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संत श्रीनागा निरङ्कारीजी की मार्मिक कथा
संत श्रीनागा निरङ्कारीजी की अधबुत कहानी - Full Story of संत श्रीनागा निरङ्कारीजी (हिन्दी)

[भक्त चरित्र -भक्त कथा/कहानी - Full Story] [संत श्रीनागा निरङ्कारीजी]- भक्तमाल


संत श्रीनागा निरङ्कारीजी महाराजका जीवन चरित अलौकिक और चमत्कारपूर्ण सिद्धियों और घटनाओंका प्रतीक ही नहीं, तपस्या, योगसाधना, वैराग्य और संयमका सजीव साहित्य भी है। अभी कुछ ही वर्षों पहले उन्होंने कार्तिक शुक्ला चतुर्दशीको महासमाधि ली थी। यह कहना आसान नहीं है कि उनका जन्म विक्रमकी किस शताब्दीमें हुआ था। उनकी आयुका अनुमान लगाना बहुत कठिन है। उनकी वाणी और पदरचनाकी ऐतिहासिक समीक्षासे पताचलता है कि उन्होंने उस समय जन्म लिया था, जब भारतमें यावनीय प्रभुता अपने तीसरे पहरपर थी, गोरी सत्ताका प्रवेश नहीं हुआ था। वे पंजाब प्रान्तके अठीलपुरके राजाके घरमें पैदा हुए थे। बचपनसे ही साधु-संतोंमें उनकी प्रगाढ़ रुचि थी। वे बड़े अल्हड़ और मस्त रहा करते थे। भगवान्के आश्रयमें उनका उसी समयसे दृढ़ विश्वास था। वे कीमती-से-कीमती शाल, सोनेकी अँगूठी आदि सड़कों पर खेलते समय साधुओंको दे दिया करते थे।उनके पिता यवनोंसे लड़ते हुए एक युद्धमें मारे गये। नागाने राजमहल त्यागकर प्रकृतिकी रमणीय गोदमें, सरिताओंके तटपर, वनों और पहाड़ोंकी गुफाओंमें अलख जगाना आरम्भ किया। वे बड़ी श्रद्धा और भक्तिसे 'अलख निरञ्जन' कहा करते थे। धीरे-धीरे उनका मन नानकजीके तथा उनके उत्तराधिकारियों - रामदास, अमरदास, अंगद आदिके भक्ति सिद्धान्तकी ओर आकृष्ट हुआ। उन्होंने अपनी ब्रह्मवाणी में नानक आदिका बड़ी भक्तिसे स्मरण किया है और निःसन्देह उनके मतमें उनकी बड़ी आस्था और अचल निष्ठा भी थी।

नागाजी महाराज हठयोगी, राजयोगी और लययोगी - सब कुछ थे। वे परमहंस थे, अवधूत थे। पंजाब- भ्रमणके बाद उन्होंने उत्तर प्रदेशमें भगवती भागीरथी, कालिन्दी, सरयू तथा गोमती आदिके तटोंपर अलख जगाना आरम्भ किया, विशेषतया (कर्णपुर) कानपुरके आस-पासके जनपदोंमें उनके जीवनका अधिकांश बीता। कानपुर जनपदका पाली राज्य उनकी तपोभूमि है।

कभी-कभी मस्त होकर वे पद लिखाया करते थे; उनके पदोंसे पता चलता है कि वे लोक-लोकान्तर और जन्म-जन्मान्तरकी अनुभूतियोंके प्रतीक थे। शिवतत्त्वमेंनागा-निरङ्कारीकी पूर्ण पहुँच थी; ऐसा लगता है कि वे बाह्यज्ञानशून्य होकर कैलाशलोकमें भ्रमण किया करते थे! सिद्धियाँ उनके चरणोंपर नत रहती थीं। वे तिब्बत, नैपाल और चीन पैदल गये थे, चीनमें केवल एक दिन ठहरे थे। एक अंग्रेजके उद्यानमें विश्राम कर रहे थे कि वह आया, श्रद्धापूर्वक उसने चाय-पान कराया।

एक बार आप हरद्वारमें गङ्गाजीमें कूदकर अदृश्य हो गये थे, लोगोंने समझा जल समाधि ले ली; पर कुछ दिनोंके बाद अपनी तपोभूमि पालीमें दीख पड़े। वे पूरे अवधूत थे, छोटे-छोटे लड़कोंके साथ खेलते थे। लड़के उन्हें शीत, बरसात अथवा धूपमें जहाँ भी बैठा देते, वे तबतक बैठे रहते, जबतक कोई बालक उन्हें दूसरी जगह न ले जाता । असोथरके राजाने पागल समझकर उन्हें एक बार कमरेमें बंद करवा दिया था। उन्होंने 'अलख' शब्दका उच्चारण किया, राजाने उन्हें मुक्त कर दिया।

उन्होंने अपने पदोंमें भगवान् श्रीकृष्णके प्रति पूर्ण निष्ठा दिखायी है। उनकी ब्रह्मवाणी संत-साहित्यकी अद्भुत देन है। वे सत्य-खोजी थे। सं0 1993 वि0 में पालीमें उन्होंने समाधि ले ली। वहाँ कार्तिकमें बहुत बड़ा मेला लगता है।



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