माँ गंगाका स्मरण, दर्शन, स्तवन, मार्जन, स्नान सभी लाभकारी होते हैं, यह बात मेरे मनमें बालपनसे ही बैठ चुकी थी और उन सबके लिये मैं लालायित भी रहता हूँ। दृश्य-देवोंमें माँ गंगा भी हैं, उनके लाभ प्रायः प्रारम्भिक शिक्षामें आचार्योंद्वारा समझा दिये जाते हैं, परंतु तबतक मस्तिष्क उतना विकसित नहीं होता कि उन लाभोंको व्यावहारिक रूपसे भी जोड़ सके। माँ गंगाद्वारा एक विशेष लाभ मुझे मिला, जिसका वर्णनकर मैं स्वयंको पुनः धन्य समझता हूँवर्ष १९७३-७४ ई० में मैंने बी०एड० की पढ़ाई चाकघाट ( रींवा) -से पूरी की, वहाँ आने-जानेमें तीर्थनगरी प्रयागकी यात्रा भी हो जाती थी। बीच-बीचमें माँ गंगाके दर्शन एवं स्नानका भी सौभाग्य मिलता रहता था। एक दिन शामको मेरे तीन सहपाठी अचानक गंगास्नानका कार्यक्रम बना लाये कि अभी चलना है और प्रातः स्नानकर वापस आ जायँगे। मैंने भी प्रसन्नतापूर्वक सहमति दे दी और हम चारों रात ९ बजे इलाहाबाद पहुँच गये। सुबहतकका समय व्यतीत करनेकी बातआयी, तो मेरे साथी सिनेमा देखकर समय व्यतीत करना चाहते थे, इसके लिये मैंने सहमति नहीं दी। मैं बचपन से ही सिनेमा नहीं देखता, उसके बदले उन तीनोंका खर्चा मैं वहन करूँ, ये मैंने स्वीकार कर लिया। वे तीनों एक सिनेमा हॉलमें सिनेमा देखने चले गये और मुझे सौभाग्यवश एक लाउडस्पीकरपर भजनोंकी ध्वनि सुनायी पड़ी। मैं उसी दिशामें थोड़ा आगे गया तो एक मैदान में श्रीरामकथा चल रही थी। मुझे तो बड़ा अच्छा लगा। वहाँ नासिकसे पधारी एक बाल किशोरी (८-९ वर्षीया) बहुत ही रोचक ढंगसे श्रीरामकथाका रसास्वादन करा रही थीं। उनके दर्शनसे कौतूहल हुआ और उनकी मधुमयी वाणी हृदयको छूती सी लगी। न जाने कब रात्रिके साढ़े बारह बज गये, कथा समाप्त हो गयी, आरतीके उपरान्त मैं अपने साथियोंको ढूँढने वहीं सिनेमा हॉलपर गया तो वे तीनों मेरी प्रतीक्षा कर रहे थे। मैंने बताया कि संयोगसे मुझे तो श्रीरामकथा सुननेको मिली। उन्होंने भी श्रीरामकथाकी प्रशंसा की। यहाँसे हम चारों पैदल चलकर संगमतक पहुँचे। कार्तिकमासकी शुक्लपक्षकी चतुर्दशी तिथि, आसमान पूरी तरह स्वच्छ था और चन्द्रमा अपनी पूरी चाँदनी फैलानेको आतुर लग रहा था। दूर-दूरतक साफ दिखायी दे रहा था। संगमपर पहुँचे तो रात्रिका डेढ़ बज चुका था। गंगाका विस्तार दूरतक फैली धवल चाँदनी में बहुत ही आकर्षक लग रहा था। हलकी हलकी सर्दी थी। मेरे साथियोंने वहीं नर्म बालूपर एक चादर बिछा ली और सोनेकी तैयारी में लग गये, परंतु मैं सोना नहीं चाहता था। मेरी बहुत इच्छा थी कि प्रातः चार बजे स्नान करूँ, यदि सो गया तो सम्भव है कि चार बजे आँख न खुले। अतः मैंने साथियोंसे कह दिया कि आप लोग सो जायें, परंतु मैं स्वयं जगता रहा। कुछ देर बाद मुझे आलस्यका अनुभव हुआ तो मैंने किनारे-किनारे टहलना शुरू कर दिया। वहाँ बहुत सारी नावें