शङ्करावतार भगवान् श्रीशङ्कराचार्यके जन्मसमयके सम्बन्धमें बड़ा मतभेद है। कुछ लोगोंके मतानुसार ईसा पूर्वकी छठी शताब्दीसे लेकर नवम शताब्दीपर्यन्त किसी समय इनका आविर्भाव हुआ था। 'कल्याण' के 'वेदान्ताङ्क 'में यह सिद्ध किया है कि आचार्यपादका जन्मसमय ईसा से लगभग चार सौ वर्ष पूर्व ही है। मठोंकी परम्परासे भी यही बात प्रमाणित होती है। अस्तु, किसी भी समय हो, केरल प्रदेशके पूर्णा नदीके तटवर्ती कलान्दी नामक गाँवमें बड़े विद्वान् और धर्मनिष्ठ ब्राह्मण श्रीशिवगुरुकी धर्मपत्नी श्रीसुभद्रा माताके गर्भसे वैशाख शुक्ल पञ्चमीके दिन इन्होंने जन्म ग्रहण किया था। इनके जन्मके पूर्व वृद्धावस्था निकट आ जानेपर भी इनके माता-पिता सन्तानहीन ही थे। अतः उन्होंने बड़ी श्रद्धाभक्तिसे भगवान् शङ्करकी आराधना की। उनकी सच्ची और आन्तरिक आराधनासे प्रसन्न होकर आशुतोष देवाधिदेव भगवान् शङ्कर प्रकट हुए और उन्हें एक सर्वगुणसम्पन्न पुत्ररत्न होनेका वरदान दिया। इसीके फलस्वरूप न केवल एक सर्वगुणसम्पन्न पुत्र ही, बल्कि स्वयं भगवान् शङ्करको ही इन्होंने पुत्ररूपमें प्राप्त किया। नाम भी उनका शङ्कर ही रखा गया।
बालक शङ्करके रूपमें कोई महान विभूति अवतरित हुई है, इसका प्रमाण बचपनसे ही मिलने लगा। एक वर्षकी अवस्था होते-होते बालक शङ्कर अपनी मातृभाषा में अपने भाव प्रकट करने लगे और दो वर्षकी अवस्थामें मातासे पुराणादिकी कथा सुनकर कण्ठस्थ करने लगे।तीन वर्षकी अवस्थामें उनका चूडाकर्म करके उनके पिता स्वर्गवासी हो गये। पाँचवें वर्षमें यज्ञोपवीत करके उन्हें गुरुके घर पढ़नेके लिये भेज दिया गया और केवल सात वर्षकी अवस्थामें ही वेद, वेदान्त और वेदाङ्गोंका पूर्ण अध्ययन करके वे घर वापस आ गये। उनकी असाधारण प्रतिभा देखकर उनके गुरुजन आश्चर्यचकित रह गये।
विद्याध्ययन समाप्तकर शङ्करने संन्यास लेना चाहा; परंतु जब उन्होंने मातासे आज्ञा माँगी तब उन्होंने नाहीं कर दी। शङ्कर माताके बड़े भक्त थे, उन्हें कष्ट देकर संन्यास लेना नहीं चाहते थे। एक दिन माताके साथ वे नदीमें स्नान करने गये। उन्हें एक मगरने पकड़ लिया। इस प्रकार पुत्रको सङ्कटमें देखकर माताके होश उड़ गये। वह बेचैन होकर हाहाकार मचाने लगी। शङ्करने मातासे कहा- 'मुझे संन्यास लेनेकी आज्ञा दे दो तो मगर मुझे छोड़ देगा।' माताने तुरंत आज्ञा दे दी और मगरने शङ्करको छोड़ दिया। इस तरह माताकी आज्ञा प्राप्तकर वे आठ वर्षकी उम्र में ही घरसे निकल पड़े। जाते समय माताकी इच्छाके अनुसार यह वचन देते गये कि 'तुम्हारी मृत्युके समय मैं घरपर उपस्थित रहूँगा।'
