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भक्त हिम्मतदास की मार्मिक कथा
भक्त हिम्मतदास की अधबुत कहानी - Full Story of भक्त हिम्मतदास (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्त हिम्मतदास]- भक्तमाल


उन्नीसवीं शताब्दी में पन्नाराज्यके बरायछ ग्राममें, जो पन्नासे लगभग पाँच कोस है, श्रीहिम्मतदासजीका जन्म हुआ। इनका कुल परम्परासे भगवद्भक्त था। साधु अभ्यागतोंका घरपर सत्कार होता था। इससे बचपनसे ही हिम्मतदासजीको साधुसङ्ग प्राप्त हुआ। कथा पुराण तथा हरिचर्चा, कीर्तन आदिमें इनका समय बाल्यकालसे ही व्यतीत होने लगा। भगवान्की कृपासे इनको पतिपरायणा सुशीला पत्नी मिली थी। दयाराम नामका एक पुत्र था। [ये दयारामजी श्रीमद्भागवतके अच्छे ज्ञाता हुए।]

हिम्मतदासजीको भगवान्‌का गुण-कीर्तन करनेमें विशेष आनन्द आता था। झाँझ बजाते हुए कीर्तन करते करते वे विह्वल हो जाया करते थे। पन्नाके राजमन्दिर, श्रीयुगलकिशोरजीके दर्शन करने, वे नित्य पैदल झाँझ बजाते हुए अपने ग्रामसे आया करते थे। एक दिन जब ये कीर्तन करते, झाँझ बजाते गाँवसे पन्ना जा रहे थे, तब जंगलके मार्गमें चोर मिल गये। चोरोंने कहा-'बाबाजी ! चिल्ला क्यों रहे हो? हमलोग चोर हैं। तुम्हारे पास जो कुछ हो, धर दो यहाँ हिम्मतदासजी अपनी धुन में थे। उन्होंने कुछ सुना ही नहीं उनको कुछ बोलते न देख चोरोंनेशन छीन ली और डॉटकर इनसे पास जो हो, वह दे देने को कहा। इन्होंने कहा- 'भाई! मेरे पास तो ये झाँझें ही थीं। इनको बजाकर मैं भगवान्‌का गुण गाता था, सो तुमलोगोने छीन ही ली।' चोरोंने भी देख लिया कि साधुके पास कुछ नहीं है; अतः वे 'भागे भूतकी लँगोटी ही भली' के न्यायसे झाँझ लेकर ही चलते बने।

झाँझ छिन जानेसे कीर्तनमें बाधा पड़ी। इससे हिम्मतदासजीको कुछ दुःख हुआ। उधर थोड़ी दूर जाते ही चोर चिल्लाने लगे-'ओ बाबाजी हमपर दया करो। हम अन्धे हो गये हैं। हमारी आँखें अच्छी कर दो। अपनी झाँझ ले जाओ।'

झाँझ मिलने की बात सुनकर प्रसन्नतासे ये उनके पास दौड़ गये। इनका शब्द सुनते ही झाँझ भूमिमें डालकर चोर पैरोंपर गिर पड़े। भगवान्का स्मरण करके इन्होंने उनके नेत्रोंपर हाथ फेरा। वे लोग फिर देखनेलगे। उनसे इन्होंने कहा—'अब चोरी करना छोड़ दो। किसीको कभी सताना मत। भगवान्का भजन करके जीवनको सफल बनाओ।' इनके उपदेशसे चोरोंने चोरी छोड़ दी। वे भगवान्‌के भजनमें लग गये। सच्चे साधुके क्षणभरके सड़की ऐसी ही अपूर्व महिमा है।

चोरोंके मार्ग में मिलने से हिम्मतदासजीको पत्रा पहुँचने में रात हो गयी। श्रीयुगलकिशोरजीकी सन्ध्या आरती, व्यारू आदि होकर शयन हो चुका था वहाँ पहुँचनेपर पहरेदारने इन्हें बताया कि 'अब दर्शन नहीं हो सकेगा, अब तो पट बंद हो गये हैं।' उसी समय भगवान्‌का ध्यान करके इन्होंने कहा