साथ-साथ खड़ी थीं। प्रायः सभी लोग सोये हुए थे, परंतु एक नावपर मुझे माचिसकी तीली जलनेका आभास हुआ तो मैं उसी नावके पास चला गया। वह नाविक बीड़ी सुलगाकर बैठा था। मुझेपासमें खड़े देखकर वह उठ आया और बोला, 'बाबू! घुमा देई ?' मैंने मना कर दिया कि एक तो अनजान व्यक्ति, फिर रातका समय। मैंने सुना था कि कुछ नाविक लोग व्यक्तिको गंगाकै बीचमें ले जाकर मनमाने पैसे वसूलते हैं या लूट भी लेते हैं। मैंने बता दिया कि मैं तो ऐसे ही बात करने आ गया हूँ, परिचयमें मैंने बताया कि हम गाजियाबाद के रहनेवाले हैं और यहाँ चाकघाटमें पढ़ाई कर रहे हैं। वह न जाने क्यों इतना प्रभावित हुआ कि उसने अपनी नाव खोल दी और बोला, 'बाबू! बैठिये।' मैंने फिर मना कर दिया वह बोला 'आप आइये घर चलते हैं। मैं उसके आग्रहको न टाल सका और रातमें ही नावमें सवार हो गया। नाव चलते ही जो आनन्दानुभूति हुई, उसे शब्दोंमें उतारना कठिन है। लगभग आधा घण्टे बाद हम गंगाका विशाल घाट पार करके नाविक बस्तीमें पहुँच गये। वहाँ भी लोग सोये हुए थे, हमें देखकर कुछ कुत्ते अवश्य भाँके। उसने बाड़ेनुमा एक परिसरमें प्रवेश किया, मैं भी साथ-साथ रहा, झुग्गी में उसकी वृद्धा माँ रजाई ओढ़कर बैठी थी, एक ओर कुछ बच्चे रजाई में दुबके सो रहे थे। मैं माँको अभिवादनकर एक चारपाईपर बैठ गया। वृद्धा मुझे आश्चर्यसे देख रही थी। नाविकने अपनी माँसे कुछ खानेके बारे में पूछा, मैंने अनुमानसे ही मना कर दिया। फिर भी वह अपने हिस्सेका दूध और छोटे बताशे लेकर आया। मेरे बहुत मना करनेपर भी वह नहीं माना। मैंने थोड़ा-सा दूध और बताशा ले लिया। मैं मन-ही-मन डर रहा था कि न जाने वहाँ जाकर कितने पैसे बतलायेगा ? मन बड़ा पापी है कि बुरेकी ही कल्पना करता है। घरसे उन माँको प्रणाम करके हम वापस आ गये। जब बीच गंगामें जहाँ अथाह जलराशि थी तो नाव ऊपर-नीचे होती थी, वे हिचकोले हृदयको भी आनन्दित / प्रभावित करते थे। इस बार हमें लगभग एक घण्टा लगा। संगमतटपर आकर मैंने संकोचवश पूछ ही लिया, 'भइया! कितने पैसे दें ?' उसने हाथ जोड़ दिये और कहा कि 'हमने भाड़ेके लिये थौरउ ये सब किया। ' मेरे आग्रहके बाद भी उसने कुछ नहीं लिया, मैं तो आभारसेदब-सा गया। मैंने उस भले इंसानसे विदा ली और अपने साथियोंके पास पहुँच गया, वे सोये हुए पड़े थे।
प्रातः काल के लगभग चार बज रहे थे, कुछ लोगोंने स्नान शुरू कर दिया था। मैं भी कपड़े उतारकर जगह तलाश रहा था कि कहाँ स्नान करना ठीक रहेगा। मेरा मन था कि ठीक संगमपर ही स्नान करूँ। तभी सामने एक लम्बी जटाओंवाले, कृशकाय वृद्ध स्नान करते दिखायी पड़े। मेरा भी साहस बढ़ा और मैं उनकी ओर बढ़ा। तभी वे बोल उठे, 'स्नान करना चाहते हो ?" मैंने उत्सुकतावश कहा, "हाँ" बाबा!' वे तबतक गंगासे बाहर आ गये थे। उन्होंने मुझे एक टेढ़ा-मेढ़ा डण्डा पकड़ा दिया