(1)
देशभर में अकाल पड़ा है, चारों ओर त्राहि-त्राहि मची हुई है, पूर्वबंगालमें अकालका विशेष प्रकोप है। लोग भूखके मारे मरे जा रहे हैं। इसी समयकी घटना है। महेश मण्डल जातिका था नमः शूद्र- चाण्डाल। दिनभर मजदूरी करके कुछ पैसे लाता, उसीसे अपना तथा अपनी स्त्री, पुत्र, कन्या - चारोंका पेट भरता। जर जमीन कुछ भी नहीं था। महेश भगवती दुर्गाका भक्त था, दिन-रात 'दुर्गा', 'दुर्गा' रटा करता । मा दुर्गापर बड़ा विश्वास था उसका। कितना ही दुःख आये, कैसी ही विपत्ति पड़े, कुछ भी हो, 'दुर्गा' नाम महेश कभी नहीं भूलता था ।देशभरमें दुर्भिक्ष था, ऐसे समय काम कहाँ मिलता। महेशका परिवार आधे-पेट तो रहता ही था, किसी किसी दिन सबको पूरा अनशन करना पड़ता। आज दो दिनका उपवास था, महेशने बड़ी मुश्किलसे छः आने पैसे कमाये। बाजारसे दो सेर चावल खरीदे और पार जानेके लिये नदीपर पहुँचा। नदीके घाटपर खेपू महाराज दिखायी दिये।
खेपू गाँवके ज्योतिषी थे। इधर-उधर घूम-फिरकर पञ्चाङ्गका फल बतलाते, किसीकी जन्मकुण्डली देख देते। दुर्गापूजाके समय मूर्ति आदि चित्रित कर देते। इसी तरह जो कुछ मिलता, वही काम करके दो-चार पैसेकमा लेते। न मजदूरी कर सकते न कोई और बंधी आमदनी थी। देशमें अकालके मारे हाहाकार मचा था। ऐसे समय में इस तरहके आदमीको कौन पैसे देता है। खेपू उदासमुँह घाटपर खड़े थे। उसी समय महेशसे उनकी मुलाकात हुई। महेशने ब्राह्मणका चेहरा उतरा हुआ देखकर पूछा कि 'घरमें सब कुशल तो है?' खेोपूने जवाब दिया- 'क्या बताऊँ?' मा दुर्गाने मेरे नसीब में कुछ लिखा ही नहीं। कहीं भीख नहीं मिली। तीन दिनसे घरमें किसीने कुछ नहीं खाया। आज घर जानेपर सभी लोग मरणासन ही मिलेंगे। इसी चिन्तामें डूब रहा हूँ।' महेशने कहा- 'विपत्ति मा दुर्गाके सिवा और कौन रक्षा करनेवाला है। वही खानेको देती है और यही नहीं देती। हमारा तो काम है-बस, माके आगे रोना। उनके आगे पुकारकर रोनेसे जरूर भीख मिलेगी।' खेपूने कहा- 'भाई! अब यह विश्वास नहीं रहा। देखते हो दुःखके सागरमें डूब-उतरा रहा हूँ। बस, प्राण निकलना हो चाहते हैं। बताओ कैसे विश्वास करूँ?'