घरसे चलकर शङ्कर नर्मदा तटपर आये और वहाँ स्वामी गोविन्द भगवत्पादसे दीक्षा ली। गुरुने इनका नाम भगवत्पूज्यपादाचार्य रखा। इन्होंने गुरूपदिष्ट मार्गसे साधना आरम्भ कर दी और अल्पकालमें ही बहुत बड़े योगसिद्ध महात्मा हो गये। इनकी सिद्धिसे प्रसन्न होकर गुरुने इन्हेंकाशी जाकर वेदान्तसूत्रका भाष्य लिखनेकी आज्ञा दी और तदनुसार ये काशी चले गये। काशी आनेपर इनकी ख्याति बढ़ने लगी और लोग आकर्षित होकर इनका शिष्यत्व भी ग्रहण करने लगे। इनके सर्वप्रथम शिष्य सनन्दन हुए, जो पीछे पद्माचार्यके नामसे प्रसिद्ध हुए। काशीमें शिष्योंको पढ़ाने के साथ-साथ ये ग्रन्थ भी लिखते जाते थे। कहते हैं, एक दिन भगवान् विश्वनाथने चाण्डालके रूपमें इन्हें दर्शन दिये और इनके पहचानकर प्रणाम करनेपर ब्रह्मसूत्रपर भाष्य लिखने और धर्मके प्रचार करनेका आदेश दिया।
इसके बाद इन्होंने काशी, कुरुक्षेत्र, बदरिकाश्रम आदिको यात्रा की, विभिन्न मतवादियोंको परास्त किया और बहुत -से ग्रन्थ लिखे। प्रयाग आकर कुमारिलभट्टसे उनके अन्तिम समयमें भेंट की और उनकी सलाहसे माहिष्मतीमें मण्डन मिश्रके पास जाकर शास्त्रार्थ किया। शास्त्रार्थमें मण्डनकी पत्नी भारती मध्यस्था थीं। अन्तमें मण्डनने शङ्कराचार्यका शिष्यत्व ग्रहण किया और उनका नाम सुरेश्वराचार्य पड़ा। तत्पश्चात् आचार्यने विभिन्न मठोंकी स्थापना की और उनके द्वारा औपनिषद सिद्धान्तकी शिक्षा-दीक्षा होने लगी।
एक बार एक कापालिकने आचार्यसे एकान्तमें प्रार्थना की कि 'आप तत्त्वज्ञ हैं, आपको शरीरका मोह नहीं; में एक ऐसी साधना कर रहा हूँ, जिससे मुझे एक तत्त्वज्ञके सिरकी आवश्यकता है; यदि आप देना स्वीकार करें तो मेरा मनोरथ पूर्ण हो जाय।' आचार्यने कहा- भाई! किसीको मालूम न होने पाये; मैं अभी समाधि लगा लेता हूँ, तुम सिर काट ले जाना।' आचार्यने समाधि लगायी और वह सिर काटनेवाला ही था कि पद्माचार्यके इष्टदेव नृसिंह भगवान्ने ध्यान करते समय उन्हें सूचना दे दी और पद्मपादने आवेशमें आकर उसे मार डाला।
आचार्य अनेकों मन्दिर बनवायें, अनेकोंको सन्मार्गमें लगाया और कुमार्गका खण्डन करके भगवान्के वास्तविक स्वरूपको प्रकट किया। इन्होंने मार्गमें सभी मतोंकी उपयोगिता यथास्थान स्वीकार की है। और सभी साधनोंसे अन्तःकरण शुद्ध होता है, ऐसा माना है। अन्तःकरण शुद्ध होनेपर ही वास्तविकताका बोध होसकता है। अशुद्ध बुद्धि और मनके निश्चय एवं संकल्प भ्रमात्मक ही होते हैं। अतः इनके सिद्धान्त सच्चा ज्ञान प्राप्त करना ही परम कल्याण है और उसके लिये अपने धर्मानुसार कर्म, योग, भक्ति अथवा और भी किसी मार्गसे अन्तःकरणको शुद्ध बनाते हुए वहाँतक पहुँचना चाहिये।