और बोले- 'इसे पकड़े रहना, यहाँ गड्ढे बहुत हैं।' डण्डेका एक सिरा वे स्वयं पकड़े रहे और दूसरा सिरा पकड़कर मैं 'हर-हर गंगे' कहता हुआ निर्भय होकर ठीक संगममें गोते लगाने लगा। स्नानके बाद मैं बाहर आया और सोचा कि कपड़े बदलकर बाबाका धन्यवाद भी करूँगा, परंतु बाबा वहाँ थे ही नहीं; आसपास भी मैंने दृष्टि दौड़ायी, परंतु कहींतक भी मुझे उन महानुभावके दर्शन नहीं हुए। मैं तो आश्चर्यचकितथा कि बाबा कौन थे? कहाँ चले गये ?
संगमपर भीड़ बढ़ने लगी थी, मेरे साथी भी जाग चुके थे। मैंने उन्हें अपनी दोनों बातें बतायीं। वहीं अन्य लोगों को भी बताया तो एक पण्डाजीने बताया कि 'ब्राह्म मुहूर्तमें बहुत-से संत एवं अदृश्य आत्मा स्नान करने आते हैं, सम्भव है किसी पुण्य प्रतापसे कोई ऋषिसत्ता आपको स्नान करा गयी हो।' मैं तो इसे माँ गंगाका ही पुण्य प्रताप मानता हूँ कि उनकी गोदमें ही मैं अथाह जलपर विचरण कर आया। एकदम अनजान जगहका प्रसाद भी ले पाया और अन्तमें किसी ऋषिका सहारा भी प्राप्त कर पाया। तबसे लेकर आजतक भी मैं उस घटनाक्रमको न भूला हूँ और न भुलाना चाहता हूँ, न जाने नाविकके वेषमें मुझे कौन मिले थे, जिन्होंने मुझे विकट स्थितियोंमें भी दो बार गंगा पार करायी, कोई पारिश्रमिक भी नहीं लिया और जिस ऋषिसत्ताने मुझे सुरक्षित स्नान कराया, वे कौन थे? मैं तो उनका धन्यवाद या अभिवादनतक भी न कर पाया। मेरे विचारसे तो ये सब गंगामैयाकी कृपा ही है। जय माँ गंगे !!
[ श्रीनरेन्द्रकुमारजी शर्मा ]
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sangamapar bheeda़ badha़ne lagee thee, mere saathee bhee jaag chuke the. mainne unhen apanee donon baaten bataayeen. vaheen any logon ko bhee bataaya to ek pandaajeene bataaya ki 'braahm muhoortamen bahuta-se sant evan adrishy aatma snaan karane aate hain, sambhav hai kisee puny prataapase koee rishisatta aapako snaan kara gayee ho.' main to ise maan gangaaka hee puny prataap maanata hoon ki unakee godamen hee main athaah jalapar vicharan kar aayaa. ekadam anajaan jagahaka prasaad bhee le paaya aur antamen kisee rishika sahaara bhee praapt kar paayaa. tabase lekar aajatak bhee main us ghatanaakramako n bhoola hoon aur n bhulaana chaahata hoon, n jaane naavikake veshamen mujhe kaun mile the, jinhonne mujhe vikat sthitiyonmen bhee do baar ganga paar karaayee, koee paarishramik bhee naheen liya aur jis rishisattaane mujhe surakshit snaan karaaya, ve kaun the? main to unaka dhanyavaad ya abhivaadanatak bhee n kar paayaa. mere vichaarase to ye sab gangaamaiyaakee kripa hee hai. jay maan gange !!
[ shreenarendrakumaarajee sharma ]