मा दुर्गाकी निन्दा सुनकर महेशकी आँखोंमें पानी भर आया। महेशने कहा- 'लो न, मा दुर्गाने तुम्हारी भीख मेरे हाथ भेजी है। तुम रोओ मत।' चावल-दाल सब खेपूको देकर महेश हँसता हुआ घरको चला। खेपूको अन देकर महेश मानी अपनेको कृतार्थ मान रहा था। उसने सोचा- आज एकादशी है। जीवनमें कभी एकादशीका व्रत नहीं किया। कल दशमी थी। कुछ खाया नहीं। आज उपवास हो गया, इससे व्रतका नियम पूरा सध गया। अब भगवान् देंगे तो कल द्वादशीका पारण हो ही जायगा। एक दिन न खानेसे मर थोड़े ही जायँगे।'
इस प्रकार सोचता- विचारता महेश घर पहुँचा। महेशको देखते ही स्त्रीने सामने आकर कहा- 'जल्दी चावल दो तो भात बना दूँ। बच्चा शायद आज नहीं बचेगा। बड़ी देरसे भूखके मारे बेहोश पड़ा है। मुझे चावल दो, मैं चूल्हेपर चढ़ाऊँ और तुम जाकर बच्चेको सँभालो।' महेशने कहा-'मा दुर्गाका नाम लेकर बच्चेके मुँहमें जल डाल दो। माकी दयासे यह जल ही उसकेलिये अमृत हो जायगा। खेपू महाराजके बच्चे तीन दिन से भूखे हैं। आज खानेको न मिलता तो मर ही जाते। मैं दो सेर चावल लाया था, सब उनको दे आया हूँ।" महेशकी स्त्रीने कहा- 'ब्राह्मण परिवारके प्राण बच गये सो तो बड़ा ही अच्छा हुआ पर आधा उनको देकर आधा ले आते तो बच्चोंको दो कौर भात दे देती। तीन वर्षका बच्चा दो दिनसे बिना खाये बेहोश पड़ा है। अब क्या होगा? मा दुर्गा ही जाने।'
महेशने कहा-'यदि मा काली बचायेगी तो कौन मारनेवाला है, अवश्य ही बच जायगा। और यदि समय पूरा ही हो गया है तो प्राणोंका वियोग होना ठीक ही हैं। खेपूका सारा परिवार तीन दिनोंसे भूखा है। पहले वह बचे। हमारे भाग्य में जो कुछ बदा है, हो ही जायगा।'
इसीका नाम त्याग है। एक करोड़पति अपने करोड़ रुपयोंमेंसे नामके लिये लाख रुपये दान दे दे तो इसमें कोई त्याग नहीं। न उसको देनेमें कोई कष्ट हुआ और न वह बदला पानेसे वञ्चित ही रहा। अखबारोंमें नाम छप गया, सरकारसे उपाधि मिल गयी और कोठीको साख ज्यादा बढ़ गयी। त्याग तो वह हैं कि जिसमें कुछ कष्ट उठाना पड़ता है; इसीलिये उसका महत्त्व है। इसीलिये शास्त्रोंमें उस आधे ग्रासका महान् फल बतलाया है, जो अपने एकमात्र मुँहके ग्रासमेंसे दिया जाता है। उसके सामने लाखों-करोड़ोंका दान कोई महत्त्व नहीं रखता। महेशका त्याग तो बहुत ही ऊँचा है। उसने अपने मुँहका आधा ग्रास ही नहीं दिया, सारा ही नहीं दिया उसने जो कुछ दिया, वह बहुत ही बढ़कर दिया। अपना शिशु पुत्र दो दिनसे भूखा है- भूखके मारे बेहोश पड़ा है उसके मुखका दाना महेशने खेपूके उन बच्चोंकी जान बचानेके लिये दे दिया, जो तीन दिनके भूखे हैं। महेशने सोचा 'मेरा बच्चा दो दिनका भूखा है; परंतु वे तो तीन दिनके भूखे हैं, पहले उनको मिलना चाहिये।' अपने बच्चेके दुःखको अपेक्षा महेश खेपूके बच्चोंके लिये अधिक दुःखी है। यह भी नहीं कि महेशने किसी दबावमें पड़कर अप्रसन्नता या विषादके साथ चावलदिये हों। उसने हँसते चेहरेसे दिये, हँसता हुआ ही वह घर आया और अपने बच्चेको मौतके मुँहमें देखकर भी अपनी कृतिपर होनेवाली उसकी प्रसन्नता घटी नहीं। धन्य !