भगवान् शङ्करने भक्तिको ज्ञानप्राप्तिका प्रधान साधन माना है, तथापि वे स्वयं बड़े भक्त थे। कुछ लोग उन्हें 'प्रच्छन्न बौद्ध' कहते हैं; परन्तु वस्तुतः वे ज्ञानसिद्धान्तके अन्तरालमें छिपे 'महान् भक्त' थे। अतः उन्हें 'प्रच्छन्न भक्त' कह सकते हैं। प्रबोधसुधाकरके नीचे उधृत श्लोकोंसे तो यह सिद्ध होता है कि आचार्यपाद भगवान् श्रीकृष्णके अनन्य भक्त थे और उनकी वनभोजन लीलाकी झाँकी किया करते थे और उनसे प्रार्थना करते थे। नीचे उस झाँकी तथा प्रार्थनाको देखिये-
भगवान्की झाँकी
यमुनातटनिकटस्थितवृन्दावनकानने महारम्ये । कल्पद्रुमतलभूमौ चरणं चरणोपरि स्थाप्य ॥
तिष्ठन्तं घननीलं स्वतेजसा भासयन्तमिह विश्वम् । पीताम्बरपरिधानं चन्दनकर्पूरलिप्तसर्वाङ्गम् ॥ आकर्णपूर्णनेत्रं कुण्डलयुगमण्डितश्रवणम्। मन्दस्मितमुखकमलं सुकौस्तुभोदारमणिहारम् ॥ वलयाङ्गुलीयकाद्यानुज्ज्वलयन्तं स्वलङ्कारान् । गलविलुलितवनमालं स्वतेजसापास्तकलिकालम् ॥ गुञ्जारवालिकलितं गुञ्जापुञ्जान्विते शिरसि
भुञ्जानं सह गोपैः कुञ्जान्तरवर्तिनं हरिं स्मरत ॥
'श्रीयमुनाजीके तटपर स्थित वृन्दावनके किसी महामनोहर बगीचेमें जो कल्पवृक्षके नीचेकी भूमिमें चरणपर चरण रखे बैठे हैं, जो मेघके समान श्यामवर्ण हैं और अपने तेजसे इस निखिल ब्रह्माण्डको प्रकाशित कर रहे हैं, जो | सुन्दर पीताम्बर धारण किये हुए हैं तथा समस्त शरीरमें कर्पूरमिश्रित चन्दनका लेप लगाये हुए हैं, जिनके कर्णपर्यन्त विशाल नेत्र हैं, कान कुण्डलके जोड़ेसे सुशोभित हैं, मुखकमल मन्द मन्द मुसका रहा है तथा जिनके वक्षःस्थलपर कौस्तुभमणियुक्त सुन्दर हार है और जो अपनी कान्तिसे कङ्कण और अँगूठी आदि सुन्दरआभूषणोंकी भी शोभा बढ़ा रहे हैं, जिनके गलेमें वनमाला लटक रही है और अपने तेजसे जिन्होंने कलिकालको परास्त कर दिया है तथा जिनका गुञ्जावलिविभूषित मस्तक गूँजते हुए भ्रमरसमूहसे सुशोभित है, किसी कुञ्जके भीतर बैठकर ग्वालबालोंके साथ भोजन करते हुए उन श्रीहरिका स्मरण करो।'
मन्दारपुष्पवासितमन्दानिलसेवितं परानन्दम् ।
मन्दाकिनीयुतपदं नमत महानन्ददं महापुरुषम् ॥
'जो कल्पवृक्षके पुष्पोंकी गन्धसे युक्त मन्द मन्द वायुसे सेवित हैं, परमानन्दस्वरूप हैं तथा जिनके चरणकमलोंमें श्रीगङ्गाजी विराजमान हैं, उन महानन्ददायक महापुरुषको नमस्कार करो।'
सुरभीकृतदिग्वलयं सुरभिशतैरावृतं सदा परितः ।
सुरभीतिक्षपणमहासुरभीमं यादवं नमत ॥
