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महर्षि विश्वामित्रपर पवित्र नदियोंकी कृपा

महर्षि विश्वामित्र पिजवनके पुत्र सुदासके पुरोहित थे। एक बार सुदासने विश्वामित्रके पौरोहित्य में बहुत बड़ा यज्ञ कराया। यज्ञ निर्विघ्न समाप्त हो गया। दक्षिणाके रूपमें विश्वामित्रको बहुत सा धन प्राप्त हुआ। महर्षि विश्वामित्र उस धनको छकड़ेपर और रथपर लादकर अपने आश्रमपर लौट रहे थे। रास्तेमें व्यास (विपाशा) और सतलज (शतद्रु) का संगम पड़ा। नदियाँ अगाध थीं और वेगसे बह रही थीं। रथसे उनको पार नहीं किया जा सकता था।

महर्षि विश्वामित्र अकेले न थे। उनके साथ अन्य लोग भी थे। दूरसे आ रहे थे। थकानसे चूर-चूर हो रहे थे। अतः महर्षिने नदियोंसे मार्ग माँगना ही उचित समझा। उन्होंने प्रार्थना करते हुए कहा- 'हे शतद्रु और विपाशे ! तुम दोनों मातासे भी बढ़कर ममतामयी हो। हम तुम्हारे पास आये हैं'– सिन्धुं मातृतमाम्० (ऋक्० ३ । ३३।३) ।

महर्षि विश्वामित्रकी पुकार सुनकर दोनों नदियाँ विचार करने लगीं। यह विप्र क्या यह चाह रहा है कि हम इसे मार्ग दे दें। महर्षिकी माँगकी पूर्ति तो हमें करनी ही चाहिये, किंतु इसमें अड़चन यह है कि हम दोनोंको देवराज इन्द्रने जो यह आदेश दे रखा है कि हम दोनों वेगसे बहती हुई परिसर प्रदेशको निरन्तर सिंचित करती रहें, इसमें त्रुटि हो सकती है (ऋक्०३ । ३३ । ४) ।

नदियोंको चुप देखकर महर्षिने फिर विनती की— 'हे जलसे लबालब भरी हुई नदियो! मैं यह नहीं कह रहा हूँ कि तुम अपने प्रबल वेगको बिलकुल रोक ही लो। मैं तो केवल यह कह रहा हूँ कि तुम अपने-अपने जलको इतना कम कर लो कि मैं रथ, छकड़े और लोगोंके साथ पार उतर जाऊँ। फिर जैसी-की-तैसी हो जाओ। दूसरी बात यह है कि पार हो जानेके बाद यज्ञमेंहम तुम्हें सोमरस प्रदान करेंगे' (ऋक्० ३ । ३३ । ५) । नदियोंने कहा- 'महर्षे! हम दोनों देवराज इन्द्रकी आज्ञाके पालनमें कभी चूक नहीं होने देतीं, क्योंकि उन्होंने वज्रसे खोदकर हमें जन्म दिया है, मेघके द्वारा हमें जीवन दिया है और अपने कल्याणकारी हाथोंसे सहारा देते हुए हमको समुद्रतक पहुँचाया है तथा उसीके हाथमें हमें सौंप दिया है। इस तरह हम दोनों उनकी सदा ऋणी हैं। अतः उन्हींकी आज्ञाका पालन करती हैं' (ऋक्० ३ | ३६ | ६) ।

इस तरह नदियोंने पहले तो महर्षि विश्वामित्रका प्रत्याख्यान कर दिया, किंतु फिर उन्होंने उनकी माँगको स्वीकार कर लिया। नदियोंने कहा- 'महर्षे! जैसे ममतामयी माताएँ अपने बच्चेको दूध पिलानेके लिये झुक जाती हैं, वैसे ही हम भी तुम्हारे लिये कम जलवाली हो जाती हैं। जल इतना कम कर दे रही हैं कि तुम्हारे रथके धुरे ऊपर रहें, तुम दूरसे आये हो, थक भी गये हो, इसलिये छकड़े और रथ आदिके साथ पार हो जाओ' (ऋक्० ३ । ३३ । १०) ।

इस तरह महर्षि विश्वामित्रने उन दोनों नदियोंको जो 'मातृतमाम्' कहा था। उसे नदियोंने चरितार्थ कर दिखाया और अपनी वत्सलताका परिचय दिया।

आजके जड़वादी युगको विश्वामित्र तथा नदियोंका यह संवाद खटकता है और इसका दूसरा अर्थ किया जाता है।

किंतु सत्य तो सत्य ही रहता है और सत्य यह है कि यह दो चेतनोंका संवाद है, जैसे- विश्वामित्रका [ शरीर जड़ है और उसमें चेतनका आवास है, वैसे नदियोंकि जलीय शरीर तो जड़ हैं, किंतु उनकी अधिष्ठात्रीदेवी चेतन हैं। [ संकलित ]



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maharshi vishvaamitrapar pavitr nadiyonkee kripaa

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is tarah maharshi vishvaamitrane un donon nadiyonko jo 'maatritamaam' kaha thaa. use nadiyonne charitaarth kar dikhaaya aur apanee vatsalataaka parichay diyaa.

aajake jada़vaadee yugako vishvaamitr tatha nadiyonka yah sanvaad khatakata hai aur isaka doosara arth kiya jaata hai.

kintu saty to saty hee rahata hai aur saty yah hai ki yah do chetanonka sanvaad hai, jaise- vishvaamitraka [ shareer jada़ hai aur usamen chetanaka aavaas hai, vaise nadiyonki jaleey shareer to jada़ hain, kintu unakee adhishthaatreedevee chetan hain. [ sankalit ]

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