(2)
जिसका भगवान्पर विश्वास होता है, जो भगवान्के नामपर त्याग करना जानता है, जो दुःख और विपत्तियों में भी उन्हें भगवान्का आशीर्वाद मानकर अपने मङ्गलकी चीज मानकर भगवान्का कृतज्ञ होता है, जो भगवान्की दी हुई बुरी से बुरी और दुःखसे भरी दीखनेवाली स्थिति में भी भगवान्के मङ्गलमुखकी हास्य-छटाको देखकर हँसता है, कोई भी दुःख भार भगवान्के विश्वासके मार्गसे जिसको नहीं डिगा सकता, जो हर हालतमें हँसता हुआ भगवान्को हरेक दैनपर सच्चे दिलसे खुशी मनाता हुआ भगवान् के नामको पुकारता रहता है- भगवान् उसके योग-क्षेमका वहन स्वयं करते हैं। उसका सारा भार अपने सिर उठा लेते हैं। यह सत्य है-ध्रुव सत्य है! हम अभागे मनुष्य विश्वासकी कमीसे ही दुःख-पर दुःख उठाते हैं और भगवान्की बरसती हुई कृपाधारासे वञ्चित रह जाते हैं। अस्तु,
महेशके पड़ोसमें गोपाल भौमिक नामक एक मध्यवित्त गृहस्थ रहते थे। घरके बीचमें पक्की दीवाल थी नहीं । महेश और उसकी स्त्रीमें जो बातचीत हुई, उसे सुनकर गोपाल और उनकी पत्नी दोनों चकित हो गये। गोपालने अपनी पत्नीसे कहा-' मालूम होता है यह तो साक्षात् महेश ही है। भला इतना त्याग कौन मनुष्य कर सकता है। जैसा महेश, ठीक वैसी उसकी स्त्री! मरणासन्न बच्चेको देखकर भी न तो वह पतिपर नाराज ही हुई और न उसके मुँह से एक कड़ा शब्द ही निकला। हमारे घर रसोई तैयार है। चलो, ले चलें और उन भक्त स्त्री पुरुषकी सेवा करके अपने जीवनको धन्य बनायें।'
दाल, भात और तरकारीको हाँडियोंको लेकर गोपालकी
स्त्री उमा अपने पति के साथ महेशकी झोंपड़ीमें पहुँची।
गोपालके हाथमें दूधका कटोरा और तीन-चार दर्जनकेले थे। इतनी चीजोंको लेकर जब वे महेशके सामने पहुँचे, तब महेश उन्हें देखकर विस्मित हो गया और उसने आश्चर्यसे कहा-' ग्रह क्यों मैंने तो आपसे कुछ चाहा नहीं था। बिना ही कारण इस नराधमको आप इतनी चीजें क्यों देने आये हैं?'
गोपालने सजल नेत्रोंसे कहा-'नराधम कौन है? | हमलोग तो परम श्रद्धांके साथ साक्षात् महेशको भोग लगाने आये हैं। हमें इस सेवाका जो सौभाग्य प्राप्त हुआ, इसमें भी आपका सङ्ग ही कारण है। मैं आपका पड़ोसी हूँ।"
महेश बोला-'यह भोजन किसी सत्पात्रको दीजिये, आपकी पुण्य होगा।' गोपालने आँखों में आँसू भरकर कुछ जोशके साथ कहा- " मा दुर्गाका नाम लेकर मैं ये चीजें लाया हूँ। आप लौटा देंगे तो समझँगा कि 'दुर्गा' के नामका कोई फल नहीं है, 'दुर्गा' नाम मिथ्या है।"
दुर्गाक नामका मिथ्या होना महेशके लिये असह्य था। अब उससे नहीं रहा गया और वह बड़े जोरसे 'दुर्गा', 'दुर्गा' पुकारता हुआ अपने स्त्री-बच्चोंको साथ लेकर खाने बैठ गया। गोपाल और उनकी स्त्री सामने बैठकर बड़े आदर के साथ भोजन परोसने लगे। महेशने दुर्गा मैयाका प्रसाद पाते पाते कहा- आज बड़े भाग्यसे खेपू महाराज मिले थे। वे न मिलते तो सिर्फ चावल ही खाकर रहना पड़ता। आज तो स्वयं मा अन्नपूर्णा यह प्रसाद लाकर खिला रही हैं। मुझे आज अन्नपूर्णाक दर्शन हो गये। मा अन्नपूर्णा अपने हाथों मुझे इस प्रकार दूध-भात खिलाना चाहती थीं, इसीलिये तो उन्होंने मुझे ऐसी बुद्धि दी कि मैं खेपूको सब चावल दे आया।'
(3)
