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भक्तप्रवर स्वामी श्रीहरिदासजी (हरिपुरुषजी ) की मार्मिक कथा
भक्तप्रवर स्वामी श्रीहरिदासजी (हरिपुरुषजी ) की अधबुत कहानी - Full Story of भक्तप्रवर स्वामी श्रीहरिदासजी (हरिपुरुषजी ) (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्तप्रवर स्वामी श्रीहरिदासजी (हरिपुरुषजी )]- भक्तमाल


भारतीय प्रदेशमें पंद्रहवीं, सोलहवीं, सत्रहवीं शताब्दियाँ विशेष महत्त्वप्रद रही हैं। इनमें अनेकों ईश्वरके परम भक्त एवं अनेकों संत-महात्मा अवतरित हुए थे। नानक, कबीर, नामदेव, रैदास, दादू आदि संत तथा तुलसी,सूर, मौरा, आदि भक्तोंका जो स्थान हमारे समाजमें है, वह किसीको अविदित नहीं। इसी संत श्रेणीमें स्वामी श्रीहरिदासजी महाराज हुए हैं। इनकी जन्मतिथिका ठीक-ठीक प्रामाणिक तथ्य तो सामने नहीं आया है, पर ये सोलहवीं सदीके अन्त तथा सतरहवीं सदीके मध्यमें हुए हैं।

महाराज हरिदासजीका जन्म साँखला गोत्रके क्षत्रिय कुलमें परगना डीडवानेके कापड़ोद ग्राममें हुआ था। इनका जातीय नाम हरिसिंहजी था । वयस्क होनेपर कुटुम्बीजनोंने इनका विवाह कर दिया। जब इनपर कुटुम्बके भरण-पोषणका भार आया, तब इन्होंने डाकेका आश्रय लिया। मारवाड़की वीरान भूमिमें अपने गाँवके इधर-उधर ये आते-जाते मुसाफिरोंको लूटकर उस लुटकी सम्पत्ति कुटुम्बका भरण-पोषण करने लगे।

दैवयोगसे एक दिन जब ये लूट-खसोटके लिये जंगलमें स्थित थे, तब कहींसे एक महात्मा पुरुष आ गये। इन्होंने उनके भी पौधी पत्रे टटोलनेका निश्चय किया। अपने शस्त्र दिखाकर महात्माको, जो कुछ अपने पास हो, दे देने को कहा। महात्माके पास वस्तुतः कुछ था नहीं। उन्होंने उत्तर दिया कि 'हमारे पास तुम्हारी लूटके लायक कुछ भी नहीं है।' हरिसिंहजीको विश्वास नहीं हुआ। उन्होंने महात्माको अपनी तलाशी देनेको बाध्य किया। महात्माने तलाशी दे दी, उनके पास कुछ निकला नहीं। जब हरिसिंहजी कुछ न मिलनेसे हताश हुए, तब महात्माने उन्हें कहा कि तुम यह लूट- का जन्य कर्म क्यों करते हो? कुटुम्बके भरण- पोषण के लिये तो खेती आदिका कार्य भी किया जा सकता है। तुम इस निकृष्ट कर्ममें लगाकर अपने अत्युत्तम मनुष्य - जन्मको अनवरत हिंसासे क्यों पापमय बना रहे हो? क्या तुम्हारा वह कुटुम्ब, जिसके पालन- पोषणके लिये तुम यह पापकर्म कर रहे हो, तुम्हारे इसपापका भी भागीदार होगा? तुम्हें यह तो ध्यान कर चाहिये महात्मा प्रेमको हरिसिंहजीके कठोर हृदयमें कुछ नम्रताने स्थान ग्रह किया। उन्होंने महात्माको उत्तर दिया कि 'इसमें वि क्या करना है। जब कुटुम्बके व्यक्ति मेरे द्वारा ले जा गये धनसे अपना भरण-पोषण करते हैं, तब मेरे पापकार भागीदार भी उन्हें बनना ही पड़ेगा। मैं जो हत्या लूट-पाट करता हूँ, उसका उपयोग अकेले मैं ही करता। मैं तो उन्होंके लिये इस कर्मको अपनाये हुए इस स्थितिमें वे इससे वञ्चित कैसे रह सकते हैं?"