'जिन्होंने समस्त दिशाओंको सुगन्धित कर रखा है, अ जो चारों ओरसे सैकड़ों कामधेनु गौओंसे घिरे हुए हैं तथा म देवताओंके भयको दूर करनेवाले और बड़े-बड़े राक्षसोंके म् लिये भयङ्कर हैं, उन यदुनन्दनको नमस्कार करो।'
सुरभीकृतदिग्वलयं सुरभिशतैरावृतं सदा परितः l
सुरभीतिक्षपणमहासुरभीमं यादवं नमत ॥
'जिन्होंने समस्त दिशाओंको सुगन्धित कर रखा है, जो चारों ओरसे सैकड़ों कामधेनु गौओंसे घिरे हुए हैं तथा देवताओंके भयको दूर करनेवाले और बड़े-बड़े राक्षसोंके लिये भयङ्कर हैं, उन यदुनन्दनको नमस्कार करो।'
कन्दर्पकोटिसुभगं वाञ्छितफलदं दयार्णवं कृष्णम्।
त्यक्त्वा कमन्यविषयं नेत्रयुगं द्रष्टुमुत्सहते ॥
'जो करोड़ों कामदेवोंसे भी सुन्दर हैं, वाञ्छित फलके देनेवाले हैं, दयाके समुद्र हैं, उन श्रीकृष्णचन्द्रको छोड़कर ये नेत्रयुगल और किस विषयको देखनेके लिये अ उत्सुक होते हैं?"
ब्रह्माण्डानि बहूनि पङ्कजभवान् प्रत्यण्डमत्यद्भुतान्
गोपान् वत्सयुतानदर्शयदजं विष्णूनशेषांश्च यः ।
शम्भुर्यच्चरणोदकं स्वशिरसा धत्ते च मूर्तित्रयात् कृष्णो वै
पृथगस्ति कोऽप्यविकृतः सच्चिन्मयो नीलिमा ॥
'जिन्होंने ब्रह्माजीको अनेक ब्रह्माण्ड, प्रत्येक ब्रह्माण्ड में पृथक्-पृथक् अति अद्भुत ब्रह्मा, वत्सोंके सहित समस्त गोप तथा [भिन्न-भिन्न ब्रह्माण्डोंके] समस्त विष्णु दिखाये और जिनके चरणोदकको श्रीशङ्कर अपने सिरपर धारण करते हैं, वे श्रीकृष्ण त्रिमूर्ति (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) - से भिन्न कोई अविकारिणी सच्चिदानन्दमयी नीलिमा हैं।'
कृपापात्रं यस्य त्रिपुररिपुरम्भोजवसतिः
सुता जह्नोः पूता चरणनखनिर्णेजनजलम् ।
प्रदानं वा तस्य त्रिभुवनपतित्वं विभुरपि
निदानं सोऽस्माकं जयति कुलदेवो यदुपतिः ॥
'त्रिपुरारि शिव और कमलासन ब्रह्मा जिनकी कृपाके पात्र हैं, परमपावनी श्रीगङ्गाजी जिनके चरणनखका धोवन हैं तथा त्रिलोकीका राज्य जिनका दान है, वे सर्वव्यापक और हम सबके आदिकारण तथा कुलदेव श्रीयदुनाथ सदा विजयी हो रहे हैं।'
मायाहस्तेऽर्पयित्वा भरणकृतिकृते मोहमूलोद्भवं मां मातः
कृष्णाभिधाने चिरसमयमुदासीनभावं गतासि ।
कारुण्यैकाधिवासे सकृदपि वदनं नेक्षसे त्वं मदीयं
तत्सर्वज्ञे न कर्तुं प्रभवति भवती किं नु मूलस्य शान्तिम् ॥
'हे कृष्णनाम्म्री मातेश्वरि ! मोहरूपी मूलनक्षत्रमें उत्पन्न हुए मुझ पुत्रको भरण-पोषणके लिये मायाके हाथोंमें सौंपकर तू बहुत दिनोंसे मेरी ओरसे उदासीन हो गयी है। अरी! एकमात्र करुणामयी मैया! तू एक बार भी मेरे मुखकी ओर नहीं देखती? हे सर्वज्ञे ! क्या तू उस मोहरूपी मूलकी शान्ति करनेमें समर्थ नहीं है?'
