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भक्तवर बाबा मनोहरदासजी की मार्मिक कथा
भक्तवर बाबा मनोहरदासजी की अधबुत कहानी - Full Story of भक्तवर बाबा मनोहरदासजी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [भक्तवर बाबा मनोहरदासजी]- भक्तमाल


बाबा मनोहरदासजी उच्च कोटिके भक्त और महात्मा थे। वे गिरिराज गोवर्धनके सन्निकट गोविन्द कुण्डपर रहते थे। वे उच्च कोटिके पण्डित थे। आजसे लगभग सवा सौ साल पहले उन्होंने बंगालमें एक कुलीन ब्राह्मण परिवारमें जन्म लिया था। कुछ बड़े होनेपर माता-पिताने उनको विवाहके बन्धनमें जकड़नेका निक्षण किया। एक रातको वे वैराग्यभावसे अनुप्राणित होकर घरसे निकल पड़े। बचपनसे ही वे संसार और उसके प्रपञ्चोंके प्रति पूर्ण अनासक्त थे। यात्रा कालमें एक विद्वान् पण्डितसे उन्होंने वेद-वेदाङ्ग, वेदान्त तथा अन्य शास्त्रोंका अध्ययन किया। उनकी वृत्ति ब्रह्म चिन्तनमें लीन रहने लगी। उन्होंने हिमालयकी तलहटीमें एक अनुभवी योगी के सम्पर्कमें अष्टाङ्गयोगका साधन किया, धीरे-धीरे उनके मनपर श्रीमद्भागवतमें वर्णित गोपीप्रेमको छाप पड़ी। वे भावुक तो थे ही, भगवान् श्रीकृष्णके नयनाभिराम रूप-लावण्यका आस्वादन करने के लिये व्रजकी ओर चल पड़े और वृन्दावनमें भगवत् रसिकोंके सत्सङ्गसे जीवनका परमानन्द प्राप्त किया। उसके पश्चात् निधुवन, कुसुमसरोवर, राधाकुण्ड आदिपर रहकर तपस्यापूर्ण जीवन अपनाया तथा गोविन्द कुण्डपर स्थायीरूपसे रहने लगे। नामजप और भगवान्के स्वरूप- चिन्तनमें उनका मन इस तरह लगा कि वे भोजन भिक्षा आदिकी भी सुध-बुध भूल गये। कई वर्षोंतक में आटा जलमें घोलकर पीते और नीमको पत्तीचबाकर ईश्वर-भजनके लिये पर्याप्त समय निकाल लेते थे। रातभर ध्यान और स्मरणमें जागते रहते थे।

उनका त्याग उच्च कोटिका था। लँगोटी, गाढ़ेकी चादर और मिट्टीके लोटेके सिवा वे अपने पास कुछ नहीं रखते थे। श्रीकृष्णने राधारानीसमेत उन्हें अपना दर्शन देकर कृतार्थ किया था। वे उन्मत्तकी तरह इधर-उधर घूमा करते थे। एक बार तो एक कदम्बके पेड़के नीचे तीन दिनोंतक समाधिस्थ होकर खड़े रहे। वे रात-रात गोविन्द - कुण्डमें खड़े रहते थे। कभी रोते, कभी हँसते थे। भगवान्का नाम ले-लेकर जोर-जोरसे प्रेमपूर्वक पुकारते थे, उस समय सूखे मोटे टिक्कड़ और नीमके झोल (रसा) से ही काम चलाते थे। उनकी प्रेम-साधना विलक्षण थी।

उन्होंने अपने किसी भी शिष्यसे कभी शारीरिक सेवा नहीं ली। नब्बे वर्षकी अवस्थामें भी वे स्वावलम्बी ही बने रहे। वे बड़े सहिष्णु थे। एक बार एक शिष्यने मूर्खतावश उनपर भालेसे प्रहार किया। वे मौन रहे, मुसकराते रहे। अन्य शिष्योंने उसे आश्रमसे निकालनेकी प्रार्थना की तो उन्होंने कहा कि यदि मैं नहीं रखूँगा तो बेचारेको दूसरा कौन रखेगा। यदि उनको कोई साष्टाङ्ग दण्डवत् करता तो वे धरतीपर माथा टेककर प्रतिनमस्कार करते थे।

कभी-कभी भक्तिके आवेशमें बँगलाके पद भी रचते थे। उनका ग्रन्थ विदग्धविलास अत्यन्त प्रसिद्ध है। वे भजनानन्दी महात्मा थे।



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[Bhakt Charitra - Bhakt Katha/Kahani - Full Story] [bhaktavar baaba manoharadaasajee]- Bhaktmaal


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kabhee-kabhee bhaktike aaveshamen bangalaake pad bhee rachate the. unaka granth vidagdhavilaas atyant prasiddh hai. ve bhajanaanandee mahaatma the.

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