कपटिन कॉ लागे रहें, हिम्मतदास कपाट। प्रेमिन के पग धरत ही, खुलें कपाट झपाट इतना कहते ही मन्दिरके पट अपने आप खुल गये। प्रेममें विह्वल होकर ये स्तुति करने लगे। इनके स्तुति करते-करते मङ्गला आरतीका समय हो गया महंत गोविन्द दीक्षितजीने जब चौकीदारसे यह समाचार सुना, तब इनके चरणोंमें जाकर प्रणाम किया। प्रात:काल महाराज पना भी मन्दिरमें दर्शन करने आये। उन्होंने भी पट खुलनेकी बात सुनी। महाराजने इनसे प्रार्थना की' आपको बरायछ ग्रामसे रोज रोज यहाँ आनेमें बड़ा कष्ट होता है। आप मेरी ओरसे एक गाँव स्वीकार करें और यहीं निवास करें।' लेकिन भगवान्‌के लाड़ले भक्त मायाके ऐसे प्रलोभनोंमें नहीं आया करते। हिम्मतदासजी नम्रतापूर्वक महाराजकी बात अस्वीकार कर दी और आरती हो चुकनेपर अपने ग्राम लौट गये।

हिम्मतदासजी बड़े ही साधुसेवी थे। उधरसे आने जानेवाले साधु इनके यहाँ ठहरा ही करते थे। इन्हें भी संतोंकी सेवामें बहुत सुख मिलता था। द्रव्यका संकोच होनेसे ग्रामके परमेश्वरी नामक बनियेसे अनेक बार उधार सामान इन्हें लेना पड़ता था। एक बार साधुओंकी एक जमात इनके यहाँ आ गयी। इन्होंने आदरपूर्वक उनको ठहराया और उनके भोजनका सामान लेने बनियेके यहाँ पहुँचे। बनियेने इनको आदरपूर्वक बैठाकर पिछला हिसाबसमझाना प्रारम्भ किया। इनके उधार सामान माँगनेपर उसने कहा- 'महाराज ! पिछले रुपये बहुत हो गये हैं। पुराना हिसाब चुकता हुए बिना मैं उधार नहीं दूंगा।'

बनियेकी बात उचित ही थी। हिम्मतदास बड़ी निराशा लिये घर पहुँचे। उनकी पतिव्रता पत्नीने सब बातें सुर्ती उसके सारे आभूषण साधुसेवामें पहले ही विक चुके थे, केवल एक नथ बाकी थी। पतिको उदास देखकर उस साध्वीने वह नथ देते हुए कहा-'स्वामी! इसे देकर आप साधुओंके भोजनका सामान ले आयें।' हिम्मतदासको पत्नीका एकमात्र आभूषण लेते संकोच तो बहुत हुआ, पर दूसरा कोई उपाय नहीं था। नथ लेकर हिम्मतदास बनियेके पास गये। उसे गिरवी रखकर भोजनका सामान लाकर उन्होंने साधुओंको भोजन कराया। प्रातःकाल साधु विदा हो गये।

साधुओं के चले जानेपर हिम्मतदास नदी किनारे स्नान करने चले गये। उधर भगवान् उनका रूप धारणकर बनियेके पास पहुँचे और उससे रुपया लेकर नथ लौटाने को कहने लगे। बनियेने हिसाब करके पौने तीन सौ रुपये माँगे। पूरा हिसाब चुकता करके नथ लिये भगवान् हिम्मतदासके घर आये और बोले-'यह नथ ले जाओ और पहन लो।'

स्त्री अपने रोजके नियमानुसार घर लीपनेमें लगी 'थी। उसने कहा-' अभी तो आप लोटा-धोती लेकर नदी किनारे गये थे, इतनी देरमें नथ कहाँसे ले आये? मैं ठाकुरजीका चौका दे रही हैं, उसे चबूतरेपर रख दो।'

भगवान्ने कहा- स्वर्णका गहना पृथ्वीपर नहीं रखा जाता। जल्दी आकर पहन लो।

स्त्रीने पास आकर कहा-'मेरे हाथ तो गोबरसे सने हैं। तुम्हीं पहना दो।' अतः प्रभुने अपने हाथों ही उसे नथ पहना दी और घरसे बाहर चले गये।

स्नान करके लौटनेपर स्त्रीकी नाक में नथ देखकर आश्चर्यसे हिम्मतदासजीने पूछा-'तुम्हें यह नथ कहाँसे मिल गयी?'

स्त्रीने कहा- 'महाराज ! बुढ़ापेमें यह हँसी अच्छी नहीं लगती। अभी अपने हाथसे आप ही तो पहिना गये | हैं। मैंने तो अभी गोबरके हाथ भी नहीं धोये।'हिम्मतदास घरसे सीधे बनियेके पास जाकर पूछने लगे-'मेरी नथ तुमने किसके हाथ बेच दी?"