नित्यानन्दसुधानिधेरधिगतः सन्नीलमेघः सता -
मौत्कण्ठ्यप्रबलप्रभञ्जनभरैराकर्षितो
विज्ञानामृतमद्भुतं निजवचोधाराभिरारादिदं
चेतश्चातक चेन्न वाञ्छसि मृषाक्रान्तोऽसि सुप्तोऽसि किम् ॥
'नित्यानन्दरूपी अमृतके समुद्रसे निकला हुआ और सज्जनोंकी उत्कण्ठारूप प्रबल वायुसे उड़ाकर | लाया हुआ सत्स्वरूप नील मेघ तेरे पास ही अद्भुत विज्ञानामृतकी अपने वचनरूपी धाराओंसे वर्षा कर रहा है। अरे चित्तरूपी पपीहे ! यदि तुझे उसे पीनेकी इच्छा नहीं होती तो तुझे व्यर्थ ही किसीने पकड़ रखा है, या तू सो गया है?'
चेतश्चञ्चलतां विहाय पुरतः सन्धाय कोटिद्वयं
तत्रैकत्र निधेहि सर्वविषयानन्यत्र च श्रीपतिम् ।
विश्रान्तिर्हितमप्यहो क्व नु तयोर्मध्ये तदालोच्यतां
युक्त्या वानुभवेन यत्र परमानन्दश्च तत्सेव्यताम् ॥
'अरे चित्त! चञ्चलताको छोड़कर अपने सामने तराजूके दोनों पलड़ोंको रख; उनमेंसे एकमें समस्त विषयोंको और दूसरेमें भगवान् श्रीपतिको रख। उन दोनोंमेंसे किसमें अधिक शान्ति और हित है - इसकाविचार कर, और युक्ति तथा अनुभवसे जिसमें परमानन्दकी प्रतीति हो, उसीका सेवन कर।'
काम्योपासनयार्थयन्त्यनुदिनं किञ्चित्फलं स्वेप्सितं
केचित्स्वर्गमथापवर्गमपरे योगादियज्ञादिभिः ।
अस्माकं यदुनन्दनाङ्घियुगलध्यानावधानार्थिनां
किं लोकेन दमेन किं नृपतिना स्वर्गापवर्गैश्च किम् ॥
'कोई लोग तो सकाम उपासनाके द्वारा नित्यप्रति अपने किसी अभीष्ट फलकी प्रार्थना किया करते हैं और कोई योग तथा यज्ञादि अन्य साधनोंसे स्वर्ग और अपवर्गकी याचना करते हैं; किंतु श्रीयदुनाथके चरणकमलोंके ध्यानमें ही सदा लगे रहनेके इच्छुक हमलोगोंको लोकसे, दमसे, राजासे, स्वर्गसे और मोक्षसे क्या काम है।'
सुतरामनन्यशरणाः क्षीराद्याहारमन्तरा यद्वत् ।
केवलया स्नेहदृशा कच्छपतनयाः प्रजीवन्ति ॥
'जिनका कोई अन्य आश्रय नहीं है, ऐसे कछुईके बच्चे जिस प्रकार दूध आदि आहारके बिना ही केवल माताकी स्नेहदृष्टिसे ही पलते हैं, उसी प्रकार अनन्य भक्त भी
भगवान्की दयादृष्टिके सहारे ही जीवन-निर्वाह करते हैं।'
इससे भगवान् श्रीकृष्णके सम्बन्धमें इनकी अनुभूति और भक्तिका पता लग जाता है। इनके द्वारा रचित ग्रन्थोंकी बड़ी लम्बी सूची है। परंतु प्रधान प्रधान ग्रन्थ ये हैं - ब्रह्मसूत्रभाष्य, उपनिषद् (ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, नृसिंहपूर्वतापनीय, श्वेताश्वतर आदि) - भाष्य, गीताभाष्य, विष्णुसहस्रनामभाष्य, सनत्सुजातीयभाष्य, हस्तामलकभाष्य, ललितात्रिशतीभाष्य, विवेकचूडामणि, प्रबोधसुधाकर, | उपदेशसाहस्री, अपरोक्षानुभूति, शतश्लोकी, दशश्लोकी, सर्ववेदान्तसिद्धान्तसारसंग्रह, वाक्यसुधा, पञ्चीकरण, प्रपञ्चसार, आत्मबोध, मनीषापञ्चक, आनन्दलहरी, विविध स्तोत्र इत्यादि ।
इनका सिद्धान्त भी बहुत ऊँचा था तथा अधिकारी पुरुषोंके ही समझनेकी चीज है। सभी देशोंके दार्शनिकोंने | उसके सामने सिर झुकाया है और सभी विचारशीलोंने | मुक्त कण्ठसे उसकी महिमाका गान किया है।