महेश भीख माँगकर जीवन निर्वाह करता था और उसीसे अतिथियोंकी सेवा भी। महेशके सीधेपनसे लोग अनुचित लाभ उठाते। दिनभर काम करवाकर बहुत थोड़ी मजदूरी देते महेश कुछ नहीं बोलता कोई किसी भी समय किसी भी कामके लिये महेशको बुलाता तो महेश मा दुर्गा' की सेवा समझकर तुरंत जाकर उसकेकामको कर देता। 'दुर्गा' का नाम तो उसकी जीभसे कभी उतरता ही नहीं। मा भी सदा उसकी सँभाल रखती और उसके निर्वाहयोग्य पैसे उसे मिल ही जाते।
वैशाखका अन्तिम दिन था। सन्ध्याके समय महेशकी नन्ही सी मड़ैयापर एक ब्राह्मण गोस्वामी अतिथिके रूपमें पधारे। ब्राह्मणका रूप कच्चे सोने-सा सुन्दर था। उनकी देहसे ज्योति निकल रही थी। महेश उस समय घर नहीं था। महेशकी स्त्रीने पड़ोसी गोपाल भौमिक के घर कहलवाया। गाँवके बहुत से लोग आ गये और उन्होंने अतिथि ब्राह्मणको गोपालके घर अथवा और कहीं टिकनेके लिये प्रार्थना की और कहा कि 'महेश बड़ा गरीब है। इसके घर जगह नहीं है। यहाँ आपको कच्चे आँगन में सोना पड़ेगा, कष्ट होगा, इससे कृपा करके हमारे साथ चलिये।'
ब्राह्मणदेवताने कहा- 'मैं तो यहीं आया हूँ। घरके मालिक जो दे सकेंगे, वही ले लूँगा, पर किसी धनीके घर नहीं जाऊँगा।'
ब्राह्मणको किसी तरह राजी न होते देख लोग तरह तरहकी बातें कहने लगे। किसीने कहा कि 'यह ब्राह्मण नहीं है।' कोई बोला- 'चाण्डालोंका ब्राह्मण होगा।' किसीने कहा- 'ब्राह्मणों और कायस्थोंके घर छोड़कर यह चाण्डालके घर ठहरा है, इसीसे इसकी प्रवृत्तिका पता लग जाता है।' सब लोग यो कोसते हुए चले गये।
इसी समय महेश आ पहुँचा, उसने भक्ति भावसे अतिथिका आदर किया, उन्हें प्रणाम किया। महेशके घर तो कुछ था ही नहीं। वह अतिथिकी सेवाके लिये पोसियों यहाँ कुछ माँगने गया। पड़ोसी तो पहले से ही तने बैठे थे। किसीने कुछ नहीं दिया; कहा कि 'उन्हें यहाँ लाओ तो देंगे।' बेचारा महेश उपाय न देखकर मधुखालि नामक गाँव में गया। वहाँ चन्द्रनाथ साहा नामक एक बड़ा दूकानदार महेशका भक्त था। महेशके मुँहसे अतिथिके आनेकी बात सुनकर उसने लगभग बोस आदमियोंके सिरोंपर लादकर महेशके साथ खानेकाबहुत-सा सामान भेज दिया और खुद भी वह उसके साथ चल दिया।
गोस्वामी महोदय श्रीमद्भागवतको व्याख्या करने लगे। व्याख्या बड़ी सुन्दर थी। पाण्डित्य तो था ही, उसमेंसे भगवान्के प्रेमरसकी धारा बह रही थी यह देखकर, जिन लोगोंने पहले गालियाँ दी थीं, वे ही आ-आकर चरणोंमें पड़ने और क्षमा चाहने लगे। कथा समाप्तिके बाद रातके दूसरे पहर भगवान्को भोग लगाकर गोस्वामीने स्वयं भोजन किया और सबको प्रसाद दिया। इसी आनन्दमें सबेरा हो चला। इतनेमें देखते हैं कि गोस्वामी महाराजका कहीं पता नहीं है। लोगोंने उन्हें बहुत खोजा, पर वे कहाँ नहीं मिले। तब यह निश्चय हो गया कि | महेशपर कृपा करके स्वयं भगवान् ही गोस्वामीके रूपमें पधारे थे।
माघी पूर्णिमाका दिन था। गोपालके घर कीर्तन हो रहा था। इसी बीच महेश वहाँ पहुँचा और आनन्दके आँसू बहाता हुआ वहाँ नाच नाचकर बड़े जोरोंसे भगवान्के नामका कीर्तन करने लगा। उसका सारा शरीर पुलकित हो रहा था। चन्द्रनाथ साहा धन्य-धन्य करने लगा। तीन वेश्याओंने आकर महेशकी चरणधूलि सिर चढ़ायी !