बनिया बोला-' आज आप यह कैसी बात कर रहे हैं? मेरा सब रुपया देकर अभी-अभी तो आप नथ ले गये हैं। यह वही रखी है और यह इसपर हिसाब चुकता होनेके दस्तखत हैं।'

अब हिम्मतदासजीके नेत्रोंसे आँसूकी धारा चलने लगी। उन्होंने कहा-'भैया परमेश्वरी! तुम्हारा नाम सार्थक हो गया। तुम सच्चे परमेश्वरदास हो। तुम्हें भगवान्ने दर्शन दिया। मैंने पता नहीं कौन-सा अपराध किया है कि मुझे दर्शन नहीं हुआ।' घर आकर स्त्रीके सौभाग्यकी भी उन्होंने प्रशंसा की। अपने दर्शन न होनेके दुःखसे व्याकुल होकर दिनभर भूखे-प्यासे रुदन करते बैठे रहे थे। रात्रिमें उन्हें लगा कि कोई कह रहा है—'तुम्हें वृन्दावनमें दर्शन होंगे।' इतना सुनते ही शरीरमें अद्भुत स्फूर्ति आ गयी। झाँझें बजाते, कीर्तनकी धुनमें तन्मय, देहकी सुधि भूले वे वृन्दावन चल पड़े। अपने ऐसे प्रेमी भक्तकी अगवानी करने वृन्दावनविहारी, मोरमुकुटधारी, वनमाली, श्यामसुन्दर वृन्दावनसे बाहर मार्गमें आये और भक्त से मिले। भगवान्ने कहा- 'तुम सात दिनके भूखे-प्यासे हो। आओ, इस कदम्बके नीचे हम सब भोजन करें।' प्रभुकी आज्ञा मानकर इन्होंने महाप्रसाद ग्रहण किया। फिर मिलनेका वचन देकर भगवान् अन्तर्धान हो गये।

हिम्मतदासजीने ज्यों ही वृन्दायनमें प्रवेश किया कि इन्हें सब जड़-चेतन श्यामा-श्यामस्वरूप ही दिखायी पड़ने लगे। दूसरे दिन श्रीयमुनाजीके तटपर पहुँचे तो देखते हैं कि व्रजके जीवनसर्वस्व रनके हिंडोलेपर श्रीरामेश्वरीके साथ विराजमान हैं। आप तुरंत ही समीप पहुँचकर झूला झुलाने लगे।

वृन्दावनसे आपने मथुराकी यात्रा की। व्रजके समस्त पावन स्थलोंपर जाकर उनके दर्शन किये। गोकुल पहुँचनेपर श्यामसुन्दरने इन्हें अपने बालरूपका दर्शन दिया। व्रजके पावन क्षेत्रोंकी यात्रा करके ये फिर घर लौट गये और जीवनपर्यन्त श्रीवृन्दावनविहारीके स्मरण भजनमें लीन रहे।



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ab himmatadaasajeeke netronse aansookee dhaara chalane lagee. unhonne kahaa-'bhaiya parameshvaree! tumhaara naam saarthak ho gayaa. tum sachche parameshvaradaas ho. tumhen bhagavaanne darshan diyaa. mainne pata naheen kauna-sa aparaadh kiya hai ki mujhe darshan naheen huaa.' ghar aakar streeke saubhaagyakee bhee unhonne prashansa kee. apane darshan n honeke duhkhase vyaakul hokar dinabhar bhookhe-pyaase rudan karate baithe rahe the. raatrimen unhen laga ki koee kah raha hai—'tumhen vrindaavanamen darshan honge.' itana sunate hee shareeramen adbhut sphoorti a gayee. jhaanjhen bajaate, keertanakee dhunamen tanmay, dehakee sudhi bhoole ve vrindaavan chal pada़e. apane aise premee bhaktakee agavaanee karane vrindaavanavihaaree, moramukutadhaaree, vanamaalee, shyaamasundar vrindaavanase baahar maargamen aaye aur bhakt se mile. bhagavaanne kahaa- 'tum saat dinake bhookhe-pyaase ho. aao, is kadambake neeche ham sab bhojan karen.' prabhukee aajna maanakar inhonne mahaaprasaad grahan kiyaa. phir milaneka vachan dekar bhagavaan antardhaan ho gaye.

himmatadaasajeene jyon hee vrindaayanamen pravesh kiya ki inhen sab jada़-chetan shyaamaa-shyaamasvaroop hee dikhaayee pada़ne lage. doosare din shreeyamunaajeeke tatapar pahunche to dekhate hain ki vrajake jeevanasarvasv ranake hindolepar shreeraameshvareeke saath viraajamaan hain. aap turant hee sameep pahunchakar jhoola jhulaane lage.

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बहुत बड़ा दरबार तेरो बहुत बड़ा दरबार,
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किशोरी तेरे चरणन में, महारानी तेरे
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सादर भारत शीश धरी लीन्ही
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नाम तेरा हरि नाम तेरा, नाम तेरा हरि नाम
राधिका गोरी से ब्रिज की छोरी से ,
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एक कोर कृपा की करदो स्वामिनी श्री
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