महात्माने अति शान्त-भावसे हरिसिंहजीको सम्बो करते हुए कहा-यह तो तुम अपनी कल्पनासे ही नि कर रहे हो। कभी तुमने उनसे यह पूछा भी है कि इस हत्या कर्मसे यह सब धन लाता हैं, जिसका कि सब उपयोग करते हो, उस हत्याकाण्डमें तुम सब भागीदार हो या नहीं?' वस्तुतः इस विषयमें हरिसिंहज अपने कुटुम्बसे कभी बातचीत हुई नहीं थी। उ सोचा कि बात तो ठीक है। मैंने कुटुम्बचालोंसे पूछा तो है नहीं। वे महात्मासे बोले- मैंने इस कुटुम्बमालोंसे कभी बातचीत तो नहीं की है। महान कहा- 'तुम आज अभी जाकर उनसे पूछ लो, तुम्हें पता तो लगे कि उनका इस विषयमें क्या नि है।' हरिसिंहजीने कहा-'मैं इसका उत्तर लेकर तबतक तुम्हें यहाँ ठहरना होगा। उन्होंने सोचा है, क्या पता ठहरे या नहीं। उन्होंने महात्मासे कहा भरोसा नहीं है कि मैं कुटुम्बसे पूछकर वापिस आ तबतक तुम यहाँ ठहरे रहोगे? अतः मैं तुम्हें यहाँ पेसे बांधकर जाता हूँ, ताकि लौटकर आनेपर तुम मिल सकी।' उन्होंने महात्माको एक वृक्षसे बाँध तथा स्वयं घोड़े पर सवार हो अपने ग्राम गये। घर उन्होंने माता, पिता, भाई, स्त्री, पुत्रादिसे महात्मा हुए प्रश्नको पूछा। सबने एक हो उत्तर दिया कि पुण्य सब अपने किये हुए ही भोगते हैं। तुम हत्य हो चाहे लूट-खसोट करते हो, उसका फल तुम्हींकोभोगना होगा। हम उसमें न शरीक हैं, न हमारा उससे | सम्बन्ध है। हमें क्या पता तुम किस उपायसे कमाकर लाते हो। हमारा भरण-पोषण तुम्हारा कर्तव्य है। तुम चाहे जिस उपायसे कमाकर लाओ हमें तो खाने पहननैको चाहिये।' सबका एक ही उत्तर सुनकर हरिसिंहजी चिन्तामें निमग्न हो गये। वे सोचने लगे कि जिनके सुख- आरामके लिये मैं यह सब कुकर्म कर रहा हूँ, वे तो सब खानेके ही साझीदार हैं। पापके फलभोगमें किसीने हिस्सा बँटानेको नहीं कहा। इस स्थितिमें ये सब पापकर्म, जो अबतक किये हैं तथा कर रहा हूँ, उनका फल मुझीको भोगना है फिर मैं यह निकृष्ट कर्म करता हो क्यों रहूँ। इस तरह विचार करते हुए हरिसिंहजी वापस उस स्थानपर आये, जहाँ महात्माको बाँध गये थे। महात्मा के पास जाकर उनके बन्धन खोल हाथ जोड़ उनके चरणोंमें गिर गये। उनसे प्रार्थना करने लगे-'महाराज! घरके तो सभी व्यक्ति मेरे पापकर्ममें हिस्सा बैटानेसे इनकार कर गये हैं। मैंने इतने समयतक जिनके लिये इतना घोर पाप किया, वे सब तो केवल खानेभरके ही साथी हैं। आपने ठीक हो कहा था। अब आप ही मुझे कोई ऐसा मार्ग बतलाइये, जिससे में इस पापकर्मका ठीक-ठीक प्रायश्चित्त कर सकूँ।' महात्माने उपदेश दिया कि 'इसका एक ही मार्ग है-ईश्वरका चिन्तन करना। श्रद्धा तथा प्रेमभावसे ईश्वरके नामका जप करो, इसीसे तुम्हारे सब पापकर्मीकी निवृत्ति हो जायगी।