महेश कहने लगा-'देखो न, ये निताई निमाई दोनों भाई कीर्तनके आँगन में खड़े हैं। ये रहे राधा कृष्ण। ये शिव दुर्गा खड़े हैं। बस आज ही तो मरने लायक सुदिन है।' महेशने अपनी खोसे कहा-कुदाल लाकर गड़हा खोदो और उसमें जल छिड़क दी। 'स्त्रीने यही किया। महेशने गढ़में सोकर कहा-'दुर्गा नाम सुनाओ।' चारों ओर शोर मच गया। लोग इकट्ठे हो गये। लोगोंने देखा महेशकी आँखोंमें आँसू हैं. शरीरपर रोमाञ्च है, मुँहसे 'दुर्गा' नामको ध्वनि हो रही है और वह मन्द मन्द मुसकरा रहा है। सब लोग उसे घेरकर कीर्तन करने लगे। यो नाम सुनते-सुनते महेशने महाप्रस्थान किया। कलिकालमें भी दुर्लभ इच्छा-मृत्यु हुई।
(1)
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(2)
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(3)
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gosvaamee mahoday shreemadbhaagavatako vyaakhya karane lage. vyaakhya bada़ee sundar thee. paandity to tha hee, usamense bhagavaanke premarasakee dhaara bah rahee thee yah dekhakar, jin logonne pahale gaaliyaan dee theen, ve hee aa-aakar charanonmen pada़ne aur kshama chaahane lage. katha samaaptike baad raatake doosare pahar bhagavaanko bhog lagaakar gosvaameene svayan bhojan kiya aur sabako prasaad diyaa. isee aanandamen sabera ho chalaa. itanemen dekhate hain ki gosvaamee mahaaraajaka kaheen pata naheen hai. logonne unhen bahut khoja, par ve kahaan naheen mile. tab yah nishchay ho gaya ki | maheshapar kripa karake svayan bhagavaan hee gosvaameeke roopamen padhaare the.
maaghee poornimaaka din thaa. gopaalake ghar keertan ho raha thaa. isee beech mahesh vahaan pahuncha aur aanandake aansoo bahaata hua vahaan naach naachakar bada़e joronse bhagavaanke naamaka keertan karane lagaa. usaka saara shareer pulakit ho raha thaa. chandranaath saaha dhanya-dhany karane lagaa. teen veshyaaonne aakar maheshakee charanadhooli sir chadha़aayee !
mahesh kahane lagaa-'dekho n, ye nitaaee nimaaee donon bhaaee keertanake aangan men khada़e hain. ye rahe raadha krishna. ye shiv durga khada़e hain. bas aaj hee to marane laayak sudin hai.' maheshane apanee khose kahaa-kudaal laakar gaड़ha khodo aur usamen jal chhida़k dee. 'streene yahee kiyaa. maheshane gadha़men sokar kahaa-'durga naam sunaao.' chaaron or shor mach gayaa. log ikatthe ho gaye. logonne dekha maheshakee aankhonmen aansoo hain. shareerapar romaanch hai, munhase 'durgaa' naamako dhvani ho rahee hai aur vah mand mand musakara raha hai. sab log use gherakar keertan karane lage. yo naam sunate-sunate maheshane mahaaprasthaan kiyaa. kalikaalamen bhee durlabh ichchhaa-mrityu huee.