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bhagavaankee jhaankee
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kandarpakotisubhagan vaanchhitaphaladan dayaarnavan krishnam.
tyaktva kamanyavishayan netrayugan drashtumutsahate ..
'jo karoda़on kaamadevonse bhee sundar hain, vaanchhit phalake denevaale hain, dayaake samudr hain, un shreekrishnachandrako chhoda़kar ye netrayugal aur kis vishayako dekhaneke liye utsuk hote hain?"
brahmaandaani bahooni pankajabhavaan pratyandamatyadbhutaan
gopaan vatsayutaanadarshayadajan vishnoonasheshaanshch yah .
shambhuryachcharanodakan svashirasa dhatte ch moortitrayaat krishno vai
prithagasti ko'pyavikritah sachchinmayo neelima ..
'jinhonne brahmaajeeko anek brahmaand, pratyek brahmaand men prithak-prithak ati adbhut brahma, vatsonke sahit samast gop tatha [bhinna-bhinn brahmaandonke] samast vishnu dikhaaye aur jinake charanodakako shreeshankar apane sirapar dhaaran karate hain, ve shreekrishn trimoorti (brahma, vishnu, mahesha) - se bhinn koee avikaarinee sachchidaanandamayee neelima hain.'
kripaapaatran yasy tripuraripurambhojavasatih
suta jahnoh poota charananakhanirnejanajalam .
pradaanan va tasy tribhuvanapatitvan vibhurapi
nidaanan so'smaakan jayati kuladevo yadupatih ..
'tripuraari shiv aur kamalaasan brahma jinakee kripaake paatr hain, paramapaavanee shreegangaajee jinake charananakhaka dhovan hain tatha trilokeeka raajy jinaka daan hai, ve sarvavyaapak aur ham sabake aadikaaran tatha kuladev shreeyadunaath sada vijayee ho rahe hain.'
maayaahaste'rpayitva bharanakritikrite mohamoolodbhavan maan maatah
krishnaabhidhaane chirasamayamudaaseenabhaavan gataasi .
kaarunyaikaadhivaase sakridapi vadanan nekshase tvan madeeyan
tatsarvajne n kartun prabhavati bhavatee kin nu moolasy shaantim ..
'he krishnanaammree maateshvari ! moharoopee moolanakshatramen utpann hue mujh putrako bharana-poshanake liye maayaake haathonmen saunpakar too bahut dinonse meree orase udaaseen ho gayee hai. aree! ekamaatr karunaamayee maiyaa! too ek baar bhee mere mukhakee or naheen dekhatee? he sarvajne ! kya too us moharoopee moolakee shaanti karanemen samarth naheen hai?'
nityaanandasudhaanidheradhigatah sanneelameghah sata -
mautkanthyaprabalaprabhanjanabharairaakarshito
vijnaanaamritamadbhutan nijavachodhaaraabhiraaraadidan
chetashchaatak chenn vaanchhasi mrishaakraanto'si supto'si kim ..
