनुमान,
भक्त ना हनुमंत कोई तुझसे है देखा,