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तिरुपति-धाममें कृपानुभूति

अनन्याश्चिन्तयन्तो मां ये जनाः पर्युपासते

तेषां नित्याभियुक्तानां योगक्षेमं वहाम्यहम् ॥

(श्रीमद्भगवद्गीता ९ २२)

कर सदा तिन्ह के रखवारी। जिमि बालक राखड़ महतारी ॥

(रा०च०मा० ३।४३।५)

उन कृपासिन्धुकी विलक्षण कृपाके जितने भी साक्ष्य लिखे जायँ, उतने कम ही हैं। कहा भी तो गया है हरि अनंत हरि कथा अनंता।' मनुष्य जन्म मिलनेसे अधिक उन दयासागरकी और क्या कृपा होगी। मुझे बाल्यकालसे ही तीर्थोंका भ्रमण और साधु-सन्तोंके दर्शन करनेकी अत्यधिक लालसा रहती थी। मेरे जीवनपर मेरी दादीका बहुत प्रभाव रहा है। जिस आयुमें बच्चे उछलकूद करते हैं, उस आयुमें मेरी दादी मुझसे भागवत महापुराण पढ़कर सुनानेको कहती थीं और मैं सहर्ष ऐसा करता था। उनका ध्येय केवल इतना ही था कि पोता भगवान्‌के समीप आये तो भगवान् भी पोतेके समीप आयेंगे। खैर, कथाको आगे बढ़ाता हूँ। भारतमें तीन तीर्थ हैं, जिन्हें अतिशय ब्रह्मगौरव प्राप्त है। वे हैं— श्रीक्षेत्र पंढरपुर (नादब्रह्म क्षेत्र), उडुपी श्रीकृष्ण मठ (अन्नब्रह्म क्षेत्र) तथा तिरुपति (कंचनब्रह्म क्षेत्र) ईश्वरकी कृपासे मैंने जब भी किसी तीर्थको जानेका मन बनाया तो मेरे माता-पिताने कभी भी मुझे मना नहीं किया और वे सहर्ष मुझे अनुमति दे देते थे। प्रभुकी कृपासे मैंने कुछ अन्य तीर्थोंके साथ-साथ इन तीन ब्रह्मक्षेत्रोंका भी दर्शन कर लिया है। आनन्दकी बात यह है कि इन तीनों ही ब्रह्मक्षेत्रोंमें भगवान्ने किसी-न किसी रूपमें मेरी सहायता की या दर्शन दिये। कम-से कम मेरा तो यही मानना है।