'nityaanandaroopee amritake samudrase nikala hua aur sajjanonkee utkanthaaroop prabal vaayuse uda़aakar | laaya hua satsvaroop neel megh tere paas hee adbhut vijnaanaamritakee apane vachanaroopee dhaaraaonse varsha kar raha hai. are chittaroopee papeehe ! yadi tujhe use peenekee ichchha naheen hotee to tujhe vyarth hee kiseene pakada़ rakha hai, ya too so gaya hai?'
chetashchanchalataan vihaay puratah sandhaay kotidvayan
tatraikatr nidhehi sarvavishayaananyatr ch shreepatim .
vishraantirhitamapyaho kv nu tayormadhye tadaalochyataan
yuktya vaanubhaven yatr paramaanandashch tatsevyataam ..
'are chitta! chanchalataako chhoda़kar apane saamane taraajooke donon palada़onko rakha; unamense ekamen samast vishayonko aur doosaremen bhagavaan shreepatiko rakha. un dononmense kisamen adhik shaanti aur hit hai - isakaavichaar kar, aur yukti tatha anubhavase jisamen paramaanandakee prateeti ho, useeka sevan kara.'
kaamyopaasanayaarthayantyanudinan kinchitphalan svepsitan
kechitsvargamathaapavargamapare yogaadiyajnaadibhih .
asmaakan yadunandanaanghiyugaladhyaanaavadhaanaarthinaan
kin loken damen kin nripatina svargaapavargaishch kim ..
'koee log to sakaam upaasanaake dvaara nityaprati apane kisee abheesht phalakee praarthana kiya karate hain aur koee yog tatha yajnaadi any saadhanonse svarg aur apavargakee yaachana karate hain; kintu shreeyadunaathake charanakamalonke dhyaanamen hee sada lage rahaneke ichchhuk hamalogonko lokase, damase, raajaase, svargase aur mokshase kya kaam hai.'
sutaraamananyasharanaah ksheeraadyaahaaramantara yadvat .
kevalaya snehadrisha kachchhapatanayaah prajeevanti ..
'jinaka koee any aashray naheen hai, aise kachhueeke bachche jis prakaar doodh aadi aahaarake bina hee keval maataakee snehadrishtise hee palate hain, usee prakaar anany bhakt bhee
bhagavaankee dayaadrishtike sahaare hee jeevana-nirvaah karate hain.'
isase bhagavaan shreekrishnake sambandhamen inakee anubhooti aur bhaktika pata lag jaata hai. inake dvaara rachit granthonkee bada़ee lambee soochee hai. parantu pradhaan pradhaan granth ye hain - brahmasootrabhaashy, upanishad (eesh, ken, kath, prashn, mundak, maandooky, aitarey, taittireey, chhaandogy, brihadaaranyak, nrisinhapoorvataapaneey, shvetaashvatar aadi) - bhaashy, geetaabhaashy, vishnusahasranaamabhaashy, sanatsujaateeyabhaashy, hastaamalakabhaashy, lalitaatrishateebhaashy, vivekachoodaamani, prabodhasudhaakar, | upadeshasaahasree, aparokshaanubhooti, shatashlokee, dashashlokee, sarvavedaantasiddhaantasaarasangrah, vaakyasudha, pancheekaran, prapanchasaar, aatmabodh, maneeshaapanchak, aanandalaharee, vividh stotr ityaadi .
inaka siddhaant bhee bahut ooncha tha tatha adhikaaree purushonke hee samajhanekee cheej hai. sabhee deshonke daarshanikonne | usake saamane sir jhukaaya hai aur sabhee vichaarasheelonne | mukt kanthase usakee mahimaaka gaan kiya hai.