हरिसिंहजीने तत्क्षण ही अपने अस्त्र-शस्त्र एक कुँएमें डाल दिये और उसी समय से महात्मा के निर्दिष्ट किये हुए नाम-चिन्तनमें लग गये वहाँसे वे कोलियेके दक्षिणमें स्थित एक डूंगरीपर जाकर निवास करने लगे। इसी जगह उन्होंने परम श्रद्धा तथा दृढ धारणासे नाम-चिन्तन किया। उनके हृदयके सब मलिन भाव समाप्त हो गये। अन्तः- करणको पवित्रता होते ही उनकी कठोर हिंसा-भावनाको जगह दया और प्रेमने अपना आवास कर लिया। उनको वृत्ति अत्यन्त पवित्र और विमल हो गयी ये ईश्वराराधन करते हुए सभी प्राणियोंसे समान स्नेह करने लगे। डीडवाणे (तथा उसके आसपास के क्षेत्रमें सब जगह उनकी ख्याति राम हो गयी। डीडवाणे नगरमें एक संतसेवी गाढा महाजन रहते थे। महाराजको कीर्ति सुन ये भी दर्शनार्थइंगरोपर महाराजके पास गये। हरिदासजी महाराजके दर्शन करके महाजन परम प्रसन्न हुए तथा तभी से वे महाराज हरिदासजीकी अन्न जलसे सेवा करने लगे। महाराज हरिदासजीने अपनी पुनीत निष्ठासे परम पदकी प्राप्ति की। डीडवाणेके पास सरमें एक देवीका मन्दिर था। नागरिक लोग परम्परासे देवौको पशुओंकी बलि चढ़ाया करते थे। जब महाराज हरिदासजीने इस स्थितिको देखा, तब उन्हें अत्यन्त दुःख हुआ। उन्होंने अपने सदुपदेशद्वारा लोगोंको पशुवध करनेसे रोका। उनकी सद्भावनापूर्ण प्रेरणासे जो लोग बहुत कालसे पशुबलि दिया करते थे. उन्होंने भी उसका परित्याग कर दिया। तबसे अबतक उस पाड़ा देवीके स्थानपर कभी पशुबलि नहीं की जाती। इस हिंसाके निवारणसे लोगोंकी उनमें और भी अधिक श्रद्धा हुई। जन साधारण उन्हें अब दयाल महाराजके नामसे सम्बोधित करने लगे। इस तरह हरिदासजी महाराज अब अपने सदुपदेशोंसे लोक कल्याण करते हुए मारवाड़के बहुत से स्थानोंमें परिभ्रमण करके अन्तमें गाढ़ा महाजनके विशेष आग्रहसे डीडवाणे नगरमें पधार आये। महाराजके सैकड़ों शिष्य उनके उपदेशके प्रभावसे ईश्वर-चिन्तनमें ही अपना समय लगाने लगे। हरिदासजी महाराजके जीवनकालमें ही अनेकों शिष्य उन्हींके आदर्शपर चलने लग गये थे। इन शिष्योंको परम्परा ही आगे चलकर 'निरञ्जनी- सम्प्रदाय' कहलाने लगी। राजस्थानके चार संत सम्प्रदाय (दादूपन्थी, निरञ्जनी, रामस्नेही शाहपुरा, रामस्नेही सिंहथल) में निरञ्जन सम्प्रदाय भी अपना प्रमुख स्थान बनाये हुए हैं। इस सम्प्रदायके मूलप्रवर्तक उपर्युक्त हरिदासजी महाराज ही थे। इन्होंने अपने अभ्यास तथा नाम-चिन्तनसे जो अनुभूति प्राप्त की, उसे अपनी वाणीद्वारा सर्वसाधारणतक पहुँचाया। उनकी यह वाणी हो अब उनका वास्तविक स्मृतिचिह्न है। उक्त वाणीका प्रकाशन जोधपुरके साधु देवादासजीने सं 1988 वि0में किया है। उसकी प्राप्ति कुञ्जविहारोजोका मन्दिर, करलाबाजार, जोधपुरके पतेपर उन्हें पत्र लिखनेसे हो सकती है।

ज्ञान, भक्ति, वैराग्यको त्रिधारा वाणी में प्रवाहित है। साखी, शब्द लघुग्रन्थ, अरित आदिमें महाराजने अपनी साधना तथा अनुभूतिको जो धारा प्रवाहित को है, वह सर्वसाधारण के मनस्तलको छूए बिना नहीं रहती साधनाद्वारा उन्होंने नकेवल अपना ही उद्धार किया, किन्तु उस साधना-मार्गका पथ-प्रदर्शन करके उन्होंने औरोंके लिये भी मार्ग प्रशस्त कर दिया है। उनके एक पद तथा दो आदेश यहाँ दिये जाते हैं। उससे उनकी भावधाराका यत्किञ्चित् आभास मिल सकेगा।

मन रे गोबिंद के गुन गाय।

अब कि जब तब उठि चेलेगा, कहत हूँ समझाय ॥ टेक ॥

अटक अरि हरि ध्यान धर मन, सुरति हरि सों लाय ॥

भज तू भगवत भरम भंजन, संत करन सहाय ॥ 1 ॥

तरल तृष्ना त्रिविध रस बस, गलित गति तहँ चंद ॥

जाय जोबन, जरा ग्रासे, जाग रे मतिमंद ॥ 2 ॥

मोह मन रिपु ग्रासमें तें, गहर गुन जलदेह ॥

जन हरिदास आज सकाल नाहीं, हरि भजन कर लेह ॥

3 ॥ माया चढी सिकार चटकाइया ।

तुरी कै मारै कै मारि पताखा लाइया ॥

जन हरिदास भज राम सकल जन घेरिया ।

हरि हौ मुनिजाय बसे दरबार तहाँ तै फेरिया ॥ 1 ॥



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mahaaraaj haridaasajeeka janm saankhala gotrake kshatriy kulamen paragana deedavaaneke kaapaड़od graamamen hua thaa. inaka jaateey naam harisinhajee tha . vayask honepar kutumbeejanonne inaka vivaah kar diyaa. jab inapar kutumbake bharana-poshanaka bhaar aaya, tab inhonne daakeka aashray liyaa. maaravaada़kee veeraan bhoomimen apane gaanvake idhara-udhar ye aate-jaate musaaphironko lootakar us lutakee sampatti kutumbaka bharana-poshan karane lage.

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moh man ripu graasamen ten, gahar gun jaladeh ..

jan haridaas aaj sakaal naaheen, hari bhajan kar leh ..

3 .. maaya chadhee sikaar chatakaaiya .

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