परंतु जो घटना तिरुपति श्रीव्यंकटेश्वरके दर्शनके समय हुई, उसे मैं जीवनभर नहीं भूल सकता। ये बात है फाल्गुन शुक्ल १३, सम्वत् २०६७ की। होलीकी छुट्टीके कारण मैंने श्रीतिरुपति दर्शनका निश्चय किया और बँगलोर में अपने भाईसे कहकर कार्यक्रम बना लिया। किसी कारण वे लोग तो नहीं जा पाये; पर हम तिरुपति पहुँच गये। अब मैं, मेरी धर्मपत्नी एवं मेरा दो वर्षीय पुत्र (जो मेरे कन्धेपर सो रहा था), दर्शन - दीर्घामें खड़े-खड़े अपनी बारीकी प्रतीक्षा कर रहे थे। हमने ऑनलाइन दर्शन बुकिंग करवा रखी थी, परंतु लगभग २ घंटे व्यतीत हो चुके थे और अभी भी ये पता नहीं लग पा रहा था कि दर्शन कितनी देर बाद होगा। हमारे आस-पास जितने भी दर्शनार्थी थे, वे सभी दक्षिण भारतीय थे और हिंदी नहीं समझ पा रहे थे। मैंने अंग्रेजीमें भी कुछ पूछना चाहा तो वह भी काम न आयी। इधर मेरा पुत्र नींदसे जाग चुका था और बेचैन होने लगा। हम भी अब हताश होते जा रहे थे। मेरी पत्नीने मुझे धीरज बँधाया कि अब तो दर्शन करके ही जायँगे। जैसे तैसे हम आगे बढ़ते और फिर रुक जाते। भीड़ भी काफी थी; क्योंकि शुक्रवार था। अबतक मेरे हाथों और कन्धेमें भी काफी दर्द होने लगा था, तभी एक हाथ मेरे कन्धेको स्पर्श करता है और मैं क्या देखता हूँ कि एक व्यक्ति जिनके बाल सफेद हैं, आँखोंपर सुनहरा चश्मा है और भालपर वैष्णव ऊर्ध्वपुण्ड्र लगा हुआ है, मेरी ही तरफ देख रहे हैं। वे बोले, 'कहाँसे हो?' मैंने कहा, 'जी! दिल्लीसे और आप ?' वे बोले, 'मैं जयपुरसे हूँ।' हर महीने पूर्णिमाके आस-पास दर्शन करने आता हूँ। फिर बोले, 'पहली बार आये हो क्या ?' मैंने हाँ में सिर हिला दिया। वे अबतक मेरी असमंजसकी स्थिति समझ चुके थे। तब वे बोले, 'चिन्ता न करो। मैं यहाँका चप्पा-चप्पा जानता हूँ। जैसे-जैसे मैं बताऊँ, वैसे-वैसे मेरे साथ आते रहना। दर्शन सुलभतासे हो जायँगे।' हमने भी उनका अनुसरण करना शुरू कर दिया और वाकई लगभग १० मिनटके बाद हम लोग महाद्वारके अन्दर प्रविष्ट हो गये। फिर तो हम मन्दिरकी भव्यता निहारते-निहारते अपना कष्ट ही भूल गये। वे आगे-आगे और हम पीछे-पीछे। ऐसा करते हुए हम कुछ ही क्षणोंमें बंगारु वकीली अर्थात् गर्भगृहके सामने स्वर्ण चौखटपर थे। सारा वातावरण 'गोविन्दा गोविन्दा' के घोषसे गुंजायमान हो गया। हमने भी श्रीवेंकटरमणके स्वरूपके दर्शन किये और अपने भाग्यको सराहा। समय तो सीमित ही मिलता है, सो हम बाहर आ गये। बाहर आकर मेरी पत्नीने मुझसे कहा कि हरिदर्शनके उपरान्त माता-पिताके चरण अवश्य छूने चाहिये, पर वे तो यहाँ हैं नहीं, सो यहाँ उन जयपुरवाले महानुभावकी ही चरण-वन्दना कर लेते हैं। मैंने भी अनुमोदन किया और उन्हें देखने लगा, परंतु वे कहीं नहीं दिखे। मेरे नयनोंसे अश्रुधार निकल पड़ी और मुझे उनका कहा याद आ गया
कि, 'चिन्ता न करो। मैं यहाँका चप्पा-चप्पा जानता हूँ।' अबतक श्रीहरिकी लीला हम पति-पत्नीकी समझमें आ चुकी थी।
'नाना भाँति राम अवतारा।'

[ श्रीशैलेश शशिमोहनजी सिंघल ]



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(shreemadbhagavadgeeta 9 22)

kar sada tinh ke rakhavaaree. jimi baalak raakhada़ mahataaree ..

(raa0cha0maa0 3.43.5)

un kripaasindhukee vilakshan kripaake jitane bhee saakshy likhe jaayan, utane kam hee hain. kaha bhee to gaya hai hari anant hari katha anantaa.' manushy janm milanese adhik un dayaasaagarakee aur kya kripa hogee. mujhe baalyakaalase hee teerthonka bhraman aur saadhu-santonke darshan karanekee atyadhik laalasa rahatee thee. mere jeevanapar meree daadeeka bahut prabhaav raha hai. jis aayumen bachche uchhalakood karate hain, us aayumen meree daadee mujhase bhaagavat mahaapuraan padha़kar sunaaneko kahatee theen aur main saharsh aisa karata thaa. unaka dhyey keval itana hee tha ki pota bhagavaan‌ke sameep aaye to bhagavaan bhee poteke sameep aayenge. khair, kathaako aage badha़aata hoon. bhaaratamen teen teerth hain, jinhen atishay brahmagaurav praapt hai. ve hain— shreekshetr pandharapur (naadabrahm kshetra), udupee shreekrishn math (annabrahm kshetra) tatha tirupati (kanchanabrahm kshetra) eeshvarakee kripaase mainne jab bhee kisee teerthako jaaneka man banaaya to mere maataa-pitaane kabhee bhee mujhe mana naheen kiya aur ve saharsh mujhe anumati de dete the. prabhukee kripaase mainne kuchh any teerthonke saatha-saath in teen brahmakshetronka bhee darshan kar liya hai. aanandakee baat yah hai ki in teenon hee brahmakshetronmen bhagavaanne kisee-n kisee roopamen meree sahaayata kee ya darshan diye. kama-se kam mera to yahee maanana hai.

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ki, 'chinta n karo. main yahaanka chappaa-chappa jaanata hoon.' abatak shreeharikee leela ham pati-patneekee samajhamen a chukee thee.
'naana bhaanti raam avataaraa.'

[ shreeshailesh shashimohanajee singhal ]

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चरन हो राघव के,जहा मेरा ठिकाना हो
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